धर्मस्वामी विवेकानंद

राजयोग षष्ठ अध्याय – प्रत्याहार और धारणा

Sixth Chapter of Swami Vivekananda’s Raja Yoga in Hindi: Pratyahar Aur Dharana

राजयोग पुस्तक के इस अध्याय में स्वामी विवेकानंद महर्षि पतंजलि द्वारा निरूपित अष्टांग योग के पाँचवें और छठे अंग क्रमशः प्रत्याहार और धारणा के विषय में प्रकाश डाल रहे हैं।

जिस तरह पिछले अध्याय “आध्यात्मिक प्राण का संयम” में प्राणायाम के विषय की सूक्ष्म व्याख्या की गई है, ठीक उसी प्रकार यहाँ प्रत्याहार का अर्थ और विधि समझायी गई है और धारणा का विवेचन किया गया है। साथ ही योग में कृतकार्य होने के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए, इस बारे में भी स्वामी जी ने विस्तार से यहाँ बताया है।

प्राणायाम के बाद प्रत्याहार की साधना करनी पड़ती है। प्रत्याहार क्या है? तुम सबों को ज्ञात है कि विषयानुभूति किस तरह होती है। सबसे पहले, देखो, इन्द्रियों के द्वार-स्वरूप ये बाहर के यंत्र है। फिर हैं इन्द्रियाँ। ये इन्द्रियाँ मस्तिष्क में स्थित स्नायु-केन्द्रों की सहायता से शरीर पर कार्य करती हैं। इसके बाद है मन। जब ये समस्त एकत्र होकर किसी बाहरी वस्तु के साथ संलग्न होते हैं, तभी हम उस वस्तु का अनुभव कर सकते हैं। किन्तु मन को एकाग्र करके केवल किसी एक इन्द्रिय से संयुक्त कर रखना बहुत कठिन है, क्योंकि मन (विषयों का) दास है।

हम संसार में सर्वत्र देखते हैं, कि सभी यह शिक्षा दे रहे हैं, “भले हो जाओ”, “भले हो जाओ”, “भले हो जाओ।” संसार में शायद किसी देश में ऐसा बालक नहीं पैदा हुआ, जिसे मिथ्या भाषण न करने, चोरी न करने आदि की शिक्षा नहीं मिली, परन्तु कोई उसे यह शिक्षा नहीं देता कि वह इन असत् कर्मों से किस प्रकार बचे? केवल बात करने से काम नहीं बनता। वह चोर क्यों न बने? हम तो उसको चोरी से निवृत्त होने की शिक्षा नहीं देते, उससे बस इतना ही कह देते हैं, “चोरी मत करो।” यदि उसे मन संयम का उपाय सिखाया जाय, तभी वह यथार्थ में शिक्षा प्राप्त कर सकता है, और वही उसकी सच्ची सहायता और उपकार है। जब मन इन्द्रिय नामक भिन्न-भिन्न शक्ति-केन्द्रों में संलग्न रहता है, तभी समस्त बाह्य और आभ्यन्तरिक कर्म होते हैं। इच्छापूर्वक अथवा अनिच्छापूर्वक मनुष्य अपने मन को भिन्न-भिन्न (इन्द्रिय नामक) केन्द्रों में संलग्न करने को बाध्य होता है। इसीलिए मनुष्य अनेक प्रकार के दुष्कर्म करता है। और बाद में कष्ट पाता है। मन यदि अपने वश में रहता, तो मनुष्य कभी अनुचित कर्म न करता। मन को संयत करने का फल क्या है? यही कि मन संयत हो जाने पर वह फिर विषयों का अनुभव करनेवाली भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के साथ अपने को संयुक्त न करेगा। और ऐसा होने पर सब प्रकार के भाव और इच्छाएँ हमारे वश में आ जायेंगी। यहाँ तक तो बहुत स्पष्ट है। अब प्रश्न यह है, क्या यह कार्य में परिणत होना संभव है? हाँ, यह संपूर्ण रूप से संभव है। तुम लोग वर्तमान समय में भी इसका कुछ आभास देख रहे हो, विश्वास के बल से आरोग्यलाभ कराने वाला सम्प्रदाय दुःख, कष्ट, अशुभ आदि के अस्तित्व को बिल्कुल अस्वीकार कर देने की शिक्षा देता है। इसमे संदेह नहीं कि इनका दर्शन बहुत-कुछ सिर के पीछे से हाथ ले जाकर नाक पकड़ने की तरह है, किन्तु वह भी एक प्रकार का योग है, किसी तरह उन लोगों ने उसका आविष्कार कर डाला है। जहाँ वे दुःख-कष्ट के अस्तित्व को अस्वीकार करने की शिक्षा देकर लोगो के दुःख दूर करने में सफल होते हैं, तो वहाँ समझना होगा कि उन्होंने वास्तव में प्रत्याहार की ही कुछ शिक्षा दी है, क्योंकि वे उस व्यक्ति के मन को यहाँ तक सबल कर देते हैं कि वह इन्द्रियों की गवाही पर विश्वास ही नहीं करता। वशीकरण विद्या वाले (Hypnotists), इसी प्रकार, सूचना-शक्ति या आज्ञा (hypnotic suggestion) से कुछ देर के लिए अपने वश्य व्यक्तियों में एक प्रकार का अस्वाभाविक प्रत्याहार ले आते हैं। जिसे साधारणतः वशीकरण-सूचना कहते हैं, वह केवल रोग-ग्रस्त देह और कमजोर मन पर ही अपना प्रवाह फैला सकता है। वशीकरणकारी जब तक स्थिर-दृष्टि अथवा अन्य किसी उपाय द्वारा अपने वश्य व्यक्ति के मन को निष्क्रिय, जड़तुल्य अस्वाभाविक अवस्था में नहीं ले जा सकता, तब तक वह चाहे जो कुछ सोचने, सुनने या देखने का आदेश दे, उसका कोई फल न होगा।

