स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित (9 अगस्त, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखा गया पत्र)
१९ पश्चिम ३८वाँ रास्ता, न्यूयार्क,
प्रिय मित्र,
९ अगस्त, १८९५
…केवल यही उचित है कि मैं अपने कुछ विचार तुम्हारे सामने प्रकट करूँ। मैं पूर्ण विश्वास करता हूँ कि मानव-समाज में धर्म में सामयिक उथल-पुथल होती है और शिक्षित समाज में आजकल ऐसी ही खलबली फैली हुई है। यद्यपि ऐसी क्रांति अनेक छोटे छोटे विभागों में विभक्त दिखायी देती है, परन्तु मूलतः ये सब एक ही है, क्योंकि उनके पीछे जो कारण हैं, उनके रूप भी एक ही हैं। वह धार्मिक क्रान्ति, जिससे इस समय विचारवान व्यक्ति दिन-प्रतिदिन अत्यधिक मात्रा में प्रभावित होते जा रहे हैं – उसका एक वैशिष्ट्य यह है कि उससे जितने क्षुद्र क्षुद्र मतवाद उत्पन्न हो रहे हैं, वे सब उसी एक अद्वैत सत्ता की अनुभूति एवं अनुसन्धान में ही सचेष्ट हैं। भौतिक, नैतिक और आध्यात्मिक स्तरों पर यह एक भाव दिखायी दे रहा है कि विभिन्न मतवाद-समूह क्रमशः अधिकाधिक उदार होते हुए उसी शाश्वत एकत्व की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इस कारण वर्तमान काल के सभी आन्दोलन जान या अनजान में सर्वोत्तम आविष्कृत एकत्ववादी दर्शन के अर्थात अद्वैत वेदान्त के प्रतिरूप हैं।
फिर यह भी सर्वदा देखा गया है कि प्रत्येक युग में इन समस्त विभिन्न मतवादों के संघर्ष के फलस्वरूप अंत में एक ही मतवाद जीवित रहता है। अन्य सब तरंगें उसी मतवाद में विलीन होने के लिए एवं उसे एक बृहत् भाव-तरंग में परिणत करने के लिए ही उठती हैं, जो समाज को अप्रतिहत वेग के साथ प्लावित कर देता है।
इस समय भारत, अमेरिका एवं इंग्लैण्ड में (जिन देशों का हाल मैं जानता हूँ) सैकड़ों ऐसे मतवादों का संघर्ष चल रहा है। भारत में द्वैतवाद क्रमशः क्षीण हो रहा है, केवल अद्वैतवाद ही सब क्षेत्रों में प्रभावशाली है। अमेरिका में प्राधान्य लाभ के लिए अनेक मतवादों के बीच संघर्ष उपस्थित हुआ है। ये सभी अल्प या अधिक मात्रा में अद्वैत भाव के प्रतिरूप हैं, और जो भाव-परम्परा जितनी अधिक तीव्र गति से फैल रही है, वह उतनी ही मात्रा में अन्य भावों की अपेक्षा अद्वैत वेदान्त के अधिक निकट प्रतीत होती है। अब मुझे यदि कुछ स्पष्ट दिखायी देता है, तो वह यह कि इनमें से एक ही भाव-परम्परा जीवित रहेगी, एवं वह सबको निगलकर भविष्य में शक्तिमान होगी। किन्तु वह कौन सी भाव-प्रणाली होगी?
यदि हम इतिहास को देखें, तो विदित होगा कि जो विचारधारा सर्वश्रेष्ठ होगी, वही जीवित रहेगी; और चरित्र की अपेक्षा अन्य ऐसी कौन सी शक्ति है, जो जीने की योग्यता प्रदान कर सकती है? विचारशील मनुष्य-जाति का भावी धर्म अद्वैत ही होगा, इसमें सन्देह नहीं। और सब सम्प्रदायों में उन्हींकी विजय होगी, जो अपने जीवन में सबसे अधिक चरित्र का उत्कर्ष दिखा सकेंगे – चाहे वे सम्प्रदाय कितने ही दूर भविष्य में क्यों न जन्म लें।
एक मेरी निजी अनुभव की बात सुनो। जब मेरे गुरुदेव ने शरीर त्यागा था, तब हम लोग बारह निर्धन और अज्ञात नवयुवक थे। हमारे विरूद्ध अनेक शक्तिशाली संस्थाएँ थीं, जो हमारी सफलता के शैशवकाल में ही हमें नष्ट करने का भरसक प्रयत्न कर रही थीं। परन्तु श्रीरामकृष्ण देव ने हमें एक बड़ा दान दिया था – वह यह कि केवल बातें ही न कर यथार्थ जीवन जीने की इच्छा, आजीवन उद्योग और विरामहीन साधना के लिए अनुप्रेरणा। और आज सारा भारत मेरे गुरुदेव को जानता है और पूज्य मानता है और वे सत्य-समूह, जिनकी उन्होंने शिक्षा दी थी, अब दावानल के समान फैल रहे हैं। दस वर्ष हुए, उनका जन्मोत्सव मनाने के लिए मैं सौ मनुष्यों को भी इकट्ठा नहीं कर सकता था और पिछले वर्ष पचास सहस्र थे।
