स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित (27 अक्टूबर, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
वाशिंगटन,
२७ अक्टूबर, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
तुम्हें मेरा शुभाशीर्वाद। इस बीच तुम्हें मेरा पत्र मिला होगा। कभी-कभी मैं तुम लोगों को चिट्ठी द्वारा डाँटता हूँ, इसके लिए कुछ बुरा न मानना। तुम सभी को मैं किस हद तक प्यार करता हूँ, यह तुम अच्छी तरह जानते हो।
तुम मेरे कार्य-कलाप के बारे में पूर्ण विवरण जानना चाहते हो कि मैं कहाँ कहाँ गया था, क्या कर रहा हूँ, साथ ही मेरे भाषण के सारांश भी जानना चाहते हो। साधारण तौर पर यह समझ लो कि मैं यहाँ वही काम कर रहा हूँ, जो भारतवर्ष में करता था। सदा ईश्वर पर भरोसा रखना और भविष्य के लिए कोई संकल्प न करना।…इसके सिवा तुम्हें याद रखना चाहिए कि मुझे इस देश में निरन्तर काम करना पड़ता है और अपने विचारों को पुस्तकाकार लिपिबद्ध करने का मुझे अवकाश नहीं है – यहाँ तक कि इस लगातार परिश्रम ने मेरे स्नायुओं को कमजोर बना दिया है, और मैं इसका अनुभव भी कर रहा हूँ। तुमने, जी. जी. ने और मद्रासवासी मेरे सभी मित्रों ने मेरे लिए जो अत्यन्त निःस्वार्थ और वीरोचित कार्य किया है, उसके लिए अपनी कृतज्ञता मैं किन शब्दों में व्यक्त करूँ? लेकिन वे सब कार्य मुझे आसमान पर चढ़ा देने के लिए नहीं थे, वरन् तुम लोगों को अपनी कार्यक्षमता के प्रति सजग करने के लिए थे। संघ बनाने की शक्ति मुझ में नहीं है – मेरी प्रकृति अध्ययन और ध्यान की तरफ ही झुकती है। मैं सोचता हूँ कि मैं बहुत कुछ कर चुका, अब मैं विश्राम करना चाहता हूँ और उनको थोड़ी-बहुत शिक्षा देना चाहता हूँ, जिन्हें मेरे गुरुदेव ने मुझे सौंपा है। अब तो तुम जान ही गए कि तुम क्या कर सकते हो, क्योंकि तुम मद्रासवासी युवको, तुम्हींने वास्तव में सब कुछ किया है; मैं तो केवल चुपचाप खड़ा रहा। मैं एक त्यागी संन्यासी हूँ और मैं केवल एक ही वस्तु चाहता हूँ। मैं उस भगवान् या धर्म पर विश्वास नहीं करता, जो न विधवाओं के आँसू पोंछ सकता है और न अनाथों के मुँह में एक टुकड़ा रोटी ही पहुँचा सकता है। किसी धर्म के सिद्धान्त कितने ही उदात्त एवं उसका दर्शन कितना ही सुगठित क्यों न हो, जब तक वह कुछ ग्रन्थों और मतों तक ही परिमित है, मैं उसे नहीं मानता। हमारी आँखें सामने हैं, पीछे नहीं। सामने बढ़ते रहो और जिसे तुम अपना धर्म कहकर गौरव का अनुभव करते हो, उसे कार्यरूप में परिणत करो। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें!
