स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित (19 मार्च, 1894)

(स्वामी विवेकानंद का स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखा गया पत्र)
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय

द्वारा जार्ज डब्ल्यू. हेल,
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
१९ मार्च, १८९४

प्रिय शशि,

इस देश में आने के बाद मैंने तुम्हें कोई पत्र नहीं लिखा। पर हरिदास भाई1 के पत्र से सब समाचार मालूम हुए। गिरीशचन्द्र घोष2 और तुम सबने हरिदास भाई की अच्छी खातिर की, यह ठीक ही हुआ।

इस देश में मुझे किसी वस्तु का अभाव नहीं है। पर यहाँ भिक्षा का रिवाज नहीं। मुझे परिश्रम करना पड़ता है, यानी स्थान-स्थान पर उपदेश देना पड़ता है। यहाँ जैसी गर्मी है, जाड़ा भी वैसा ही। गर्मी कलकत्ते से तनिक भी कम नहीं। जाड़े की बात क्या कहूँ? समूचा देश दो-तीन हाथ, कहीं कहीं चार-पाँच हाथ गहरी बर्फ़ से ढक जाता है। दक्षिण की ओर बर्फ़ नहीं पड़ती। पर बर्फ़ तो छोटी चीज हुई। जब पारा ३२ डिग्री पर रहता है, तब बर्फ़ गिरती है। कलकत्ते में पारा ६० डिग्री से नीचे बहुत ही कम उतरता है। इंग्लैण्ड में कभी शून्य तक भी जाता है। परन्तु यहाँ पारा शून्य से ४०-५० डिग्री तक नीचे चला जाता है। उत्तरी हिस्से में, कनाडा में, पारा जम जाता है। उस समय मद्यसार का तापमापक यंत्र काम में लाया जाता है। जब बहुत ही ठण्डक होती है, अर्थात् जब पारा २० डिग्री के नीचे रहता है, तब बर्फ नहीं गिरती। मेरी धारणा थी कि बर्फ गिरी कि ठण्डक की हद हो गयी। ऐसी बात नहीं, बर्फ जरा कम ठण्डे दिनों में गिरती है। अत्यधिक ठण्डक में एक तरह का नशा सा हो जाता है। गाड़ियाँ उस समय नहीं चलतीं; केवल बिना पहिये का स्लेज जमीन पर फिसलकर चलता है। सब कुछ जमकर सख्त हो जाता है – नदी, नाले और झील पर से हाथी भी चल सकता है। नियाग्रा का प्रचण्ड प्रवाहवाला विशाल निर्झर जमकर पत्थर हो गया है! परन्तु मैं अच्छी तरह हूँ। पहले थोड़ा डर मालूम होता था, फिर तो गरज के मारे, रेल से एक दिन कनाडा के समीप, दूसरे दिन अमेरिका के दक्षिण भाग में व्याख्यान देता फिर रहा हूँ। रहने के कमरों की तरह गाड़ियाँ भी भाप के नलों से खूब गरम रखी जाती हैं और बाहर चारों ओर अमल धवल तुषार के समूह हैं – कैसी अनोखी छटा है!

बड़ा डर था कि मेरी नाक और कान गिर जायँगे, पर आज तक कुछ नहीं हुआ। हाँ, बाहर जाते समय राशीकृत गर्म कपड़े, उन पर समूर का कोट, जूते, फिर उन पर ऊनी जूते, इन सब से आवृत्त होकर निकलना पड़ता है। साँस निकलते ही दाढ़ी में जम जाती है! उस पर तमाशा तो यह है कि घर के भीतर, बिना एक डली बर्फ दिये ये लोग पानी नहीं पीते। घर के अन्दर की गरमी के कारण वे ऐसा करते हैं। हर एक कमरा और सीढ़ी भाप के नलों से गरम रखी जाती है। ये लोग कला-कौशल में अद्वितीय हैं, भोग-विलास में अद्वितीय हैं, धन कमाने में अद्वितीय हैं, और खर्च करने में भी अद्वितीय हैं। एक कुली की रोजाना आय ६ रु. है – नौकर की भी वही। ३ रु. से नीचे किराये की गाड़ी नहीं मिलती। चार आने से कम का चुरुट नहीं है। २४ रु. में मध्यम दर्जे का एक जोड़ा जूता मिल जाता है। ५०० रु. में एक पोशाक बनती है। जैसा कमाते हैं, खर्च भी वैसा ही करते हैं। एक एक व्याख्यान में २०० रु. से ३००० रु. तक मिल सकते हैं। मुझे १५०० रु. तक मिले हैं। हाँ, अब तो मेरा भाग्य खुल गया है। ये मुझे प्यार करते हैं और हजारों आदमी मेरे व्याख्यान सुनने आया करते हैं।

