स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित (अगस्त, 1895)

(स्वामी विवेकानंद का श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखा गया पत्र)

न्यूयार्क,
अगस्त, १८९५

प्रिय स्टर्डी,

यहाँ का काम बड़े ठाठ से चल रहा है। जब से मैं आया हूँ, लगातार दो कक्षाएँ प्रतिदिन ले रहा हूँ। कल मै श्री लेगेट के साथ एक सप्ताह के लिए नगर से बाहर जा रहा हूँ। क्या तुम श्रीमती एन्टॉयनेट स्टर्लिंग से जो तुम्हारी नामी गायिकाओं में से हैं, परिचित हो? वे इस काम में विशेष रूचि ले रही हैं।

मैने इस कार्य का लौकिक भाग एक सभा को सौंप दिया है और मैं सभी झंझटों से मुक्त हूँ। मुझमें संगठन की क्षमता नहीं है। उससे मैं बिल्कुल टूट जाता हूँ।

‘नारद-सूत्र’ का क्या हुआ? उस पुस्तक की यहाँ अच्छी बिक्री होगी, मुझे विश्वास है। मैंने अब योग-सूत्र हाथ में लिया है। क्रम से एक एक सूत्र लेकर उनके साथ साथ भाष्यकारों के मत की आलोचना कर रहा हूँ। ये सभी वार्ताएँ लिख ली जाती हैं और समाप्त होने पर अंग्रेजी में यह पतंजलि का टीका सहित सबसे पूर्ण अनुवाद होगा। निश्चय ही यह कार्य महत्त्वपूर्ण होगा।

शायद ट्रुबनर की दूकान में ‘कूर्मपुराण’ का एक संस्करण होगा। भाष्यकार विज्ञान भिक्षु इस पुस्तक से निरन्तर उद्धरण देते रहते हैं। मैंने स्वयं कभी इस पुस्तक को नहीं देखा। क्या तुम कृपया कुछ समय निकालकर इस पुस्तक में देख सकोगे कि योग पर उसमें कुछ अध्याय हैं या नहीं? यदि हों, तो क्या कृपा करके एक प्रति मुझे भेज दोगे? क्या ‘हठयोग-प्रदीपिका’, ‘शिव संहिता’ तथा और कोई योग पर पुस्तक भी होगी?

निःसन्देह मूल ग्रंथ। वे जैसे ही पहुँचेंगी, मैं उनके लिए रूपया तुमको भेजा दूँगा। जॉन डेविस द्वारा लिखी हुई ईश्वरकृष्ण की ‘सांख्यकारिका’ की एक प्रति भी भेजना। अभी भारत की डाक के साथ तुम्हारा पत्र मिला। एक आदमी जो तैयार है, वह अस्वस्थ हो गया। दूसरे कहते हैं कि इस प्रकार अकस्मात् वे आ नहीं सकते। अब तक तो निराशा ही दिखायी दे रही है। मुझे दुःख है कि वे लोग न आ सके। क्या किया जा सकता है? भारत में मन्द गति से काम होता है!

रामानुज का मत है कि बद्ध आत्मा या जीव की पूर्णता उसमें अव्यक्त या सूक्ष्म भाव से रहती है। जब इस पूर्णता का पुनः विकास होता है, जीव मुक्त हो जाता है। परन्तु अद्वैतवादी कहता है कि ये दोनों बातें केवल भासित होती हैं। न क्रमसंकोच है, न क्रमविकास। दोनों क्रियाएँ मायारूप हैं, केवल भासमान – परिदृश्यमान अवस्था मात्र।