वशीकरणकारी या विश्वास-बल से आरोग्य करनेवाले थोड़े समय के लिए जो अपने वश्य व्यक्तियों के शरीरस्थ शक्ति केन्द्रों (इन्द्रियों) को वशीभूत कर लेते हैं, वह अत्यंत निन्दनीय कर्म है, क्योंकि वह उस वश्य व्यक्ति को अंत में सर्वनाश के रास्ते ले जाता हैं। यह कोई अपनी इच्छाशक्ति के बल से अपने मस्तिष्कस्थ केन्द्रों का संयम तो है नहीं, यह तो दूसरे की इच्छाशक्ति के एकाएक प्रबल आघात से वश्य व्यक्ति के मन को कुछ समय के लिए मानो जड़ कर रखना है। वह लगाम और बाहुबल की सहायता से, गाड़ी खींचने वाले उच्छृंखल घोड़ों की उन्मत्त गति को संयत करना नहीं है, वरन् वह दूसरों से उन अश्वों पर तीव्र आघात करने को कहकर उनको कुछ समय के लिए चुप कर रखना है। उस व्यक्ति पर यह प्रक्रिया जितनी की जाती है, उतना ही वह अपने मन की शक्ति क्रमशः खोने लगता है, और अंत में, मन को पूर्ण रूप से जीतना तो दूर रहा, उसका मन बिल्कुल शक्तिहीन और विचित्र-सा हो जाता है तथा पागलखाने में ही उसकी चरम गति आ ठहरती है।

