स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखित (नवम्बर, 1899)

(स्वामी विवेकानंद का श्री ई. टी. स्टर्डी लिखा गया पत्र)

द्वारा एफ. एच. लेगेट,
२१, पश्चिम, ३४वीं स्ट्रीट,
न्यूयार्क,
नवम्बर, १८९९

प्रिय स्टर्डी,

यह पत्र अपने आचरण के समर्थन में नहीं लिख रहा हूँ। यदि मैंने कोई पाप किया है तो शब्दों से उसका मोचन नहीं हो सकता, न ही किस प्रकार का प्रतिबन्ध सत्कार्य को अग्रसर होने से रोक सकता है।

पिछले कुछ महीनों से बराबर मैं इस विषय में सुनता आ रहा हूँ कि पश्चिमवालों ने मेरे भोग के लिए कितने-कितने ऐशो-आराम के साधन जुटाये हैं, और यह कि ऐशो-आराम के इन साधनों का मुझे जैसा पाखण्डी उपभोग भी करता रहा है, जबकि इस बीच बराबर मैं दूसरों को त्याग की शिक्षा देता रहा हूँ। और ये ऐशो-आराम के साधन और इनका उपभोग ही कम से कम इंग्लैण्ड में मेरे काम मे सबसे बड़ा रोड़ा रहा है। मैंने करीब-करीब अपने मन को यह विश्वास कर लेने के लिए सम्मोहित कर दिया है कि मेरे जीवन के नीरस मरु-प्रदेश में यह एक नखलिस्तान जैसी चीज रही है – जीवन-पर्यन्त के दुःखों-कष्टों तथा निराशाओं के बीच प्रकाश का एक लघु केन्द्र! – कठिन परिश्रम और कठिनतर अभिशापों से भरे जीवन में एक क्षण का विश्राम! – और यह नखलिस्तान, यह लघु केन्द्र, यह क्षण भी केवल इन्द्रिय-भोग के लिए!!

मैं बहुत खुश था, मैं दिन में सैकड़ों बार उनकी कल्याण कामना करता था, जिन्होंने यह सब प्राप्त कराने में मेरी सहायता की! परन्तु देखिए न, तभी आपका पिछला पत्र आता है, बिजली की कड़क की तरह और सारा स्वप्न उड़ जाता है। मैं आपकी आलोचना के प्रति अविश्वास करने लगता हूँ, बल्कि मुझमें ऐशो-आराम के साधन और उनके भोग आदि की सारी बातों और इसके अतिरिक्त दूसरी चीजों की स्मृतियों पर बहुत थोड़ी आस्था शेष रह जाती है। यह सब कुछ मैं आपको लिख रहा हूँ, यदि आप उचित समझें, तो आशा है आप इसे मित्रों को दिखा देंगे और बतायेंगे कि मैं कहाँ ग़लती पर हूँ।

मुझे ‘रीडिंग’ में आपका आवास याद है, जहाँ मुझे दिन में तीन बार उबली हुई पत्तागोभी और आलू, भात तथा उबली हुई दाल खाने को दी जाती थी और साथ ही वह चटनी भी, जो आपकी पत्नी मुझे सारे समय कोस-कोस कर देती थीं। मुझे याद नहीं कि कभी आपने मुझे सिगार पीने को दिया हो – शिलिंगवाली या पेंसवाली। न ही मुझे याद है कि मैंने आपसे भोजन या आपकी पत्नी के सदा कोसते रहने के विषय में कोई शिकायत की हो, हालाँकि घर में मैं हमेशा एक चोर की तरह भय से सदा काँपता और प्रतिदिन आपके लिए काम करता रहता था।

अगली स्मृति मुझे सेंट जॉर्ज रोड स्थित उस मकान की है, जहाँ आप और कुमारी मूलर उस घर के मालिक थे। मेरा भाई बेचारा वहाँ बीमार था और – ने उसे खदेड़ दिया। वहाँ भी मुझे याद नहीं आता कि मुझे कोई ऐशो-आराम मिला – न खान-पान के विषय में और न शय्या-बिस्तर के विषय में। यहाँ तक कि कमरे के विषय में भी नहीं।

दूसरा स्थान जहाँ मैं ठहरा, वह कुमारी मूलर का घर था। यद्यपि वह मेरे प्रति बहुत मेहरबान रहीं, पर मैं सूखे मेवे और फल खाकर गुजारा करता था। फिर अगली स्मृति लन्दन के उस ‘अन्ध-कूप’ की है, जहाँ मुझे दिन-रात कार्य करना पड़ता था। और अक्सर पाँच-छः जनों के लिए भोजन भी पकाना पड़ता था; और जहाँ अधिकांश रातें मुझे रोटी के टुकड़े और मक्खन के सहारे गुजार देनी पड़ती थीं।