पहली बात यह है कि आत्मा स्वभावतः ज्ञाता नहीं है। ‘सच्चिदानन्द’ आत्मा की केवल आंशिक परिभाषा है, ‘नेति’, ‘नेति’ शब्दों द्वारा ही उसके यथार्थ स्वरूप का वर्णन होता है। शापेनहॉवर ने अपना ‘इच्छावाद’ बौद्धों से ग्रहण किया है। हम लोग वासना, तृष्णा (पाली भाषा में ‘तनहा’) आदि शब्दों में भी यही भाव ग्रहण करते हैं। हम भी यह स्वीकार करते हैं कि वासना ही सब प्रकार की अभिव्यक्ति का मूल कारण है, और प्रत्येक अभिव्यक्ति उसका विशिष्ट परिणाम है। परन्तु जो कुछ भी ‘हेतु’ या ‘कारण’ है, वह ब्रह्म और माया, इन दोनों के सम्मिश्रण से उद्भूत होता है। इतना ही नहीं, वरन् ‘ज्ञान’ भी एक मिश्रित पदार्थ होने के कारण निरपेक्ष अर्थात् ब्रह्म नहीं हो सकता, परन्तु ज्ञात या अज्ञात सब प्रकार की वासना की अपेक्षा वह निःसन्देह श्रेष्ठ है एवं अद्वितीय ब्रह्म की निकटतम वस्तु है। वह अद्वैत तत्त्व प्रथम ज्ञान एवं उसके पश्चात् इच्छा की समष्टि के रूप में अभिव्यक्त होता है। यदि यह कहा जाय कि वनस्पति ‘अचेतन’ है या अधिक से अधिक वह ‘चैतन्यरहित इच्छा-शक्तियुक्त’ है, तो उसका यह उत्तर होगा कि यह ‘अचेतन वनस्पति-क्रिया’ भी चैतन्य की ही अभिव्यक्ति है, यह चैतन्य उस वनस्पति का भले ही न हो, किन्तु वह उसी विश्वव्यापी चेतन बुद्धिशक्ति की अभिव्यक्ति है, जिसे सांख्य दर्शन में महत् कहते हैं। “वास्तव-जगत् का सभी कुछ उस ‘एषणा’ या ‘संकल्प’ आदि से उद्भूत है” – बौद्धों का यह मतवाद अपूर्ण है; क्योंकि, प्रथमतः ‘इच्छा’ स्वयं ही एक मिश्र पदार्थ है, और द्वितीयतः चेतना या ज्ञान, जो सर्वश्रेष्ठ मिश्र पदार्थ है, वह इच्छा के भी पहले विद्यमान है। ज्ञान ही क्रिया है। प्रथम क्रिया, फिर प्रतिक्रिया। मन पहले अनुभव करता है एवं उसके बाद प्रतिक्रिया के रूप में उसमें संकल्प का उदय होता है। संकल्प मन में रहता है, अतः संकल्प अंतिम निष्कर्ष है, यह कहना असंगत है। डॉयसन डारविनमतावलम्बियों के हाथ की कठपुतली मात्र है।

परन्तु क्रमविकास के सिद्धान्त का उच्च भौतिक विज्ञान के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए, जिसके अनुसार क्रमविकास की प्रत्येक परम्परा के पीछे क्रमसंकोच की क्रिया निहित है। इसलिए ‘वासना’ या ‘संकल्प’ के विकास के पूर्व ‘महत्’ या ‘विश्वचेतना’ संकुचित अथवा सूक्ष्म भाव से विद्यमान रहती है।

बिना ज्ञान के संकल्प असंभव है, क्योंकि इच्छित वस्तु के सम्बन्ध में यदि किसी विश्वचेतना या महत्

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री. ई. टी. स्टर्डी (अगस्त, 1895)

भी प्रकार का ज्ञान न हो, तो इसकी इच्छा का उदय होगा ही कैसे?

जिस क्षण ज्ञान की चेतन और अवचेतन, दो अवस्थाओं की कल्पना की जायगी, उसी क्षण आपाततःकठिन ज्ञात होनेवाला यह तत्त्व सरल हो जायगा। और ऐसा हो भी क्यों नहीं? यदि संकल्प का हम इस प्रकार विश्लेषण कर सकते हैं, तो उसकी मूल वस्तु का क्यों नहीं कर सकते?

तुम्हारा,
विवेकनन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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