राजयोग तृतीय अध्याय – प्राण
Third Chapter of Swami Vivekananda’s Raja Yoga in Hindi: Prana
स्वामी विवेकानंद कृत “राजयोग” नामक किताब का यह तीसरा अध्याय है। पिछले अध्याय “साधना के प्राथमिक सोपान” में उन्होंने प्राणायाम के विषय को छुआ था। प्रस्तुत अध्याय में स्वामी जी “प्राण” के विषय को और विस्तार देते हुए उसके स्वरूप की गहराई से व्याख्या कर रहे हैं।
योग में–विशेषतः प्राणायाम में–रुचि रखने वालों के लिए यह अध्याय बहुत ही महत्वपूर्ण है। यदि आपको यह अध्याय पसंद आए या इससे संबंधित कोई प्रश्न हो, तो कृपया टिप्पणी अवश्य करें।
बहुतों का विचार है, प्राणायाम श्वास-प्रश्वास की कोई क्रिया है। पर असल में ऐसा नहीं है। वास्तव में तो श्वास-प्रश्वास की क्रिया के साथ इसका बहुत थोड़ा संबंध है। यथार्थ प्राणायाम की साधना में अधिकारी होने के लिए बहुत से अलग-अलग उपाय हैं। श्वास-प्रश्वास की क्रिया उनमें से एक उपाय मात्र है। प्राणायाम का अर्थ है प्राणों का संयम। भारतीय दार्शनिकों के मतानुसार सारा जगत दो पदार्थों में निर्मित है। इनमें से एक का नाम है आकाश। यह आकाश एक सर्वव्यापी, सर्वानुस्यूत सत्ता है। जिस किसी वस्तु का आकार है, जो कोई वस्तु कुछ वस्तुओं के मिश्रण से बनी है, वह इस आकाश से ही उत्पन्न हुई है। वह आकाश ही वायु में परिणत होता है, यही तरल पदार्थ का रूप धारण करता है, यही फिर ठोस आकार को प्राप्त होता है। यह आकाश ही सूर्य, पृथ्वी, तारा, धूमकेतु, वाष्पीय पदार्थ … पुनः आकाश में लय हो जाते हैं। बाद की सृष्टि फिर से इसी तरह आकाश से उत्पन्न होती है।
किस शक्ति के प्रभाव से आकाश का जगत् के रूप में परिणाम होता है? इस प्राण की शक्ति से। जिस तरह आकाश इस जगत् का कारणस्वरूप, अनंत, सर्वव्यापी, मूल पदार्थ है प्राण भी उसी तरह जगत् की उत्पत्ति की कारणस्वरूपा, अनंत सर्वव्यापी विक्षेपकरी शक्ति है। कल्प के आदि में और अन्त में सम्पूर्ण सृष्टि आकाशरूप में परिणत होती है, और जगत् की सारी शक्तियाँ प्राण में लीन हो जाती हैं। दूसरे कल्प में फिर इसी प्राण से समुदय शक्तियों का विकास होता है। यह प्राण ही गति-रूप में प्रकाशित हुआ है–यही गुरुत्वाकर्षण या चुम्बकशक्ति के रूप में प्रकाशित हो रहा है। यह प्राण ही स्नायविक शक्तिप्रवाह (nerve current) के रूप में, विचार-शक्ति के रूप में और समुदय दैहिक क्रिया के रूप में प्रकाशित हुआ है। विचार-शक्ति से लेकर अति सामान्य दैहिक शक्ति तक सब कुछ प्राण का ही विकास है। वाह्य और अन्तर्जगत् की समस्त शक्तियाँ जब अपनी मूल अवस्था में पहुँचती हैं, तब उसी को प्राण कहते हैं। “जब अस्ति और नास्ति कुछ भी न था, जब तम से तम आवृत्त था, तब था क्या?1 यह आकाश ही गतिशून्य होकर अवस्थित था।” यह ठीक है कि प्राण का किसी प्रकार का प्रकाश न था, परन्तु तब भी प्राण का अस्तित्व था। हम आधुनिक विज्ञान द्वारा भी समझ सकते हैं कि संसार में जितने प्रकार की शक्तियों का विकास हुआ है, उनकी समष्टि चिरकाल तक समान रहती है, वे शक्तियाँ कल्प के अन्त में शान्तभाव धारण करती हैं–अव्यक्त अवस्था में गमन करती हैं, और दूसरे कल्प के आदि में वे ही फिर से व्यक्त होकर आकाश पर कार्य करती रहती हैं। इसी आकाश से परिदृश्यमान साकार वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, और आकाश के परिणाम-प्राप्त होने पर यह प्राण भी नाना प्रकार की शक्तियों में परिणत् होता रहता है। इस प्राण के यथार्थ तत्व को जानना और उसको संयत करने की चेष्टा करना ही प्राणायाम का प्रकृत अर्थ है।
इस प्राणायाम में सिद्ध होने पर हमारे लिए मानो अनंत शक्ति का द्वार खुल जाता है। मान लो, किसी व्यक्ति की समझ में यह प्राण का विषय पूरी तरह आ गया और वह उस पर विजय प्राप्त करने में भी कृतकार्य हो गया , तो फिर संसार में ऐसी कौन-सी शक्ति है, जो उसके अधिकार में न आए? उसकी आज्ञा से चन्द्र-सूर्य अपनी जगह से हिलने लगते हैं, क्षुद्रतम परमाणु से वृहत्तम सूर्य तक सभी उसके वशीभूत हो जाते हैं, क्योंकि उसने प्राण को जीत लिया है। प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति प्राप्त करना ही प्राणायाम की साधना का लक्ष्य है। जब योगी सिद्ध हो जाते हैं, तब प्रकृति में ऐसी कोई वस्तु नहीं,जो उनके वश में न आ जाय। यदि वे देवताओं का आह्वान करेंगे, तो वे उनकी आज्ञा मात्र से आ उपस्थित होंगे, यदि मृत व्यक्तियों को आने की आज्ञा देंगे, तो वे तुरंत हाज़िर हो जायेंगे। प्रकृति की समुदय शक्ति उनकी आज्ञा से दासी की तरह काम करने लगेगी। अज्ञ जन योगी के