स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित (1895)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखा गया पत्र)
ॐ नमो भगवते श्रीरामकृष्णाय
संयुक्त राज्य अमेरिका,
१८९५
कल्याणीय,
कल तुम्हारा पत्र मुझे मिला, जिसमें समाचार कुछ अल्प अंश में था, परन्तु सविस्तार वर्णन किसी चीज का नहीं था। मैं पहले से बहुत अच्छा हूँ। ईश्वर की कृपा से इस वर्ष के विकट शीत से मैं सुरक्षित हूँ। अरे, यहाँ की भयंकर ठंड! परन्तु वैज्ञानिक ज्ञान से ये लोग इसे सब दबाकर रखते हैं। हर मकान में जमीन के नीचे एक तलघर होता है, जहाँ एक बहुत बड़ा पानी उबालने का पात्र है, वहाँ की भाप को दिन-रात हर कमरे में प्रवेश कराया जाता है। इस प्रकार कमरे गर्म रहते हैं, परन्तु इसमें एक दोष है, वह यह कि घरों के अन्दर यद्यपि ग्रीष्म ऋतु होती है, परन्तु बाहर शून्य से तीस-चालीस डिग्री नीचे पारा रहता है। इस देश के अधिकांश धनवान शीतकाल में यूरोप – जो कि यहाँ की तुलना में गर्म रहता है – चले जाते हैं।
अब मैं तुम्हे कुछ उपदेश देता हूँ। यह पत्र विशेष रूप से तुम्हारे लिए है। कृपया प्रतिदिन इसे एकबार पढ़ना और इसे व्यवहार में लाना। मुझे सारदा का पत्र मिला, वह अच्छा काम कर रहा है, परन्तु अब हमें संगठन की आवश्यकता है। उसे, तारक दादा को, तथा औरों को मेरा विशेष प्रेम ओर आशीष कहना। तुम्हें इन थोड़े से आदेशों को देने का मुख्य कारण यह है कि तुममें संगठन की शक्ति है – ईश्वर ने मुझे यह दिखलाया है – परन्तु उसका अभी पूर्ण विकास नहीं हुआ है। ईश्वर की कृपा से वह शीघ्र ही हो जायगा। तुम अपना सन्तुलन-केन्द्र (centre of gravity) कभी नहीं खोते 1, यही उसका प्रमाण है; परन्तु गम्भीर और उदार, दोनों होना चाहिए।
१. सब शास्त्रों का कथन है कि संसार में जो त्रिविध दुःख हैं, वे नैसर्गिक नहीं हैं, और वे दूर किये जा सकते हैं।
२. बुद्ध अवतार में भगवान् कहते हैं कि इस आधिभौतिक दुःख का कारण भेद ही है; अर्थात् जन्मगत, गुणगत या धनगत – सब तरह का भेद इन दुःखों का कारण है। आत्मा में लिंग, वर्ण या आश्रम या इस प्रकार का कोई भेद नहीं होता, और जैसे कीचड़ के द्वारा कीचड़ नहीं धोया जाता, इसी तरह से भेदभाव से अभेद की प्राप्ति होनी असम्भव है।
३. कृष्ण अवतार में वे कहते हैं कि सब दुःखों का मूल अविद्या है और निष्काम कर्म चित्त को शुद्ध करता है। परन्तु किं कर्म किमकर्मेति आदि; ‘कर्म क्या है और अकर्म क्या है’, इसका निर्णय करने में महात्मा भी भ्रम में पड़ जाते हैं। (गीता)
४.जिस कर्म के द्वारा इस आत्मभाव का विकास होता है, वही कर्म है। और जिसके द्वारा अनात्मभाव का विकास होता है, वही अकर्म है।
५. अतएव कर्म या अकर्म का निर्णय व्यक्तिगत, देशगत और कालगत परिस्थिति के अनुसार होना चाहिए।
६. यज्ञ आदि कर्म प्राचीन काल में उपयोगी थे। परन्तु वे वर्तमान काल के लिए वैसे नहीं हैं।
७. रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरम्भ हुआ है।…
८. रामकृष्ण अवतार में नास्तिकतारूप म्लेच्छनिवह ज्ञानरूपी तलवार से नष्ट होंगे, और सम्पूर्ण जगत् भक्ति और प्रेम से एक सूत्र में बँध जायगा। साथ ही, इस अवतार में रजस् अर्थात् नाम-यश आदि की इच्छा का सर्वथा अभाव है। दूसरे शब्दों में, उसका जीवन धन्य है, जो इस अवतार के उपदेश को व्यवहार में लाये, चाहे वह उन्हें (इस अवतार को) स्वयं माने या न माने।
९. आधुनिक या प्राचीन समय के विविध सम्प्रदायों के संस्थापक अनुचित मार्ग पर न थे। उन्होंने अच्छा किया, परन्तु उससे और भी अच्छा करना है। कल्याण – तर – तम।
१०. इसलिए जो जिस स्थान पर है, वही उसे ग्रहण करना होगा, अर्थात् उसके इष्ट के भाव में आघात न कर उसे उच्चतर भाव में ले जाना होगा। जो इस समय की सामाजिक परिस्थिति है, वह अच्छी है, पर उसे उत्कृष्टतर से उत्कृष्टतम बनाना होगा।
११. स्त्रियों की अवस्था को बिना सुधारे जगत् के कल्याण की कोई सम्भावना नहीं है। पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना सम्भव नहीं है।
१२. इस कारण रामकृष्ण-अवतार में ‘स्त्री-गुरु’ को ग्रहण किया गया है, इसीलिए उन्होने स्त्री के रूप और भाव में साधना की और इस कारण ही उन्होंने जगज्जननी के रूप का दर्शन नारियों के मातृ-भाव में करने का उपदेश दिया।
१३. इसलिए मेरा पहला प्रयत्न स्त्रियों के मठ को स्थापित करने का है। इस मठ से गार्गी और मैत्रेयी और उनसे भी अधिक योग्यता रखनेवाली स्त्रियों की उत्पत्ति होगी।…
१४. चालाकी से कोई बड़ा काम पूरा नहीं हो सकता। प्रेम, सत्यानुराग और महान् वीर्य की सहायता से सभी कार्य सम्पन्न होते हैं। तत् कुरू पौरूषम, इसलिए पुरुषार्थ को प्रकट करो।
१५. किसीसे लड़ने-झगड़ने की आवश्यकता नहीं है। Give your message,leave others to their own thoughts.(अपना संदेश दे दो तथा दूसरों को उनके भाव के साथ रहने दो।) सत्यमेव जयते नानृतम् – ‘सत्य की ही जय होती है, असत्य की नहीं’; तदा किं विवादेन – ‘तब विवाद से क्या प्रयोजन?’
…गम्भीरता के साथ शिशु-सरलता को मिलाओ। सबके साथ मेल से रहो। अहंकार के सब भाव छोड़ दो और साम्प्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। व्यर्थ विवाद महापाप है।
…सारदा के पत्र से मालूम हुआ कि न – घोष ने मेरी ईसा मसीह आदि से तुलना की है। हमारे देश में इस प्रकार की बातें चल सकती है, परन्तु यदि तुम यहाँ ऐसा छपवाकर भेजो, तो मेरी निन्दा होने की सम्भावना है! तात्पर्य यह है कि मैं किसीके विचार की स्वतंत्रता में बाधा नहीं डालना चाहता – क्या मैं मिशनरी हूँ? यदि काली ने वे पत्र अमेरिका न भेजे हों, तो उससे कह दो कि न भेजे। केवल अभिनन्दन-पत्र पर्याप्त होगा – कार्यवाहियों के विवरण की आवश्यकता नहीं। इस देश के बहुत से माननीय स्री-पुरूष मुझे पूज्य मानते हैं। ईसाई मिशनरी और उनके जैसे