स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलसिंगा पेरूमल को लिखित (26 दिसम्बर, 1894)

(स्वामी विवेकानंद का श्री आलसिंगा पेरूमल को लिखा गया पत्र)

संयुक्त राज्य अमेरिका,
२६ दिसम्बर, १८९४

प्रिय आलासिंगा,

शुभाशीर्वाद। तुम्हारा पत्र अभी ही मिला। नरसिंह भारत पहुँच गया है, जानकर खुशी हुई। मुझे खेद है कि डॉ. बरोज द्वारा धर्म-महासभा के सम्बन्ध में लिखित पुस्तक तुम्हें भेज न सका। भेजने की कोशिश करूँगा। बात यह है कि धर्म-महासभा की सभी बातें अब यहाँ पुरानी हो गयी हैं। हाल में उन्होंने कोई पुस्तक लिखी है या नहीं, मुझे विदित नहीं; तथा तुमने जिस समाचार-पत्र का उल्लेख किया है, उसके बारे में भी मुझे कुछ मालूम नहीं है। अब डॉ. बरोज, धर्म-महासभा, वे समाचार-पत्र आदि सभी कुछ प्राचीन इतिहास जैसे हो गए हैं, इसलिए तुम लोग भी इसे अतीत काल की बातें मान सकते हो।

मेरे सम्बन्ध में कुछ दिनों के अन्तर में मिशनरी पत्रिकाओं में (ऐसा मैं सुनता हूँ) दोषारोपण किया जाता है, परन्तु उसे पढ़ने की मुझे कोई इच्छा नहीं है। यदि तुम भारत की ऐसी पत्रिकाएँ भेजोगे, तो मैं उन्हें भी रद्दी कागज की टोकरी में डाल दूँगा। अपने काम के लिए कुछ आन्दोलन की आवश्यकता थी, वह अब पर्याप्त हो चुका है। मेरे विषय में लोग क्या कहते हैं, इसकी ओर ध्यान न देना, चाहे वे अच्छा कहें या बुरा। तुम अपने काम में लगे रहो और याद रखो कि – न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति1 ‘हे वत्स, भलाई करनेवाले की कभी दुर्गति नहीं होती।’

यहाँ के लोग दिन-प्रतिदिन मुझे मानने लगे हैं। और जितना तुम समझते हो, उससे कहीं अधिक मेरा यहाँ प्रभाव है। पर यह बात केवल मेरे और तुम्हारे बीच तक ही सीमित रहनी चाहिए। सब काम धीरे-धीरे होंगे।… मैं तुम्हें पहले भी लिख चुका हूँ और फिर लिखता हूँ कि समाचार-पत्रों की प्रशंसा या निन्दा की मैं कुछ परवाह नहीं करूँगा। मैं उन पत्रों को अग्नि को अर्पित कर देता हूँ। तुम भी यही करो। समाचार-पत्रों की निन्दा और व्यर्थ बातों की ओर ध्यान न दो। निष्कपट रहो और अपने कर्तव्य का पालन करो, शेष सब ठीक हो जाएगा। सत्य की विजय अवश्यम्भावी है… मिशनरी ईसाइयों के झूठे वर्णन की ओर तुम्हें ध्यान ही न देना चाहिए… पूर्ण मौन ही उनका सर्वोत्तम खण्डन है और मैं चाहता हूँ कि तुम भी मौन धारण करो।… श्री सुब्रह्मण्य अय्यर को अपनी सभा का सभापति बना लो। मेरे परिचित व्यक्तियों में वे एक परम उदार और अत्यन्त शुद्ध हृदय के व्यक्ति हैं और उनमें बुद्धि और हृदय का परम सुन्दर सम्मिश्रण है। अपने काम में आगे बढ़ो और मुझ पर अधिक भरोसा न रखो। अभी भी मेरा पूर्ण विश्वास है कि मद्रास से ही शक्ति की तरंग उठेगी।

मैं कह नहीं सकता कि कब तक भारत वापस आऊँगा। मैं यहाँ और भारत, दोनों जगह काम कर रहा हूँ। कभी-कभी मैं आर्थिक सहायता कर सकूँगा। तुम सबको प्यार।

आशीर्वादपूर्वक सदैव तुम्हारा,
विवेकानन्द


  1. गीता ॥६।४०॥

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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