स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलसिंगा पेरूमल को लिखित (18 नवम्बर, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
लन्दन,
१८ नवम्बर, १८९५
प्रिय आलासिंगा,
इंग्लैण्ड में मेरा कार्य वास्तव में बहुत अच्छा है। उसे देखकर मैं स्वयं विस्मित हूँ। इंग्लैण्डनिवासी समाचारपत्रों द्वारा अधिक प्रचार नहीं करते, बल्कि चुपचाप काम करते हैं। अमेरिका की अपेक्षा इंग्लैण्ड में मैं निश्चय ही अधिक कार्य कर सकूँगा। वे दल के दल आते हैं और इतने लोगों को बैठाने का मेरे पास स्थान भी नहीं रहता, इसलिए वे सब लोग यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी, पलथी मारकर जमीन पर बैठती हैं। मैं उनसे कहता हूँ कि वे यह कल्पना करने का यत्न करें कि वे भारत के गगनमण्डल के नीचे एक फैले हुए वट-वृक्ष की छाया तले बैठे हैं, और उन्हें यह विचार अच्छा लगता है। मुझे आगामी सप्ताह में जाना होगा, इससे वे बहुत ही उदास हैं। उनमें से कुछ यह समझते हैं कि इतनी जल्दी जाने से मेरे काम में हानि पहुँचेगी। परन्तु मैं ऐसा नहीं समझता। मैं मनुष्य या किसी वस्तु पर आश्रित नहीं रहता, केवल भगवान् पर भरोसा करता हूँ – और वह मेरे द्वारा कार्य करते हैं।
…बिना पाखण्डी और कायर बने सबको प्रसन्न रखो। पवित्रता और शक्ति के साथ अपने आदर्श पर दृढ़ रहो और फिर तुम्हारे सामने कैसी भी बाधाएँ क्यों न हों, कुछ समय बाद संसार तुमको मानेगा ही।
जैसा बंगला कहावत है, मुझे मरने का भी समय नहीं है। काम, काम, काम,। मैं इसीमें लगा हूँ। मैं अपनी रोटी स्वयं कमाता हूँ, अपने देश की सहायता करता हूँ, और यह सब अकेले करता हूँ और फिर भी मित्रों तथा शत्रुओं से मुझे केवल निन्दा ही निन्दा मिलती है! ख़ैर, तुम लोग तो बालक हो ही, मुझे सब सहन करना पड़ेगा। मैने कलकत्ते के एक संन्यासी को बुलाया है, और मैं उसे काम करने के लिए यहाँ छोड़ जाऊँगा। अमेरिका के लिए मैं एक और आदमी चाहता हूँ – मैं अपना ही आदमी चाहता हूँ। गुरु-भक्ति ही आध्यात्मिक उन्नति का आधार है।
…मैं निरन्तर काम करते करते थक गया हूँ। कोई और हिन्दू होता, तो वह इतने काम से मर चुका होता।… मैं भी दीर्घ काल तक विश्राम करने के लिए भारत आना चाहता हूँ।
प्रेम और आशीर्वाद के साथ सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द