इन कार्यकलापों को अलौकिक समझते हैं। हिन्दुओं का यह एक विशेषत्व है कि वे जिस किसी तत्व की आलोचना करते हैं, पहले उसके भीतर, यथासम्भव, एक साधारण भाव का अनुसंधान करते हैं, और उसके भीतर जो कुछ विशेष है, उसको बाद में मीमांसा के लिए रख देते हैं। वेद में यह प्रश्न बार-बार पूछा गया है, “कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञात भवति?”2 ऐसी कौन-सी वस्तु है, जिसका ज्ञान होने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है। इस प्रकार हमारे जितने शास्त्र हैं, जितने दर्शन हैं, सब-के-सब उसी के निर्णय में लगे हुए हैं, जिसके जानने से सब कुछ जाना जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति जगत् का तत्व थोड़ा-थोड़ा करके जानना चाहे तो उसे अनंत समय लग जायेगा, क्योंकि फिर तो उसे बालू के एक-एक कण तक को भी अलग-अलग रूप से जानना होगा। अतः यह स्पष्ट है कि इस प्रकार सब कुछ जानना एक प्रकार से असंभव है। तब फिर इस प्रकार के ज्ञानलाभ की संभावना कहाँ है? एक-एक विषय को अलग-अलग रूप से जानकर मनुष्य के लिए सर्वज्ञ होने की संभावना कहाँ है? योगी कहते हैं, इन सब विशिष्ट अभिव्यक्तियों के पीछे एक साधारण सत्ता है। उसको पकड़ सकने या जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है। इसी प्रकार, वेदों में सम्पूर्ण जगत् को उस एक अखण्ड निरपेक्ष सत्स्वरूप में पर्यवसित किया है। जिन्होंने इस ‘अस्ति’-स्वरूप को पकड़ा है वे ही सम्पूर्ण विश्व को समझ सके हैं। उक्त् प्रणाली से ही समस्त शक्तियों को भी इस प्राणरूप साधारण शक्ति में पर्यवसित किया है। अतएव जिन्होंने प्राण को पकड़ा है, उन्होंने संसार में जितनी आधिभौतिक या आध्यात्मिक शक्तियाँ हैं, सबको पकड़ लिया है। जिन्होंने प्राण को जीता है, उन्होंने अपने मन को ही नहीं, वरन् सबके मन को भी जीत लिया है। उन्होंने अपनी देह और दूसरी जितनी देह हैं, सबको अपने अधीन कर लिया है, क्योंकि प्राण ही सारी शक्तियों का मूल है।
किस प्रकार इस प्राण पर विजय पाई जाय, यही प्राणायाम का एकमात्र उद्देश्य है। इस प्राणायाम के संबंध में जितनी साधनाएँ और उपदेश हैं, सबका यही एक उद्देश्य है। हर एक साधनार्थी को, उसके सबसे समीप जो कुछ है, उसी से साधना शुरू करनी चाहिए–उसके निकट जो कुछ है, उस सब पर विजय पाने की चेष्टा करनी चाहिए। संसार की सारी वस्तुओं मे देह हमारे सबसे निकट है, मन उससे भी निकटतर है। जो प्राण संसार में सर्वत्र क्रीड़ा कर रहा है, उसका जो अंश इस शरीर और मन को चलाता है, वही अंश हमारे सबसे निकट है। यह जो क्षुद्र प्राण-तरंग है जो हमारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों के रूप से परिचित है, वह अनंत प्राण-समुद्र में हमारे सबसे पास की तरंग है। यदि हम उस क्षुद्र तरंग पर विजय पा लें, तभी हम समस्त प्राण-समुद्र को जीतने की आशा कर सकते हैं। जो योगी इस विषय में कृतकार्य होते हैं, वे सिद्धि पा लेते हैं, तब कोई भी शक्ति उन पर प्रभुत्व नहीं जमा सकती। वे एक प्रकार से सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हो जाते हैं। हम सभी देशों में ऐसे सम्प्रदाय देखते हैं, जो किसी-न-किसी उपाय से इस प्राण पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे हैं। इस देश में (अमेरिका में) हम मन की शक्ति से आरोग्य करनेवाले (Mind-healers), विश्वास से आरोग्य करनेवाले (Faith-healers), प्रेततत्ववित् (Spiritualists), ईसाईविज्ञानवित् (Christian Scientists), वशीकरणविद्यावित् (Hypnotists) आदि अनेक सम्प्रदाय देखते हैं। यदि हम इन मतों का विशेष रूप से विश्लेषण करें, तो देखेंगे कि इन सब मतों के मूल में–वे फिर जानें या न जानें–प्राणायाम ही है। उन सब मतों के मूल में एक ही बात है। वे सब एक ही शक्ति को लेकर कार्य कर रहे हैं, पर हाँ, वे उसके सम्बन्ध में कुछ जानते नहीं। उन लोगों ने एकाएक मानो एक शक्ति का आविष्कार कर डाला है, परन्तु उस शक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। योगी जिस शक्ति का परिचालन करते हैं, ये भी बिना जाने-बूझे उसी का परिचालन कर रहे हैं। वह प्राण की ही शक्ति है।
यह प्राण ही समस्त प्राणियों के भीतर जीवनी-शक्ति के रूप में विद्यमान है। मनोवृत्ति इसकी सूक्ष्मतम् और उच्चतम् अभिव्यक्ति है। जिसे हम साधारणतः मनोवृत्ति की आख्या देते हैं, मनोवृत्ति कहने से केवल उसका बोध नहीं होता। मनोवृत्ति के अनेक प्रकार हैं। जिसे हम सहज ज्ञान (instinct) अथवा ज्ञानरहित चित्त-वृत्ति अथवा मन की अचेतन भूमि कहते हैं, वह हमारा निम्नतम कार्यक्षेत्र है। मान लो, मुझे एक मच्छर ने काटा, तो मेरा हाथ अपने ही आप उसे मारने को उठ जाता है। उसे मारने के लिए हाथ को उठाते-गिराते मुझे कोई विशेष सोच-विचार नहीं करना पड़ता। यह एक प्रकार की मनोवृत्ति है। शरीर की समस्त ज्ञानरहित प्रतिक्रियाएँ (reflex actions)3 इसी श्रेणी की मनोवृत्ति के अंतर्गत हैं।
