यह देखकर कि इच्छा के अनुसार कार्य अग्रसर नहीं हो रहा है स्वामी विवेकानंद के चित्त में खेद
स्थान – बेलुड़ मठ
वर्ष – १९०१ ईसवी
विषय – यह देखकर कि इच्छा के अनुसार कार्य अग्रसर नहीं हो रहा है स्वामीजी के चित्त में खेद – वर्तमान काल में देश में किस प्रकार आदर्शका आदर होना कल्याणकर है – महावीर का आदर्श – देश में वीर की कठोर प्राणता के योग्य सभी विषयों के आदर का प्रचलन करना होगा – सभीप्रकार की दुर्बलताओं का परित्याग करना होगा – स्वामीजी के शब्दों की अपूर्वशक्ति का उदाहरण – लोगों को शिक्षा देने के लिए शिष्य को प्रोत्साहित करना – सभी की मुक्ति न होने पर व्यष्टि की मुक्ति सम्भव नहीं, इस मत की आलोचनाव प्रतिवाद – धारावाहिक कल्याण-चिन्तन द्वारा जगत् का कल्याण करना।
स्वामीजी आजकल मठ में ही ठहर रहे हैं। शरीर कुछ अधिक स्वस्थ नहीं हैं; परन्तु प्रातःकाल और सायंकाल घूमने निकलते हैं। आज शनिवार; शिष्य मठ में आया है। स्वामीजी के चरण कमलों में प्रणाम करके कुशल प्रश्न पूछ रहा है।
स्वामीजी – इस शरीर की तो यही स्थिति है। तुममें से तो कोई भी मेरे काम में हाथ बँटाने के लिए अग्रसर नहीं हो रहा है। मैं अकेला क्या करूँगा बोल? बंगाल प्रान्त की भूमि में यह शरीर पैदा हुआ है। इस अस्वस्थ शरीर से क्या और अधिक काम काज चल सकता है? तुम लोग सब यहाँ पर आते हो – शुद्ध पात्र हो, तुम लोग यदि मेरे इस काम में सहायक न बनोगे तो मैं अकेला क्या करूँगा बोलो?
शिष्य – महाराज, ये सब ब्रह्मचारी, त्यागी पुरुषगण आपके पीछे खड़े हैं। मैं समझता हूँ, आपके काम में इनमें से प्रत्येक व्यक्ति जीवनदान भी देने को तैयार है, फिर भी आप ऐसी बात क्यों कर रहे हैं?
स्वामीजी – वास्तव में मैं चाहता हूँ – युवक बंगालियों का एक दल। वे ही देश की आशा हैं। चरित्रवान, बुद्धिमान, दूसरों के लिए सर्वस्व भी त्याग देने वाले तथा आज्ञाकारी युवकों पर ही मेरा भविष्य का कार्य निर्भर है। उन्हीं से मुझे भरोसा है जो मेरे भावों को जीवन में प्रत्यक्ष परिणत कर अपना और देश का कल्याण करने में जीवनदान कर सकेंगे। नहीं तो, झुण्ड के झुण्ड कितने ही लड़के आ रहे हैं और आयेंगे, पर उनके मुख का भाव तमोपूर्ण है। हृदय में उद्यम की आकांक्षा नहीं, शरीर में शक्ति नहीं और मन में साहस नहीं। इन्हें लेकर क्या काम होगा? नचिकेता की तरह श्रद्धावान दस बारह लड़के पाने पर मैं देश की चिन्ता और प्रयत्न को नवीन पथ पर परिचालित कर सकता हूँ।
शिष्य – महाराज, इतने युवक आपके पास आ रहे हैं, उनमें से आप क्या इस प्रकार किसीको भी नहीं देख रहे हैं?
