धर्मस्वामी विवेकानंद

माया और भ्रम – स्वामी विवेकानंद (ज्ञानयोग)

“माया और भ्रम” नामक यह व्याख्यान स्वामी विवेकानंद ने लंदन में दिया था। इसमें स्वामी जी माया के स्वरूप का निरूपण कर रहे हैं और साथ ही उसका वेदांत के दृष्टिकोण से विश्लेषण कर रहे हैं। वेदान्त की दृष्टि से वस्तुतः माया और भ्रम भिन्न-भिन्न हैं, यद्यपि आज-कल कुछ लोग एक ही अर्थ में इन शब्दों का उपयोग करते हैं। “माया और भ्रम” नामक यह भाषण ज्ञान योग पुस्तक का तृतीय अध्याय है। इस किताब के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग

माया शब्द प्रायः तुम सभी ने सुना होगा। इसका व्यवहार साधारणतः भ्रम, भ्रान्ति अथवा इसी प्रकार के अर्थ में किया जाता है, किन्तु यह उसका वास्तविक अर्थ नहीं है। मायावाद उन स्तम्भों में से एक है, जिन पर वेदान्त की स्थापना हुई है, अतः उसका ठीक ठीक अर्थ समझ लेना आवश्यक है । मैं तुम लोगों से तनिक धैर्यपूर्वक सुनने की प्रार्थना करता हूँ, क्योंकि मुझे भय है कि कहीं तुम माया के सिद्धान्त को गलत न समझ बैठो। वैदिक साहित्य में ‘माया’ शब्द का प्रयोग भ्रान्ति के अर्थ में ही देखा जाता है । यही माया शब्द का सब से प्राचीन अर्थ है । किन्तु उस समय यथार्थ मायावाद- तत्त्व का उदय नहीं हुआ था। हम वेद में इस प्रकार के वाक्य पाते हैं – “इन्द्र ने माया द्वारा नाना रूप धारण किये ।”1 यहाँ पर ‘माया’ शब्द इन्द्रजाल अथवा उसी प्रकार के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वेद के अनेक स्थलों में माया शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त देखा जाता है । इसके बाद कुछ समय तक माया शब्द का प्रयोग एकदम लुप्त हो गया। किन्तु इसी बीच उस शब्द द्वारा प्रतिपादित जो अर्थ या भाव था, वह क्रमशः परिपुष्ट हो रहा था। बाद में हम देखते हैं कि एक प्रश्न उठाया गया है, “हम जगत् के इस रहस्य को क्यों नहीं जान पाते?” और उसका जो उत्तर दिया गया है, वह बड़ा ही अर्थपूर्ण है – “हम सभी थोथी बकवास करते हैं, इन्द्रियसुख से ही सन्तुष्ट हैं और वासनाओं के पीछे दौड़ते रहते हैं, इसलिए इस सत्य को हमने मानो कुहरे से ढक रखा है ।”2 यहाँ पर माया शब्द का प्रयोग बिलकुल नहीं हुआ है पर उससे यही भाव प्रकट होता है कि हमारी अज्ञता का कारण कुछ कुहरे जैसा है जो इस सत्य और हमारे बीच आ गया है । इसके बहुत समय बाद, एक अपेक्षाकृत आधुनिक उपनिषद् में माया शब्द पुनः दीख पड़ता है। पर इस बीच उसका रूप काफी बदल चुका है; उसके साथ कई नये अर्थ संयोजित हो गये हैं । नाना प्रकार के मतवादों का प्रचार हुआ, उनकी पुनरुक्ति हुई और अन्त में मायाविषयक धारणा ने एक स्थिर रूप प्राप्त कर लिया। हम श्वेताश्वतर उपनिषद् में पढ़ते हैं – “माया को ही प्रकृति समझो और ‘मायी’ यानी माया के शासक को महेश्वर जानो ।”