स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (17 जनवरी, 1900)

(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)

१७ जनवरी, १९००

प्रिय धीरा माता,

सारदानन्द के लिए प्रेषित कागजात के साथ अपका पत्र मिला; उसमें कुछ सुसंवाद भी है। इस सप्ताह में और भी कुछ सुसंवाद पाने की आशा में हूँ। आपने अपनी योजनाओं के सम्बन्ध में कुछ भी तो नहीं लिखा है। कुमारी ग्रीनस्टिडल ने मुझे एक पत्र लिखकर आपके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की है – ऐसा कौन है जो आपके प्रति कृतज्ञता प्रकट किये बिना रह सकता है? आशा है कि आजकल तुरीयानन्द भली भाँति कार्य में संलग्न होगा।

सारदानन्द को २००० रु. भेजने में समर्थ हो सका हूँ। इसमें कुमारी मैक्लिऑड एवं श्रीमती लेगेट सहायक सिद्ध हुईं; अधिकांश उन लोगों द्वारा दिया गया है, शेषांश व्याख्यान से प्राप्त हुआ। यहाँ पर अथवा अन्यत्र कहीं वक्ता के द्वारा विशेष कुछ होने जाने की मुझे कोई आशा नहीं है। उसमें मेरा व्ययनिर्वाह भी नहीं होता है। केवल इतना ही नहीं, पैसा देने की सम्भावना के कारण कोई भी दिखाई नहीं देता है। इस देश में वक्ता के क्षेत्र का उपयोग विशेष रूप से किया गया है और लोगों में वक्तृता सुनने की भावना समाप्त हो चुकी है।

निस्सन्देह मेरा स्वास्थ्य अच्छा है। चिकित्सक की राय में मैं कहीं भी जाने के लिए स्वच्छन्द हूँ; निदान चलता रहेगा, और मैं कुछ ही महीनों में पूर्णतया स्वस्थ हो जाऊँगा। वह इस बात पर दृढ़ है कि मैं ठीक हो चुका हूँ; शेष कमियाँ प्रकृत्या पूरी हो जायेंगी। खासकर स्वास्थ्य सुधारने के लिए ही मैं यहाँ पर आया था और उसका सुफल मुझे प्राप्त हुआ है। साथ साथ २००० रु. भी मिले, जिससे कानूनी कार्यवाहियों का खर्च भी सँभल गया।

अब मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वक्तृता-मंच पर खड़े होने का मेरा कार्य समाप्त हो चुका है; उस प्रकार के कार्यों द्वारा अपना स्वास्थ्य नष्ट करना अब मेरे लिए आवश्यक नहीं है। अब मुझे यह स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि मठ सम्बन्धी सारी चिन्ताओं से मुझे अपने को मुक्त करना होगा और कुछ समय के लिए माँ के पास जाना होगा। मेरी वजह से उन्होंने बहुत कष्ट उठाया। उनके अन्तिम दिन को व्यवधान रहित बनाने के लिए मुझे प्रयत्न करना चाहिए। क्या आप जानती हैं कि महान् शंकराचार्य को भी ठीक ऐसा ही करना पड़ा था? माँ के कुछ अन्तिम दिनों में उनको भी अपनी माँ के पास लौटना पड़ा था। मैं इसको स्वीकार करता हूँ, मैं आत्मसमर्पण कर चुका हूँ। सदा से अधिक इस समय मैं शान्त हूँ। केवल आर्थिक दृष्टि से ही कुछ कठिनाई है। हाँ, भारतीय लोग कुछ ऋणी भी हैं। मैं मद्रास तथा भारत के कुछ मित्रों से प्रयत्न करूँगा। अस्तु, मुझे अवश्य प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि मुझे यह पूर्वाभास हो चुका है कि मेरी माँ अब अधिक दिनों तक जीवित न रह सकेंगी। इस प्रकार के सर्वश्रेष्ठ त्याग का आह्वान भी मुझे मिल रहा है कि उच्चाभिलाषा, नेतृत्व तथा यशाकांक्षाओं को मुझे त्यागना होगा। मेरा मन इसके लिए प्रस्तुत है तथा मुझे यह तपस्या करनी होगी। लेगेट के पास के एक हजार डालर, और यदि कुछ अधिक एकत्र किया जा सके, आवश्यकता पड़ने पर काम चलाने के लिए पर्याप्त होंगे। क्या आप मुझे भारत वापस भेज देंगी? मैं हर क्षण तत्पर हूँ। मुझसे मिले बिना फ़्रांस न जायें। अब मैं कम से कम ‘जो’ एवं निवेदिता के कल्पना-विलासों की तुलना में व्यावहारिक बन गया हूँ। मेरी ओर से वे अपनी कल्पनाओं को रूप प्रदान करें – मेरे निकट अब उनका स्वप्नों से अधिक कोई मूल्य नहीं हैं। मैं, आप, सारदानन्द एवं ब्रह्मानन्द के नाम से मठ की वसीयत कर देना चाहता हूँ। ज्यों ही सारदानन्द के यहाँ से कागजात मेरे पास आ जायेंगे, मैं यह कर दूँगा। तब मुझे छुट्टी होगी। मैं चाहता हूँ विश्राम, एक मुट्ठी अन्न, कुछ एक पुस्तकें तथा कुछ विद्वत्तापूर्ण कार्य। ‘माँ’ अब मुझे यह प्रकाश स्पष्ट रूप से दिखा रही हैं। इतना अवश्य है कि उन्होंने सर्वप्रथम इसका आभास आपको ही दिया था। किन्तु उस समय मुझे विश्वास नहीं हुआ था। किन्तु फिर भी अब यह स्पष्ट है कि १८८४ में अपनी माँ को छोड़ना एक महान् त्याग था और आज अपनी माँ के पास लौट जाना उससे भी बड़ा त्याग है। शायद ‘माँ’ की यही इच्छा है कि प्राचीन काल के महान् आचार्य की भाँति मैं भी कुछ अनुभव करूँ, है न यह बात? मैं अपनी अपेक्षा आपकी परिचालना में अधिक विश्वास रखता हूँ। ‘जो’ एवं निवेदिता के हृदय महान् हैं; किन्तु मेरे परिचालनार्थ ‘माँ’ अब आपको प्रकाश भेज रही हैं। क्या आप प्रकाश देख रही हैं? आप क्या परामर्श देती हैं? कम से कम मुझे बिना घर भेजे आप इस देश से बाहर मत जाइए।

मैं तो केवल एक बच्चा हूँ; मुझे कौन-सा कार्य करना है? मैं अपना अधिकार आपको सौंप रहा हूँ। मुझे यह दिखायी दे रहा है। वक्तृता-मंच से अब वाणी प्रचार करना मेरे लिए सम्भव नहीं है। यह बात किसी को मत बतायें – यहाँ तक कि ‘जो’ को भी नहीं। इससे मैं आनन्दित ही हूँ। मैं विश्राम चाहता हूँ। मैं थक गया हूँ, ऐसी बात नहीं है; किन्तु अलग अध्याय होगा – वाक्य नहीं, किन्तु अलौकिक स्पर्श, जैसा कि श्रीरामकृष्ण देव का था। ‘शब्द’ आपके पास चले गये हैं और ‘आवाज’ निवेदिता के यहाँ। अब मुझमें ये नहीं हैं। मैं प्रसन्न हूँ। मैं समर्पित हो चुका हूँ। केवल मुझे भारत में ले चलिए, क्या आप नहीं ले चलेंगी? ‘माँ’ आपको ऐसा करने के लिए प्रेरित करेंगी, मैं निश्चित हूँ।

आपकी चिरसन्तान
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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