स्वामीजी – जिन्हें अच्छे आधार समझता हूँ, उनमें से किसी ने विवाह कर लिया है, या कोई संसार का मान, यश, धन कमाने की इच्छा पर बिक गया है। किसी किसी का शरीर ही कमजोर है। इसके अतिरिक्त अधिकांश युवक उच्चभाव ग्रहण करने में ही असमर्थ हैं। तुम लोग मेरा भाव ग्रहण करने योग्य हो अवश्य परन्तु तुम लोग भी तो कार्यक्षेत्र में उस योग्यता को अभी तक प्रकट नहीं कर सक रहे हो। इन सब कारणों से समय समय पर मन में बड़ा दुःख होता है; ऐसा लगता है कि दैव-विडम्बना से शरीर धारण कर कुछ भी कार्य न कर सका। अवश्य, अभी भी बिलकुल निराश नहीं हुआ हूँ, क्योंकि श्रीरामकृष्ण की इच्छा होने पर इन सब लड़कों में से ही समय पर ऐसे धर्मवीर और कर्मवीर निकल सकते हैं जो भविष्य में मेरा अनुसरण कर कार्य कर सकेंगे।
शिष्य – मैं समझता हूँ, सभी को एक न एक दिन आपके उदार भावों को ग्रहण करना ही होगा! यह मेरा दृढ़ विश्वास है, क्योंकि साफ देख रहा हूँ – सभी ओर सभी विषयों में आप ही की भावधारा प्रवाहित हो रही है। क्या जीवसेवा, क्या देश-कल्याणव्रत, क्या ब्रह्मविद्या की चर्चा, क्या ब्रह्मचर्य, सभी क्षेत्रों में आपका भाव प्रविष्ट होकर सभी में कुछ नवीनता का संचार कर रहा है और देशवासियों में से कोई प्रकट में आपका नाम लेकर और कोई आपका नाम छिपाकर अपने नाम से आप ही के उस भाव और मत का सभी विषयों में सर्वसाधारण में प्रचार कर रहे हैं।
स्वामीजी – मेरा नाम न भी लें, पर मेरा भाव लेने से ही पर्याप्त होगा। काम-कांचन त्याग करके भी निन्यान्नबे प्रतिशत साधु नामयश के मोह में आबद्ध हो जाते हैं। Fame – that last infirmity of noble mind – नाम की आकांक्षा ही उच्च अन्तःकरण की अन्तिम दुर्बलता है, पढ़ा है न? फल की कामना बिलकुल छोड़कर काम किये जाना होगा। भला-बुरा तो लोग कहेंगे ही, परन्तु उच्च आदर्श को सामने रखकर हमें सिंह की तरह काम करते जाना होगा। इसमें ‘निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु’ – विद्वान लोग निन्दा या स्तुति कुछ भी क्यों न करें।
शिष्य – हमारे लिए इस समय किस आदर्श का ग्रहण करना उचित है?
स्वामीजी – महावीर के चरित्र को ही तुम्हें इस समय आदर्श मानना पड़ेगा। देखो न, वे राम की आज्ञा से समुद्र लाँघकर चले गये! जीवनमृत्यु की फिर परवाह कहाँ? महा जितेन्द्रिय, महा बुद्धिमान, दास्यभाव के उस महान् आदर्श से तुम्हें अपना जीवन गठित करना होगा; वैसा करने पर दूसरे भावों का विकास स्वयं हो जायगा। दुविधा छोड़कर गुरु की आज्ञा का पालन और ब्रह्मचर्य की रक्षा – यही है सफलता का रहस्य! ‘नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय’ – अवलम्बन करने योग्य और दूसरा पथ नहीं है। एक ओर हनुमानजी के जैसा सेवाभाव और दूसरी ओर उसी प्रकार त्रैलोक्य को भयभीत कर देनेवाला सिंह जैसा विक्रम। राम के हित के लिए उन्होंने जीवन तक विसर्जन कर देने में कभी जरा भी संकोच नहीं किया। राम की सेवा के अतिरिक्त अन्य सभी विषयों के प्रति उपेक्षा, यहाँ तक कि ब्रह्मत्व, शिवत्व तक की प्राप्ति में उपेक्षा! केवल रघुनाथ के उपदेश का पालन ही जीवन का एकमात्र व्रत रहा। उसी प्रकार एकनिष्ठ होना चाहिए। खोल-करताल बजाकर उछल-कूद मचाने से देश पतन के गर्त में जा रहा है। एक