दूसरे लोगों ने मुझे गिराने का भरसक प्रयत्न किया, परन्तु अपना यत्न निष्फल समझकर अब चुप बैठे हैं। प्रत्येक कार्य को अनेक विघ्न-बाधाएँ पार करनी पड़ती हैं। शान्ति के मार्ग पर चलने से ही सत्य की विजय होती है। श्री हडसन ने मेरे विरूद्ध कुछ कहा था, उसका उत्तर देने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं। पहले तो ऐसा करना अनावश्यक है, दूसरे, मैं श्री हडसन और उनके समान मनुष्यों की श्रेणी में अपने को गिरा लूँगा। क्या तुम पागल हो? एक श्री हडसन से क्या मैं यहाँ से लड़ूँगा? परमात्मा की कृपा से श्री हडसन से कहीं ऊँची श्रेणी के मनुष्य आदर के साथ मेरी बात सुनते हैं। कृपया समाचारपत्र इत्यादि अब मेरे पास न भेजो। जो सब बातें भारत में चल रही हैं, उन्हें चलने दो, इससे कोई हानि नहीं होगी। कुछ समय तक ईश्वरीय कार्य के हेतु समाचारपत्रों में ऐसी हलचल अच्छी थी। जब वह सम्पन्न हो गया, तब फिर उसकी आवश्यकता नहीं रही।… नाम और यश के साथ चलनेवाले दोषों में से यह भी एक दोष है कि कोई बात गुप्त नहीं रह सकती।…किसी नये कार्य को आरम्भ करने से पहले श्रीरामकृष्ण से प्रार्थना करो और वे तुम्हें उत्तम मार्ग दिखायेंगे। आरम्भ में हमें एक बड़ा भू-भाग चाहिए, फिर इमारत आदि सब कुछ हो जायगा, धीरे धीरे हमारा मठ अपना निर्माण स्वयं करेगा, उसकी चिन्ता न करों।…
काली तथा औरों ने अच्छा काम किया है। सबको मेरा स्नेह और शुभेच्छाएँ कहना। मद्रास के लोगों के साथ मिलकर काम करना, और तुममें से कोई एक वहाँ समय समय जाते रहना। मान, यश और अधिकार की इच्छा सदा के लिए त्याग दो। जब तक मैं पृथ्वी पर हूँ, श्रीरामकृष्ण मेरे माध्यम से काम कर रहे हैं। जब तक तुम इस पर विश्वास रखते हो, तुम्हें किसी बात का भय नहीं हो सकता।
‘रामकृष्ण-पोथी’ (बंगला कविता में श्रीरामकृष्ण का जीवन), जो अक्षय ने मुझे भेजी, वह बहुत अच्छी है, परन्तु उसके आरम्भ में ‘शक्ति’ की स्तुति नहीं है, यह उसमें बड़ा दोष है। उससे कहो कि दूसरे संस्करण में इस दोष को दूर कर दे। हमेशा याद रखो कि अब हम संसार की दृष्टि के सामने खड़े हैं, और लोग हमारे प्रत्येक काम और वचन का निरीक्षण कर रहे हैं। यह स्मरण रखकर काम करो।
… अपने मठ के लिए कोई स्थान देखते रहना।… यदि कलकत्ते से कुछ दूर हो, तो कोई हानि नहीं। जहाँ कहीं भी हम मठ बनायेंगे, वहीं पर हलचल मचेगी। महिम चक्रवर्ती के बारे में सुनकर प्रसन्न हुआ। मैं देखता हूँ कि ऐन्डीज पर्वत में गयाक्षेत्र बन गया है! वह कहाँ है? उसे, श्री विजय गोस्वामी और हमारे मित्रों को मेरा स्नेहमय नमस्कार कहना।… शत्रु को पराजित करने के लिए ढाल तथा तलवार की आवश्यकता होती है। इसलिए अंग्रेजी और संस्कृत का अध्ययन मन लगाकर करो। काली की अंग्रेजी दिन-प्रतिदिन उन्नति कर रही है और सारदा की कमजोर होती जा रही है। सारदा से कहो कि आलंकारिक पद्धति का त्याग करे। परदेशी भाषा में आलंकारिक पद्धति में लिखना अति कठिन है। उसे मेरी ओर से लाखों शाबाशियाँ कहना! – वही मर्द का काम।