प्रभु की इच्छा से मजूमदार महाशय से मेरी यहाँ भेंट हुई। पहले तो बड़ी प्रीति थी, पर जब सारे शिकागो शहर के नर-नारी मेरे पास झुण्ड के झुण्ड आने लगे, तब मजूमदार भैया के मन में आग लग गई। मैं तो देख-सुनकर दंग रह गया!१… मेरे जैसा उनका न हुआ, इसमें मेरा क्या दोष?… और मजूमदार ने धर्म-महासभा के पादरियों के पास मेरी यथेष्ट निन्दा की। ‘वह कोई नहीं; वह ठग है, ढोंगी है; वह तुम्हारे देश में कहता है कि “मैं साधु हूँ” – आदि कहकर उनके मन में मेरे बारे में गलत धारणा पैदा कर दी। प्रेसिडेन्ट बरोज को ऐसे बिगाड़ा कि वे मुझसे अब अच्छी तरह बातचीत भी नहीं करते। उनके पुस्तकों एवं पुस्तिकाओं में मुझे दबाने का भरसक प्रयत्न देखने को मिलता है किन्तु गुरुदेव मेरे साथ हैं। दूसरे लोग क्या कर सकते हैं? सारा अमेरिका मेरा आदर करता है, मुझे भक्ति करता है, पैसे देता है, गुरु जैसा मानता है – मजूमदार बेचारा क्या करे? पादरी इत्यादि भी मेरा क्या कर सकते हैं? और ये लोग भी तो विद्वान् हैं। यहाँ सिर्फ इतना ही कहने से नहीं बनता कि ‘हम लोग हमारी विधवाओं की शादी करते हैं,’ ‘हम लोग मूर्ति-पूजा नहीं करते,’ इत्यादि, इत्यादि। केवल पादरियों के यहाँ से बातें चलती हैं। भाई, ये लोग तत्वज्ञान सीखना चाहते हैं, विद्या चाहते हैं; कोरी बातों से अब और नहीं चलेगा।

धर्मपाल बड़ा अच्छा लड़का है। ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है, किन्तु भला आदमी है। इस देश में वह काफी लोकप्रिय हुआ था।

भाई, मजूमदार को देखकर मेरी बुद्धि ठिकाने आ गयी। भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है – ये निघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे (जो नाहक औरों के हित के बाधक होते हैं, वे कैसे हैं, यह हमें नहीं मालूम)। भाई, सब दुर्गुण मिट जाते हैं, पर वह अभागी ईर्ष्या नहीं मिटती…! हमारी जाति का वही दोष है – केवल परनिन्दा और ईर्ष्या। वे सोचते हैं कि हमहीं बड़े हैं – दूसरा कोई बड़ा न होने पाये।