तो यह पेट-रोग के मरीजों का दल है – और उस पर इतनी उछल-कूद – भला कैसे सहन होगी? कामगन्धविहीन उच्च साधना का अनुकरण करने जाकर देश घोर तमोगुण से भर गया है। देश देश में, गाँव गाँव में – जहाँ भी जायगा, देखेगा, खोल-करताल ही बज रहे हैं! दुन्दुभी नगाड़े क्या देश में तैयार नहीं होते? तुरही भेरी क्या भारत में नहीं मिलती? वही सब गुरुगम्भीर ध्वनि लड़कों को सुना। बचपन से जनाने बाजे सुन सुनकर, कीर्तन सुन सुनकर देश स्त्रियों का देश बन गया है। इससे अधिक और क्या अधःपतन होगा! कविकल्पना भी इस चित्र को चित्रित करने में हार मान गयी है। डमरू श्रृंग बजाना होगा, नगाड़े में ब्रह्मरुद्रताल का दुन्दुभीनाद उठाना होगा, ‘महावीर’, ‘महावीर’, की ध्वनि तथा ‘हर हर बम बम’ शब्द से दिग्दिगन्त कम्पित कर देना होगा। जिन सब गीतवाद्यों से मनुष्य के हृदय के कोमल भावसमूह उद्दीप्त हो जाते हैं, उन सब को थोड़े दिनों के लिए अब बन्द रखना होगा। खयाल टप्पा बन्द करके ध्रुपद का गाना सुनने का अभ्यास लोगों को कराना होगा। वैदिक छन्दों के उच्चारण से देश में प्राण-संचार कर देना होगा। सभी विषयों में वीरता की कठोर महाप्राणता लानी होगी। इस प्रकार आदर्श का अनुसरण करने पर ही इस समय जीव का तथा देश का कल्याण होगा। यदि तू अकेला उस भाव से अपने जीवन को तैयार कर सका, तो तुझे देखकर हजारों लोग वैसा करना सीख जायँगे। परन्तु देखना, आदर्श से कभी एक पग भी न हटना! कभी साहस न छोड़ना। खाते, सोते, पहनते, गाते, भोग में, रोग में सदैव तीव्र उत्साह एवं साहस का ही परिचय देना होगा, सभी तो महाशक्ति की कृपा होगी?
शिष्य – महाराज, कभी कभी न जाने कैसा साहसशून्य बन जाता हूँ।
स्वामीजी – उस समय ऐसा सोचा कर – मैं किसकी संतान हूँ, उनका आश्रय लेकर भी मेरी ऐसी दुर्बलता तथा साहसहीनता?’ उस दुर्बलता और साहसहीनता के मस्तक पर लात मारकर, ‘मैं वीर्यवान हूँ, मैं मेधावान हूँ, मैं ब्रह्मविद् हूँ, मैं प्रज्ञावान हूँ’, कहता कहता उठ खड़ा हो। ‘मैं अमुक अमुक का शिष्य हूँ, काम-काँचन को जीतनेवाले श्रीरामकृष्णजी के साथी का साथी हूँ’ – इस प्रकार का अभिमान रखेगा तभी कल्याण होगा। जिसे यह अभिमान नहीं है, उसके भीतर ब्रह्म नहीं जागता। रामप्रसाद का गाना नहीं सुना? वे कहा करते थे, ‘मैं – जिसकी स्वामिनी हैं माँ महेश्वरी – वह मैं इस संसार में भला किससे डर सकता हूँ?’ इस प्रकार अभिमान सदा मन में जागृत रखना होगा। तब फिर दुर्बलता, साहसहीनता पास न आयगी। कभी भी मन में दुर्बलता न आने देना। महावीर का स्मरण किया कर – महामाया का स्मरण किया कर; देखेगा, सब दुर्बलता, सारी कापुरुषता उसी समय चली जायगी।
ऐसा कहते कहते स्वामीजी नीचे आ गये। मठ के विस्तीर्ण आँगन में जो आम का वृक्ष है, उसी के नीचे एक छोटीसी खटिया पर वे अक्सर बैठा करते थे, आज भी वहाँ पर आकर पश्चिम की ओर मुँह करके बैठ गये। उनकी आँखों से उस समय भी महावीर का भाव निकल रहा था। वहीं बैठे बैठे उन्होंने शिष्य से उपस्थित संन्यासी तथा ब्रह्मचारीगणों को दिखाकर कहा –
“यह देख प्रत्यक्ष ब्रह्म! इसकी उपेक्षा करके जो लोग दूसरे विषय में मन लगाते हैं उन्हें धिक्कार! हाथ पर रखे हुए आँवले की तरह यह देख ब्रह्म। देख नहीं रहा है? – यही, यही!”
