स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री प्रमदादास मित्र को लिखित (26 मई, 1890)
(स्वामी विवेकानंद का श्री प्रमदादास मित्र को लिखा गया पत्र)
ईश्वरो जयति
५७, रामकान्त बसु स्ट्रीट,
बागबाजार, कलकत्ता,
२६ मई, १८९०
पूज्यपाद,
बहुत सी विपदजनक घटनाओं के आवर्त एवं मन के आन्दोलन के मध्य में पड़ा हुआ मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूँ। विश्वनाथ से प्रार्थना कर जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, उसकी युक्ति-संगति एवं सम्भवासम्भवता की विवेचना कर कृपया मुझे उत्तर दीजिए।
(१) मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि मैं श्रीरामकृष्ण के चरणों में ‘तुलसी और तिल’ निवेदन कर तथा अपना शरीर अर्पित कर उनका गुलाम हो गया हूँ। मैं उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता। यदि मान लिया जाय कि चालीस वर्ष तक अविराम कठोर त्याग, वैराग्य और पवित्रता की कठिन साधना और तपस्या के द्वारा अलौकिक ज्ञान, भक्ति, प्रेम और विभूति से समन्वित होकर भी उन महापुरुष ने असफलता में ही शरीर त्याग किया, तो फिर हम लोगों को और किसका भरोसा? अतएव उनकी वाणी को आप्तवाक्य मानकर हम उस पर विश्वास करते हैं। (२) मेरे लिए उनकी आज्ञा यह थी कि उनके द्वारा स्थापित त्यागी मण्डली की मैं सेवा करूँ। इस कार्य में मुझे निरन्तर लगा रहना होगा; चाहे जो हो, स्वर्ग, नरक, मुक्ति या और कुछ, सब मुझे स्वीकार है। (३) उनका आदेश यह था कि उनकी सब त्यागी भक्त-मण्डली एकत्र हो और उसका भार मुझे सौंपा गया था। निःसन्देह यदि हममें से कोई यहाँ-वहाँ की यात्रा करे, तो उससे कोई हानि नहीं, परन्तु यह यात्रा मात्र होगी। उनका विश्वास था कि जिसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो गयी हैं, उसीका यहाँ-वहाँ घूमना शोभा देता है। जब तक सिद्धि प्राप्त न हो, एक जगह बैठकर साधना करनी चाहिए। जिस समय देहादि के भाव अपने आप छूट जायें, उस समय साधक चाहे जो कुछ कर सकता है। नहीं तो इधर-उधर घूमते रहना साधक के पक्ष में अनिष्टकारी है। (४) अतएव उक्त आज्ञा के अनुसार उनकी संन्यासी मण्डली वराहनगर के एक जीर्ण-शीर्ण मकान में एकत्र हुई है और सुरेशचन्द्र मित्र एवं बलराम बसु नामक उनके दो गृहस्थ शिष्यों ने इस मण्डली के भोजन, मकान के किराये आदि का भार ले लिया है। (५) कुछ कारणों से (अर्थात् ईसाई राजा के विचित्र कानून से बाध्य हो) भगवान् श्रीरामकृष्ण के शरीर का अग्नि-संस्कार करना पड़ा। निःसन्देह यह कार्य अत्यन्त गर्हित था। अस्थि-संचय के उपरान्त उनकी राख सुरक्षित रखी है। यदि कहीं गंगाजीं के तट पर उसे उचित रीति से प्रतिष्ठित किया जा सके, तो मेरे विचार से उस पाप का प्रायश्चित्त किंचित् अंश में हो जायेगा। उक्त पवित्र अस्थियों, उनकी गद्दी और उनके चित्र की प्रतिदिन पूजा नियमानुसार हमारे मठ में होती है और हमारे एक ब्राह्मण कुलोद्भव गुरुभाई उस कार्य में दिन-रात लगे रहते हैं। यह बात आपसे छिपी नहीं है। इस पूजा का खर्च भी उपर्युक्त दोनों महात्मा चलाते थे। (६) कितने दुःख की बात है कि जिन महापुरुष के जन्म से हमारी बंग जाति एवं बंग भूमि पवित्र हुई है, जिनका जन्म इस पृथ्वी पर भारतवासियों को पश्चिमी सभ्यता की चमक-दमक से सुरक्षित रखने के लिए हुआ और इसलिए जिन्होंने अपनी त्यागी मण्डली में अधिकांश विश्वविद्यालय के छात्रों को लिया, उनका उस बंग देश में, उनकी साधना-भूमि के सन्निकट कोई स्मारक स्थापित न हो सका।