इस देश की सी महिलाएँ दुनियाभर में नहीं हैं। ये कैसी पवित्र, स्वावलम्बिनी और दयावती हैं। महिलाएँ ही यहाँ की सब कुछ हैं। शिक्षा, संस्कृति सभी उन्हीं में केन्द्रित हैं। या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेषु (जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं लक्ष्मीरूपिणी हैं) इसी देश पर लागू है, पापात्मनां अलक्ष्मीः (पापियों के हृदय में अलक्ष्मीरूपिणी हैं) हमारे देश पर – बस्, यही समझ लो। राम राम! यहाँ की महिलाओं को देखकर तो मेरे होश उड़ गये। त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीः (तुम्हीं लक्ष्मी हो, तुम्हीं ईश्वरी हो, तुम्हीं लज्जारूपिणी हो) इत्यादि। या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता (जो देवी सब प्राणियों में शक्तिरूप से विराजती है)। यह सब यहाँ से सम्पर्कित हैं। यहाँ की बर्फ जैसी सफेद है, वैसी शुद्ध मनवाली हजारों नारियाँ यहाँ है। फिर अपने देश की दस वर्ष की उम्र में बच्चों को जन्म देनेवाली बालिकाएँ!!! प्रभु, मैं अब समझ रहा हूँ। अरे भाई, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः (जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता प्रसन्न रहते हैं) – बूढ़े मनु ने कहा है। हम महापापी हैंः स्त्रियों को ‘घृणित कीट’, ‘नरक के द्वार’ आदि कहकर हम अधःपतित हुए हैं। बाप रे बाप! कैसा आकाश-पाताल का अन्तर है। याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात्। (जहाँ जैसा उचित हो, ईश्वर वहाँ वैसा कर्मफल का विधान करते हैं। – ईशोपनिषद्)। क्या प्रभु झूठी गप्प से भूलने वाले हैं? प्रभु ने कहा है, त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत या कुमारी (तुम्हीं स्त्री हो और तुम्हीं पुरुषः तुम्हीं कुमार हो और तुम्हीं कुमारी। – श्वेताश्वतरोपनिषद्) इत्यादि; और हम कह रहे हैं, दूरमपसर रे चाण्डाल (ऐ चाण्डाल, दूर हट), केनैषानिर्मिता नारी मोहिनी (किसने इस मोहिनी नारी को बनाया है?) इत्यादि। दक्षिण भारत में उच्च जातियों का नीच जातियों पर क्या ही अत्याचार मैंने देखा है! मन्दिरों में देव-दासियों के नृत्य की ही धूम मची है! जो धर्म गरीबों का दुःख नहीं मिटाता, मनुष्य को देवता नहीं बनाता, क्या वह धर्म है? क्या हमारा धर्म धर्म कहलाने योग्य है? हमारा तो छूतमार्ग है – सिर्फ ‘मुझे मत छुओ, ‘मुझे मत छुओ’। हे हरि! जिस देश के बड़े बड़े शीर्षस्थानीय नेता आज दो हजार वर्षों से सिर्फ यही विचार कर रहे हैं कि दाहिने हाथ से खायें या बायें हाथ से ; पानी दाहिनी ओर से लें या बायीं ओर से और जो लोग फट् फट् स्वाहा, क्रां क्रां हुं हुं करते हैं, उनकी अधोगति न होगी, तो किसकी होगी? कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः। (काल सभी के सो जाने पर भी जागता ही रहता है, काल का अतिक्रमण करना बहुत कठिन है। महाभारत, आदि पर्व – १-२५० वे जान रहे हैं, भला उनकी आँखों में धूल कौन झोंक सकता है?

जिस देश में करोड़ों मनुष्य महुआ खाकर दिन गुजारते हैं, और दस-बीस लाख साधु और दस-बारह करोड़ ब्राह्मण उन गरीबों का खून चूसकर पीते हैं और उनकी उन्नति के लिए कोई चेष्टा नहीं करते, क्या वह देश है या नरक? क्या वह धर्म है या पिशाच का नृत्य? भाई, इस बात को गौर से समझो – मैं भारतवर्ष को घूम-घूमकर देख चुका हूँ और इस देश को भी देखा है – क्या बिना कारण के कहीं कोई कार्य होता है? क्या बिना पाप के कहीं सजा मिल सकती है?

सर्वशास्त्रपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारस्तु पुण्याय पापाय परपीडनम्॥

– ‘सब शास्त्रों और पुराणों में व्यास के ये दो वचन हैं – परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़ा से पाप’। क्या यह सच नहीं है?

भाई, यह सब देखकर – खासकर देश के दारिद्रय और अज्ञता को देखकर – मुझे नींद नहीं आती। कन्याकुमारी में माता कुमारी के मन्दिर में बैठकर, भारत की अन्तिम चट्टान पर बैठकर, मैंने एक योजना सोच निकाली। हम जो इतने संन्यासी घूमते फिरते हैं और लोगों को दर्शनशास्त्र की शिक्षा दे रहे हैं, यह सब निरा पागलपन है। क्या हमारे गुरुदेव कहा नहीं करते थे खाली पेट में धर्म नहीं होता? वे गरीब लोग जानवरों का सा जो जीवन बिता रहे हैं, उनका कारण अज्ञान है। पाजियों ने चारों युगों में उनका खून चूसकर पिया है और उन्हें पैरों तले कुचला है।

सोचो, गाँव गाँव में कितने ही संन्यासी घूमते फिरते हैं, वे क्या काम करते हैं? यदि कोई निःस्वार्थ परोपकारी संन्यासी गाँव गाँव विद्यादान करता फिरे और भाँति भाँति के उपायों से मानचित्र, कैमरा, भू-गोलक आदि के सहारे चाण्डाल तक सबकी उन्नति के लिए घूमता फिरे तो क्या इससे समय पर मंगल होगा या नहीं? ये सभी योजनाएँ मैं इतने छोटे से पत्र में नहीं लिख सकता। बात यह है कि ‘यदि पहाड़ मुहम्मद के पास न आये, तो मुहम्मद ही पहाड़ के पास जायेगा।’ (अर्थात् यदि गरीब के लड़के विद्यालयों में न आ सकें, तो उनके घर पर जाकर उन्हें शिक्षा देनी होगी) गरीब लोग इतने बेहाल हैं कि वे स्कूलों और पाठशालाओं में नहीं आ सकते। और कविता आदि पढ़कर उन्हें कोई लाभ नहीं। एक जाति की हैसियत से हमने अपनी जातीय विशेषता को खो दिया है और यही सारे अनर्थ का कारण है। हमें हमारी इन जाति को उसकी खोयी हुई जातीय विशेषता को वापस ला देना है और अनुन्नत लोगों को उठाना है। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी ने उन्हें पैरों तले रौंदा है। उनको उठानेवाली शक्ति भी अन्दर से अर्थात् धर्मनिष्ठ हिन्दुओं से ही लानी पड़ेगी। प्रत्येक सेवा में बुराइयाँ धर्म के कारण नहीं, बल्कि धर्म को न मानने के कारण ही विद्यमान हैं। अतः धर्म का कोई दोष नहीं, दोष मनुष्यों का है।