स्वामीजी ने ये बातें ऐसे हृदयस्पर्शी भाव के साथ कहीं कि सुनते ही उपस्थित सभी लोग, “चित्रार्पितारम्भ इवावतस्थे।” सभी तसवीर की तरह स्थिर खड़े रह गये। – स्वामीजी भी एकाएक गम्भीर ध्यान में मग्न हो गये। अन्य सब लोग भी बिलकुल शान्त हैं; किसी के मुँह से कोई बात नहीं निकलती! स्वामी प्रेमानन्द उस समय गंगाजी से कमण्डलू में जल भरकर मन्दिर में आ रहे थे। उन्हें देखकर भी स्वामीजी “यही प्रत्यक्ष ब्रह्म – यही प्रत्यक्ष ब्रह्म” कहने लगे। वह बात सुनकर उस समय उनके भी हाथ का कमण्डलु हाथ में रह गया; एक गहरे नशे के चक्कर में मग्न होकर वे भी उसी समय ध्यानावस्थित हो गये। इस प्रकार करीब पन्द्रह-बीस मिनट व्यतीत हो गये। तब स्वामीजी ने प्रेमानन्द को पुकारकर कहा, “जा अब श्रीरामकृष्ण की पूजा में जा।” स्वामी प्रेमानन्द को तब चेतना प्राप्त हुई। धीरे धीरे सभी का मन फिर ‘मैं-मेरे’ के राज्य में उतर आया और सभी अपने अपने कार्य में लग गये।
उस दिन का वह दृश्य शिष्य अपने जीवन में कभी भूल नहीं सकता। स्वामीजी की कृपा से और शक्ति के बल से उसका चंचल मन भी उस दिन अनुभूति-राज्य के अत्यन्त निकट आ गया था। इस घटना के साक्षी के रूप में बेलुड़ मठ के संन्यासीगण अभी भी मौजूद हैं। स्वामीजी की उस दिन की वह अपूर्व क्षमता देखकर उपस्थित सभी लोग विस्मित हो गये थे। क्षण भर में उन्होंने सभी के मनों को समाधि के अतल जल में डुबो दिया था।
उस शुभ दिन का स्मरण कर शिष्य अभी भी भावाविष्ट हो जाता है और उसे ऐसा लगता है, पूज्यपाद आचार्य की कृपा से उसे भी एक दिन के लिए ब्रह्मभाव को प्रत्यक्ष करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
थोड़ी देर बाद शिष्य के साथ स्वामीजी टहलने चले। जाते जाते शिष्य से बोले, ‘देखा, आज कैसा हुआ? सभी को ध्यानस्थ होना पड़ा। वे सब श्रीरामकृष्ण की सन्तान हैं न, इसीलिए कहने के साथ ही उन्हें अनुभूति हो गयी थी।”
शिष्य – महाराज, मेरे जैसे व्यक्तियों का मन भी उस समय जब निर्विषय बन गया था, तो संन्यासीगण का फिर क्या कहना? आनन्द से मानो मेरा हृदय फटा जा रहा था। परन्तु अब उस भाव का कुछ भी स्मरण नहीं है – मानों वह सब स्वप्न ही था।
स्वामीजी – समय पर सब हो जायगा; इस समय काम कर। इन महामोहग्रस्त जीवों के कल्याण के लिए किसी न किसी काम में लग जा। फिर तू देखेगा, वह सब अपने आप हो जायगा।
शिष्य – महाराज, उतने कर्मो में प्रवेश करते भय होता है – उतना सामर्थ्य भी नहीं है। शास्त्र में भी कहा है, ‘गहना कर्मणो गतिः।’
स्वामीजी – तुझे क्या अच्छा लगता है?
