स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री शरच्चन्द्र चक्रवर्ती को लिखित (19 मार्च, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का श्री शरच्चन्द्र चक्रवर्ती को लिखा गया पत्र)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय
दार्जिलिंग,
१९ मार्च, १८९७
शुभमस्तु। आशीर्वादप्रेमालिंगनपूर्वकमिदं भवतु तव प्रीतये। पाञ्चभौतिकं मे पिंजरमधुना किंचित्सुस्थतरम् अचलगुरोर्हिमनिमण्डितशिखराणि पुनरुज्जीवयन्ति मृतप्रायानपि जनानिति मन्ये। श्रमबाधापि कथञ्चिद्दूरीभूतेत्यनुभवामि। यत्ते हृदयोद्वेगकरं मुमुक्षुत्वं लिपिभङ्गया व्यञ्जितं, तन्मया अनुभूतं पूर्वम्। तदेव शाश्वते ब्रह्मणि मनः समाधातुं प्रसरति। ‘नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।’ ज्वलतु सा भावना अधिकमधिकं यावन्नाधिगतानामेकान्तक्षयः कृताकृतानाम्। तदनु सहसैव ब्रह्मप्रकाशः सह समस्तविषयप्रध्वंसैः। आगामिनी सा जीवन्मुक्तिस्तव हिताय तवानुरागदार्ढ्येनैवानुमेया। याचे पुनस्तं लोकगुरु महासमन्वयाचार्य श्री १०८ रामकृष्ण आविर्भवितुं तव हृदयोदेशं येन वै कृतकृतार्थस्त्वं आविष्कृतमहाशौर्यः लोकान् समुद्धर्तंु महामोहसागरात् सम्यग्यतिष्यसे। भव चिराधिष्ठित ओजसि। वीराणामेव करतलगता मुक्तिर्न कापुरुषाणाम्। हे वीराः, बद्धपरिकराः भवत; सम्मुखे शत्रवः महामोहरूपाः। ‘श्रेयांसि बहुविघ्नानि’ इति निश्चितेऽपि समधिकतर कुरुत यत्नम्। पश्यत इमान् लोकान् मोहग्राहग्रस्तान्। शृणुत अहो तेषां हृदयदभेदकरं कारुण्यपूर्णं शोकनादम्। अग्रगाः भवत अग्रगाः हे वीराः, मोचयितुं पाशं बद्धानाम्, श्लथयितुं क्लेशभारं दीनानाम्, द्योतयितुं हृदयान्धकूपं अज्ञानाम् अभीरभीरिति घोषयति वेदान्तडिण्डिमः। भूयात् स भेदाय हृदयग्रन्थीनां सर्वेषां जगन्निवासिनामिति।
तवैकान्तशुभभावुकः विवेकानन्दः।
(हिन्दी अनुवाद)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय।
शुभ हो। आशीर्वाद तथा प्रेमालिंगनपूर्ण यह पत्र तुम्हें सुख प्रदान करे। इस समय मेरा पांचभौतिक देहपिंजर पहले की अपेक्षा कुछ ठीक है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पर्वतराज हिमालय का बर्फ से आच्छादित शिखर-समूह मृतप्राय मानवों को भी सजीव बना देता है। मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि रास्ते की क्लान्ति भी कुछ घट चुकी है। तुम्हारे हृदय में मुमुक्षुत्व के प्रति जो उत्कण्ठा है, जो तुम्हारे पत्र से व्यक्त होती हैं, मैंने उसे पहले से ही अनुभव कर लिया है। यह मुमुक्षुत्व ही क्रमशः नित्यस्वरूप ब्रह्म में एकाग्रता की सृष्टि करता है। ‘मुक्ति-लाभ करने का और कोई दूसरा मार्ग नहीं है।’ जब तक तुम्हारे समूचे कर्म का पूर्ण रूप से क्षय न हो, तब तक तुम्हारी यह भावना उत्तरोत्तर बढ़ती जाय। अनन्तर तुम्हारे हृदय में सहसा ब्रह्म का प्रकाश होगा तथा उसके साथ ही साथ सारी विषय-वासनाएँ नष्ट हो जाएँगी। तुम्हारे अनुराग की दृढ़ता से ही यह स्पष्ट है कि तुम शीघ्र ही अपनी कल्याणप्रद उस जीवन्मुक्त दशा को प्राप्त करोगे। अब मैं उस जगत्गुरु महासमन्वयाचार्य श्री १०८ रामकृष्ण देव से प्रार्थना करता हूँ कि तुम्हारे हृदय में वे आविर्भूत हों, जिससे तुम कृतकृत्य तथा दृढ़चित्त होकर महामोहसागर से लोगों के उद्धार के लिए प्रयत्न कर सको। तुम चिर तेजस्वी बनो। वीरों के लिए मुक्ति करतलगत है, कापुरुषों के लिए नहीं। हे वीरों, कटिबद्ध हो, तुम्हारे सामने महामोहरूप शत्रु-समूह उपस्थित है। ‘श्रेय-प्राप्ति में अनेक विध्न हैं’ – यह निश्चित है, फिर भी अधिकाधिक प्रयत्न करते रहो। महामोह के ग्राह से ग्रस्त लोगों की ओर दृष्टिपात करो, हाय, उनके हृदयवेधक करुणापूर्ण आर्तनाद को सुनो। हे वीरों, बद्धों को पाशमुक्त करने के लिए, दरिद्रों के कष्टों को कम करने के लिए तथा अज्ञजनों के अन्तर का असीम अंधकार दूर करने के लिए आगे बढ़ो। बढ़ते जाओ – सुनो, वेदान्त-दुन्दुभि बजाकर निडर बनने की कैसी उद्घोषणा कर रहा है। वह दुन्दुभिघोष समस्त जगद्वासियों की हृदय-ग्रन्थियों को विच्छिन्न करने में समर्थ हो।
तुम्हारा परम शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द