3 भगवान शंकराचार्य के पूर्ववर्ती दार्शनिकों ने इस माया शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग किया है । बौद्धों ने भी मायावाद का उपयोग किया है । किन्तु बौद्धों के हाथों यह बहुत कुछ विज्ञानवाद (Idealism)4 में परिणत हो गया था, और अब माया शब्द साधारणतः इसी अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है। हिन्दू जब कहते हैं कि “संसार मायामय है,” तो साधारण मनुष्य की यही धारणा होती है कि “संसार एक भ्रम है” । इस प्रकार की व्याख्या का कुछ आधार है; क्योंकि बौद्ध दार्शनिकों की एक श्रेणी के दार्शनिक बाह्य जगत् के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। किन्तु वेदान्त में माया का जो अन्तिम विकसित रूप है, वह न तो विज्ञानवाद है, न यथार्थवाद (Realism)5 और न किसी प्रकार का सिद्धान्त ही। वह तो तथ्यों का सहज वर्णन मात्र है – हम क्या हैं और अपने चारों ओर हम क्या देखते हैं ।

मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि जिन पुरुषों से वेद निकले, उनके मन मूल तत्त्वों के अनुसरण तथा आविष्कार में ही लगे हुए थे। इन तत्वों के ब्योरों के अनुशीलन के लिए मानो उन्हें समय ही नहीं मिला और उन्होंने प्रतीक्षा भी नहीं की। वे तो वस्तुओं के अन्तस्तल में पहुँचने के लिए व्यग्र थे। इस जगत् के परे कोई वस्तु मानो उन्हें पुकार रही थी, वे मानो और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे। उपनिषदों में यत्र-तत्र, आज जिन्हें हम आधुनिक विज्ञान कहते हैं, उन विषयों के ब्यौरों का प्रतिपादन बहुधा बड़ा भ्रमात्मक मिलता है, पर तो भी उनके मूल सिद्धान्त बिलकुल सही हैं – उनके मूल तत्वों के साथ विज्ञान के मूल तत्त्वों का कोई भेद नहीं। उदाहरणार्थ आधुनिक विज्ञान का ईथर हटा अर्थात् आकाशविषयक नवीन सिद्धान्त उपनिषदों में आधुनिक वैज्ञानिकों के ईथर सिद्धान्त की अपेक्षा अधिक विकसित रूप में विद्यमान है । किन्तु वह बस मूल सिद्धान्त तक ही सीमित रहा। इस आकाशतत्त्व के कार्य की व्याख्या करने में उन्होंने अनेक भूलें कीं। वह सर्वव्यापी प्राण-तत्त्व, जगत् का समस्त जीवन जिसकी विविध अभिव्यक्ति मात्र है, वेदों में ब्राह्मण भाग में पाया जाता है। संहिता के एक लम्बे मन्त्र में समस्त जीवनी-शक्ति के विकासक प्राण की प्रशंसा की गयी है । शायद तुम लोगों में से कुछ को यह जानकर आनन्द हो कि इस पृथ्वी पर जीवों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ आधुनिक यूरोपीय वैज्ञानिकों के जो सिद्धान्त है, बहुत-कुछ वैसे ही सिद्धान्त वैदिक दर्शन में भी पाये जाते हैं। तुम सभी निश्चित जानते हो कि जीव अन्य ग्रहों से संक्रमित होकर पृथ्वी पर आता है, इस प्रकार का एक मत प्रचलित है। किन्हीं किन्हीं वैदिक दार्शनिकों का यह निश्चित मत है कि जीव इसी प्रकार चन्द्रलोक से पृथ्वी पर आता है।