इससे ऊँची एक दूसरी श्रेणी की मनोवृत्ति है, उसे सज्ञान मनोवृत्ति अथवा मन की चेतन भूमि कहते हैं। हम युक्ति-तर्क करते हैं, विचार करते हैं, सब विषयों के दोनों पहलू सोचते हैं। परन्तु इतने से ही समस्त मनोवृत्तियों की समाप्ति नहीं हो जाती। हमें मालूम है, युक्ति या विचार बिल्कुल छोटी-सी सीमा के अंदर विचरण करता है। वह हम लोगों को कुछ ही दूर तक ले जा सकता है, इसके आगे उसका और अधिकार नहीं। जितनी जगह के अंदर वह चक्कर काटता है, वह बहुत छोटी, बहुत संकीर्ण है। परन्तु हम यह भी देख रहे हैं कि बहुत से विषय, जो उसके अधिकार के बाहर हैं, उसके भीतर आ रहे हैं। पुच्छल तारा जिस प्रकार सौर-जगत् के अधिकार के भीतर न होने पर भी कभी-कभी उसके भीतर आ जाता है और हमें दीख पड़ता है, उसी प्रकार बहुत से तत्व, हमारी युक्ति के अधिकार के बाहर होने पर भी, उसके भीतर आ जाते हैं। यह अवश्य है कि वे सब तत्व इस सीमा के बाहर से आते हैं, पर विचार-शक्ति इस सीमा को पार नहीं कर सकती। इस छोटी सी सीमा के भीतर उनके इस अनधिकार प्रवेश का कारण यदि हम खोजना चाहें, तो हमें अवश्य इस सीमा के बाहर जाना होगा। हमारे विचार, हमारी युक्तियाँ वहाँ नहीं पहुँच सकतीं। योगियों का कहना है कि यह सज्ञान या चेतन भूमि ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा नहीं है। मन तो पूर्वोक्त दोनों भूमियों से भी उच्चतर भूमि पर विचरण कर सकता है। उस भूमि को हम ज्ञानातीत् या पूर्ण-चेतन भूमि कहते हैं–वही समाधि नामक पूर्ण एकाग्न अवस्था है। जब मन उस अवस्था में उपनीत होता है, तब वह युक्ति-राज्य के परे चला जाता हैं तथा सहज ज्ञान और युक्ति के अतीत विषयों को प्रत्यक्ष करता है। शरीर की सारी सूक्ष्म-से-सूक्ष्म शक्तियाँ, जो प्राण की ही विभिन्न अवस्था मात्र हैं, यदि सही रास्ते से परिचालित हों, तो वे मन पर विशेष रूप से कार्य करती हैं, और तब मन भी पहले से ऊँची अवस्था में अर्थात् ज्ञानातीत या पूर्णचेतन् भूमि में चला जाता है और वहाँ से कार्य करता रहता है।
बहिर्जगत् हो अथवा अन्तर्जगत्, जिधर भी दृष्टि दौड़ाई जाय, उधर ही एक अखण्ड वस्तुराशि दीख पड़ती है। भौतिक संसार की ओर दृष्टिपात् करने पर दिखता है कि एक अखण्ड वस्तु ही मानो नाना रूप में विराजमान है। वास्तव में, तुममें और सूर्य में कोई भेद नहीं। वैज्ञानिक के पास जाओ, वे तुम्हें समझा देंगे कि वस्तु-वस्तु में भेद केवल काल्पनिक है। इस टेबुल से वास्तव में मेरा कोई भेद नहीं। यह टेबुल अनंत जड़राशि की मानो एक बूँद है और मैं उसी की एक दूसरी बूँद। प्रत्येक साकार वस्तु इस अनंत जड़-सागर में मानो एक भँवर है। भँवर सारे समय एकरूप नहीं रहते। मान लो, किसी नदी में लाखों भँवर हैं। प्रत्येक भँवर में प्रति क्षण नई जलराशि आती है, कुछ देर घूमती है और फिर दूसरी ओर चली जाती है। उसके स्थान में एक नई जलराशि आ जाती है। यह जगत् भी इसी प्रकार सतत् परिवर्तनशील एक जड़राशि मात्र है और ये सारे रूप उसके भीतर मानो छोटे-छोटे भँवर हैं। कोई भूतसमष्टि किसी मनुष्य-देहरूपी भँवर में घुसती है, और वहाँ कुछ काल तक चक्कर काटने के बाद वह बदल जाती है और एक दूसरी भँवर में–किसी पशु-देहरूपी भँवर में–प्रवेश करती है। फिर वहाँ कुछ वर्ष तक घूमती रहने के बाद, हो तो इस बार खनिज पदार्थ नामक भँवर में चली जाती है। बस, सतत् परिवर्तन होता रहता है। कोई भी वस्तु स्थिर नहीं। मेरा शरीर, तुम्हारा शरीर नामक वास्तव में कोई वस्तु नहीं। वैसा कहना केवल मुख की बात है। है केवल एक अखण्ड जड़राशि। उसी के किसी बिंदु का नाम है चन्द्र, किसी को सूर्य, किसी को मनुष्य, किसी को पृथ्वी, कोई बिंदु उद्भिद् है, तो कोई खनिज पदार्थ। इनमें से कोई भी सदा एक भाव से नहीं रहता, सभी वस्तुओं का सतत् परिवर्तन हो रहा है, जड़ का एक बार संश्लेषण होता है, फिर विश्लेषण। अन्तर्जगत् के संबंध में भी ठीक यही बात है। संसार की समस्त वस्तुएँ ईथर (आकाश-तत्व) से उत्पन्न हुई हैं, अतएव इसको हम सारी जड़ वस्तुओं के प्रतिनिधि के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। प्राण की सूक्ष्मतर स्पंदनशील अवस्था में इस ईथर को मन का भी प्रतिनिधिस्वरूप कहा जा सकता है। अतएव सम्पूर्ण मनोजगत् भी एक अखण्डस्वरूप है। जो अपने मन में यह अति सूक्ष्म कंपन उत्पन्न कर सकते हैं, वे देखते हैं कि सारा जगत् सूक्ष्मातिसूक्ष्म कम्पनों की समष्टि मात्र है। किसी-किसी औषध में हमको इस सूक्ष्म अवस्था में पहुँचा देने की शक्ति रहती है, यद्यपि उस समय हम इंद्रिय-राज्य के भीतर ही रहते हैं। तुममेंं से बहुतों को सर हम्फी डेवी के प्रसिद्ध प्रयोग की बात याद होगी। हास्योत्पादक वाष्प (Laughing Gas) ने जब उनको अभिभूत कर लिया, तब वे स्तब्ध और निःस्पन्द होकर खड़े रहे। कुछ देर बाद जब होश आया, तो बोले, ‘सारा जगत् भावराशि की समष्टि मात्र है।’ कुछ समय के लिए सारे स्थूल कंपन (gross vibrations) चले गए थे और केवल सूक्ष्म कंपन, जिनको उन्होंने भावराशि कहा था, बच रहे थे। उन्होंने चारों ओर केवल सूक्ष्म कंपन देखे थे। सम्पूर्ण जगत् उनकी आँखो में मानो एक महान् भाव-समुद्र में परिणत हो गया था। उस महासमुद्र में वे और जगत् की प्रत्येक व्यष्टि मानो एक-एक छोटा भाव-भँवर बन गई थी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अंतर्जगत् में भी एक अखण्ड भाव विद्यमान है। और अंत में जब हम वाह्य, अन्तर–सम्पूर्ण जगत् को छोड़कर उस आत्मा के समीप जाते हैं तब वहाँ एक अखण्ड के अतिरिक्त और कुछ नहीं अनुभव करते। स्थूल और सूक्ष्म सब प्रकार की गतियों के पीछे वही एक अखण्ड सत्ता अपनी महिमा में विराजमान है। यहाँ तक कि इन परिदृश्यमान गतियों के भीतर भी–शक्ति की स्थूल अभिव्यक्तियों के भीतर भी–केवल एक अखण्ड भाव विद्यमान है। इन सत्यों को अब अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये सब विज्ञान द्वारा प्रमाणित हो चुके हैं। आधुनिक पदार्थ-विज्ञान ने यह प्रमाणित कर दिया है कि शक्ति-समष्टि सर्वत्र समान है और यह भी सिद्ध हो चुका है कि यह शक्ति-समष्टि दो तरह से अवस्थित है–कभी स्तिमित या अव्यक्त अवस्था में और कभी व्यक्त अवस्था में। व्यक्त अवस्था में वह इन नानाविध शक्तियों के रूप धारण करती है। इस प्रकार वह अनंत काल से कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त भाव धारण करती आ रही है। इस शक्तिरूपी प्राण के संयम का नाम ही प्राणायाम है।
इस प्राणायाम के साथ श्वास-प्रश्वास की क्रिया का संबंध बहुत थोड़ा है। यथार्थ प्राणायाम का अधिकारी होने में यह श्वास प्रश्वास की क्रिया एक उपाय मात्र है। मनुष्य-देह में प्राण का सबसे स्पष्ट प्रकाश है–फेफड़े की गति। यदि यह गति रुक जाय, तो देह की सारी क्रिया तुरंत बंद हो जायेगी, शरीर के भीतर जो अन्यान्य शक्तियाँ कार्य कर रहीं थीं, वे भी शांत भाव धारण कर लेंगी। पर ऐसे भी व्यक्ति हैं, जो अपने को इस प्रकार शिक्षित कर लेते हैं कि उनके फेफड़े की गति रुक जाने पर भी उनका शरीर नहीं जाता। ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जो बिना साँस लिए कई महीने तक ज़मीन के अंदर गड़े रह सकते हैं, पर तो भी उनका देह-नाश नहीं होता। सूक्ष्मतर शक्ति के पास जाने के लिए हमें स्थूलतर शक्ति की सहायता लेनी पड़ती है। इस प्रकार क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर शक्ति में जाते हुए अंत में हम चरम लक्ष्य पर पहुँच जाते हैं। शरीर में जितने प्रकार की क्रियाएँ हैं, उनमें फेफड़े की क्रिया ही सबसे सहज रूप से प्रत्यक्ष है। वह मानो देह के भीतर गति नियामक चक्र के रूप में अन्य सब शक्तियों को चला रही है। प्राणायाम का यथार्थ अर्थ है–फेफड़े की इस गति का रोध करना। इस गति के साथ श्वास का निकट संबंध है। यह गति श्वास-प्रश्वास द्वारा उत्पन्न नहीं होती, वरन् वही श्वास-प्रश्वास की गति को उत्पन्न कर रही है। यह गति ही, पंप की भाँति, वायु को भीतर खींचती है। प्राण इस फेफड़े को चलाता है और फेफड़े की यह गति फिर वायु को सींचती है। इस तरह यह स्पष्ट है कि प्राणायाम श्वास-प्रश्वास की क्रिया नहीं है। पेशियों की जो शक्ति फेफड़े को बुलाती है, उनको वश में लाना ही प्राणायाम है। जो शक्ति स्नायुओं में भीतर से मांसपेशियों के पास जाती है और जो फेफड़े का संचालन करती है, वही प्राण है। प्राणायाम की साधना में हमें उसी को वश में लाना है। जब प्राण पर विजय प्राप्त हो जायगी, तब हम देखेंगे कि शरीरस्थ प्राण की अन्यान्य सभी क्रियाएँ हमारे अधिकार में आ गई हैं। मैंने स्वयं ऐसे व्यक्ति देखे हैं, जिन्होंने अपने शरीर की सारी पेशियों को वशीभूत कर लिया है अर्थात् वे उनको इच्छानुसार चला सकते हैं और वे ऐसा कर भी क्यों न सकें? यदि कुछ पेशियाँ हमारी इच्छा के अनुसार चलाई जा सकती हों, तो दूसरी सब पेशियों और स्नायुओं को हम इच्छानुसार क्यों न चला सकेंगे? इसमें असंभव क्या है? कभी हमारी इस संयम-शक्ति का लोप हो गया है और वे पेशियाँ इच्छानुसार स्वयं हो गई हैं। हम इच्छानुसार कानों को नहीं हिला सकते, परन्तु हम जानते हैं कि पशुओं में यह शक्ति है। हममें यह शक्ति इसलिए नहीं है कि हम इसे काम में नहीं लाते। इसी को क्रम-अवनति अथवा पूर्वावस्था की ओर पुनरावर्तन (atavism) कहते हैं।