… तुम सबने बहुत अच्छा किया। शाबाश बच्चों! आरम्भ अत्यन्त शानदार है। इसी तरह से चले चलो। यदि ईर्ष्या-सर्प न आ जाय, तो कोई भय नहीं – माभैः! मद्भक्तानाञ्च ये भक्तास्ते मे भक्ततमा मताः – ‘जो मेरे भक्तों की सेवा करते हैं, वे मेरे सर्वोत्तम भक्त हैं।’ तुम सब लोग कुछ गम्भीर हो जाओ। मैं अभी हिन्दू धर्म पर कोई पुस्तक नहीं लिख रहा हूँ, परन्तु मैं अपने विचारों को संक्षेप में लिख रहा हूँ। प्रत्येक धर्म एक अभिव्यक्ति है, एक ही सत्य को प्रकाशित करने की मानो एक भाषा है और हमें हर एक से उसीकी भाषा में बात करनी चाहिए। सारदा ने इसे ठीक समझ लिया है, यह अच्छा है। हिन्दू धर्म का निरीक्षण करने के लिए बाद में काफी समय निकल आयेगा। क्या तुम समझते हो कि यदि मैं हिन्दू धर्म की चर्चा करूँगा, तो इस देश के लोग बहुत आकृष्ट होंगे? भावों की संकीर्णता का नाम ही उन्हें दूर भगा देगा। जो वास्तविक चीज है, वह है धर्म, जिसका उपदेश श्रीरामकृष्ण ने दिया था – हिन्दू, चाहे उसे हिन्दू धर्म कहें और दूसरे, अपनी इच्छा के अनुकूल किसी और नाम से पुकारें। तुम्हें केवल धीरे धीरे आगे बढ़ना चाहिए, शनैः पन्थाः – ‘यात्रा धीरे धीरे करनी चाहिए।’ दीननाथ से, जो अभी नया आया है, मेरा आशीर्वाद कहना। मुझे लिखने को बहुत कम समय मिलता है – हमेशा व्याख्यान! व्याख्यान! व्याख्यान!!! पवित्रता, धीरज, और निरन्तर उद्योग।… अधिक संख्या में आजकल जो लोग श्रीरामकृष्ण के उपदेशों की ओर ध्यान दे रहे हैं, उनसे कुछ हद तक आर्थिक सहायता की प्रार्थना करो। यदि वे सहायता नहीं करेंगे, तो मठ का निर्वाह कैसे हो सकता है? सबसे यह स्पष्ट कहने में तुम्हें लज्जा नहीं मालूम होनी चाहिए।…
इस देश से शीघ्र ही लौटने में कोई लाभ नहीं है। पहली बात यह कि यहाँ पर किये हुए क्षीण शब्द से भी वहाँ पर प्रतिध्वनि बहुत अधिक होगी। फिर यहाँ के लोग अति धनवान हैं और देने का भी साहस रखते हैं। जहाँ कि हमारे देश के लोगों के पास न तो धन है और न साहस की किञ्चिन्मात्रा ही।
तुम्हें धीरे धीरे सब मालूम हो जायगा। क्या श्रीरामकृष्ण केवल भारत के उद्धारक ही थे? इस संकीर्ण भाव ने ही भारतवर्ष का नाश किया है, और उसका कल्याण असम्भव है, जब तक यह भाव जड़ से न निकाला जायगा। यदि मेरे पास धन होता, तो मैं तुम में से प्रत्येक को सारे संसार में भ्रमण करने के लिए भेजता। कोई भी महान् विचार किसीके हृदय में स्थान नहीं पा सकता है, जब तक कि वह अपने सीमित दायरे से बाहर न निकले। समय पाकर यह प्रमाणित होगा। प्रत्येक महान् कार्य धीरे धीरे होता है। यही परमात्मा की इच्छा है।…
