स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित (1 जुलाई, 1895)

(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)

अमेरिका,
१ जुलाई १८९५

प्रिय आलासिंगा,

तुम्हारी भेजी हुई मिशनरियों की पुस्तक के साथ रामनाड़ के राजा साहब का फोटो मुझे मिला। राजा साहब तथा मैसूर के दीवान साहब, इन दोनों को ही मैंने पत्र लिखा है। रमाबाई के दल के लोगों के साथ डॉ० जेन्स के वाद-विवाद से यह स्पष्ट है कि मिशनरियों की उक्त पुस्तक बहुत दिन पहले ही यहाँ आ पहुँची है। उस पुस्तक में एक बात असत्य है। मैंने इस देश में किसी बड़े होटल में कभी भोजन नहीं किया है, साथ ही मैं होटल में रहा भी बहुत ही कम हूँ। चूँकि ‘बाल्टिमोर’ के छोटे होटलवाले अज्ञ हैं – नीग्रो समझकर किसी काले आदमी को वे स्थान नहीं देते, इसलिए डॉ० ब्रूमन को – जिनका कि मैं अतिथि था – मुझे वहाँ के एक बड़े होटल में ले जाने को बाध्य होना पड़ा था; क्योंकि इन लोगों को नीग्रो तथा विदेशियों का भेद मालूम है। आलासिंगा, मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ कि तुम लोगों को स्वयं अपनी रक्षा करनी है, दुधमुँहे बच्चों की तरह तुम क्यों आचरण कर रहे हो? यदि कोई तुम्हारे धर्म पर आक्रमण करता है, तुम उससे क्यों नहीं अपने धर्म-समर्थन द्वारा बचाव करते? जहाँ तक मेरा प्रश्न है, तुम्हें डरने की कोई आवश्यकता नहीं है; यहाँ पर शत्रुओं की अपेक्षा मेरे मित्रों की संख्या कहीं अधिक है। यहाँ के निवासियों में ईसाइयों की संख्या एक-तिहाई है और शिक्षित व्यक्तियों में से मात्र थोड़े व्यक्ति मिशनरियों की परवाह करते हैं। दूसरी तरफ बात और है कि मिशनरी लोग जिस विषय का विरोध करते हैं, मिशनरियों के विरूद्ध होने की बात से शिक्षित लोग इसे पसन्द करते हैं। मिशनरियों का प्रभाव अब यहाँ काफी घट चुका है तथा दिनोंदिन और भी घटता जा रहा है। हिन्दू धर्म पर उनके आक्रमण यदि तुम्हें चोट पहुँचाते हैं, तो चिड़चिड़े बच्चों की तरह क्यों तुम मेरे पास अपना रोना रोते हो? क्या तुम उसका जवाब नहीं दे सकते तथा उनके धर्म के दोषों को नहीं दिखला सकते? कायरता तो कोई धर्म नहीं है!

यहाँ पहले से ही मेरे अनुगामी हैं। आगामी वर्ष उनका संगठन कार्य-संचालन के आधार पर करूँगा। और मेरे भारत चले जाने पर भी यहाँ मेरे ऐसे अनेक मित्र रहेंगे, जो कि यहाँ पर मेरे सहायक होंगे तथा भारत में भी मेरी सहायता करते रहेंगे; अतः तुम्हारे लिए डरने की कोई बात नहीं है। किन्तु जब तक तुम लोग मिशनरियों द्वारा किये गये आक्रमण का कोई प्रतिकार न कर केवल मात्र चिल्लाते तथा कूदते रहोगे, तब तक मैं तुम्हारे कृत्यों को देखकर हँसता रहूँगा। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम लोग तो मानो बच्चों के हाथ के खिलोने हो, हाँ, खिलौने हो। ‘स्वामी जी, मिशनरी लोग हमें काट रहे हैं, उफ, बड़ी जलन है, क्या करना चाहिए।’ स्वामी जी, आख़िर बूढ़े बच्चों के लिए कर ही क्या सकते हैं?

वत्स, मैं तो यह समझता हूँ कि वहाँ जाकर मुझे तुम लोगों को मनुष्य बनाना होगा। मैं यह जानता हूँ कि भारत में केवल मात्र नपुंसक तथा नारियों का निवास है। इसमें उद्विग्न होने की कोई बात नहीं है। भारत में कार्य करने के लिए मुझे साधन जुटाने की भी व्यवस्था करनी होगी। दुर्बलमस्तिष्क तथा अयोग्य व्यक्तियों के हाथों में मैं नहीं पड़ना चाहता हूँ।

तुम लोगों को घबड़ाना नहीं चाहिए, जितना सम्भव हो, कार्य करते रहो, चाहे वह कितना भी कम क्यों न हो। मुझे अकेला ही आद्योपान्त सब कुछ करना है। कलकत्ते के लोग इतने संकुचित मनोवृत्ति के हैं! और तुम मद्रासी लोग इतने डरपोक हो कि कुत्ते की आवाज से भी चौंक उठते हो!! ‘कायर लोग इस आत्म-तत्त्व को प्राप्त नहीं कर सकते।’ मेरे लिए तुम्हें डरना नहीं चाहिए, प्रभु मेरे साथ हैं। तुम लोग केवल मात्र अपनी ही रक्षा करते रहो और मुझे यह दिखलाओ कि तुम इस कार्य को कर सकते हो, तभी मुझे सन्तोष होगा। कौन मेरे बारे में क्या कह रहा है, इस विषय को लेकर मुझे तंग न करो। किसी मूर्ख की मेरी समालोचना सुनने के लिए मेरे पास समय नहीं है। तुम बच्चे हो, तुम्हें क्या पता है कि असीम धैर्य, महान् साहस तथा कठोर प्रयत्न से ही उत्कृष्ट फल की प्राप्ति हुआ करती है। किडी की अन्तरात्मा जिस प्रकार समय समय पर पल्टा खाने में अभ्यस्त है, मुझे शंका है कि उसके फलस्वरूप उसके भावों का भी परिवर्तन हो रहा है। जरा बाहर निकलकर वह कलम क्यों नहीं पकड़ता? ‘स्वामी जी, स्वामी जी’, की रट न लगाकर क्या मद्रासी लोग उन दुष्टों के विरूद्ध संग्राम की घोषणा नहीं कर सकते, जिससे कि उन्हें दयाप्रार्थी बनकर ‘त्राहि, त्राहि’ की आवाज लगानी पड़े? तुम्हें डर किस बात का है? केवल साहसी व्यक्ति ही महान् कार्यों को कर सकते हैं – कायर व्यक्ति नहीं। अविश्वासियों, सदा के लिए यह जान रखना कि प्रभु मेरा हाथ पकड़े हुए है। जब तक मैं पवित्र तथा उसका दास बना रहूँगा, तब तक कोई भी मेरा बाल बाँका न कर सकेगा।

तुम लोग जल्दी ही पत्रिका प्रकाशित कर डालो। जैसे भी हो, मैं बहुत शीघ्र ही तुम लोगों को और रुपये भेज रहा हूँ तथा बीच बीच में भेजता रहूँगा। कार्य करते चलो! अपनी जाति के लिए कुछ करो – इससे वे लोग तुम्हारी सहायता करेंगे। पहले मिशनरियों के विरूद्ध चाबुक लेकर उनकी ख़बर लो। तब समग्र जाति तुम्हारे साथ होगी। साहसी बनो, साहसी बनो – मनुष्य सिर्फ़ एक बार ही मरा करता है। मेरे शिष्य कभी भी किसी भी प्रकार से कायर न बनें।

सदा प्रीतिबद्ध,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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