शिष्य – आप जैसे सर्व शास्त्रों के ज्ञाता के साथ निवास तथा तत्त्वविचार करूँगा और श्रवण, मनन, निदिध्यासन द्वारा इसी शरीर में ब्रह्मतत्त्व को प्रत्यक्ष करूँगा। इसके अतिरिक्त किसी भी बात में मेरा मन नहीं लगता। ऐसा लगता है, मानो और दूसरा कुछ करने का सामर्थ्य ही मुझमें नहीं है।
स्वामीजी – जो अच्छा लगे, वही करता जा। अपने सभी शास्त्र-सिद्धान्त लोगों को बता दे, इसीसे बहुतों का उपकार होगा। शरीर जितने दिन है उतने दिन काम किये बिना तो कोई रह नहीं सकता। अतः जिस काम से दूसरों का उपकार होता है वही करना उचित है। तेरे अपने अनुभवों तथा शास्त्र के सिद्धान्तवाक्यों से अनेक जिज्ञासुओं का उपकार हो सकता है और हो सके तो यह सब लिखता भी जा। उससे अनेकों का कल्याण हो सकेगा।
शिष्य – पहले मुझे ही अनुभव हो, तब तो लिखूँगा। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, ‘चपरास हुए बिना कोई किसी की बात नहीं सुनता।’
स्वामीजी – तू जिन सब साधनाओं तथा विचार-स्थितियों में से अग्रसर हो रहा है, जगत् में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जो अभी उन्हीं स्थितियों में पड़े हैं, उन स्थितियों को पार कर वे अग्रसर नहीं हो सकते हैं। तेरा अनुभव और विचारप्रणाली लिखी होने पर उनका भी तो उपकार होगा। मठ में साधुओं के साथ जो ‘चर्चा’ करता है उन विषयों को सरल भाषा में लिखकर रखने से, बहुतों का उपकार हो सकता है।
शिष्य – आप जब आदेश कर रहे हैं, तो उस विषय में चेष्टा करूँगा।
स्वामीजी – जिस साधन-भजन या अनुभूति द्वारा दूसरों का उपकार नहीं होता, महामोह में पँसे हुए जीवों का कल्याण नहीं होता, काम-कांचन की सीमा से मनुष्य को बाहर निकलने में सहायता नहीं मिलती, ऐसे साधन-भजन से क्या लाभ? क्या तू समझता है कि एक भी जीव के बन्धन में रहते हुए तेरी मुक्ति होगी? जितने दिन जितने जन्म तक उसका उद्धार नहीं होगा, उतनी बार तुझे भी जन्म लेना पड़ेगा – उसकी सहायता करने तथा उसे ब्रह्म का अनुभव कराने के लिए प्रत्येक जीव तो तेरा ही अंग है। इसीलिए दूसरों के लिए कर्म कर। अपने स्त्री-पुत्रों को अपना जानकर जिस प्रकार तू उनके सभी प्रकार के मंगल की कामना करता है उसी प्रकार प्रत्येक जीव के प्रति जब तेरा वैसा ही आकर्षण होगा, तब समझूँगा तेरे भीतर ब्रह्म जागृत हो रहा है – उससे एक मिनट भी पहले नहीं। जाति-वर्ण का विचार छोड़कर इस विश्व के मंगल की कामना जाग्रत् होने पर ही समझूँगा कि तू आदर्श की ओर अग्रसर हो रहा है।
शिष्य – यह तो महाराज, बड़ी कठिन बात है कि सभी की मुक्ति हुए बिना व्यक्त्तिगत मुक्ति नहीं होगी। ऐसा विचित्र सिद्धान्त तो कभी भी नहीं सुना।