अपने मन को स्वयं अपने मन की सहायता से वश में लाने की चेष्टा के बदले इस प्रकार दूसरे की इच्छा से प्रेरित होकर मन का संयम अनिष्टकारक ही नहीं है, वरन् जिस उद्देश्य से वह कार्य किया जाता है, वह भी सिद्ध नहीं होता। प्रत्येक जीवात्मा का चरम लक्ष्य है ‘मुक्ति’ या ‘स्वाधीनता’–जड़-वस्तु और चित्तवृत्ति के दासत्व से मुक्तिलाभ करके उन पर प्रभुत्व स्थापित करना, बाह्य और अंतः प्रकृति पर अधिकार जमाना। किन्तु उस दिशा में सहायता करने की बात तो अलग रही, दूसरे व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त इच्छाशक्ति का प्रवाह हम पर लगी हुई चित्तवृत्तिरूपी बन्धनों और प्राचीन कुसंस्कारो की भारी बेड़ी में एक और कड़ी जोड़ देता है–फिर वह इच्छाशक्ति हम पर किसी भी रूप से क्यों न प्रयुक्त हो, और चाहे उससे हमारी इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष वशीभूत हो जायें, चाहे वह एक प्रकार की पीड़ित या विकृतावस्था में हमें इन्द्रियों को संयत करने के लिए बाध्य करे। इसलिए सावधान! दूसरे को अपने ऊपर इच्छाशक्ति का संचालन न करने देना। अथवा दूसरे पर ऐसी इच्छाशक्ति का प्रयोग करके अनजाने उसका सत्यानाश न कर देना। यह सत्य है कि कोई-कोई लोग कुछ व्यक्तियों की प्रवृत्ति का मोड़ फेरकर कुछ दिनों के लिए उनका कुछ कल्याण करने में कृतकार्य होते हैं, परन्तु साथ ही वे दूसरों पर इस वशीकरण-शक्ति का प्रयोग करके, बिना जाने, लाखों नर-नारियों को एक प्रकार से विकृत जड़ावस्थापन्न कर डालते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन वश्य व्यक्तियों की आत्मा का अस्तित्व तक मानो लुप्त हो जाता है। इसलिए जो कोई व्यक्ति तुमसे अन्धविश्वास करने को कहता है, अथवा अपनी श्रेष्ठतर इच्छा शक्ति के बल से लोगों को वशीभूत करके अपना अनुसरण करने के लिए बाध्य करता है, वह मनुष्य-जाति का भारी अनिष्ट करता है—भले ही वह इसे इच्छापूर्वक न करता हो।

अतएव अपने मन को संयम करने के लिए सदा अपने ही मन की सहायता लो, और यह सदा याद रखो कि तुम यदि रोगग्रस्त नहीं हो, तो कोई भी बाहरी इच्छाशक्ति तुम पर कार्य न कर सकेगी। जो व्यक्ति तुमसे अंधे के समान विश्वास कर लेने को कहता हो, उससे दूर ही रहो, वह चाहे कितना भी बड़ा आदमी या साधु क्यों न हो। संसार के सभी भागों में ऐसे बहुत से सम्प्रदाय हैं, जिनके धर्म के प्रधान अंग नाच-गान, उछल-कूद, चिल्लाना आदि हैं। वे जब संगीत, नृत्य और प्रचार करना आरम्भ करते हैं, तब उनके भाव मानो संक्रामक रोग की तरह लोगों के अन्दर फैल जाते हैं। वे भी एक प्रकार के वशीकरणकारी हैं। वे थोड़े समय के लिए भावुक व्यक्तियों पर ग़ज़ब का प्रभाव डाल देते हैं। पर हाय! परिणाम यह होता है कि सारी जाति अधःपतित हो जाती है। इस प्रकार की अस्वाभाविक बाहरी शक्ति के बल से किसी व्यक्ति या जाति के लिए ऊपर-ऊपर अच्छी होने की अपेक्षा अच्छी न रहना ही बेहतर है, और वह स्वास्थ्य का लक्षण है। इन धर्मोन्मत्त व्यक्तियों का उद्देश्य अच्छा भले ही हो, परन्तु इनको किसी उत्तरदायित्व का ज्ञान नहीं। इन लोगों द्वारा मनुष्य का जितना अनिष्ट होता है, उसका विचार करते ही हृदय स्तब्ध हो जाता है। वे नहीं जानते कि जो व्यक्ति संगीत, स्तव आदि की सहायता से–उनकी शक्ति के प्रभाव से, इस तरह एकाएक भगवद्भाव में मस्त हो जाते हैं, वे अपने को केवल जड़, विकृतभाववाले और शक्तिशून्य बना लेते हैं और सहज ही किसी भी भाव के वश में हो जाते हैं–फिर वह भाव कितना भी बुरा क्यों न हो उसका प्रतिरोध करने की उनमें तनिक भी शक्ति नहीं रह जाती, इन अज्ञ, आत्मवंचित व्यक्तियों के मन में यह स्वप्न में भी नहीं आता कि वे एक ओर जहाँ यह कहकर हर्षोत्फुल्ल हो रहे हैं कि उनमें मनुष्य के हृदय को परिवर्तित कर देने की अद्भुत शक्ति है–जिस शक्ति के सम्बन्ध में वे सोचते हैं कि वह बादल के ऊपर अवस्थित किसी पुरुष से उन्हें मिली है–वहाँ साथ ही वे भावी मानसिक अवनति, पाप, उन्मत्तता और मृत्यु के बीज भी बो रहे हैं। अतएव, जिससे तुम्हारी स्वाधीनता नष्ट होती हो, ऐसे सब प्रकार के प्रभावों से सतर्क रहो। ऐसे प्रभावों को भयानक विपत्ति से भरा जानकर प्राणपण से उनसे दूर रहने की चेष्टा करो।