फिर, हम यह भी जानते हैं कि जिस शक्ति ने अभी अव्यक्त भाव धारण किया है, उसे हम फिर से व्यक्तावस्था में ला सकते हैं। दृढ़ अभ्यास के द्वारा शरीर की अनेक क्रियाएँ, जो अभी हमारी इच्छा के अधीन नहीं, फिर से पूरी तरह वश में लाई जा सकती हैं। इस प्रकार विचार करने पर दीख पड़ता है कि शरीर का प्रत्येक अंश हम पूरी तरह अपनी इच्छा के अधीन कर सकते हैं, इसमें कुछ भी असंभव नहीं, बल्कि यह तो पूर्णरूपेण संभव है। योगी प्राणायाम द्वारा इसमें कृतकार्य होते हैं। तुम लोगों ने योगशास्त्र के बहुत से ग्रन्थों में लिखा देखा होगा कि श्वास लेने के समय सम्पूर्ण शरीर को प्राण से पूर्ण कर लो। अंग्रेजी अनुवाद में प्राण शब्द का अर्थ किया गया है ‘श्वास।’ इससे तुम्हें सहज ही संदेह हो सकता है कि श्वास से सम्पूर्ण शरीर को कैसे पूरा किया जाय? वास्तव में यह अनुवादक का दोष है। देह के सारे अंगों को प्राण अर्थात् इस जीवनी-शक्ति द्वारा भरा जा सकता है, और जब तुम इससे कृतकार्य होगे, तो सम्पूर्ण शरीर तुम्हारे वश हो जायगा, देह की समस्त व्याधियाँ, सारे दुःख तुम्हारी इच्छा के अधीन हो जायेंगे। इतना ही नहीं, दूसरे के शरीर पर भी अधिकार जमाने में तुम कृतकार्य हो जाओगे। संसार में भला-बुरा जो कुछ है, सभी संक्रामक है। यदि तुम्हारा शरीर किसी विशेष अवस्था में हो, तो उसकी प्रवृत्ति दूसरों में भी वही अवस्था उत्पन्न करने की होगी। यदि तुम सबल और स्वस्थकाय रहो, तो तुम्हारे समीपवर्ती व्यक्तियों में भी मानो कुछ स्वस्थ भाव, कुछ सबल भाव आयेगा। और यदि तुम रुग्ण और दुर्बल रहो, तो देखोगे, तुम्हारे निकटवर्ती दूसरे व्यक्ति भी मानो कुछ रुग्ण और दुर्बल हो रहे हैं। तुम्हारी देह का कंपन मानो दूसरे के भीतर संचारित हो जायेगा। जब एक व्यक्ति दूसरे को रोग-मुक्त करने की चेष्टा करता है, तब उसका पहला प्रयत्न यह होता है कि उसका स्वास्थ्य दूसरे में संचारित हो जाय। यही आदिम चिकित्सा प्रणाली है। ज्ञातभाव से हो या अज्ञातभाव से, एक व्यक्ति दूसरे की देह में स्वास्थ्य संचार कर दे सकता है। यदि एक बहुत बलवान व्यक्ति किसी दुर्बल व्यक्ति के साथ सदैव रहे, तो वह दुर्बल व्यक्ति कुछ अंश में अवश्य सबल हो जायगा। यह बल-संचारण-क्रिया ज्ञातभाव से हो सकती है तथा अज्ञातभाव में भी। जब यह क्रिया ज्ञातभाव से की जाती है, तब इसका कार्य और भी शीघ्र तथा उत्तम रूप से होता है। एक और दूसरे प्रकार की भी आरोग्यप्रणाली है, जिसमें आरोग्यकारी स्वयं बहुत स्वस्थकाय न होने पर भी दूसरे के शरीर में स्वास्थ्य का संचार कर दे सकता है। इन स्थलों में इस आरोग्यकारी व्यक्ति को कुछ परिमाण में प्राणजयी समझना चाहिए। वह कुछ समय के लिए अपने प्राण में मानो एक विशेष कंपन उत्पन्न करके दूसरे के शरीर में उसका संचार कर देता है।
अनेक स्थलों में यह कार्य बहुत दूर से भी साधित हुआ है। यदि सचमुच में दूरत्व का अर्थ क्रमविच्छेद (Break) हो, तो दूरत्व नामक कोई चीज़ नहीं। ऐसा दूरत्व कहाँ है, जहाँ परस्पर कुछ भी संबंध, कुछ भी योग नहीं? सूर्य में और तुममें क्या वास्तविक कोई क्रमविच्छेद है? नहीं, यह तो समस्त एक अविच्छिन्न अखण्ड वस्तु है, तुम उसके एक अंश हो और सूर्य उसका एक दूसरा अंश। नदी के एक भाग और दूसरे भाग में क्या क्रमविच्छेद है? तो फिर शक्ति भी एक जगह से दूसरी जगह क्यों न भ्रमण कर सकेगी। इसके विरोध में तो कोई युक्ति नहीं दी जा सकती है दूर से आरोग्य करने की घटनाएँ बिल्कुल सत्य हैं। इस प्राण को बहुत दूर तक संचालित किया जा सकता है। पर हाँ, इसमें धोख़ेबाज़ी बहुत है। यदि इसमें एक घटना सत्य हो, तो अन्य सैकड़ों असत्य और छल-कपट के अतिरिक्त और कुछ नहीं। लोग इसे जितना सहज समझते हैं, यह उतना सहज नहीं। अधिकतर स्थलों में तो देखोगे कि आरोग्य करनेवाले चंगा करने के लिए मानव-देह की स्वाभाविक स्वस्थता की ही सहायता लेते हैं। एक ऐलोपैथ चिकित्सक आता है, हैजे के रोगियों की चिकित्सा करता है और उन्हें दवा देता है; एक होमियोपैथ चिकित्सक आता है, वह भी रोगियों को अपनी दवा देता है और शायद एलोपैथ की अपेक्षा अधिक रोगियों को चंगा कर देता है। ऐसा क्यों? इसलिए कि वह रोगी के शरीर में किसी तरह का विपर्यय ऐन लाकर प्रकृति को अपनी चाल से काम करने देता है। और विश्वास के बल से आरोग्य करनेवाला तो और भी अधिक रोगियों को चंंगा कर देता है, क्योंकि वह अपनी इच्छाशक्ति द्वारा कार्य करके विश्वास-बल से रोगी की प्रसुप्त प्राण-शक्ति को प्रबुद्ध कर देता है।
