स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (20 दिसम्बर, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखा गया पत्र)
होटल मिनर्वा, फ्लोरेन्स,
२० दिसम्बर, १८९६
प्रिय राखाल,
इस पत्र से ही तुम्हें यह ज्ञात हो रहा होगा कि मैं अभी तक मार्ग में हूँ। लन्दन छोड़ने से पहले ही तुम्हारा पत्र तथा पुस्तिका मुझे मिली थी। मजूमदार के पागलपन पर कोई ध्यान न देना। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ईर्ष्या ने उनका दिमाग खराब कर दिया है। उन्होंने जिस अभद्रोचित भाषा का प्रयोग किया है, उसे सुनकर सभ्य देश के लोग उनका उपहास ही करेंगे। इस प्रकार की अशिष्ट भाषा का प्रयोगकर उन्होंने स्वयं ही अपने उद्देश्य को विफल कर डाला है।
फिर भी हम कभी अपनी ओर से हरमोहन अथवा अन्य किसी व्यक्ति को ब्राह्मसमाजियों या और किसी के साथ झगड़ने की अनुमति नहीं दे सकते। जनता इस बात को अच्छी तरह से जान ले कि किसी सम्प्रदाय के साथ हमारा कोई विवाद नहीं है और यदि कोई झगड़ा करता है तो उसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी है। परस्पर विवाद करना तथा आपस में निन्दा करना हमारा जातीय स्वभाव है! आलसी, कर्महीन, कटुभाषी, ईर्ष्यापरायण, डरपोक तथा विवादप्रिय – यही तो हम बंगालियों की प्रकृति है। मेरा मित्र कहकर अपना परिचय देने वाले को पहले इन्हें त्यागना होगा। न ही हरमोहन को कोई पुस्तक छापने की अनुमति देनी होगी, क्योंकि इस प्रकार के प्रकाशन केवल जनता को छलने के लिए होते हैं।
कलकत्ते में यदि संतरे मिलते हों तो मद्रास में आलासिंगा के पते पर सौ संतरे भेज देना, जिससे मद्रास पहुँचने पर मुझे प्राप्त हो सके।
मुझे पता चला है कि मजूमदार ने यह लिखा है कि ‘ब्रह्मवादिन्’ पत्रिका में प्रकाशित श्रीरामकृष्ण के उपदेश यथार्थ नहीं हैं, मिथ्या हैं। यदि ऐसा ही है तो सुरेश दत्त तथा रामबाबू को ‘इण्डियन मिरर’ में इसका प्रतिवाद करने को कहना। मुझे यह पता नहीं है कि उन उपदेशों का संग्रह किस प्रकार किया गया है, अतः इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता हूँ।
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानन्द
पुनश्च – इन मूर्खों की ओर ध्यान न देना; कहावत है कि ‘वृद्ध मूर्ख जैसा और कोई दूसरा मूर्ख नहीं है।’ उन्हें चिल्लाने दो। अहा, उन बेचारों का पेशा ही मारा गया है! कुछ चिल्लाकर ही उन्हें सन्तुष्ट होने दो।
वि.