जो इच्छामात्र से अपने मन को केन्द्रों में संलग्न करने अथवा उनसे हटा लेने में सफल हो गया है, उसी का प्रत्याहार सिद्ध हुआ है। प्रत्याहार का अर्थ है, एक ओर आहरण करना अर्थात् खींचना–मन की बहिर्गति को रोककर, इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना। इसमें कृतकार्य होने पर हम यथार्थ में चरित्रवान होंगे और तभी समझेंगे कि हम मुक्ति के मार्ग में बहुत दूर बढ़ गए हैं। यह यदि न किया जा सका, तो हममें तथा एक यंत्र में फिर अंतर ही क्या? मन को संयत करना कितना कठिन है इसकी उपमा एक उन्मत्त वानर से दी गई है और वह कोई असंगत बात नहीं। कहीं एक बंदर था। उसकी मर्कट-स्वभाव वाली चंचलता तो थी ही, लेकिन उतने से संतुष्ट न हो, एक आदमी ने उसे काफ़ी शराब पिला दी। इससे वह और भी चंचल हो गया। इसके बाद उसे एक बिच्छू ने डंक मार दिया। तुम जानते हो, किसी को बिच्छू डंक मार दे, तो वह दिन भर इधर-उधर कितना तड़पता रहता है। सो उस प्रमत्त अवस्था के ऊपर बिच्छू का डंक। इससे वह बंदर बहुत अस्थिर हो गया। तत्पश्चात् मानो उसके दुःख की मात्रा को पूरी करने के लिए एक भूत उस पर सवार हो गया। यह सब मिलाकर, सोचो, बंदर कितना चंचल हो गया होगा? यह भाषा द्वारा व्यक्त करना असंभव है। बस, मनुष्य का मन उस वानर के सदृश्य है। मन तो स्वभावतः ही सतत चंचल है, फिर वह वासनारूप मदिरा से मस्त है, इससे उसकी अस्थिरता बढ़ गई है। जब वासना आकर मन पर अधिकार कर लेती है, तब सुखी लोगों को देखने पर ईर्ष्यारूप बिच्छू उसे डंक मारता रहता है। उसके भी ऊपर जब अहंकाररूप पिशाच उसके भीतर प्रवेश करता है, तब तो वह अपने आगे किसी को नहीं गिनता। ऐसी तो हमारे मन की अवस्था है। सोचो तो, इसका संयम करना कितना कठिन है? अतएव मन के संयम का पहला सोपान यह है कि कुछ समय के लिये चुप्पी साधकर बैठे रहो और मन को अपने अनुसार चलने दो। मन सतत् चंचल है। वह बंदर की तरह सदा कूद-फाँद रहा है। यह मन-मर्कट जितनी इच्छा हो उछलकूद मचाए, कोई हानि नहीं, धीर भाव से प्रतीक्षा करो और मन की गति देखते जाओ। लोग जो कहते हैं कि ज्ञान ही यथार्थ शक्ति है, यह बिल्कुल सत्य है। जब तक मन की क्रियाओं पर नज़र न रखोगे, उसका संयम न कर सकोगे। मन को इच्छानुसार घूमने दो। संभव है, बहुत बुरी-बुरी भावना तुम्हारे मन में आए। तुम्हारे मन में इतनी असत् भावना आ सकती है कि तुम सोचकर आश्चर्यचकित हो जाओगे। परन्तु देखोगे, मन के ये सब खेल दिन-पर-दिन कम होते जा रहे हैं, दिन-पर-दिन मन कुछ-कुछ स्थिर होता आ रहा है। पहले कुछ महीने देखोगे, तुम्हारे मन में हज़ारों विचार आएँगे, क्रमशः वह संख्या घटकर सैकड़ों तक रह जायेगी। फिर कुछ और महीने बाद वह और भी घट जायेगी, और अंत में मन पूर्ण रूप से अपने वश में आ जायेगा। पर हाँ, हमें प्रतिदिन धैर्य के साथ अभ्यास करना होगा। जब तक इंजन के भीतर भाप रहेगी, तब तक वह चलता ही रहेगा। जब तक विषय हमारे सामने हैं, तब तक हम उन्हें देखेंगे ही। अतएव, मनुष्य को, यह प्रमाणित करने के लिए कि वह इंजन की तरह एक यंत्र मात्र नहीं है, यह दिखाना आवश्यक है कि वह किसी के अधीन नहीं। इस प्रकार मन को संयम करना और उसे विभिन्न इन्द्रियों के साथ संयुक्त न होने देना ही प्रत्याहार है। इसके अभ्यास का क्या उपाय है? यह एक-दो दिन का काम नहीं, बहुत दिनों तक लगातार इसका अभ्यास करना होगा। धीर भाव से लगातार बहुत वर्षों तक अभ्यास करने पर तब कहीं इस विषय में सफलता मिल पाती है।

