स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी योगानन्द को लिखित (24 जनवरी, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी योगानन्द को लिखा गया पत्र)
२२८ पश्चिम ३९वाँ रास्ता,
न्यूयार्क,
२४ जनवरी, १८९६
भाई योगेन,
अरहर तथा मूँग की दाल, आमरोटी, अमचूर, आमतेल, आम का मुरब्बा, बड़ी, मसाला आदि कुछ ठीक ठीक पते पर आ पहुँचा है। ‘बिल ऑफ लेडिंग’ (माल भेजने का बिल) में दस्तख़त करने में भूल हुई थी तथा ‘इनवॉइस’ (चालान) भी नहीं था; इसलिए कुछ गड़बड़ी हुई। अन्त में, जो कुछ भी हो, सब वस्तुएँ ठीक ठीक प्राप्त हुई। अनेक धन्यवाद! अब यदि इंग्लैण्ड में स्टर्डी के पते पर – अर्थात् हाई व्यू, कैवरशम, रीडिंग – इस पते पर – उसी प्रकार दाल तथा आमतेल भेजो, तो इंग्लैण्ड पहुँचने पर मुझे मिल जायगा। भुनी हूई मूँग की दाल भेजने की आवश्यकता नहीं है। भुनी हुई दाल कुछ दिन बाद संभवतः खराब हो जाती है। कुछ चने की दाल भेजना। इंग्लैण्ड में ‘ड्यूटी’ (चुंगी) नहीं है – अतः माल पहुँचने में कोई गड़बड़ी नहीं होती है। स्टर्डी को पत्र लिख देने से ही वह माल छुड़ा लेगा।
तुम्हारा शरीर अभी स्वस्थ नहीं हुआ है – यह अत्यन्त दुःख का विषय है। किसी शीतप्रधान स्थान में हवा बदलने के लिए जा सकते हो, वह स्थान ऐसा होना चाहिए, जहाँ कि अधिक मात्रा में बर्फ गिरती है – जैसा दार्जिलिंग। जाड़े के प्रभाव से उदर के तमाम विकार दूर हो जाएँगे, जैसा कि मेरा हुआ है। घी तथा मसाले का उपयोग एकदम त्याग दो। मक्खन घी से जल्दी हजम होता है। शब्दकोष मिलने पर खबर दूँगा। मेरी हार्दिक प्रीति ग्रहण करना तथा सबसे कहना। निरंजन का समाचार क्या अभी तक नहीं मिला है? गोलाप माँ, योगेन माँ, रामकृष्ण की माँ, बाबूराम की माँ, गौरी माँ आदि से मेरा प्रणामादि कहना। महेन्द्र बाबू की पत्नी को मेरा प्रणाम कहना।
तीन महीने बाद फिर मैं इंग्लैण्ड जा रहा हूँ, पुनः आन्दोलन विशेष रूप से चालू करना चाहता हूँ। अनन्तर अगले जाड़े में भारतवर्ष रवाना होना है। आगे विधाता की इच्छा। सारदा जो पत्र प्रकाशित करना चाहता है, उसके लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दो। शशि तथा काली से भी प्रयास करने को कहना। अभी काली या अन्य किसी को इंग्लैण्ड आने की आवश्यकता नहीं है। मैं भारत पहुँचकर उनको शिक्षा दूँगा। फिर जो जहाँ जाना चाहे, जा सकता है। किमधिकमिति –
विवेकानन्द
पुनश्च – स्वयं कुछ करना नहीं और यदि दूसरा कोई कुछ करना चाहे, तो उसका मख़ौल उड़ाना हमारी जाति का एक महान् दोष है और इसी से हमारी जाति का सर्वनाश हुआ है। हृदयहीनता तथा उद्यम का अभाव सब दुःखों का मूल है। अतः उन दोनों को त्याग दो। किसके अन्दर क्या है, प्रभु के बिना कौन जान सकता है? सभी को अवसर मिलना चाहिए। आगे प्रभु की इच्छा। सब पर समान स्नेह रखना अत्यन्त कठिन है ; किन्तु उसके बिना मुक्ति नहीं मिल सकती। इति।
वि.