स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित (16 दिसम्बर, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखा गया पत्र)
२२८ पश्चिम ३९वाँ रास्ता, न्यूयार्क,
१६ दिसम्बर, १८९५
स्नेहास्पद,
तुम्हारे सभी पत्र आज की डाक से मुझे एक साथ मिले। कुमारी मूलर ने भी मुझे एक पत्र लिखा है। उन्होंने ‘इण्डियन मिरर’ पत्र में यह समाचार पढ़ा है कि स्वामी कृष्णानन्द जी इंग्लैण्ड आ रहे हैं। यदि यह सत्य हो, तो मुझे जिनसे सहायता मिलने की सम्भावना है, उनमें ये सबसे अधिक शक्तिशाली सिद्ध होंगे।
यहाँ पर प्रति सप्ताह मेरी छः कक्षाएँ चलती हैं; तदतिरिक्त एक प्रश्नोत्तर-कक्षा भी चलती है। श्रोताओं की संख्या ७०से १२० तक होती है। इसके साथ ही प्रति रविवार मैं एक सार्वजनिक भाषण भी देता हूँं। गत माह जिस सभागृह में मेरे भाषण हुए थे, उसमें ६०० व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था थी। किन्तु प्रायः ९०० व्यक्ति उपस्थित होते थे, ३०० व्यक्ति खड़े होकर भाषण सुनते थे और बाकी ३०० व्यक्ति स्थानाभाव के कारण लौट जाते थे। अतः इस सप्ताह मैंने एक बड़े सभागृह की व्यवस्था की है, जिसनें १२०० व्यक्ति बैठ सकेंगे।
इन वक्तृताओं में प्रवेश पाने के लिए किसी प्रकार का शुल्क नहीं माँगा जाता है; किन्तु सभास्थल पर जो चन्दा एकत्र होता है, उसीसे मकान का किराया चुक जाता है। इस सप्ताह अखबारों की दृष्टि मुझ पर पड़ी है एवं इस वर्ष मैंने न्यूयार्क में बहुत कुछ हलचल मचा रखी है। यदि मैं इस बार ग्रीष्म ऋतु में यहाँ रह सकता एवं तदर्थ कोई स्थायी केन्द्र बना सकता, तो यहाँ पर अत्यन्त मजबूती के साथ कार्य चलता रहता। किन्तु आगामी मई में मेरा इंग्लैण्ड जाना निश्चित है, अतः इस कार्य को अधूरा छोड़कर ही मुझे जाना पड़ेगा। किन्तु यदि कृष्णानन्द जी का इंग्लैण्ड आना निश्चित हो एवं तुम उन्हें सुयोग्य तथा उपयुक्त समझो तथा वहाँ पर मेरी अनुपस्थिति में कार्य की कोई क्षति न पहुँचने की तुम्हें पूरी पूरी उम्मीद हो, तो इस ग्रीष्म ऋतु में मैं यहाँ रहना चाहूँगा।
फिर मुझे ऐसा भय हो रहा है कि अविश्रान्त कार्य के बोझ से मेरा स्वास्थ्य नष्ट होता जा रहा है। मुझे कुछ विश्राम की आवश्यकता है। हम लोग इन पाश्चात्य रीतियों से अनभ्यस्त हैं – ख़ासकर घड़ी की सुई के अनुसार चलने में। इन बातों का निर्णय अब मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ दे रहा हूँ। ‘ब्रह्मवादिन्’ पत्र यहाँ पर खूब चल रहा है। मैंने भक्तिविषयक लेख लिखना प्रारम्भ कर दिया है; इसके अलावा मासिक कार्यों का एक विवरण भी उन्हें भेज रहा हूँ। कुमारी मूलर अमेरिका आना चाहती है; किन्तु आयेंगी या नहीं, यह पता नहीं है। यहाँ पर मेरे कुछ मित्र मेरे रविवार के भाषणों को प्रकाशित करवा रहे हैं। प्रथम दो बार की कुछ प्रतियाँ मैंने तुम्हें भेज दी हैं। बाद की दो वक्तृताओं की कुछ प्रतियाँ अगली बार भेजूँगा, यदि तुम्हें पसन्द हो, तो अधिक प्रतियाँ भेज दूँगा। इंग्लैण्ड में दोचार सौ प्रतियों के विक्रय की व्यवस्था क्या तुम कर सकते हो? – यदि ऐसी व्यवस्था हो सके, तो उन्हें इनको छपवाने में उत्साह मिलेगा।
अगले महीने में मैं ‘डिट्रॉएट’ जाऊँगा, तदनन्तर ‘बोस्.टन’ तथा ‘हार्वर्ड विश्वविद्यालय’ जाने का विचार है। इसके बाद कुछ विश्राम ग्रहण करने की इच्छा है; बाद में इंग्लैण्ड जाना है – वह भी तब, जब कि तुम यह समझो कि मेरे बिना अकेले कृष्णानन्द जी के द्वारा वहाँ के कार्यों का संचालन नहीं हो सकता। इति।
सतत स्नेह तथा आशीर्वाद के साथ,
विवेकानन्द