कुछ काल तक प्रत्याहार की साधना करने के बाद, उसके बाद की साधना अर्थात् ‘धारणा’ का अभ्यास करने का प्रयत्न करना होगा। प्रत्याहार के बाद है धारणा। धारणा का अर्थ है–मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थानविशेष में धारण या स्थापन करना, मन को स्थानविशेष में धारण करने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि मन को शरीर के अन्य सब स्थानों से अलग करके किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाए रखना। मान लो, मैंने मन को हाथ में धारण किया तब शरीर के अन्यान्य अवयव विचार के विषय के बाहर हो जायेंगे। जब चित्त अर्थात् मनोवृत्ति किसी निर्दिष्ट स्थान में आबद्ध होती है, तब उसे धारणा कहते हैं। यह धारणा अनेक प्रकार की है। इस धारणा के अभ्यास के समय किसी कल्पना की सहायता लेने से काम अच्छा सधता है। मान लो, हृदय के एक बिन्दु में मन को धारण करना है। इसे कार्य में परिणत करना बड़ा कठिन है। अतएव सहज उपाय यह है कि हृदय में एक पद्म की भावना करो और कल्पना करो कि वह ज्योति से पूर्ण है–चारों ओर उस ज्योति की आभा बिखर रही है। उसी जगह मन की धारणा करो। अथवा मस्तिष्क में स्थित सहस्रदल कमल को अथवा पूर्वोक्त सुषुम्णा में स्थित विभिन्न चक्रों को ज्योतिर्मय रूप से सोचो।

योगी के लिए नियमित अभ्यास आवश्यक है। योगी को अकेले रहने का प्रयत्न करना होगा। विभिन्न प्रकार के मनुष्यों के साथ रहने से चित्त विक्षिप्त हो जाता है। उनका अधिक बातचीत करना उचित नहीं, अधिक बातचीत करने से मन चंचल हो जाता है। अधिक काम करना भी अच्छा नहीं, क्योंकि इससे भी मन डांवाडोल रहता है। सारे दिन की कड़ी मेहनत के बाद मन का संयम नहीं हो सकता। जो उपर्युक्त नियमों के अनुसार चलते हैं, वे ही योगी हो सकते हैं। योग को ऐसी अद्भुत शक्ति है कि बहुत थोड़ी मात्रा में भी उसका अभ्यास करने पर बहुत अधिक फल प्राप्त होता है। इससे किसीका अनिष्ट नहीं होता, वरन् इससे सबका उपकार ही होता है। पहले तो, स्नायविक उत्तेजना शांत हो जायगी, मन शांत भाव धारण करेगा और समस्त विषयों को अत्यन्त स्पष्ट रूप से देखने और समझने की शक्ति आयेगी। मिज़ाज अच्छा रहेगा, स्वास्थ्य भी क्रमशः उत्तम हो जायगा। योगाभ्यास करने पर जो चिह्न योगियों में प्रकट होते हैं, देह की स्वस्थता उनमें प्रथम है। स्वर भी मधुर हो जायगा, स्वर में जो कुछ दोष है, सब निकल जायगा। और भी अनेक प्रकार के चिह्न प्रकट होंगे, पर ये ही प्रथम हैं। जो बहुत अधिक साधना करते हैं, उनमें और भी दूसरे लक्षण प्रकट होते हैं। कभी-कभी घंटा-ध्वनि की तरह का शब्द सुन पड़ेगा, मानो दूर में बहुत से घंटे बज रहे हैं और वे सारे शब्द एकत्र मिलकर कानों में लगातार आघात कर रहे हैं। कभी-कभी देखोगे, आलोक के छोटे-छोटे कण हवा में तैर रहे हैं और क्रमशः कुछ-कुछ बड़े होते जा रहे हैं। जब ये लक्षण प्रकाशित होंगे, तब समझना कि तुम द्रुत गति से साधना में उन्नति कर रहे हो।