स्वामीजी – एक श्रेणी के वेदान्तवादियों का ऐसा ही मत है – वे कहते हैं, ‘व्यष्टि की मुक्ति, मुक्ति का वास्तव स्वरूप नहीं है। समष्टि की मुक्ति ही मुक्ति है।’ हाँ, इस मत के दोषगुण अवश्य दिखाये जा सकते हैं।
शिष्य – वेदान्तमत में व्यष्टिभाव ही तो बन्धन का कारण है। वही उपाधिगत चित् सत्ता काम्य कर्म आदि के कारण बद्धसी प्रतीत होती है। विचार के बल से उपाधिरहित होने पर – निर्विषय हो जाने पर प्रत्यक् चिन्मय आत्मा का बन्धन रहेगा कैसे? जिसकी जीव जगत् आदि की बुद्धि है, उसे ऐसा लग सकता है कि सभी की मुक्ति हुए बिना उसकी मुक्ति नहीं है; परन्तु श्रवण आदि के बल पर मन निरुपाधिक होकर जब प्रत्यक्ब्रह्ममय होता है, उस समय उसकी दृष्टि में जीव ही कहाँ और जगत ही कहाँ? कुछ भी नहीं रहता। उसकी मुक्ति को रोकने वाला कोई नहीं हो सकता।
स्वामीजी – “हाँ, तू जो कह रहा है, वह अधिकांश वेदान्तवादियों का सिद्धान्त है वह निर्दोष भी है। उससे व्यक्त्तिगत मुक्ति रुकती नहीं, परन्तु जो व्यक्ति सोचता है कि मैं ब्रह्मा से लेकर समस्त जगत् को अपने साथ लेकर मुक्त हो जाऊँगा, उसकी महाप्राणता का एक बार चिन्तन तो कर!
शिष्य – महाराज, वह उदार भाव का परिचायक अवश्य है, परन्तु शास्त्रविरुद्ध लगता है।
स्वामीजी शिष्य की बातें सुन न सके। ऐसा प्रतीत हुआ कि पहले से ही वे अन्यमनस्क हो किसी दूसरी बात को सोच रहे थे। फिर कुछ समय के बाद बोल उठे, ‘अरे हाँ, तो हम लोग क्या बात कर रहे थे? मैं तो मानो बिलकुल भूल ही गया हूँ।’ शिष्य ने जब उस विषय की फिर याद दिला दी तो स्वामीजी बोले, “दिन रात ब्रह्म-विषय का अनुसन्धान किया कर। एकाग्र मन से ध्यान किया कर और शेष समय में या तो कोई लोकहितकर काम किया कर या मन ही मन सोचा कर कि ‘जीवों का – जगत् का उपकार हो। सभी की दृष्टि ब्रह्म की ओर लगी रहे।’ इस प्रकार लगातार चिन्ता की लहरों के द्वारा ही जगत् का उपकार होगा। जगत् का कोई भी सदनुष्ठान व्यर्थ नहीं जाता, चाहे वह कार्य हो या चिन्तन। तेरे चिन्तन से ही प्रभावित होकर सम्भव है कि अमरीका के किसी व्यक्ति को ज्ञानप्राप्ति हो।”
शिष्य – महाराज, मेरा मन जिससे इसी जन्म में वास्तव में निर्विषय बने – ऐसा मुझे आशीर्वाद दीजिये।
स्वामीजी – ऐसा होगा क्यों नहीं? तन्मयता रहने पर अवश्य होगा।
शिष्य – आप मन को तन्मय बना सकते हैं; आप में वह शक्ति है, मैं जानता हूँ। पर महाराज, मुझे भी वैसा कर दीजिये – यही प्रार्थना है।
इस प्रकार वार्तालाप होते होते शिष्य के साथ स्वामीजी मठ में आकर उपस्थित हुए। उस समय दशमी की चाँदनी में मठ का बगीचा मानो रजत-प्रवाह से स्नान कर रहा था। शिष्य उल्हसित मन से स्वामीजी के पीछे पीछे मठ-मन्दिर में उपस्थित होकर आनन्द से टहलने लगा। स्वामीजी ऊपर विश्राम करने चले गये।