स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित (5 अगस्त, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखा गया पत्र)
स्विट्जरलैण्ड,
५ अगस्त, १८९६
प्रिय स्टर्डी,
आज सुबह प्रोफेसर मैक्समूलर का एक पत्र मिला; उससे पता चला कि श्रीरामकृष्ण परमहंस सम्बन्धी उनका लेख ‘दि नाइन्टीन्थ सेन्चुरी’ पत्रिका के अगस्त अंक में प्रकाशित हुआ है। क्या तुमने उसे पढ़ा है? उन्होंने इस लेख के बारे में मेरा अभिमत माँगा है। अभी तक मैंने उसे नहीं देखा है, अतः उन्हें कुछ भी नहीं लिख पाया हूँ। यदि तुम्हें वह प्रति प्राप्त हुई हो तो कृपया मुझे भेज देना। ‘ब्रह्मवादिन्’ की भी यदि कोई प्रति आयी हो तो उसे भी भेजना। मैक्समूलर महोदय हमारी योजनाओं से परिचित होना चाहते हैं तथा पत्रिकाओं से भी उन्होंने अधिकाधिक सहायता प्रदान करने का वचन दिया है तथा श्रीरामकृष्ण परमहंस पर एक पुस्तक लिखने को वे प्रस्तुत हैं।
मैं समझता हूँ कि पत्रिकादि के विषय में उनके साथ तुम्हारा सीधा पत्र-व्यवहार होना ही उचित है। ‘दि नाइन्टीन्थ सेन्चुरी’ पढ़ने के बाद उनके पत्र का जवाब लिख कर जब मैं तुमको उनका पत्र भेज दूँगा, तब तुम देखोगे कि वे हमारे प्रयास पर कितने प्रसन्न हैं तथा यथासाध्य सहायता प्रदान करने के लिए तैयार हैं।
पुनश्च – आशा है कि तुम पत्रिका को बड़े आकार की करने के प्रश्न पर भलीभाँति विचार करोगे। अमेरिका से कुछ धनराशि एकत्र करने की व्यवस्था हो सकती है एवं साथ ही पत्रिका अपने लोगों के हाथों ही रखी जा सकती है। इस बारे में तुम्हारी तथा मैक्समूलर महोदय की निश्चित योजना से अवगत होने के बाद मैं अमेरिका पत्र लिखना चाहता हूँ।
सेवितव्यो महावृक्षः फलछायासमन्वितः।
यदि दैवात् फलं नास्ति छाया केन निवार्यते॥
– ‘जिस वृक्ष में फल एवं छाया हो, उसी का आश्रय लेना चाहिए; कदाचित् फल न भी मिले, फिर भी उसकी छाया से तो कोई भी वंचित नहीं कर सकता।’ अतः मूल बात यह है कि महान् कार्य को इसी भावना से प्रारम्भ करना चाहिए।
शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द