मूल तत्त्वों के सम्बन्ध में हम देखते हैं कि वैदिक विचारक व्यापक और सामान्यकृत सिद्धान्तों की व्याख्या करने में अतिशय साहसी और आश्चर्यजनक निर्भीक थे। बाह्य जगत् से इस विश्व के रहस्य का समाधान उन्हें यथासम्भव सन्तोषजनक मिला। और, इस प्रकार उन्होंने जितने मूल सिद्धान्तों का आविष्कार किया था उनसे जब जगत् के रहस्य की ठीक मीमांसा न हो सकी, तब, आधुनिक विज्ञान के सविस्तर कार्य भी उसकी मीमांसा में कोई अधिक सहायक न हो सकेंगे, यह कहने की आवश्यकता नहीं। जब प्राचीन काल में आकाशतत्त्व विश्व-रहस्य का भेद खोलने में समर्थ नहीं हुआ, तब उसका सविस्तर अनुशीलन भी हमें सत्य की ओर कोई अधिक अग्रसर नहीं करा सकता। यदि यह सर्वव्यापी प्राणतत्त्व विश्व-रहस्य का भेद खोलने में असमर्थ रहा हो, तो उसका विस्तृत अनुशीलन निरर्थक है, क्योंकि ब्योरे मौलिक तत्त्व के सम्बन्ध में कोई परिवर्तन नहीं कर सकते। मेरे कहने को तात्पर्य यह है कि तत्त्वानुशीलन में हिन्दू दार्शनिक आधुनिक विद्वानों की भांति ही, एवं कभी कभी उनसे भी अधिक, साहसी थे। उन्होंने अनेक व्यापक और भव्य सिद्धान्तों का आविष्कार किया और उनके अन्यों में इस प्रकार के अनेक सिद्धान्त विद्यमान है, जिन्हें वर्तमान विज्ञान अभी तक परिकल्पना के रूप में भी प्राप्त नहीं कर सका है । उदाहरणार्थ, वे केवल आकाशतत्त्व पर पहुँचकर ही नहीं रुक गये, वरन् और भी आगे बढ़कर मन को भी एक सूक्ष्मतर आकाश के रूप में वर्गीकृत किया। फिर उसके भी परे उन्होंने और भी अधिक सूक्ष्म आकाश की प्राप्ति की। पर वह भी समाधान नहीं था, उससे समस्या का समाधान नहीं हुआ। बाह्य जगत् के बारे में कितना भी ज्ञान क्यों न हो जाए, पर उससे रहस्य का भेद नहीं खुल सकता। किन्तु वैज्ञानिक कहता है, “अरे, हमने अभी ही तो कुछ जानना शुरू किया है । जरा कुछ हजार वर्ष ठहरो, देखोगे हमें समाधान मिल जाएगा। “किन्तु वेदान्तवादी ने तो निसन्दिग्ध रूप से मन की ससीमता को प्रमाणित कर दिया है, अतएव वह उत्तर देता है “नहीं सीमा से बाहर जाने की मन की शक्ति नहीं। मन, देश, काल और निमित्त की चहारदीवारी के बाहर नहीं जा सकता। “जिस प्रकार कोई भी व्यक्ति अपनी सत्ता को नहीं लाँघ सकता, उसी प्रकार देश और काल के नियम ने जो सीमा खड़ी कर दी है, उसका अतिक्रमण करने की क्षमता किसी में नहीं। देश-काल-निमित्त सम्बन्धी रहस्य को खोलने का प्रयत्न ही व्यर्थ है, क्योंकि इसकी चेष्टा करते ही इन तीनों की सत्ता स्वीकार करनी होगी। तब भला यह किस प्रकार सम्भव है? और ऐसा होने पर फिर जगत् के अस्तित्व के कथन का अर्थ भी क्या है? “इस जगत् का अस्तित्व नहीं है, ‘“जगत् मिथ्या है’ ‘ – इसका अर्थ क्या है? इसका यही अर्थ है कि उसका निरपेक्ष अस्तित्व नहीं है। मेरे तुम्हारे और अन्य सब के मन के सम्बन्ध में इसका केवल सापेक्ष अस्तित्व है । हम पाँच इन्द्रियों द्वारा जगत् को जिस रूप में प्रत्यक्ष करते हैं, यदि हमारे एक इन्द्रिय