मुझे याद है एक बार श्रीमती – ने मुझे भोजन पर बुलाया, रात को ठहरने की जगह भी दी, पर अगले ही दिन घर भर में धूम्रपान करने वाले काले जंगली की निन्दा करती रहीं।

कैप्टन सेवियर तथा श्रीमती सेवियर को छोड़कर मुझे याद नहीं कि इंग्लैण्ड में किसी ने एक रूमाल जितना टाट का टुकड़ा भी कभी मुझे दिया हो। बल्कि इंग्लैण्ड में शरीर और मस्तिष्क से रात-दिन काम करने के कारण ही मेरी तन्दुरुस्ती गिर गयी। यही सब कुछ आप इंग्लैण्ड-वासियों ने मुझे दिया, जबकि बराबर मुझसे जी-तोड़ काम लेते रहे। और जब मुझे इस ‘ऐशो-आराम’ के लिए कोसा जा रहा है। आपमें से किन लोगों ने मुझे कोट पहनाया है? किसने सिगार दिया है? किसने मछली या गोश्त का टुकड़ा? आपमें से किसे ऐसा कहने की हिम्मत है कि मैंने उससे खाने-पीने की या धूम्रपान या कपड़े-लत्ते या रुपये-पैसे की याचना की? – से पूछिए, भगवान् के लिए पूछिए, अपने मित्रों से पूछिए, ओर सबसे पहले खुद अपने से पूछिए, ‘अपने अन्दर स्थित उस परमेश्वर से जो कभी सोता नहीं।’

आपने मेरे काम के लिए रुपया दिया है। उसकी एक एक पाई यहाँ है। आपकी आँखों के सामने मैंने अपने भाई को दूर भेज दिया, शायद मरने के लिए, पर मुझे यह गवारा नहीं हुआ कि उस अमानत के धन में से उसे एक कौड़ी भी दे दूँ।

दूसरी ओर मुझे इंग्लैण्ड के सेवियर-दम्पत्ति की याद आती है, जिन्होंने ठंड में मेरी कपड़ों से रक्षा की, मेरी अपनी माँ से बढ़कर मेरी सेवा की और मेरी परेशानियों तथा मेरी दुर्बलताओं को साथ-साथ झेला। और उनके हृदय में मेरे प्रति आशीर्वाद भाव के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। और चूँकि श्रीमती सेवियर को किसी गौरव की परवाह नहीं थी, इसलिए वे आज हजारों लोगों की दृष्टि में पूज्य हैं, और मरने के बाद वे हम गरीब भारतवासियों की एक महान् उपकारकर्त्री के रूप में लाखों लोगों द्वारा स्मरण की जायेंगी। और इन लोगों ने मेरे ऐशो-आराम के लिए मुझे कभी नहीं कोसा, हालाँकि मुझे उसकी यदि आवश्यकता हो या मैं उसे चाहूँ तो वे उसे देने के लिए तत्पर हैं।

श्रीमती बुल, कुमारी मैक्लिऑड, और श्री तथा श्रीमती लेगेट के विषय में आपसे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। मेरे प्रति उनका कितना स्नेह और कृपाभाव है, यह आप जानते हैं। श्रीमती बुल और कुमारी मैक्लिऑड तो हमारे देश भी जा चुकी है, वहाँ घूमी-फिरी और रही हैं, जैसा कि अभी तक किसी विदेशी ने नहीं किया, और वहाँ का सब कुछ झेला है, पर ये न मुझे कोसती हैं न मेरे ऐशो-आराम को। बल्कि यदि मैं अच्छा खाना चाहूँ या एक डॉलरवाला सिगार पीना चाहूँ, तो इससे वे खुश ही होंगी। और इन्हीं लेगेट और बुल परिवारों ने मुझे खाने को भोजन और तन ढकने को वस्त्र दिया, जिनके पैसों से मैं धूम्रपान करता रहा और कई बार तो अपने मकान का मैंने किराया चुकता किया; जब कि मैं आपके देशवासियों के लिए मरता-खपता रहा और मेरे शरीर की बोटियों के बदले आप लोग मुझे गंदे दरबे तथा भुखमरी प्रदान करते रहे, और साथ ही मन में यह आरोप भी पालते रहे कि मैं वहाँ ‘ऐश’ कर रहा हूँ।

‘गरजनेवाले मेघ बरसते नहीं;

वर्षा के मेघ बिना गरजे धरती को आप्लावित कर देते हैं।’