तुम लोगों में से किसीने हरीश और दक्ष के विषय में क्यों नहीं लिखा? यदि तुम उनके बारे में खोज-ख़बर रखोगे, तो मैं हर्षित होऊँगा। सान्याल दुःख का अनुभव कर रहा है, क्योंकि उसका मन अभी गंगाजल के समान निर्मल नहीं हुआ। अभी तक वह निःस्वार्थी नहीं है, परन्तु समय पर हो जायगा। यदि वह अपनी थोड़ी सी कुटिलता छोड़कर सीधा हो जाय, तो उसका दुःख भी मिट जायगा। राखाल और हरि को मेरा विशेष प्रेम। उनकी ओर विशेष ध्यान देना।… यह कभी न भूलना कि राखाल श्रीरामकृष्ण के प्रेम का विशेष पात्र था। किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो, तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। इस वर्ष श्रीरामकृष्ण का उत्सव धूम-धाम से मनाओ। खाना-पीना साधारण रखो – एकत्र लोगों को मिट्टी के पात्रों में प्रसाद बिना किसी नियम के बाँट दो। यह पर्याप्त होगा। श्रीरामकृष्ण की जीवनी से पाठ होगा। वेद और वेदान्त जैसी पुस्तकों को एक साथ रखकर उनकी आरती करो… पुरानी पद्धति के अनुसार निमन्त्रण-पत्र मत भेजो। आमन्त्रये भवन्तं साशीर्वादं भगवतो रामकृष्णस्य बहुमानपुरःसरञ्च – इस प्रकार की पंक्तियाँ लिखकर फिर श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव और मठ के निर्वाह के लिए उनकी सहायता माँगो। और यदि वे चाहें, तो अमुक नाम से, अमुक पते से रूपया भेज दें। एक पृष्ठ अंग्रेजी का भी जोड़ दो। ‘लार्ड’ श्रीरामकृष्ण पद का कोई अर्थ नहीं है। उसे त्याग दो। अंग्रेजी अक्षरों में ‘भगवान्’ लिखो और कुछ पंक्तियाँ अंग्रेजी की आगे लगा दो। जैसे –
The Anniversary of Bhagavan Ramakrishna
Sir,
We have great pleasure in inviting you to join us in celebrating the – th anniversary of Bhagavan Ramakrishna Paramahansa. For the celebration of this great occasion and for the maintenance of the Alambazar Math, funds are absolutely necessary. If you think that the cause is worthy of your sympathy, we shall be very grateful to receive your contribution to the great work
(Date)
(Place)
Yours obediently,
(Name)
भगवान् श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव
महाशय,
भगवान् रामकृष्ण परमहंस के – वें वार्षिकोत्सव को मनाने में सम्मिलित होने के लिए हम सहर्ष आपको आमंत्रित करते हैं। इस सुअवसर को मनाने के लिए और आलमबाजार मठ को चलाने के लिए धन की नितान्त आवश्यकता है। यदि आप समझते हैं कि यह कार्य आपकी सहानुभूति के योग्य है, तो इस महान् कार्य के संचालन के लिए हम कृतज्ञतापूर्वक आपका दान स्वीकार करेंगे।
(तारीख)
(नाम)
आज्ञापूर्वक आपका,
(स्थान)