और होती, तो हम इसमें और भी कुछ अधिक प्रत्यक्ष करते तथा और अधिक इन्द्रिय-सम्पन्न होने पर हम इसे और भी भिन्न रूप में देख पाते। अतएव इसकी यथार्थ सत्ता नहीं है – इसकी अपरिवर्तनीय, अचल, अनन्त सत्ता नहीं है । पर इसको अस्तित्वशून्य या असत् भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह तो वर्तमान है और इसमें तथा इसके माध्यम से हम कार्य करते हैं। यह सत् और असत् का मिश्रण है ।

सूक्ष्म तत्त्वों से लेकर जीवन के साधारण दैनिक स्कूल कार्यों तक पर्यालोचना करने पर हम देखते हैं कि हमारा सम्पूर्ण जीवन एक विरोध है सत् और असत् का मिश्रण है । ज्ञान के क्षेत्र में भी यह विरुद्ध भाव दिखाई पड़ता है । ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य यदि जानना चाहे, तो समस्त ज्ञान प्राप्त कर ले सकता है; पर दो-चार पग चलने के बाद ही उसे एक ऐसी अभेद्य दीवार देखने में आती है जिसको लाँघ जाना उसके वश के बाहर हो जाता है । उसके सभी कार्य एक परिधि के अन्दर घूमते रहते हैं, और वह इस परिधि को कभी लाँघ नहीं सकता। उसके अन्तरतम एवं प्रियतम रहस्य उसे समाधान के लिए दिन-रात उत्तेजित करते रहते हैं, उसका आह्वान करते रहते हैं, पर उनका समाधान करने में वह असमर्थ है, क्योंकि वह अपनी बुद्धि के परे नहीं जा सकता। फिर भी वह इच्छा उसके भीतर गहरी जड़ें जमाये हुए है । और इसका दमन और नियमन एकमात्र मंगलकर पथ है, यह भी हम अच्छी तरह जानते है । हमारे हृदय का प्रत्येक स्पन्दन प्रत्येक निःश्वास के साथ हमें स्वार्थी होने का आदेश देता है । पर दूसरी ओर एक अपार्थिव शक्ति कहती है कि एकमात्र निस्वार्थता ही मंगल का साधन है । जन्म से ही प्रत्येक बालक आशावादी होता है, वह केवल सुनहले स्वप्न देखता है। यौवन में वह और भी अधिक आशावादी हो जाता है। मृत्यु, पराजय अथवा अधोगति नाम की भी कोई चीज है, यह बात किसी युवक की समझ में आना कठिन है । फिर बुढ़ापा आता है और जीवन एक ध्वंसावशेष मात्र रह जाता है, सुनहले स्वप्न हवा में उड़ जाते हैं और मनुष्य निराशावादी हो जाता है। प्रकृति के थपेड़े खाकर हम बस इसी प्रकार दिशाहीन व्यक्ति की भाँति एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ते रहते हैं । इस सम्बन्ध में मुझे बुद्ध की जीवनी ‘ललितविस्तर’ का एक प्रसिद्ध गीत याद आता है। वर्णन इस प्रकार का है कि बुद्धदेव ने मनुष्यजाति के परित्राता के रूप में जन्म लिया, किन्तु जब राजप्रासाद की विलासिता में वे अपने को भूल गये, तब उनको जगाने के लिए देवकन्याओं ने एक गीत गाया, जिसका मर्मार्थ इस प्रकार है – “हम एक प्रवाह में बहते चले जा रहे हैं, हम अविरत रूप से परिवर्तित हो रहे हैं – कहीं निवृत्ति नहीं है, कहीं विराम नहीं है । “इसी प्रकार हमारा जीवन भी विराम नहीं जानता – अविरत चलता ही रहता है । तब फिर उपाय क्या है? जिसके पास खाने-पीने की प्रचुर