न संख्य़ा-शक्ति, न धन, न पाण्डित्य, न वाक्चातुर्य कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुद्ध जीवन, एक शब्द में अनुभूति, आत्म-साक्षात्कार को विजय मिलेगी! प्रत्येक देश में सिंह जैसी शक्तिमान दस-बारह आत्माएँ होने दो, जिन्होंने अपने बन्धन तोड़ डाले हैं, जिन्होंने ‘अनन्त’ का स्पर्श कर लिया है, जिनका चित्त ब्रह्मानुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं, न बल की, न नाम की – और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे।
यही रहस्य है। योगप्रवर्तक पतंजलि कहते हैं, “जब मनुष्य समस्त अलौकिक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्ममेघ नामक समाधि प्राप्त होती है।”1 वह परमात्मा का दर्शन करता है, वह परमात्मा बन जाता है और दूसरों को तद्रूप बनने में सहायता करता है। मुझे इसीका प्रचार करना है। जगत् में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परन्तु हाय! कोई भी किंचित् अंश में प्रत्यक्ष आचरण नहीं करता।
सभाएँ और संस्थाएँ अपने आप उत्पन्न हो जायँगी। क्या वहाँ ईर्ष्या हो सकती हैं, जहाँ ईर्ष्या करने की कोई वस्तु न हो? जो हमें हानि पहुँचाना चाहेंगे, ऐसे लोग असंख्य होंगे। परन्तु हमारे ही पक्ष में सत्य है, इसका क्या यह निश्चित प्रमाण नहीं है? जितना ही मेरा विरोध हुआ है, उतनी ही मेरी शक्ति का विकास हुआ है। राजाओं ने मुझे अनेक बार निमंत्रित किया और पूजा है। पुरोहितों और जनसाधारण ने मेरी निन्दा की है। परन्तु इससे क्या? सबको अशीर्वाद! वे सब तों मेरी स्वयं आत्मा हैं, और क्या उन्होंने कमानीदार पटरे (Spring-board) के समान मेरी सहायता नहीं की, जहाँ से उछलकर मेरी शक्ति अधिकाधिक विकास कर सकी है?
…एक महान् रहस्य का मैंने पता लगा लिया है – वह यह कि केवल धर्म की बातें करनेवालों से मुझे कुछ भय नहीं है। और जो सत्यद्रष्टा महात्मा हैं, वे कभी किसीसे वैर नहीं करते। वाचालों को वाचाल होने दो! वे इससे अधिक और कुछ नहीं जानते! उन्हें नाम, यश, धन, स्त्री से सन्तोष प्राप्त करने दो। और हम धर्मोपलब्धि, ब्रह्मलाभ एवं ब्रह्म होने के लिए ही दृढ़व्रत होंगे। हम आमरण एवं जन्म-जन्मान्तर में सत्य का ही सतत अनुसरण करेंगे। दूसरों के कहने पर हम तनिक भी ध्यान न दें और यदि आजन्म यत्न के बाद एक, केवल एक ही आत्मा संसार के बन्धनोंं को तोड़कर मुक्त हो सके, ‘तो हमने अपना काम कर लिया।’ हरिॐ!
…एक बात और। निस्सन्देह मुझे भारत से प्रेम है। परन्तु दिन-प्रतिदिन मेरी दृष्टि स्पष्टतर होती जा रही है। हमारे लिए भारत या इंग्लैण्ड या अमेरिका क्या है? हम उस प्रभु के दास हैं, जिसे अज्ञानी कहते हैं ‘मनुष्य’। जो जड़ में पानी डालता है, वह क्या पूरे वृक्ष को नहीं सींचता?
सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक कल्याण की एक ही नींव है – और वह यह जानना कि ‘मैं और मेरा भाई एक हैं।’ यह सब देशों और सब जातियों के लिए सत्य है। और मैं यह कह सकता हूँ कि पश्चिमी लोग पूर्वीयों से शीघ्र इसका अनुभव करेंगे – वे पूर्वीय जन, जिन्होंने इस नींव के निर्माण में तथा कुछ थोड़े से अनुभूतिसम्पन्न व्यक्तियों को उत्पन्न करने में प्रायः अपनी सारी शक्ति व्यय कर दी है।
आओ, हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें। काम, क्रोध एवं लोभ – इस त्रिविध बन्धन से हम मुक्त हो जायँ। और फिर सत्य हमारे साथ रहेगा!
भगवत्पदाश्रित,
विवेकानन्द
- प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख़्यातेर्धर्ममेघः समाधिः।