स्वामी विवेकानंद के पत्र – मैसूर के महाराज को लिखित (23 जून, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का मैसूर के महाराज को लिखा गया पत्र)
शिकागो,
२३ जून, १८९४
महाराज,
श्री नारायण आपका और आपके कुटुम्ब का मंगल करें। आपकी उदार सहायता से ही मेरा इस देश में आना सम्भव हो सका। यहाँ आने के बाद से यहाँ के लोग मुझे खूब जान गये हैं और इस देश के अतिथिपरायण अधिवासियों ने मेरे सब अभाव दूर कर दिये हैं। यह एक अद्भुत देश है और यह जाति भी कई बातों में एक अद्भुत जाति है। कोई और जाति अपने दैनन्दिन जीवन में इतने कलपुर्जों का व्यवहार नहीं करती, जितने कि यहाँ के लोग। यहाँ सब कुछ ही मशीन है। फिर देखिए, ये लोग सारे संसार की जनसंख्या के पाँच प्रतिशत मात्र हैं। फिर भी संसार के कुल सम्पद के पूरे षष्ठांश के ये मालिक हैं। इनके धन सम्पद तथा विलास की सामग्रियों का कोई ठिकाना नहीं है। फिर भी यहाँ सभी चीजें बहुत महँगी हैं। मजदूरों की मजदूरी यहाँ दुनिया में सब जगहों से ज्यादा है, पर मजदूरों और पूँजीपतियों के बीच झगड़ा सदा ही चलता रहता है।
अमेरिका की महिलाओं को जितने अधिकार प्राप्त हैं, उतने दुनिया भर में और कहीं की महिलाओं को नहीं। धीरे-धीरे वे सब कुछ अपने अधिकार में करती जा रही हैं, और आश्चर्य की बात तो यह है कि शिक्षित पुरुषों की अपेक्षा यहाँ शिक्षित स्त्रियों की संख्या कहीं अधिक है। हाँ, उच्चतर प्रतिभाओं में अधिकांश पुरुष ही हैं। पाश्चात्यवासी हमारे जाति-भेद की चाहे जितनी कड़ी समालोचना करें, पर उनके भी बीच एक ऐसा जाति भेद है, जो हमारे यहाँ से भी बुरा है – और वह है, अर्थगत जाति-भेद। अमेरिका निवासियों के अनुसार सर्वशक्तिमान डालर यहाँ सब कुछ कर सकता है।
संसार के अन्य किसी देश में इतने कानून नहीं हैं, जितने कि यहाँ। पर यहाँ उनकी जितनी कम परवाह की जाती है, उतनी अन्य किसी भी देश में नहीं। सब ओर से देखने पर हमारे गरीब हिन्दू लोग किसी भी पाश्चात्य देशवासी से लाखों गुने अधिक नैतिक हैं। धर्म के विषय में यहाँ के लोग या तो कपटी होते हैं या मतान्ध। विचारशील लोग अपने कुसंस्कारपूर्ण धर्मों से ऊब गये हैं और नये प्रकाश के लिए भारत की ओर देख रहे हैं। महाराज, आप स्वयं इस बात को बिना प्रत्यक्ष किये नहीं समझ पायेंगे कि आधुनिक विज्ञान के प्रचण्ड आक्रमणों के सम्मुख अप्रतिहत रहकर उसका प्रतिरोध करने वाले पवित्र वेदराशियों के उदार विचारसमूहों के किञ्चित्मात्र अंश को ये लोग किस आग्रह के साथ ग्रहण करते हैं। शून्य से सृष्टि का होना, आत्मा का एक सृष्ट पदार्थ होना, स्वर्ग नामक स्थान में सिंहासन पर बैठे हुए एक अत्याचारी ईश्वर तथा अनन्त नरकाग्नि का होना – ये सब जो इन लोगों के मत हैं, उनसे सभी शिक्षित लोगों का जी ऊब गया है और सृष्टि और आत्मा के अनादित्य तथा परमात्मा की हमारी अपनी आत्मा में अवस्थिति सम्बन्धी वेदों के उदात्त भावों को वे शीघ्र ही किसी न किसी रूप में ग्रहण कर रहे हैं। पचास वर्ष के भीतर ही संसार के सभी शिक्षित लोग आत्मा और सृष्टि, दोनों के अनादित्व पर विश्वास करने लगेंगे और ईश्वर को हमारा ही उच्चतम और सम्पूर्ण रूप मानने लगेंगे, जैसा कि हमारे पवित्र वेदों की शिक्षा है। अभी से ही उनके विद्वान् पादरियों ने बाइबिल की उस प्रकार की व्याख्या करनी आरम्भ कर दी है। मेरा निष्कर्ष यह है कि उन्हें और भी धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता है और हमें और भी अधिक ऐहिक एवं भौतिक शिक्षा की।