(७) उपर्युक्त दो सज्जनों की यह प्रबल इच्छा थी कि गंगा – तट पर थोड़ी सी जमीन खरीदकर वहाँ पवित्र अस्थियों को समाधिस्थ करें और शिष्य-मण्डली वहीं एक साथ रहे। इसके लिए सुरेश बाबू ने एक हजार रुपये की रकम दे दी थी और आगे अधिक देने का वचन दिया था, परन्तु ईश्वर के किसी गूढ़ अभिप्राय से उन्होंने कल इहलोक त्याग दिया। बलराम बाबू की मृत्यु का हाल आप पहले से ही जानते हैं।
(८) अभी यह अनिश्चित है कि इस समय श्रीरामकृष्ण की शिष्य-मंडली उस पवित्र भस्मावशेष एवं गद्दी को लेकर कहाँ जाय (और बंग देश के निवासियों का हाल तो आपको मालूम ही है; लम्बी लम्बी बातों में कितने आगे, परन्तु क्रियाशीलता में कितने पीछे रहते हैं।) शिष्य लोग सब संन्यासी हैं और जहाँ कहीं उन्हें ठौर मिले, जाने को तैयार हैं। पर मैं उनका सेवक मर्मान्तक वेदना का अनुभव कर रहा हूँ कि भगवान् श्रीरामकृष्ण की अस्थियों की प्रतिष्ठा के लिए थोड़ी सी भी जमीन गंगा के किनारे न मिल सकी। यह सोचकर मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है।
(९) एक हजार रुपये से जमीन खरीदकर कलकत्ते के निकट मन्दिर बनवाना असम्भव है। इसमें कम से कम पाँच-सात हजार रुपये लगेंगे।
(१०) श्रीरामकृष्ण के शिष्यों के मित्र और आश्रय अब केवल आप ही हैं। उत्तर प्रदेश में आपका मान-सम्मान तथा परिचय यथेष्ट है। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप इस विषय पर विचार करें और यदि आपकी रुचि हो, तो उस प्रांत के धर्मशील धनी मित्रों से चन्दा इकट्ठा कर इस कार्य को कर डालें। यदि आप उचित समझते हैं कि बंगाल में ही गंगाजी के किनारे भगवान् श्रीरामकृष्ण की समाधि तथा उनकी शिष्यमण्डली के लिए आश्रय-स्थान हो, तो मैं आपकी अनुमति से आपके पास उपस्थित हो जाऊँगा। अपने प्रभु के लिए एवं प्रभु की सन्तान के लिए द्वार भिक्षा माँगने में मुझे किंचित्मात्र संकोच नहीं। विश्वनाथ से प्रार्थना कर कृपया इस विषय पर पूर्ण विचार कीजिए। यदि ये सब सच्चे, सुशिक्षित सद्वंशजात युवा संन्यासी स्थानाभाव एवं साहाय्याभाव के कारण भगवान् श्रीरामकृष्ण के आदर्श भाव को न प्राप्त कर सके, तो मेरे ख्याल से यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है।
(११) यदि आप कहें, “आप संन्यासी हैं, आपको ये सब वासनाएँ क्यों?” – तो मैं कहूँगा कि मैं श्रीरामकृष्ण का सेवक हूँ और उनके नाम को उनकी जन्म एवं साधना की भूमि में चिर प्रतिष्ठित रखने के लिए और उनके शिष्यों को उनके आदर्श की रक्षा में सहायता पहुँचाने के लिए मुझे चोरी और डकैती भी करनी पड़े, तो उसके लिए भी मैं राजी हूँ। मैं आपको अपना आत्मीय समझकर अपने हृदय को आपके सम्मुख खोलकर रख रहा हूँ। इसी कारण मैं कलकत्ता लौट आया हूँ। मैंने चलने से पहले आपसे यह कह दिया था और अब मैं सब कुछ आपकी इच्छा पर छोड़ता हूँ।
(१२) यदि आप कहें कि वाराणसी आदि स्थान में ऐसा कार्य करने में सुविधा होगी, तो मेरा तो यही निवेदन है कि अगर श्रीरामकृष्ण के जन्म और साधना के स्थान में उनकी समाधि न बन सकी, तो कितना परिताप का विषय है! बंगाल की दशा शोचनीय है। यहाँ के लोगों को इस बात की कल्पना तक नहीं कि त्याग क्या है, – आरामतलबी और इन्द्रियपरायणता ने कहाँ तक इस जाति को खोखला कर दिया है! ईश्वर इसमें त्याग और वैराग्य की भावना का उदय करे। यहाँ के लोगों की बात क्या कहूँ। परन्तु मेरा विश्वास है कि उत्तर प्रदेश के लोगों में – विशेषतः धनी लोगों में इस प्रकार के सत्कार्य में बहुत उत्साह है। जो कुछ ठीक समझें, उत्तर दें। गंगाधर आज भी नहीं पहुँचा, कल तक आ सकेगा। उसे देखने की बड़ी उत्कण्ठा है। उपर्युक्त पते पर पत्रोत्तर दें।
आपका,
नरेन्द्र