मेरी ओर मत देखो, अपनी ओर देखो। मुझे इस बात की खुशी है कि मैं थोड़ासा उत्साह संचार करने का साधन बन सका। इससे लाभ उठाओ, इसी के सहारे बढ़ चलो। सब कुछ ठीक हो जाएगा। प्रेम कभी निष्फल नहीं होता मेरे बच्चे, कल हो या परसों या युगों के बाद, पर सत्य की जय अवश्य होगी। प्रेम ही मैदान जीतेगा। क्या तुम अपने भाई – मनुष्य जाति को प्यार करते हो? ईश्वर को कहाँ ढूँढ़ने चले हो – ये सब गरीब, दुःखी, दुर्बल मनुष्य क्या ईश्वर नहीं हैं? इन्हीं की पूजा क्यों नहीं करते? गंगा-तट पर कुआँ खोदने क्यों जाते हो? प्रेम की असाध्य-साधिनी शक्ति पर विश्वास करो। इस झूठे जगमगाहटवाले नाम-यश की परवाह कौन करता है? समाचार-पत्रों में क्या छपता है, क्या नहीं, इसकी मैं कभी खबर ही नहीं लेता। क्या तुम्हारे पास प्रेम है? तब तो तुम सर्वशक्तिमान हो। क्या तुम सम्पूर्णतः निःस्वार्थ हो? यदि हो? तो फिर तुम्हें कौन रोक सकता है? चरित्र की ही सर्वत्र विजय होती है। भगवान् ही समुद्र के तल में भी अपनी सन्तानों की रक्षा करते हैं। तुम्हारे देश के लिए वीरों की आवश्यकता है – वीर बनो। ईश्वर तुम्हारा मंगल करे।
सभी लोग मुझे भारत लौटने को कहते हैं। वे सोचते हैं कि मेरे लौटने पर अधिक काम हो सकेगा। यह उनकी भूल है, मेरे मित्र। इस समय वहाँ जो उत्साह पैदा हुआ है, वह किंचित् देश-प्रेम भर ही है – उसका कोई खास मूल्य नहीं। यदि वह सच्चा उत्साह है, तो बहुत शीघ्र देखोगे कि सैकड़ों वीर सामने आकर उस कार्य को आगे ब.ढ़ा रहे हैं। अतः जान लो कि वास्तव में तुम्हींने सब कुछ किया है, और आगे बढ़ते चलो। मेरे भरोसे मत रहो।
अक्षयकुमार शा लन्दन में हैं। उन्होंने लन्दन से कुमारी मूलर के यहाँ आने को मुझे सादर निमन्त्रित किया है। और मुझे आशा है कि आगामी जनवरी अथवा फरवरी में वहाँ जा रहा हूँ। भट्टाचार्य मुझे आने के लिए लिखते हैं।
विस्तृत कार्यक्षेत्र सामने पड़ा है। धार्मिक मत-मतान्तरों से मुझे क्या काम? मैं तो ईश्वर का दास हूँ, और सब प्रकार के उच्च विचारों के विस्तार के लिए इस देश से अच्छा क्षेत्र मुझे कहाँ मिलेगा? यहाँ तो यदि एक आदमी मेरे विरुद्ध हो, तो सौ आदमी मेरी सहायता करने को तैयार हैं ; सबसे अच्छी जगह यही है, जहाँ मनुष्यमनुष्य से सहानुभूति रखते हैं और जहाँ नारियाँ देवीस्वरूपा हैं। प्रशंसा मिलने पर तो मूर्ख भी खड़ा हो सकता है और कायर भी साहसी का सा डौल दिखा सकता है – पर तभी, जब सब कामों का परिणाम शुभ होना निश्चित हो; परन्तु सच्चा वीर चुपचाप काम करता जाता है। एक बुद्ध के प्रकट होने के पूर्व कितने बुद्ध चुपचाप काम कर गए! मेरे बच्चे, मुझे ईश्वर पर विश्वास है, साथ ही मनुष्य पर भी। दुःखी लोगों की सहायता करने में मैं विश्वास करता हूँ और दूसरों को बचाने के लिए, मैं नरक तक जाने को भी तैयार हूँ। अगर पाश्चात्य देशवालों की बात कहो, तो उन्होंने मुझे भोजन और आश्रय दिया, मुझसे मित्र का सा व्यवहार किया और मेरी रक्षा की – यहाँ तक कि अत्यन्त कट्टर ईसाई लोगों ने भी। परन्तु हमारी जाति उस समय क्या करती है, जब इनका कोई पादरी भारत में जाता है? तुम उसको छूते तक नहीं – वे तो म्लेच्छ हैं! मेरे बेटे, कोई मनुष्य, कोई जाति, दूसरों से घृणा करते हुए जी नहीं सकती। भारत के भाग्य का निपटारा उसी दिन हो चुका, जब उसने इस (म्लेच्छ) शब्द का आविष्कार किया और दूसरों से अपना नाता तोड़ दिया। खबरदार, जो तुमने इस विचार की पुष्टि की! वेदान्त की बातें बघारना तो खूब सरल है, पर इसके छोटे-से-छोटे सिद्धान्तों को काम में लाना कितना कठिन है!
तुम्हारा चिरकल्याणाकांक्षी,
विवेकानन्द
पुनश्च – इन दो चीजों से बचे रहना – क्षमताप्रियता और ईर्ष्या। सदा आत्मविश्वास का अभ्यास करना।
विवेकानन्द