भारतवर्ष के सभी अनर्थों की जड़ है – गरीबों की दुर्दशा। पाश्चात्य देशों के गरीब तो निरे दानव हैं, उनकी तुलना में हमारे यहाँ के गरीब देवता हैं। इसीलिए हमारे गरीबों की उन्नति करना सहज है। अपने निम्न वर्ग के लोगों के प्रति हमारा एकमात्र कर्त्तव्य है – उनको शिक्षा देना, उनमें उनकी खोई हुई जातीय विशिष्टता का विकास करना। हमारे जनसाधारण और देशी राजाओं के सम्मुख यही एक बहुत बड़ा काम पड़ा हुआ है। अब तक इस दिशा में कुछ भी काम नहीं हुआ। पुरोहितों की शक्ति और विदेशी विजेतागण सदियों से उन्हें कुचलते रहे हैं, जिसके फलस्वरूप भारत के गरीब बेचारे भूल गये हैं कि वे भी मनुष्य हैं। उनमें तरह-तरह के विचार पैदा करने होंगे। उनके चारों ओर दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है, इस सम्बन्ध में उनकी आँखें खोल देनी होंगी; इसके बाद फिर वे अपना उद्धार अपने आप कर लेंगे। प्रत्येक जाति, प्रत्येक पुरुष और प्रत्येक स्त्री को अपना उद्धार अपने आप ही करना पड़ेगा। उनमें विचार उत्पन्न कर दो – उन्हें उसी एक सहायता की जरूरत है, इसके फलस्वरूप बाकी सब कुछ आप ही हो जायेगा। हमें केवल रासायनिक पदार्थों को इकट्ठा भर कर देना है, रवा बंध जाना तो प्राकृतिक नियमों से ही साधित होगा। हमारा कर्तव्य है, उनके दिमागों में विचार भर देना – बाकी वे स्वयं कर लेंगे। भारत में बस यही करना है। बहुत समय से यह विचार मेरे मन में काम कर रहा है। भारत में इसे मैं कार्य रूप में परिणत न कर सका, और यही कारण था कि मैं इस देश में आया। गरीबों को शिक्षा देने में मुख्य बाधा यह है – मान लीजिए महाराज, आपने हर एक गाँव में एक निःशुल्क पाठशाला खोल दी, तो भी इससे कुछ काम न होगा, क्योंकि भारत में गरीबी ऐसी है कि गरीब लड़के पाठशाला में आने के बजाय खेतों में अपने माता-पिता को मदद देने या किसी दूसरे उपाय से रोटी कमाने जायेंगे। इसलिए अगर पहाड़ मुहम्मद के पास न आये, तो मुहम्मद को ही पहाड़ के पास जाना पड़ेगा। अगर गरीब लड़का शिक्षा ग्रहण करने के लिए न आ सके, तो शिक्षा को ही उसके पास जाना पड़ेगा।
हमारे देश में हजारों एकनिष्ठ और त्यागी साधु हैं, जो गाँव-गाँव धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं। यदि उनमें से कुछ लोगों को सांसारिक विषयों के शिक्षकों के रूप में भी संगठित किया जा सके तो गाँव-गाँव, दरवाजे-दरवाजे पर जाकर वे केवल धर्मशिक्षा ही नहीं देंगे, बल्कि ऐहिक शिक्षा भी दिया करेंगे। कल्पना कीजिए कि इनमें से दो व्यक्ति शाम को साथ में एक मैजिक लैन्टर्न, एक ग्लोब और कुछ नक्शे आदि लेकर किसी गाँव में जाते हैं। वे अपढ़ लोगों को गणित, ज्योतिष और भूगोल की बहुत कुछ शिक्षा दे सकते हैं। वे गरीब पुस्तकों से जीवन भर में जितनी जानकारी न पा सकेंगे, उससे सौगुनी अधिक वे उन्हें बातचीत के माध्यम से विभिन्न देशों के बारे में कहानियाँ सुनाकर दे सकते हैं। इसके लिए एक संगठन की आवश्यकता है, जो पुनः धन पर निर्भर करता है। इस योजना को कार्यरूप में परिणत करने के लिए भारत में मनुष्य तो बहुत हैं, पर हाय! वे निर्धन हैं। एक चक्र को चलाना बड़ा कठिन काम है, पर अगर एक बार वह गतिशील हुआ कि वह क्रमशः अधिकाधिक वेग से चलने लगता है। अपने देश में सहायता पाने का प्रयत्न करने के बाद जब मैंने धनिकों से कुछ भी सहानुभूति न पायी, तब मैं, महाराज, आपकी सहायता से इस देश में आ गया। अमेरिका-वासियों को इस बात की कुछ भी परवाह नहीं कि भारत के गरीब जियेंं या मरें। और भला वे परवाह भी क्यों करने लगे, जब कि हमारे अपने देशवासी सिवाय अपने स्वार्थ की बातों के और किसी की चिन्ता नहीं करते?
महामना राजन्, यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैंं बाकी लोगों का जीना तो मरने ही के बराबर है। महाराज, आप जैसे एक उन्नत, महामना राजपुत्र भारत को फिर से अपने पैरों पर खड़ा कर देने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। और इस तरह भावी वंशजों के लिए एक ऐसा नाम छोड़ जा सकते हैं, जिसकी वे पूजा करें।
प्रभु आपके महान् हृदय में भारत के उन लाखों नर-नारियों के लिए गहरी संवेदना पैदा कर दें, जो अज्ञता में गड़े हुए दुःख झेल रहे हैं – यही मेरी प्रार्थना है।
भवदीय,
विवेकानन्द