सूर्यदेव का कोप – महाभारत का चौबीसवाँ अध्याय (आस्तीक पर्व)
“सूर्यदेव का कोप” नामक यह महाभारत कथा आदि पर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में आती है। यह कहानी पिछली कथा के आगे आरंभ होती है। पढ़ें क्यों आया भगवान भास्कर को क्रोध और किस तरह अरुण की सहायता से पृथ्वी की रक्षा हो सकी। पढ़ें सूर्यदेव का कोप नामक यह कथा हिंदी में। महाभारत के अन्य अध्याय क्रमिक रूप से पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत कथा।
सौतिरुवाच
स श्रुत्वाथात्मनो देहं सुपर्णः प्रेक्ष्य च स्वयम् ।
शरीरप्रतिसंहारमात्मनः सम्प्रचक्रमे ॥ १ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—शौनकादि महर्षियो! देवताओं द्वारा की हुई स्तुति सुनकर गरुड जी ने स्वयं भी अपने शरीर की ओर दृष्टिपात किया और उसे संकुचित कर लेने की तैयारी करने लगे ॥ १ ॥
सुपर्ण उवाच
न मे सर्वाणि भूतानि विभियुर्देहदर्शनात् ।
भीमरूपात् समुद्विग्नास्तस्मात् तेजस्तु संहरे ॥ २ ॥
गरुड जी ने कहा—देवताओ! मेरे इस शरीर को देखने से संसार के समस्त प्राणी उस भयानक स्वरूप से उद्विग्न होकर डर न जायँ इसलिये मैं अपने तेज को समेट लेता हूँ ॥ २ ॥
सौतिरुवाच
ततः कामगमः पक्षी कामवीर्यो विहंगमः ।
अरुणं चात्मनः पृष्ठमारोप्य स पितुर्गृहात् ॥ ३ ॥
मातुरन्तिकमागच्छत् परं तीरं महोदधेः ।
उग्रश्रवाजी कहते हैं—तदनन्तर इच्छानुसार चलने तथा रुचि के अनुसार पराक्रम प्रकट करने वाले पक्षी गरुड अपने भाई अरुण को पीठ पर चढ़ाकर पिता के घर से माता के घर से माता के समीप महासागर के दूसरे तट पर आये ॥ ३ ॥
तत्रारुणश्च निक्षिप्तो दिशं पूर्वां महाद्युतिः ।। ४ ।।
सूर्यस्तेजोभिरत्युग्रैर्लोकान् दग्धुमना यदा ।
जब सूर्य ने अपने भयंकर तेज के द्वारा सम्पूर्ण लोकों को दग्ध करने का विचार किया, उस समय गरुड जी महान् तेजस्वी अरुण को पुनः पूर्व दिशा में लाकर सूर्य के समीप रख आये ॥ ४ ॥
रुरुरुवाच
किमर्थं भगवान् सूर्यो लोकान् दग्धुमनास्तदा ॥ ५ ॥
किमस्यापहृतं देवैर्येनेमं मन्युराविशत् ।
रुरु ने पूछा—पिता जी! भगवान् सूर्य ने उस समय सम्पूर्ण लोकों को दग्ध कर डालने का विचार क्यों किया? देवताओं ने उनका क्या हड़प लिया था, जिससे उनके मन में क्रोध का संचार हो गया? ॥ ५ ॥
प्रमतिरुवाच
चन्द्रार्काभ्यां यदा राहुराख्यातो ह्यमृतं पिबन् ॥ ६ ॥
वैरानुबन्धं कृतवांश्चन्द्रादित्यौ तदानघ ।
वध्यमाने ग्रहेणाथ आदित्ये मन्युराविशत् ॥ ७ ॥
प्रमति ने कहा—अनघ! जब राहु अमृत पी रहा था, उस समय चन्द्रमा और सूर्यदेव ने उसका भेद बता दिया; इसीलिये उसने चन्द्रमा और सूर्य से भारी वैर बाँध लिया और उन्हें सताने लगा। राहु से पीड़ित होने पर सूर्य के मन में क्रोध का आवेश हुआ ॥ ६-७ ॥
सुरार्थाय समुत्पन्नो रोषो राहोस्तु मां प्रति ।
बह्वनर्थकरं पापमेकोऽहं समवाप्नुयाम् ॥ ८ ॥
वे सोचने लगे, ‘देवताओं के हित के लिये ही मैंने राहु का भेद खोला था जिससे मेरे प्रति राहु का रोष बढ़ गया। अब उसका अत्यन्त अनर्थकारी परिणाम दुःख के रूप में अकेले मुझे प्राप्त होता है ॥ ८ ॥
सहाय एव कार्येषु न च कृच्छ्रेषु दृश्यते ।
पश्यन्ति ग्रस्यमानं मां सहन्ते वै दिवौकसः ॥ ९ ॥
‘संकट के अवसरों पर मुझे अपना कोई सहायक ही नहीं दिखायी देता। देवता लोग मुझे राहु से ग्रस्त होते देखते हैं तो भी चुपचाप सह लेते हैं ॥ ९ ॥