जो योगी होने की इच्छा करते हैं और कठोर अभ्यास करते हैं, उन्हें पहली अवस्था में आहार के संबंध में कुछ विशेष सावधानी रखनी होगी। जो शीघ्र उन्नति करने की इच्छा करते हैं, वे यदि कुछ महीने केवल दूध और अन्न आदि निरामिष भोजन पर रह सकें, तो उन्हें साधना में बड़ी सहायता मिलेगी। किन्तु जो लोग दूसरे दैनिक कामों के साथ थोड़ा-बहुत अभ्यास करना चाहते हैं, उनके लिए अधिक भोजन न करने से ही काम बन जायगा। उन्हें खाद्य के सम्बन्ध में उतना विचार करने की आवश्यकता नहीं, वे जो इच्छा हो वही खा सकते हैं।

जो कठोर अभ्यास करके शीघ्र उन्नति करना चाहते हैं, उन्हें आहार के संबंध में विशेष सावधान रहना चाहिए। देह-यंत्र धीरे-धीरे जितना ही सूक्ष्म होता जाता है, उतना ही तुम देखोगे कि एक सामान्य अनियम से भी तुम अपना संतुलन खो बैठते हो। जब तक मन पर सम्पूर्ण अधिकार नहीं हो जाता, तब तक आहार में एक ग्रास की अल्पता या अधिकता सम्पूर्ण शरीर-यंत्र को बिलकुल अप्रकृतिस्थ कर देगी। मन के पूर्ण रूप से अपने वश में आने के बाद जो इच्छा हो, खाया जा सकता है।

मन को एकाग्र करना आरम्भ करने पर देखोगे कि एक सामान्य पिन गिरने से ही ऐसा मालूम होगा मानो तुम्हारे मस्तिष्क में से वज्र पार हो गया। इन्द्रिय-यंत्र जितने सूक्ष्म होते जाते हैं, अनुभूति भी उतनी ही सूक्ष्म होती जाती है। इन्हीं सब अवस्थाओं में से होते हुए हमें क्रमशः अग्रसर होना होगा। और जो लोग अध्यवसाय के साथ अंत तक लगे रह सकते हैं, वे ही कृतकार्य होंगे। सब प्रकार के तर्क और चित्त में विक्षेप उत्पन्न करनेवाली बातों को दूर कर देना होगा। शुष्क और निरर्थक तर्कपूर्ण प्रलाप से क्या होगा? वह केवल मन के साम्यभाव को नष्ट करके उसे चंचल भर कर देता है। इन सब तत्वों की उपलब्धि की जानी चाहिए। केवल बातों से क्या होगा? अतएव सब प्रकार की बकवास छोड़ दो। जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है, केवल उन्हीं के लिखे ग्रंथ पढ़ो।

