स्वामी विवेकानंद के पत्र – भगिनी निवेदिता को लिखित (4 जुलाई, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का भगिनी निवेदिता को लिखा गया पत्र)
अल्मोड़ा,
४ जुलाई, १८९७
प्रिय कुमारी नोबल,
आश्चर्य की बात है कि आजकल इंग्लैण्ड से मेरे ऊपर भले-बुरे दोनों ही प्रकार के प्रभावों की क्रियाएँ जारी हैं… परन्तु तुम्हारे पत्र उज्ज्वल तथा उत्साहपूर्ण हैं एवं उनसे मेरे हृदय में शक्ति तथा आशा का संचार होता है, जिसके लिए मेरा हृदय इस समय अत्यन्त लालायित है। यह प्रभु ही जानते है।
यद्यपि मैं अभी तक हिमालय में हूँ तथा कम से कम एक माह तक और भी रहने का विचार है, पर यहाँ आने से पूर्व ही मैंने कलकत्ते में कार्य प्रारम्भ करा दिया तथा प्रति सप्ताह वहाँ के कार्य का विवरण मिल रहा है।
इस समय मैं दुर्भिक्ष के कार्य में व्यस्त हूँ तथा कुछ-एक युवकों को भविष्य के कार्य के लिए प्रशिक्षित करने के सिवा शिक्षा-कार्य में अधिक जान नहीं डाल पाया हूँ। दुर्भिक्ष-ग्रस्थ लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था करने में ही मेरी सारी शक्ति एवं पूँजी समाप्त होती जा रही है। यद्यपि अब तक अत्यन्त सामान्य रूप से ही मुझे कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ है, फिर भी आशातीत परिणाम दिखायी दे रहा है। बुद्धदेव के बाद से यह पहली बार पुनः देखने को मिल रहा है कि ब्राह्मण सन्तानें हैजाग्रस्त अन्त्यजों की शय्या के निकट उनकी सेवा-सुश्रूषा में संलग्न हैं।
भारत में वक्तृता तथा शिक्षा से कोई विशेष कार्य नहीं होगा। इस समय सक्रिय धर्म की आवश्यकता है। मुसलमानों की भाषा में कहना हो तो कहूँगा कि यदि ‘खुदा की मर्जी हुई’ तो मैं भी यही दिखाने के लिए कमर कसकर बैठा हूँ।… तुम्हारी समिति की नियमावली से मैं पूर्णतया सहमत हूँ; और विश्वास करो, भविष्य में तुम जो कुछ भी करोगी उसमें मेरी सम्मति होगी। तुम्हारी योग्यता तथा सहानुभूति पर मुझे पूर्ण विश्वास है। मैं पहले से ही तुम्हारे समीप अशेष रूप से ऋणी हूँ और प्रतिदिन तुम मुझ पर ऋण का भार बढ़ाती ही जा रही हो। मुझे इसी का सन्तोष है कि यह सब कुछ दूसरों के हित के लिए है। अन्यथा विम्बल्डन के मित्रों ने मेरे प्रति जो अपूर्व अनुग्रह प्रकट किया है, मैं सर्वथा उसके अयोग्य हूँ। तुम अत्यन्त सज्जन, धीर तथा सच्चे अंग्रेज लोग हो – भगवान् तुम्हारा सदा मंगल करें। दूर रहकर भी मैं प्रतिदिन तुम्हारा अधिकाधिक गुणग्राही बनता जा रहा हूँ। कृपया… तथा वहाँ के मेरे सब मित्रों को मेरा चिर स्नेह व्यक्त करना। संपूर्ण स्नेह के साथ,
भवदीय चिरसत्याबद्ध,
विवेकानन्द