परन्तु विश्वास-बल से रोगों को अच्छा करनेवालों को सदा एक भ्रम हुआ करता है, वे सोचते हैं कि साक्षात् विश्वास ही लोगों को रोगमुक्त करता है। वास्तव में यह नहीं कहा जा सकता कि केवल विश्वास इसका कारण है। ऐसे भी रोग हैं, जिसमें रोगी स्वयं नहीं समझ पाता कि उसके कोई रोग है। रोगी का अपनी नीरोगता पर अतीव विश्वास ही रोग का एक प्रधान लक्षण है, और इससे आसन्नमृत्यु की सूचना होती है। इन सब स्थलों में केवल विश्वास से रोग नहीं टलता। यदि विश्वास ही रोग की जड़ काटता हो, तो वे रोगी मौत के मुँह में न गए होते। वास्तव में रोग तो इस प्राण की शक्ति से ही दूर होता है। प्राणजित् पवित्रात्मा पुरुष अपने प्राण को एक निर्दिष्ट कंपन में ले जा सकते हैं और उसे दूसरे में संचारित करके, उसके भीतर भी उसी प्रकार का कंपन पैदा कर सकते हैं। तुम प्रतिदिन की घटना से यह प्रमाण ले सकते हो। मैं वक्तृता दे रहा हूँ। वक्तृता देते समय मैं क्या कर रहा हूँ? मैं अपने मन के भीतर मानो एक विशिष्ट कंपन पैदा कर रहा हूँ। और मैं इस विषय में जितना ही कृतकार्य होऊँगा, तुम मेरी बात सुनकर उतने ही प्रभावित होगे। तुम लोगों को मालूम है, वक्तृता देते-देते मैं जिस दिन मस्त हो जाता हूँ, उस दिन मेरी वक्तृता तुमको बहुत अच्छी लगती है, पर जब कभी मेरी उत्तेजना घट जाती है, तो तुम्हें मेरी वक्तृता में उतना आनन्द नहीं मिलता।
जगत् को हिला-डुला देनेवाले तीव्र इच्छाशक्तिसम्पन्न महापुरुष अपने प्राण में बहुत ऊँचा कंपन उत्पन्न करके उस प्राण के वेग को इतना अधिक कर सकते हैं और उसको इतनी शक्ति से युक्त कर सकते हैं कि वह दूसरे को पल भर में लपेट लेती है, हज़ारों मनुष्य उनकी ओर खिंच जाते हैं और संसार के आधे लोग उनके भाव से परिचालित हो जाते हैं। जगत् में जितने महापुरुष हुए हैं, सभी प्राणजित् थे। इस प्राण-संयम के बल से वे प्रबल इच्छाशक्तिसम्पन्न हो गए थे। वे अपने प्राण के भीतर अति उच्च कंपन पैदा कर सकते थे, और उसी से उन्हें समस्त संसार पर प्रभाव विस्तार करने की क्षमता प्राप्त हुई थी। संसार में तेज या शक्ति के जितने विकास देखे जाते हैं, सभी प्राण के संयम से उत्पन्न होते हैं। मनुष्य को यह तथ्य भले ही मालूम न हो, पर और किसी तरह इसकी व्याख्या नहीं हो सकती। तुम्हारे शरीर में यह प्राण कभी एक ओर अधिक और दूसरी ओर कम हो जाता है। प्राण के इस प्रकार असामंजस्य से ही रोग की उत्पत्ति होती है। अतिरिक्त प्राण को हटाकर, जहाँ प्राण का अभाव है, वहाँ का अभाव भर सकने से ही रोग अच्छा हो जाता है। प्राण कहाँ अधिक है और कहाँ अल्प, इसका ज्ञान प्राप्त करना भी प्राणायाम का अंग है। अनुभव-शक्ति इतनी सूक्ष्म हो जायगी कि मन समझ जायगा, पैर के अँगूठे में या हाथ की उँगली में जितना प्राण आवश्यक है, उतना वहाँ नहीं है, और मन उस प्राण के अभाव को पूरा करने में भी समर्थ हो जायगा। इस प्रकार प्राणायाम के अनेक अंग हैं। इनको धीरे-धीरे, एक के बाद एक, सीखना होगा। अतएव यह स्पष्ट है कि विभिन्न रूपों में प्रकाशित प्राण का संयम करना और उसको विभिन्न प्रकार से चलाना ही राजयोग का एकमात्र लक्ष्य है। जब कोई अपनी समुदय शक्तियों का संयम करता है, तब वह अपनी देह के भीतर के प्राण का ही संयम करता है। जब कोई ध्यान करता है, तो भी समझना चाहिए कि वह प्राण का ही संयम कर रहा है।
महासागर की ओर यदि देखो, तो प्रतीत होगा कि वहाँ पर्वतकाय बड़ी-बड़ी तरंगें हैं, फिर छोटी-छोटी तरंगें भी हैं, और छोटे-छोटे बुलबुले भी। पर इन सबके पीछे वही अनंत महासमुद्र है। एक ओर वह छोटा बुलबुला अनंत समुद्र से युक्त है, फिर दूसरी ओर वह बड़ी तरंग भी उसी महासमुद्र से युक्त है। इसी प्रकार, संसार में कोई महापुरुष हो सकता है, और कोई छोटा बुलबुला-जैसा सामान्य व्यक्ति, परन्तु सभी उसी अनंत महाशक्ति-समुद्र से युक्त हैं। इस महाशक्ति से जीव का जन्मगत् संबंध है। जहाँ भी जीवनी-शक्ति का प्रकाश देखो, वहाँ समझना कि उसके पीछे अनंत शक्ति का भंडार है। एक छोटी-सी फफूँदी (कुकुरमुत्ता) है, वह, संभव है, इतना छोटा, इतना सूक्ष्म हो कि उसे अनुवीक्षण यंत्र द्वारा देखना पड़े, उससे आरम्भ करो। देखोगे कि वह अनंत शक्ति के भंडार से