शुक्ति के समान बनो। भारतवर्ष में एक सुंदर किंवदंती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूँद किसी सीपी में चली जाय, तो उनका मोती बन जाता है। सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बूँद की प्रतीक्षा करती रहती हैं। ज्याोंही एक बूँद पानी उनके पेट में जाता है, त्योंही उस जलकण को लेकर मुँह बंद करके समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं। हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फिर समझना होगा, अंत में बाहरी संसार से दृष्टि बिल्कुल हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अंतर्निहित सत्य-तत्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा। एक भाव को नया कहकर ग्रहण करके, उसकी नवीनता चली जाने पर फिर एक दूसरे नए भाव का आश्रय लेना–इस प्रकार बारम्बार करने से तो हमारी सारी शक्ति ही इधर-उधर बिखर जायगी। साधना करते समय नए भावों के प्रति इस प्रकार आकर्षण-रूप विपत्ति आया करती है। एक भाव को पकड़ो, उसी को लेकर रहो। उसका अंत देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव लेकर, उसी में मस्त होकर रह सकते हैं, उन्हीं के हृदय में सत्य-तत्व का उन्मेष होता है। और जो यहाँ का कुछ, वहाँ का कुछ, इस तरह खटाइयाँ खाने के समान सब विषयों को मानो थोड़ा-थोड़ा चखते जाते हैं, वे कभी कोई चीज नहीं पा सकते। कुछ देर के लिए उससे उत्तेजित होकर उन्हें एक प्रकार का आनंद भले ही मिल जाता हो, किन्तु इससे और कुछ फल नहीं होता। वे चिरकाल प्रकृति के दास होकर रहेंगे, कभी अतीन्द्रिय राज्य में विचरण न कर सकेंगे।

जो सचमुच योगी होने की इच्छा करते हैं, उन्हें इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा हर विषय को पकड़ने का भाव छोड़ देना होगा। एक भाव लेकर सदा उसी में विभोर होकर रहो। सोते-जागते व हर समय उसी को लेकर रहो। तुम्हारा मस्तिष्क, स्नायु, शरीर के सर्वांग उसी के विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है, और इस उपाय से बड़े-बड़े धर्मवीरों की उत्पत्ति हुई है। शेष सब तो बातें करनेवाले यंत्र मात्र हैं। यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें, तो हमें थोड़ी बकवास छोड़कर और भी भीतर प्रवेश करना होगा। इस कार्य में परिणत करने का पहला सोपान यह है कि मन किसी तरह चंचल न किया जाय। जिनके साथ बातचीत करने पर मन चंचल हो जाता हो, उनका साथ छोड़ दो। तुम सबको मालूम है कि तुममें से प्रत्येक का किसी स्थानविशेष, व्यक्तिविशेष और खाद्य विशेष के प्रति एक विरक्ति का भाव रहता है। उन सबका परित्याग कर देना और जो सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति के अभिलाषी हैं, उन्हें तो सत्-असत् सब प्रकार के संग को त्याग देना होगा। पूरी लगन के साथ, कमर कसकर साधना में लग जाओ–फिर मृत्यु भी आए तो क्या? “मन्त्रं वा साधयामी शरीरं वा पातयामि”–काम सधे या प्राण ही जाये। फल की ओर आँख रखे बिना साधना में निमग्न हो जाओ। निर्भीक होकर इस प्रकार दिन-रात साधना करने पर छः महीने के भीतर ही तुम एक सिद्ध योगी हो सकते हो। परन्तु दूसरे, जो थोड़ी-थोड़ी साधना करते हैं, सब विषयों को ज़रा-ज़रा चखते हैं, वे कभी कोई बड़ी उन्नति नहीं कर सकते। केवल उपदेश सुनने से कोई फल नहीं होता। जो लोग तमोगुण से पूर्ण हैं, अज्ञानी और आलसी हैं, जिनका मन कभी किसी वस्तु पर स्थिर नहीं रहता, जो केवल थोड़े से आनंद के अन्वेषण करते हैं, उनके पास धर्म और दर्शन केवल क्षणिक आनंद के लिए हैं। जो सिर्फ थोड़े से आमोद-प्रमोद के लिए धर्म करने आते हैं, साधना में अध्यवसायहीन हैं, वे धर्म की बातें सुनकर सोचते हैं–वाह! ये तो अच्छी बातें हैं, पर इसके बाद घर पहुँचते ही सारी बातें भूल जाते हैं। सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए, मन का अपरिमित बल चाहिए। अध्यवसायशील साधक कहता है, “मैं चुल्लू से समुद्र पी जाऊँगा। मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर-चूर हो जायेंगे।।” इस प्रकार का तेज, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो। उस परम पद की प्राप्ति अवश्य होगी।

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