सामग्री है, वह तो आशावादी हो जाता है। कहता है “भय उत्पन्न करनेवाली दुःख की बातें मत कहो संसार के दुःखकष्ट की बातें मत सुनाओ। “उसके पास जाकर यदि कहो – “सभी शुभ है” , तो वह कहेगा, “सचमुच, मैं मजे में हूँ यह देखो, कितने सुन्दर घर में मैं वास करता हूँ । मुझे भूख या शीत का कोई भय नहीं। अतएव मेरे सम्मुख ऐसे भयावह चित्र मत लाओ । “पर दूसरी अगर कितने ही लोग ऐसे हैं, जो शीत और अनाहार से मर रहे हैं। उनके पास जाकर यदि कहो कि ‘सभी शुभ है’, तो वे तुम्हारी बात नहीं सुनेंगे। वे सारा जीवन दुःख-कष्ट से पिसते आ रहे हैं, उनके लिए सुख, सौन्दर्य और शुभ कहाँ? वे तो कहेंगे “नहीं, मैं यह सब विश्वास नहीं करता। जीवन में केवल रोना है – केवल दुःख है। “बस- हम इसी प्रकार आशावाद से निराशावाद में झूलते रहते हैं ।

इसके बाद मृत्युरूपी भयावह तथ्य आता है – सारा संसार मृत्यु की ओर चला जा रहा है; सभी मरते हैं। हमारी सभी प्रगति, हमारे व्यर्थ के आडम्बरपूर्ण कार्यकलाप, हमारे समाज-सुधार, हमारी विलासिता हमारे ऐश्वर्य, हमारा शान – इन सब की मृत्यु ही एकमात्र गति है । इससे अधिक निश्चित बात और कुछ नहीं। नगर पर नगर बनते हैं और नष्ट हो जाते है। साम्राज्य पर साम्राज्य उठते है और पतन के गर्त में समा जाते हैं, ग्रह आदि चूर चूर होकर विभिन्न ग्रहों की वायु के झोंकों से इधर-उधर बिखरे जा रहे हैं । इसी प्रकार अनादि काल से चलता आ रहा है। इस सब का आखिर लक्ष्य क्या है? मृत्यु। मृत्यु ही सब का लक्ष्य है। वह जीवन का लक्ष्य है, सौन्दर्य का लक्ष्य है, ऐश्वर्य का लक्ष्य है, शक्ति का लक्ष्य है और तो और, धर्म का भी लक्ष्य है। साधु और पापी दोनों मरते हैं, राजा और भिक्षुक दोनों मरते हैं – सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। फिर भी जीवन के प्रति यह प्रबल आसक्ति विद्यमान है । हम क्यों इस जीवन से आसक्त हैं? क्यों हम इसका परित्याग नहीं कर पाते? यह हम नहीं जानते और यही माया है । माता बड़े यत्न से सन्तान का लालन-पालन करती है। उसका सारा मन-प्राण, सात जीवन मानो उसी बच्चे में केन्द्रित रहता है। बालक बड़ा हुआ, युवावस्था को प्राप्त हुआ और शायद दुश्चरित्र एवं पशुवत् होकर प्रतिदिन अपनी माता को मारने-पीटने लगा, किन्तु माता फिर भी पुत्र से चिपकी रहती है। जब उसकी विचारशक्ति जागृत होती है, तब वह उसे अपने स्नेह के आवरण में ढक लेती है। किन्तु वह नहीं जानती कि यह स्नेह नहीं है, एक अज्ञात शक्ति ने उसके स्नायुओं पर अधिकार कर रखा है। वह इसे दूर नहीं कर सकती। वह कितनी ही चेष्टा क्यों न करे, इस बन्धन को तोड़ नहीं सकती । और यही माया है।

हम सभी कल्पित सुवर्ण लोम6 की खोज में दौड़ते रहते हैं। सभी सोचते है कि वह हमें ही मिलेगा। प्रत्येक विचारशील व्यक्ति देखता है कि इस सुवर्ण लोम को प्राप्त करने की उसकी दो करोड़ में एक से अधिक सम्भावना नहीं है; तथापि प्रत्येक मनुष्य उसके लिए कठोर संघर्ष करता है । बस यही माया है।

