स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (12 मार्च, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द लिखा गया पत्र)
सैन फ़्रांसिस्को,
१२ मार्च, १९००
अभिन्नहृदय,
तुम्हारा एक पत्र पहले मिल चुका है। कल मुझे शरत् का एक पत्र प्राप्त हुआ। श्रीरामकृष्ण-जन्मोत्सव के निमन्त्रण-पत्र को देखा। शरत् की वातव्याधि की बात सुनकर मुझे भय हुआ। दो वर्ष से केवल रोग, शोक, यातनाएँ ही साथी बनी हुई हैं। शरत् से कहना कि मैं अब अधिक परिश्रम नहीं कर रहा हूँ, किन्तु पेट भरने लायक परिश्रम किए बिना तो भूखा मर जाना पड़ेगा।… चहारदीवारी की आवश्यक व्यवस्था अब तक दुर्गाप्रसन्न ने कर दी होगी… चहारदीवारी खड़ी करने में तो कोई झंझट नहीं है। वहाँ पर एक छोटा सा मकान बनवाकर वृद्धा नानी तथा माता की कुछ दिन सेवा करने का मेरा विचार है। दुष्कर्म किसीका पीछा नही छोड़ता, ‘माँ’ भी किसीको सजा दिये बिना नहीं रहती। मैं यह मानता हूँ कि मेरे कर्म में भूल है। तुम लोग सभी साधु तथा महापुरूष हो – ‘माँ’ से यह प्रार्थना करना कि अब यह झंझट मेरे कंधों पर न रहे। अब मैं कुछ शान्ति चाहता हूँ ; कार्य के बोझ को वहन करने की शक्ति अब मुझमें नहीं है। जितने दिन जीवित रहना है, मैं विश्राम और शान्ति चाहता हूँ। जय गुरू, जय गुरू।…
व्याख्यान आदि में कुछ भी नहीं रखा है। शान्ति!… वास्तव में मैं विश्राम चाहता हूँ। इस रोग का नाम Neurosthenia है – यह एक स्नायुरोग है। एक बार इस रोग का आक्रमण होने पर कुछ वर्षों के लिए यह स्थायी हो जाता है। किन्तु दो-चार वर्ष तक एकदम विश्राम मिलने पर यह दूर हो जाता है।… यह देश इस रोग का घर है। यहीं से यह मेरे कन्धों पर सवार हुआ है। किन्तु यह ख़तरनाक नहीं है, अपितु दीर्घजीवी बनानेवाला है। मेरे लिए चिन्तित न होना। मैं धीरे धीरे पहुँच जाऊँगा। गुरूदेव का कार्य अग्रसर नहीं हो रहा है – इतना ही दुःख है। उनका कुछ भी कार्य मुझसे सम्पन्न न हो सका – यही अफसोस है। तुम लोगों को कितनी गालियाँ देता हूँ, बुरा-भला कहता हूँ – मैं महान् नराधम हूँ! आज उनके जन्म्दिवस पर तुम लोग अपनी पद-रज मेरे मस्तक पर दो-मेरे मन की चंचलता दूर हो जायगी। जय गुरू, जय गुरू, जय गुरू, जय गुरू। त्वमेव शरणं मम, त्वमेव शरणं मम (तुम्ही मेरी शरण हो, तुम्ही मेरी शरण हो)। अब मेरा मन स्थिर है – यह मैं बतलाना चाहता हूँ। यही मेरी सदा की मानसिक भावना है। इसके अलावा और जो कुछ उपस्थित होता हो, उसे रोग जानना। अब मुझे बिल्कुल कार्य न देना। मैं अब कुछ काल तक चुपचाप ध्यान-जपादि करना चाहता हूँ – बस इतना ही। शेष माँ जाने; जय जगदम्बे!
विवेकानन्द