इसे करने के लिए पहले मनुष्य चाहिए, फिर धन। गुरु की कृपा से मुझे हर एक शहर में दस-पन्द्रह आदमी मिल जायेंगे। मैं धन की चेष्टा में घूमा, पर भारतवर्ष के लोग भला धन देंगे!!! मूर्ख, मतिभ्रष्ट और स्वार्थपरता की मूर्ति, भला वे धन देंगे! इसीलिए मैं अमेरिका आया हूँ ; स्वयं धन कमाऊँगा, और तब देश लौटकर अपने जीवन के इस एकमात्र ध्येय की सिद्धि के लिए अपना जीवन निछावर कर दूँगा।

जैसे हमारे देश में सामाजिक गुणों का अभाव है, वैसे यहाँ आध्यात्मिकता का अभाव है। मैं इन्हें आध्यात्मिकता प्रदान कर रहा हूँ और ये मुझे धन दे रहे हैं। मैं कितने दिनों में कृतकार्य हूँगा, यह नहीं जानता, हमारे समान ये लोग पाखण्डी नहीं और इनमें ईर्ष्या बिल्कुल नहीं है। मैं किसी भी भारतवासी के भरोसे नहीं हूँ। स्वयं प्राणपण चेष्टा से अर्थ-संग्रह करके अपना उद्देश्य सफल करूँगा, उसीके लिए मर मिटूँगा। सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति। (जब मृत्यु निश्चित है, तो किसी सत्कार्य के लिए मरना ही श्रेयस्कर है।)

शायद तुम सोचोगे कि क्या असम्भव बातें कर रहा है! तुम्हें नहीं मालूम मेरे भीतर क्या है। यदि मेरे उद्देश्य की सफला के लिए तुममें से कोई मेरी सहायता करे, तो अच्छा ही है, नहीं तो गुरुदेव मुझे पथ दिखायेंगे। इति। श्री श्री माता जी को मेरा कोटि कोटि साष्टांग प्रणाम कहना। उनके आशीर्वाद से मेरा सर्वत्र मंगल है। बाहरी लोगों के सम्मुख इस पत्र को पढ़ने की आवश्यकता नहीं। यह बात सभी से कहना, सभी से पूछना – क्या सभी लोग ईर्ष्या त्यागकर एकत्र रह सकेंगे या नहीं? यदि नहीं, तो जो ईर्ष्या किये बिना नहीं रह सकता, उसके लिए घर वापस चले जाना ही अच्छा होगा, और इससे सभी का भला होगा। और वही हमारा जातिगत दोष है! इस देश (अमेरिका) में वह नहीं है, इसीसे ये इतने बड़े हैं।

हम जैसे कूपमण्डूक दुनियाभर में नहीं हैं। कोई भी नयी चीज किसी देश से आये, तो अमेरिका उसे सबसे पहले अपनायेगा। और हम? अजी, हमारे जैसे ऊँचे खानदानवाले दुनिया में और हैं ही नहीं! हम ‘आर्यवंशी’ जो ठहरे!! वंश कहाँ है, यह नहीं मालूम!

…एक लाख लोगों के दबाने से तीस करोड़ लोग कुत्तों के समान घूमते हैं, और वे ‘आर्यवंशी’ हैं!!! किमधिकमिति –

विवेकानन्द



  1. जूनागढ के भूतपूर्व दीवान। अमेरिका के लिए प्रस्थान करने के पहले स्वामी जी इन से घनिष्ट रुप से परिचित इुए थे। इन्होंने देशीय राजाओं से स्वामीजी का परिचय करा दिया था।
  2. भगवान् श्री रामकृष्ण के अन्तरंग अनुगत गृही शिष्य; बंगाल के प्रसिद्ध नाट्यकार और अभिनेता।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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