इस संसार में मृत्यु रात-दिन गर्व से मस्तक ऊँचा किये घूम रही है; पर साथ ही हम सोचते हैं कि हम सदा जीवित रहेंगे। किसी समय राजा युधिष्ठिर से यह प्रश्न पूछा गया था, “इस पृथ्वी पर सब से आश्चर्य की बात क्या है?” राजा ने उत्तर दिया, “हमारे चारों ओर प्रतिदिन लोग मर रहे हैं, फिर भी जो जीवित हैं, वे समझते हैं कि वे कभी मरेंगे ही नहीं। “बस यही माया है ।

हमारी बुद्धि में, हमारे ज्ञान में, यही क्यों, हमारे जीवन की प्रत्येक घटना में ये प्रचण्ड विरुद्ध भाव दिखाई पड़ते है । सुख दुःख का पीछा करता है और दुःख सुख का। एक सुधारक उठता है और किसी राष्ट्र के दोषों को दूर करना चाहता है। पर इसके पहले कि वे दोष दूर हों, हजार नये दोष दूसरे स्थान में उत्पन्न हो जाते हैं। यह बस एक ढहते हुए पुराने मकाने के समान है । तुम उस मकान के एक भाग की मरम्मत करते हो, तो उसका कोई दूसरा भाग ढह जाता है । भारत में हमारे समाज-सुधारक जीवन भर जबरन वैधव्य-धारणरूपी दोष के विरुद्ध आवाज उठाते हैं और उसे दूर करने का प्रयत्न करते है तो पश्चिमी देशों में विवाह न होना ही सब से बड़ा दोष है। एक ओर अविवाहिताओं का कष्ट दूर करने में सहायता करनी होगी, तो दूसरी ओर विधवाओं के आँसू पोंछने का प्रयत्न करना होगा। यह तो बस पुरानी गठिया की बीमारी के समान है – उसे सिर से भगाओ तो कमर में आ जाती है; कमर से भगाओ, तो पैर में उतर जाती है । सुधारक उठते हैं और शिक्षा देते हैं, कि विद्या, धन, संस्कृति कुछ इने-गिनों के हाथों ही नहीं रहनी चाहिए; और वे इनको सर्वसाधारण तक पहुँचा देने का भरसक प्रयत्न करते हैं। हो सकता है इससे कुछ लोग अधिक सुखी हो जाएँ, पर जैसे जैसे ज्ञानानुशीलन बढ़ता जाता है, वैसे वैसे शारीरिक सुख भी कम होने लगता है । सुख का ज्ञान अपने साथ ही दुःख का ज्ञान भी लाता है । तब हम फिर किस मार्ग का अवलम्बन करें? हम लोग जो कुछ थोड़ा-सा सुख भोगते हैं, दूसरे स्थान में उससे उतने ही परिमाण में दुःख भी उत्पन्न होता है। बस यही नियम है – सब वस्तुओं पर यही नियम लागू होता है । जो युवक है, जिनका खून अभी गरम है, वे इस बात को शायद स्पष्ट रूप से समझ न पाएँ, पर जिन्होंने धूप में बाल पकाये हैं, अपने जीवन में आँधी और तूफान के दिन देखे हैं, वे इसे सहज ही समझ लेंगे और यही माया है । दिन-रात ये बातें घट रही हैं, पर इनका ठीक ठीक समाधान करना असम्भव है। ऐसा भला क्यों होता है? इस प्रश्न का उत्तर पाना सम्भव नहीं, क्योंकि प्रश्न ही तर्कसंगत नहीं है। जो बात घट रही है, उसमें न ‘कैसे’ है न ‘क्यों’ हम बस इतना ही जानते हैं कि वह है और हमारा उसमें कोई हाथ नहीं। यहाँ तक कि उसकी धारणा करना – अपने मन में उसका ठीक-ठीक चित्र खींचना भी हमारी शक्ति के बाहर है। तब हम भला उसे कैसे सुलझाएँ?