क्रमशः शक्ति संग्रह करके एक अन्य रूप धारण कर रहा है। कालान्तर में वह उद्भिद् के रूप में परिणत होता है, वही फिर एक पशु का आकार ग्रहण करता है, फिर मनुष्य का रूप लेकर वही अंत में ईश्वर-रूप में परिणत हो जाता है। हाँ, इतना अवश्य है कि प्राकृतिक नियम से इस व्यापार के घटते-घटते लाखों साल पार हो जाते हैं। परन्तु यह समय है क्या? वेग–साधना का वेग बढ़ा देकर समय काफ़ी घटाया जा सकता है। योगियों का कहना है कि साधारण प्रयत्न से जिस काम को अधिक समय लगता है, वही, वेग बढ़ा देने पर, बहुत थोड़े समय में सध सकता है। हो सकता है, कोई मनुष्य इस संसार की अनंत शक्तिराशि में से बहुत थोड़ी-थोड़ी शक्ति लेकर चले। इस प्रकार चलने पर उसे देव-जन्म प्राप्त करते, सम्भव है, एक लाख वर्ष लग जायें, फिर और भी ऊँची अवस्था प्राप्त करते शायद पाँच लाख वर्ष लगे। फिर पूर्ण सिद्ध होते और भी पाँच लाख साल लगे। पर उन्नति का वेग बढ़ा देने पर यह समय कम हो जाता है। पर्याप्त प्रयत्न करने पर छः वर्ष या छः महीने में ही यह सिद्धिलाभ क्यों न हो सकेगा? युक्ति तो बताती है कि इसमें कोई निर्दिष्ट सीमाबद्ध समय नहीं है। सोचो, कोई वाष्पीय यंत्र, निर्दिष्ट परिमाण में कोयला देने पर, प्रति घंटा दो मील चल सकता है, तो अधिक कोयला देने पर वह और भी शीघ्र चलेगा। इसी प्रकार, यदि हम भी तीव्र वेगसम्पन्न (योगसूत्र–1।21) हों, तो इसी जन्म में मुक्तिलाभ क्यों न कर सकेंगे? हाँ, हम यह जानते अवश्य हैं कि अंत में सभी मुक्ति पाएँगे। पर इस प्रकार युग-युग तक हम प्रतीक्षा क्यों करें? इसी क्षण, इस शरीर में ही, इस मनुष्य-देह में ही हम मुक्ति-लाभ करने में समर्थ क्यों न होंगे? हम इसी समय वह अनंत ज्ञान, वह अनंत शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे?
आत्मा की उन्नति का वेग बढ़ाकर किस प्रकार थोड़े समय मे मुक्ति पाई जा सकती है, यही सारी योग-विद्या का लक्ष्य और उद्देश्य है। जब तक सारे मनुष्य मुक्त नहीं हो जाते, तब तक प्रतीक्षा करते हुए थोड़ा-थोड़ा करके अग्रसर न होकर, प्रकृति के अनंत शक्ति-भंडार में से शक्ति ग्रहण करने की शक्ति बढ़ाकर किस प्रकार शीघ्र मुक्ति-लाभ किया जा सकता है? योगियों ने इसका उपाय खोज निकाला है। संसार के सभी महापुरुष, साधु और सिद्ध पुरुष ने क्या किया है? उन्होंने एक जन्म में ही, समय को कम करके, उन सब अवस्थाओं का भोग कर लिया है, जिनमें से होते हुए साधारण मानव करोड़ों जन्मों में मुक्त होता है। एक जन्म में ही वे अपनी मुक्ति का मार्ग तय कर लेते हैं। वे दूसरी कोई चिंता नहीं करते, दूसरी बात के लिए एक निमिषमात्र भी समय नहीं देते। उनका पल भर भी व्यर्थ नहीं जाता। इस प्रकार उनकी मुक्ति का समय घट जाता है। एकाग्रता का यह अर्थ है कि शक्ति-संचय की क्षमता को बढ़ाकर समय को घटा लेना। राजयोग इसी एकाग्रता की शक्ति को प्राप्त करने का विज्ञान है।
इस प्राणायाम के साथ प्रेत-तत्व (spiritualism) का क्या संबंध है? वह भी एक तरह का प्राणायाम है। यदि यह सत्य हो कि परलोकगत आत्मा का अस्तित्व है और उसे हम देख भर नहीं पाते, तो यह भी बहुत संभव है कि यहीं पर शायद लाखों आत्माएँ हैं, जिन्हें हम न देख पाते हैं, न अनुभव कर पाते हैं, न छू पाते हैं। सम्भव है, हम सदा उनके शरीर के भीतर से आ-जा रहे हों। और यह भी बहुत संभव है कि वे भी हमें देखने या किसी प्रकार से अनुभव करने में असमर्थ हों। यह मानो एक वृत्त के भीतर एक और वृत्त है, एक जगत् के भीतर एक और जगत्। जो एक ही भूमि (plane) पर रहते हैं, वे ही एक दूसरे को देख सकते हैं। हम पंचेन्द्रियविशिष्ट प्राणी हैं। हमारे प्राण का कंपन एक विशेष प्रकार का है। जिनके प्राण का कंपन हमारी तरह का है, उन्हीं को हम देख सकेंगे। परन्तु यदि कोई ऐसा प्राणी हो, जिसका प्राण अपेक्षाकृत उच्च कम्पनशील है, तो उसे हम न देख पाएँगे। प्रकाश की उज्ज्वलता अत्यन्त अधिक बढ़ जाने पर हम उसे नहीं देख पाते, किन्तु बहुत से प्राणियों की आँखें ऐसी शक्ति-युक्त हैं कि वे उस तरह का प्रकाश देख सकतीं हैं। इसके विपरीत, यदि आलोक के परमाणुओं का कंपन अत्यंत मृदु या हल्का हो, तो भी उसे हम नहीं देख पाते, परन्तु उल्लू और बिल्ली आदि प्राणी उसे देख लेते हैं। हमारी दृष्टि इस प्राण-कंपन के एक विशेष प्रकार को ही देखने में समर्थ है। इसी प्रकार वायु राशि की बात लो। वायु मानो स्तर-पर-स्तर रची हुई है। पृथ्वी का निकटवर्ती स्तर अपने से ऊँचे वाले स्तर से अधिक घना है, और इस तरह हम जितने ऊँचे उठते जायेंगे, हमें यही दिखेगा कि वायु क्रमशः तरल होती जा रही है। इसी प्रकार समुद्र की बात लो, समुद्र के जितने ही गहरे प्रदेश में जाओगे, पानी का दबाव उतना ही बढ़ेगा। जो प्राणी समुद्र के नीचे रहते हैं, वे कभी ऊपर नहीं आ सकते, क्योंकि यदि वे आयें, तो उसी समय उनका शरीर टुकड़े-टुकड़े हो जाय।