तस्माल्लोकविनाशार्थं ह्यवतिष्ठे न संशयः ।
एवं कृतमतिः सूर्यो ह्यस्तमभ्यगमद् गिरिम् ॥ १० ॥
‘अतः सम्पूर्ण लोकों का विनाश करने के लिये निःसंदेह मैं अस्ताचल पर जाकर वहीं ठहर जाऊँगा।’ ऐसा निश्चय करके सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये ॥ १० ॥
तस्माल्लोकविनाशाय संतापयत भास्करः ।
ततो देवानुपागम्य प्रोचुरेवं महर्षयः ॥ ११ ॥
और वहीं से सूर्यदेव ने सम्पूर्ण जगत् का विनाश करने के लिये सब को संताप देना आरम्भ किया। तब महर्षिगण देवताओं के पास जाकर इस प्रकार बोले— ॥ ११ ॥
अद्यार्धरात्रसमये सर्वलोकभयावहः ।
उत्पत्स्यते महान् दाहस्त्रैलोक्यस्य विनाशनः ॥ १२ ॥
‘देवगण! आज आधी रात के समय सब लोकों को भयभीत करने वाला महान् दाह उत्पन्न होगा, जो तीनों लोकों का विनाश करने वाला हो सकता है’ ॥ १२ ॥
ततो देवाः सर्षिगणा उपगम्य पितामहम् ।
अब्रुवन् किमिवेहाद्य महद् दाहकृतं भयम् ॥ १३ ॥
न तावद् दृश्यते सूर्यः क्षयोऽयं प्रतिभाति च ।
उदिते भगवन् भानौ कथमेतद् भविष्यति ॥ १४ ॥
तदनन्तर देवता ऋषियों को साथ ले ब्रह्मा जी के पास जाकर बोले—‘भगवन्! आज यह कैसा महान् दाहजनित भय उपस्थित होना चाहता है? अभी सूर्य नहीं दिखायी देते तो भी ऐसी गरमी प्रतीत होती है मानो जगत् का विनाश हो जायगा। फिर सूर्योदय होने पर गरमी कैसी तीव्र होगी, यह कौन कह सकता है?’ ॥ १३-१४ ॥
पितामह उवाच
एष लोकविनाशाय रविरुद्यन्तुमुद्यतः ।
दृश्यन्नेव हि लोकान् स भस्मराशीकरिष्यति ॥ १५ ॥
ब्रह्मा जी ने कहा—ये सूर्यदेव आज सम्पूर्ण लोकों का विनाश करने के लिये ही उद्यत होना चाहते हैं। जान पड़ता है, ये दृष्टि में आते ही सम्पूर्ण लोकों को भस्म कर देंगे ॥ १५ ॥
तस्य प्रतिविधानं च विहितं पूर्वमेव हि ।
कश्यपस्य सुतो धीमानरुणेत्यभिविश्रुतः ॥ १६ ॥
किंतु उनके भीषण संताप से बचने का उपाय मैंने पहले से ही कर रखा है। महर्षि कश्यप के एक बुद्धिमान् पुत्र हैं, जो अरुण नाम से विख्यात हैं ॥ १६ ॥
महाकायो महातेजाः स स्थास्यति पुरो रवेः ।
करिष्यति च सारथ्यं तेजश्चास्य हरिष्यति ॥ १७ ॥
लोकानां स्वस्ति चैवं स्वाद् ऋषीणां च दिवौकसाम् ।
उनका शरीर विशाल है। वे महान् तेजस्वी हैं। वे ही सूर्य के आगे रथ पर बैठेंगे। उनके सारथि का कार्य करेंगे और उनके तेज का भी अपहरण करेंगे। ऐसा करने से सम्पूर्ण लोकों, ऋषि-महर्षियों तथा देवताओं का भी कल्याण होगा ॥ १७ ॥
प्रमतिरुवाच
ततः पितामहाज्ञातः सर्वं चक्रे तदारुणः ॥ १८ ॥
उदितश्चैव सविता ह्यरुणेन समावृतः ।
एतत् ते सर्वमाख्यातं यत् सूर्यं मन्युराविशत् ॥ १९ ॥
प्रमति कहते हैं—तत्पश्चात् पितामह ब्रह्माजी की आज्ञा से अरुण ने उस समय सब कार्य उसी प्रकार किया। सूर्य अरुण से आवृत होकर उदित हुए। वत्स! सूर्य के मन में क्यों क्रोध का आवेश हुआ था, इस प्रश्न के उत्तर में मैंने ये सब बातें कही हैं ।। १८-१९ ॥
अरुणश्च यथैवास्य सारथ्यमकरोत् प्रभुः ।
भूय एवापरं प्रश्नं शृणु पूर्वमुदाहृतम् ॥ २० ॥
शक्तिशाली अरुण ने सूर्य के सारथि का कार्य क्यों किया, यह बात भी इस प्रसंग में स्पष्ट हो गयी है। अब अपने पूर्व कथित दूसरे प्रश्न का पुनः उत्तर सुनो ॥ २० ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
इस प्रकार श्री महाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में गरुड चरित्र विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४ ॥