यदि तुम्हें आवश्यकता से अधिक धन मिले, तो उसमें से थोड़ा सा ही व्यय करो, और बचे हुए रुपये को मठ के लिए संचित रखो। नैवेद्य चढ़ाने के बहाने से लोगों को इतनी देर प्रतीक्षा न करवाओ कि वे अस्वस्थ हो जायँ और फिर उन्हें बासी और स्वादहीन भोजन करना पड़े। दो फिल्टर बनवा लो और पकाने एवं पीने के लिए फिल्टर का पानी काम में लाओ। छानने से पहले पानी उबाल लो। यदि तुम ऐसा करोगे, तो मलेरिया का नाम तक नहीं सुनोगे। सबके स्वास्थ्य की ओर खूब ध्यान दो। यदि तुम जमीन पर लेटना छोड़ सकते हो अर्थात् यदि तुम्हें ऐसा करने के लिए पर्याप्त धन मिल सकता है, तो अति उत्तम होगा। रोग के मुख्य कारण गन्दे कपड़े होते हैं।… मैं तुमसे कहता हूँ कि नैवेद्य के लिए थोड़ा सा पायसान्न ही पर्याप्त होगा। उन्हें केवल वही प्रिय था। यह सत्य है कि पूजागृह से बहुत से लोगों को सहायता मिलती है, परन्तु राजसिक और तामसिक भोजन करना उचित नहीं। विधियों को कुछ कम करके गीता या उपनिषद् या शास्त्रों के अध्ययन को कुछ स्थान हो। मेरा मतलब यह है – भौतिकता को कम से कम कर दो और आध्यात्मिकता को अधिक से अधिक मात्रा में बढ़ा दो।… श्रीरामकृष्ण क्या किसी व्यक्तिविशेष के लिए आये थे या संसार के लिए? यदि संसार के लिए, तो उनके जीवन का इस तरह दिग्दर्शन प्रस्तुत करो कि सारा संसार उन्हें समझ सके।You must not identify yourself with any life of Him written by anybody, nor give your sanction to any. (किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण के जीवन-चरित्र से तुम अपना नाम किसी प्रकार सम्बन्धित न करना और न अपनी स्वीकृति ही किसी ऐसे ग्रन्थ के लिए देना)। इन जीवन-चरित्रों के साथ हम लोगों का नाम न जुड़ा रहना चाहिए, बस, फिर कोई हर्ज नहीं। ‘सुनिए सबकी – करिए मन की।’
महेन्द्र बाबू ने हमारी सहायता करके कृपा की, इसके लिए उन्हें सहस्रों बार धन्यवाद। वे बड़े उदारहृदय व्यक्ति हैं…सान्याल यदि अपना काम ध्यान से करेगा अर्थात् श्रीरामकृष्ण की सन्तान की केवल सेवा, तो वह सर्वोत्तम कल्याण को प्राप्त करेगा।… तारक दादा बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। शाबाश! बहुत अच्छा! यही हम चाहते हैं। अनेक पुच्छल तारों की तरह मैं तुम लोगों को उज्ज्वल एवं प्रभावशाली देखना चाहता हूँ। गंगाधर क्या कर रहा है? राजपूताने के कुछ जमींदार उसका आदर करते हैं। उससे कहो कि वह भिक्षा-रूप में लोकसेवा के लिए उनसे कुछ धन ले; तभी तो बात है।…
अभी मैने अक्षय की पुस्तक पढ़ी। मेरी ओर से उसे कोटिशः स्नेहमय आलिंगन। उसकी लेखनी से श्रीरामकृष्ण अभिव्यक्त हो रहे हैं। धन्य है अक्षय! उसे उस ‘पोथी’ का पाठ सबके सामने करने दो। उत्सव के दिन उसे सबके सामने कुछ पाठ करना चाहिए। यदि पुस्तक बहुत बड़ी हुई, तो उसे उसका कुछ विशेष भाग पढ़ने दो। उसमें मैं एक भी असम्बद्ध शब्द नहीं पाता हूँ। उस किताब के पढ़ने से मुझे जो आनन्द हुआ है, उसका मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकता। तुम सब यत्न करके उसका बहुत अधिक विक्रय करवाओ। फिर अक्षय से कहो कि गाँव गाँव जाकर प्रचार करे। शाबाश अक्षय! वह प्रभु का काम कर रहा है। गाँव गाँव जाकर श्रीरामकृष्ण के उपदेश की घोषणा करो। इससे अधिक सौभाग्य का विषय और क्या हो सकता है? मैं कहता हूँ कि स्वयं अक्षय और उसकी पुस्तक, दोनों को जनता में एक प्रकार का विद्युत्संचार कर देना चाहिए। प्रिय, प्रिय अक्षय, मैं हृदय से तुम्हें आशीष देता हूँ। मेरे प्यारे भाई! भगवान् तुम्हारी जिह्वा पर विराजमान रहे। जाओ, द्वार द्वार उनका उपदेश सुनाओ। तुम्हें संन्यासी बनने की कोई आवश्यकता नहीं है।