स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलसिंगा पेरूमल को लिखित (9 सितम्बर, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
पेरिस,
९ सितम्बर, १८९५
प्रिय आलासिंगा,
संयुक्त राज्य अमेरिका का चक्कर लगाता हुआ तुम्हारा तथा जी० जी० के पत्र अभी अभी मुझे मिले।
मुझे यह आश्चर्य है कि तुम लोग मिशनरियों की मूर्खतापूर्ण व्यर्थ की बातों को इतना महत्त्व दे रहे हो। अगर भारतवासी मुझे नियमपूर्वक हिन्दू-भोजन के सेवन पर बल देते हैं, तो उनसे एक रसोइया एवं उसको रखने के लिए पर्याप्त रुपये का प्रबन्ध करने के लिए कह देना। एक पैसे की सहायता करने का तो सामर्थ्य है नहीं, किन्तु आगे बढ़कर उपदेश झाड़ते हैं! इससे मुझे तो हँसी ही आती है।
मिशनरी लोग यदि यह कहते हों कि कामिनी-कांचन-त्यागरूप संन्यासियों के दोनों ही व्रत मैंने तोड़े हैं, तो उनसे कहना कि वे झूठ बोलते हैं। मिशनरी ह्यूम को पत्र लिखकर तुम यह पूछना कि उन्होंने मेरा क्या असदाचरण देखा है – यह तुम्हें स्पष्ट लिखें; अथवा जिन व्यक्तियों से उन्होंने इस बारे में सुना है, उनके नाम लिखे। साथ ही उनसे यह भी पूछना कि उन घटनाओं को उन्होंने स्वयं देखा है या नहीं। ऐसा करने पर प्रश्न का समाधान अपने आप हो जायगा तथा उनके झूठ का भी पता लग जायगा। इसी तरीके से डॉ० जेन्स ने उन मिथ्यावादियों को पकड़वाया था।
मेरे बारे में सिर्फ इतना ही जान लेना कि मैं किसीके कथनानुसार नहीं चलूँगा। मेरे जीवन का क्या व्रत हैं, यह मैं स्वयं जानता हूँ। किसी जातिविशेष के प्रति न मेरा तीव्र अनुराग है और न घोर विद्वेष ही है। मैं जैसे भारत का हूँ, वैसे ही समग्र जगत् का भी हूँ। इस विषय को लेकर मनमानी बातें बनाना निरर्थक है। मुझसे जहाँ तक हो सकता था, मैंने तुम लोगों की सहायता की है, अब तुम्हें स्वयं अपनी सहायता करनी चाहिए। ऐसा कौन सा देश हैं, जो कि मुझ पर विशेष अधिकार रखता है? क्या मैं किसी जाति के द्वारा खरीदा हुआ दास हूँ? अविश्वासी नास्तिकों, तुम लोग ऐसी व्यर्थ की मूर्खतापूर्ण बातें न बनाओ।
यहाँ पर मैंने कठोर परिश्रम किया है और मुझे जो कुछ धन मिला है, उसे मैं कलकत्ते तथा मद्रास भेजता रहा हूँ। यह सब कुछ करने के बाद अब मुझे उन लोगों के मूर्खतापूर्ण निर्देशानुसार चलना होगा? क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती? मैं उन लोगों का किस बात के लिए ऋणी हूँ? क्या मैं उन लोगों की प्रशंसा की कोई परवाह करता हूँ या उनकी निन्दा से डरता हूँ? बच्चे, मैं एक ऐसा विचित्र स्वभाव का व्यक्ति हूँ कि मुझे पहचानना तुम लोगों के लिए भी अभी सम्भव नहीं है। तुम अपने काम करते रहो, यदि नहीं कर सकते हो, तो चुपचाप बैठ जाओ; किन्तु अपनी मूर्खता के बल पर मुझसे अपनी इच्छानुसार कार्य करने की चेष्टा न करो। मुझे अपने पीछे एक ऐसी शक्ति दिखायी दे रही है, जो कि मनुष्य, देवता या शैतान की शक्तियों से कहीं अधिक सामर्थ्यशाली है। मुझे किसीकी सहायता नहीं चाहिए, जीवन भर मैं ही दूसरों की सहायता करता रहा हूँ। ऐसे व्यक्तियों का दर्शन तो अभी तक मुझे नहीं मिला हैं, जिनसे कि मुझे कोई सहायता प्राप्त हुई हो। अब तक देश में जितने व्यक्तियों ने जन्म लिया है, उनमें सर्वश्रेष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस के कार्यों में सहायता प्रदान करने के लिए जहाँ के निवासियों में दो-चार रुपये भी एकत्र करने की शक्ति नहीं है, वे लोग लगातार व्यर्थ की बातें बना रहे हैं और उस व्यक्ति पर अपना हुक्म चलाना चाहते हैं, जिसके लिए उन्होंने कुछ भी नहीं किया, प्रत्युत् जिसने उन लोगों के लिए जहाँ तक हो सकता था, सब कुछ किया। जगत् ऐसा ही अकृतज्ञ है!
क्या तुम यहा कहना चाहते हो कि ऐसे जाति-भेद-जर्जरित, कुसंस्कारयुक्त, दयारहित, कपटी, नास्तिक कायरों में से जो केवल शिक्षित हिन्दुओं में ही पाये जा सकते हैं, एक बनकर जीने-मरने के लिए मैं पैदा हुआ हूँ? मैं कायरता को घृणा की दृष्टि से देखता हूँ। कायर तथा राजनीतिक मुर्खतापूर्ण बकवासों के साथ मैं अपना सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। किसी प्रकार की राजनीति में मुझे विश्वास नहीं है। ईश्वर तथा सत्य ही जगत् में एकमात्र राजनीति है, बाकी सब कूड़ा-करकट है।
मैं कल लन्दन जा रहा हूँ। इस समय मेरा वहाँ का पता इस प्रकार होगा – द्वारा श्री ई. टी. स्टर्डी, हाई व्यू, केवरशम, रीडिंग, इंग्लैण्ड।
सदा आशीर्वाद के साथ तुम्हारा,
विवेकानन्द
पुनश्च – इंग्लैण्ड तथा अमेरिका, दोनों ही जगहों से पत्रिका निकालने का मेरा विचार है। अतः अपने पत्र के लिए तुम लोगों को पूर्णतया मुझ पर निर्भर नहीं होना चाहिए। तुम्हारे अलावा और भी बहुत सी चीजों पर मुझे ध्यान देना है।
वि.