अतः, इस संसार की गति के तथ्यात्मक वर्णन का नाम माया है । साधारणतया लोग यह बात सुनकर भयभीत हो जाते हैं । हमें साहसी होना पड़ेगा। घटनाओं पर परदा डालना रोग का प्रतिकार नहीं है । कुत्तों से पीछा किये जाने पर जिस प्रकार खरगोश अपने मुँह को टाँगों में छिपाकर अपने को सुरक्षित समझ बैठता है, उसी प्रकार हम लोग भी आशावादी होकर ठीक उस खरगोश के समान आचरण करते हैं, पर यह कोई उपाय नहीं है ।

दूसरी ओर, सांसारिक जीवन की प्रचुरता, सुख और स्वच्छन्दता भोगनेवाले इस मायावाद के सम्बन्ध में बड़ी आपत्तियाँ उठाते हैं । इस देश (इंग्लैन्ड) में निराशावादी होना बहुत कठिन है । सभी मुझसे कहते हैं – संसार का कार्य कितने सुन्दर रूप से चल रहा है, संसार कितना उन्नतिशील है! किन्तु उनका अपना जीवन ही उनका संसार है । एक पुराना प्रश्न उठता है – ईसाई धर्म ही एकमात्र धर्म है । क्यों? इसलिए कि ईसाई धर्म को माननेवाले सभी राष्ट्र समृद्धशाली हैं । पर इस प्रकार की युक्ति से तो यह सिद्धान्त स्वयं ही भ्रामक सिद्ध हो जाता है, क्योंकि अन्य राष्ट्रों का दुर्भाग्य ही तो ईसाई धर्मावलम्बी राष्ट्रों की समृद्धि का कारण है और एक का सौभाग्य बिना दूसरों का खून चूसे नहीं बनता। यदि सारी पृथ्वी ही ईसाई धर्म को मानने लग जाए, तब तो भक्ष्मस्वरूप कोई अ-ईसाई राष्ट्र न रहने के कारण ईसाई राष्ट्र स्वयं दरिद्र हो जाएगा। अतः यह युक्ति अपना ही खण्डन कर लेती है । पशु उदभिज्ज पर जीवित रहते हैं, मनुष्य पशुओं पर, और सब से खराब बात तो यह है कि मनुष्य एक दूसरे पर भी जीवित रहते हैं – बलवान दुर्बल पर। बस ऐसा ही सर्वत्र हो रहा है। और यही माया है । इसका समाधान तुम क्या करते हो? हम प्रतिदिन नयी नयी युक्तियाँ सुनते हैं । कोई कोई कहते हैं कि अन्त में सब शुभ होगा। इस प्रकार की सम्भावना है तो अत्यन्त सन्देहास्पद, फिर भी मान लो कि हमने यह बात स्वीकार कर ली । तो अब प्रश्न यह है कि शुभ की साधना का क्या केवल पैशाचिक उपाय ही है? पैशाचिक रीति को छोड़कर क्या शुभ द्वारा शुभ नहीं हो सकता? वर्तमान मनुष्यों के वंशज सुखी होंगे; किन्तु इस समय इस भीषण दुःखकष्ट का होना क्यों जरूरी है? इसका समाधान नहीं है । यही माया है।

फिर हम बहुधा सुनते हैं कि विकास की यह विशेषता है कि वह क्रमशः अशुभ को दूर करता जाएगा, और संसार से अशुभ के इस प्रकार क्रमशः दूर हो जाने पर अन्त में केवल शुभ ही शुभ रह जाएगा। यह बात सुनने में तो बड़ी अच्छी लगती है । इस संसार में जिनके पास किसी बात का अभाव नहीं, जिन्हें रोज एड़ी-चोटी का पसीना एक करना नहीं पड़ता, जिन्हें क्रमविकास की चक्की में पिसना नहीं पड़ता, उन लोगों के दम्भ को इस प्रकार के सिद्धान्त बढ़ा सकते हैं, और उनके लिए ये सिद्धान्त सचमुच अत्यन्त हितकर और शान्तिप्रद है। साधारण जनता दुःख-कष्ट भोगे – उससे उनका क्या? वे सब मर भी जाएँ – उसके लिए वे क्यों छटपटाएँ ठीक है, पर यह युक्ति आदि से अन्त तक भ्रमपूर्ण है । पहले तो, इन लोगों ने बिना किसी प्रमाण के ही यह धारणा कर ली है कि संसार में अभिव्यक्त शुभ और अशुभ दोनों बिलकुल निरपेक्ष