… बंगाल की जनता के लिए भविष्य में अक्षय ईश्वरीय दूत होगा। अक्षय का खयाल रखना। उसकी भक्ति और श्रद्धा फलवती हुई है।
अक्षय से कहना कि अपनी पुस्तक के द्वितीय भाग ‘धर्म-प्रचार’ में वह निम्नलिखित बातें लिखे :
१. वेद-वेदान्त तथा अन्य अवतारों ने जो भूतकाल में किया, श्रीरामकृष्ण ने उन सबकी साधना एक ही जीवन में कर डाली।
२. वेद-वेदान्त, अवतार और इस प्रकार की अन्य बातों को कोई तब तक समझ नहीं सकता, जब तक वह उनके जीवन को न समझें; क्योंकि वही उन सब विषयों की व्याख्या है।
३. उनके जन्म की तिथि से ही सत्ययुग आरम्भ हुआ है। इसलिए अब सब प्रकार के भेदों का अन्त है और सब लोग चाण्डाल सहित उस दैवी प्रेम के भागी होंगे। पुरुष और स्त्री, धनी और दरिद्र, शिक्षित और अशिक्षित, ब्राह्मण और चाण्डाल – इन सब भेद-भावों को समूल नष्ट करने के लिए उनका जीवन व्यतीत हुआ था। वे शान्ति के दूत थे – हिन्दू और मुसलमानों का भेद, हिन्दू और ईसाइयों का भेद – सब भूतकालीन हो गये हैं। मान-प्रतिष्ठा के लिए जो झगड़े होते थे, वे सब अब दूसरे युग से सम्बन्धित हैं। इस सत्ययुग में श्रीरामकृष्ण के प्रेम की विशाल लहर ने सब को एक कर दिया है।
उससे कहो कि इन विचारों को वह विस्तारपूर्वक अपनी शैली में लिखे।
जो कोई – पुरुष या स्त्री – श्रीरामकृष्ण की उपासना करेगा, वह चाहे कितना ही पतित क्यों न हो, तत्काल ही उच्चतम में परिणत हो जायगा। एक बात और है, इस अवतार में परमात्मा का मातृभाव विशेष स्पष्ट है। वे स्त्रियों के समान कभी कभी वस्त्र पहनते थे – वे मानो हमारी जगन्माता जैसे ही थे – इसलिए हमें सब स्त्रियों को उस जगन्माता की ही मूर्तियाँ माननी चाहिए। भारत में दो बड़ी बुरी बातें हैं। स्त्रियों का तिरस्कार और ग़रीबों को जाति-भेद के द्वारा पीसना। वे स्त्रियों के रक्षक थे, जनता के रक्षक थे, ऊँच और नीच सबके रक्षक थे। अक्षय उनकी उपासना सब घरों में प्रचलित कर दे, चाहे ब्राह्मण हो या चाण्डाल, पुरुष हो या स्त्री – सबको उनकी पूजा का अधिकार है। जो प्रेम से उनकी पूजा करेगा, उसका सदा के लिए कल्याण हो जायगा।
उससे कहना कि वह इस पद्धति से लिखे। वह किसी बात की चिन्ता न करे। भगवान् उसके साथ रहेगा। किमधिकमिति।
नरेन्द्र
पुनश्च – सान्याल से कहना कि नारद और शाण्डिल्य सूत्र की एक एक प्रति और एक योगवासिष्ठ की प्रति, जिसका अनुवाद अभी कलकत्ते में हुआ है, मुझे भेजे। मुझे योगवासिष्ठ का अंग्रेजी अनुवाद चाहिए, बंगला संस्करण नहीं।…
- इसका तात्पर्य यह है कि तुम इधर-उधर न घूमकर एक ही जगह रहना पसन्द करते हो।