सम्पूर्ण जगत् को ‘ईथर’ (आकाश-तत्व) के एक समुद्र के रूप में सोचो। प्राण की शक्ति से वह मानो स्पन्दित हो रहा है और विभिन्न मात्रा में स्पन्दनशील स्तरों में बँटा हुआ है। तो देखोगे, जिस स्थान से स्पन्दन शुरू हुआ है, उससे तुम जितनी दूर जाओगे, उतना ही वह स्पन्दन मृदु रूप से अनुभूत होगा, केन्द्र के पास स्पन्दन बहुत द्रुत होता है। और भी सोचो, भिन्न-भिन्न प्रकार के स्पन्दन एक-एक स्तर हैं। इस सम्पूर्ण स्पन्दन-क्षेत्र को एक वृत्त के रूप में सोचो, सिद्धि उसका केन्द्र है, इस केन्द्र से हम जितनी दूर जायेंगे, स्पन्दन उतना ही मृदु होता जायगा। भूत सबसे बाहरी स्तर है, मन उससे निकटवर्ती, और आत्मा मानो केन्द्रस्वरूप है। इस प्रकार विचार करने से हम देखेंगे कि जो प्राणी एक स्तर पर वास करते हैं, वे एक-दूसरे को पहचान सकेंगे, परन्तु अपने से नीचे या ऊँचे स्तर वाले जीवों को न पहिचान सकेंगे। फिर भी, जैसे हम अनुवीक्षण यंत्र और दूरबीन की सहायता से अपनी दृष्टि का क्षेत्र बढ़ा सकते हैं, उसी प्रकार मन को विभिन्न प्रकार के स्पन्दनों से युक्त करके हम दूसरे स्तर का समाचार अर्थात् वहाँ क्या हो रहा है यह जान सकते हैं। समझो, इसी कमरे में ऐसे बहुत-से प्राणी हैं, जिन्हें हम नहीं देख पाते। वे सब प्राण के एक प्रकार के स्पन्दन के फल हैं, और हम एक दूसरे प्रकार के। मान लो कि वे प्राण के अधिक स्पन्दन से युक्त हैं और हम उनकी तुलना में कम स्पन्दन से। हम भी प्राणरूप मूल वस्तु से गढ़े हुए हैं और वे भी वही हैं। सभी एक ही समुद्र के भिन्न-भिन्न अंश मात्र हैं। विभिन्नता है केवल स्पन्दन की मात्रा में। यदि मन को मैं अधिक स्पन्दन-विशिष्ट कर सका, तो मैं फिर इस स्तर पर न रहूँगा, मैं फिर तुम लोगों को न देख पाऊँगा। तुम मेरी दृष्टि से अंतर्हित हो जाओगे और वे मेरी आँखों के सामने आ जायेंगे। तुममें से शायद बहुतों को मालूम है कि यह व्यापार सत्य है। मन को इस प्रकार उच्च से उच्चतर स्पन्दन-विशिष्ट करने को योगशास्त्र में एकमात्र “समाधि” शब्द द्वारा अभिहित किया गया है। समाधि की निम्नतर अवस्थाओं में इन दृश्य प्राणियों को प्रत्यक्ष किया जाता है। और समाधि की सर्वोच्च अवस्था तो वह है, जब हमें सत्यस्वरूप ब्रह्म के दर्शन होते हैं। तब हम उस उपादान को जान लेते हैं, जिससे इन सब बहुविध जीवों की उत्पत्ति हुई है। जैसे एक मृत्पिण्ड को जान लेने पर समस्त मृत्पिण्ड ज्ञात हो जाता है, उसी प्रकार ब्रह्म-दर्शन से सम्पूर्ण जगत् भी जाना जा सकता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रेततत्त्व-विद्या में जो कुछ सत्य है, वह भी प्राणायाम के ही अन्तर्भूत है। इसी प्रकार, जब कभी तुम देखो कि कोई दल या संप्रदाय किसी रहस्यात्मक या गुप्त तत्व के आविष्कार की चेष्टा कर रहा है, तो समझना, वह यथार्थतः किसी परिमाण में इस राजयोग की ही साधना कर रहा है, प्राण-संयम की ही चेष्टा कर रहा है। जहाँ कहीं किसी प्रकार की असाधारण शक्ति का विकास हुआ है, वहाँ प्राण की ही शक्ति का विकास समझना चाहिए। यहाँ तक कि भौतिक विज्ञान भी प्राणायाम के अंतर्गत किए जा सकते हैं। वाष्पीय यंत्र को कौन संचालित करता है? प्राण ही वाष्प के भीतर से उसको चलाता है। ये जो विद्युत् की अद्भुत क्रियाएँ दीख पड़ती हैं, ये सब प्राण को छोड़ भला और क्या हो सकती हैं? पदार्थ-विज्ञान है क्या? वह बाहरी उपायों द्वारा प्राणायाम है। प्राण जब मानसिक शक्ति के रूप से प्रकाशित होता है, तब मानसिक उपायों द्वारा ही उसका संयम किया जा सकता है। जिस प्राणायाम में प्राण के स्थूल रूपों को बाह्य उपायों द्वारा जीतने की चेष्टा की जाती है, उसे पदार्थ-विज्ञान या भौतिक विज्ञान कहते हैं और जिस प्राणायाम में प्राण के मानसिक विकास को मानसिक उपायों द्वारा संयत करने की चेष्टा की जाती है, उसी को राजयोग कहते हैं।
- नासदासीन्नो सदासात्तदानीम् – इत्यादि,
तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतम् – इत्यादि।
ऋग्वेद संहिता, दशम मण्डल। - मुण्डक उपनिषद – 1।3।
- बाहर की किसी प्रकार की उत्तेजना से शरीर का कोई यन्त्र, समय-समय पर, ज्ञान की सहायता लिए बिना अपने आप जब काम करता है तो उस कार्य को reflex action कहते हैं।
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