देखिए… , जिन्होंने सहायता दी है या अभी कर रहे हैं, वे कोई आलोचना नहीं करते, न कोसते हैं; यह तो केवल उनका काम है, जो कुछ नहीं करते, जो सिर्फ अपने स्वार्थ-साधन में मस्त रहते हैं। इन निकम्मे, हृदयहीन, स्वार्थी, निकृष्ट लोगों की आलोचना करना मेरे लिए सबसे बड़ा वरदान हो सकता हैं। मैं अपने जीवन में इसके सिवा और कुछ नहीं चाहता कि इन बेहद मतलबी लोगों से कोसों दूर रहूँ।

ऐशो-आराम की बातें! इन आलोचकों को एक के बाद एक परखिए तो सबके सब मिट्टी के लोंदे निकलेंगे, किसी में भी जीवन-चेतना का कहीं लेश नहीं। ईश्वर को धन्यवाद है कि ऐसे लोग देर-सबेर अपने असली रंग में उतर आते हैं। और आप मुझे इन हृदयहीन स्वार्थी लोगों के कहने पर अपना आचरण और कार्य नियमित करने की सलाह देते हैं, और हतबुद्धि होते हैं, क्योंकि मैं ऐसा नहीं करता!

जहाँ तक मेरे गुरुभाईयों की बात है, वे जो मैं कहता हूँ, वहीं करते हैं। यदि उन्होंने कहीं कोई स्वार्थ दिखाया है, तो वह मेरे आदेश पर ही, अपनी इच्छा से नहीं।

जिस ‘अंध-कूप’ में आपने मुझे लन्दन में रखा, जहाँ मुझे काम करते करते मर जाने दिया और सारे समय प्रायः भूखा रखा, क्या वहाँ आप अपने बच्चों को रखना चाहेंगे? क्या श्रीमती – ऐसा चाहेंगी? वे ‘संन्यासी’ हैं, और इसका अर्थ है कि कोई संन्यासी अपना जीवन अनावश्यक रूप से बरबाद न करे, न ही ‘अनावश्यक कष्ट-सहन करे।’

पश्चिम में यह सब कष्ट सहन करते समय हम केवल संन्यासी-धर्म का उल्लंघन ही करते रहे हैं। वे मेरे भाई हैं, मेरे बच्चे हैं। मैं अपनी खातिर उन्हें कुँए में मरने देना नहीं चाहता। जितना जो कुछ भी शुभ है, सत्य है, उसकी सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मैं उन्हें उनकी कष्ट-साधनाओं के बदले इस तरह भूखों मरते, खपते और कोसे जाते नहीं देखना चाहता।

एक बात और। मुझे बड़ी खुशी होगी, यदि आप मुझे दिखा सकें कि कहाँ मैंने देह को यातना देने का प्रवचन किया है। जहाँ तक शास्त्रों की बात है, यदि कोई पंडित-शास्त्री संन्यासियों तथ परमहंसों के लिए जीवन-व्यवस्था के नियमों के आधार पर हमारे विरुद्ध कुछ कह सकने का साहस करे, तो मुझे प्रसन्नता ही होगी।

हाँ… मेरा हृदय दुखता है। मैं सब समझता हूँ। मुझे पता है कि आप कहाँ हैं – आप उन लोगों के चंगुल में फँसे हुए हैं, जो आपको मेरे विरुद्ध इस्तेमाल करना चाहते हैं। मेरा मतलब आपकी पत्नी से नहीं। वह तो इतनी सीधी है कि कभी खतरनाक हो ही नहीं सकती। लेकिन मेरे बेचारे भाई, आपके पास माँस की गंध है – थोड़ा सा धन है। – और गिद्ध चारों ओर मँडरा रहे हैं। यही जीवन है।

आपने प्राचीन भारत में विषय में ढेरों बातें कहीं थीं। वह भारत अब भी जीवित है,… वह मरा नहीं है और वह जीवित भारत आज भी बिना किसी भय या अमीर की कृपा के, बिना किसी के मत की परवाह किये – चाहे वह अपने देश में हो, जहाँ उसके पैरों के जंजीर पड़ी है या वहाँ जहाँ उस जंजीर का सिरा हाथ में पकड़े उसका शासक है – अपना संदेश देने का साहस रखता है। वह भारत अब भी जीवित है… – अमर प्रेम और शाश्वत निष्ठा का वह अपरिवर्तनीय भारत, अपने रीति-रिवाजों में ही नहीं, वरन् उस प्रेम, निष्ठा और मैत्री भाव में भी! और उसी भारत की सन्तानों में से एक नगण्य मैं आपको प्यार करता हूँ… ‘भारतीय प्रेम’ की भावना से प्यार करता हूँ, और आपको इस भ्रमजाल से मुक्त करने के लिए हजारों तन न्यौछावर कर सकता हूँ।

सदैव आपका,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!