सत्य हैं । और दूसरे, इससे भी अधिक दोषयुक्त धारणा तो यह है कि शुभ का परिमाण क्रमशः बढ़ता जा रहा है और अशुभ क्रमशः घटता जा रहा है । अतएव एक समय ऐसा आएगा, जब अशुभ का अंश क्रमविकास द्वारा इस प्रकार घटते घटते अन्त में बिलकुल शून्य हो जाएगा और केवल शुभ ही बच रहेगा। ऐसा कहना है तो बड़ा सरल, पर क्या यह प्रमाणित किया जा सकता है कि अशुभ परिमाण में घटता जा रहा है? क्या अशुभ की भी क्रमशः वृद्धि नहीं हो रही है? उदाहरणार्थ; एक जंगली मनुष्य को ले लो। वह मन का संस्कार करना नहीं जानता, एक अक्षर तक नहीं पढ़ सकता, लिखना किसे कहते हैं, उसने कभी सुना तक नहीं। यदि उसे कोई गहरी चोट लग जाए, तो वह शीघ्र ही चंगा हो उठता है। पर हम हैं, जो खरोंच लगते ही मर जाते हैं। मशीनों से चीजें सुलभ और सस्ती होती जा रही हैं, उनसे उन्नति और विकास के मार्ग की बाधाएँ दूर होती जा रही हैं, पर साथ ही, एक के धनी होने के लिए लाखों लोग पिसे जा रहे है – उधर एक के धनी होने के लिए इधर हजारों लोग दरिद्र से दरिद्रतर होते जा रहे हैं, और असंख्य मानवसमूह गुलाम बना जा रहा है । संसार की रीति ही ऐसी है। पाशवी प्रकृतिवाला मनुष्य इन्द्रियों में जीवित रहता है – यदि उसे पर्याप्त भोजन न मिले, तो वह दुःखी हो जाता है । यदि उसका शरीर अस्वस्थ हो जाए, तो वह अपने को अभागा समझता है । इन्द्रियों में ही उसके सुख और दुःख दोनों का आरम्भ और अन्त होता है । जैसे जैसे वह उन्नति करता जाता है, जैसे जैसे उसके सुख की सीमा-रेखा विस्तृत होती जाती है, वैसे वैसे उसका दुःख भी, उसी अनुपात से बढ़ता जाता है । जंगल में रहनेवाला मनुष्य ईर्ष्या- के वश में होना, कचहरी में जाना, नियमित रूप से कर अदा करना, समाज द्वारा निन्दित होना नहीं जानता; पैशाचिक मानव-प्रकृति से उत्पन्न भीषण अत्याचार से अहर्निश शासित होना, जो एक दूसरे के हृदय के गुप्त से गुप्त भावों का अन्वेषण करने में लगा हुआ है वह नहीं जानता। वह नहीं जानता कि प्रान्त ज्ञान से सम्पन्न, गर्वीला मानव किस प्रकार किसी पशु की अपेक्षा सहस्रगुना पैशाचिक स्वभाववाला हो जाता है। बस इसी प्रकार हम ज्यों ज्यों इन्द्रियपरायणता से ऊपर उठते जाते है, त्यों त्यों हमारी सुख अनुभव करने की शक्ति बढ़ती जाती है, और उसके साथ ही दुःख अनुभव करने की शक्ति भी बढ़ती रहती है । नाड़ियाँ और भी सूक्ष्म होकर अधिक यन्त्रणा के अनुभव में समर्थ हो जाती हैं। सभी समाजों में हम देखते हैं कि एक साधारण, मूर्ख मनुष्य तिरस्कृत होने पर उतना दुःखी नहीं होता, पर पिटे जाने पर अवश्य दुःखी हो जाता है। किन्तु सभ्य पुरुष एक साधारण- सी बात भी सहन नहीं कर सकता। उसकी नाड़ीयाँ इतनी सूक्ष्म हो गयी हैं । उसकी सुखानुभूति की क्षमता बढ़ जाने के कारण उसका दुःख भी बढ़ गया है। इससे तो दार्शनिकों के क्रमविकासवाद की कोई पुष्टि नहीं होती। हम अपनी सुखी होने की शक्ति को जितना ही बढ़ाते हैं, हमारी दुःख- भोग की शक्ति भी उसी परिमाण में बढ़ जाती है और मेरा तो विनीत मत यह है कि हमारी सुखी होने की शक्ति यदि ‘गणितीय क्रम (Arithmetical Progression) के नियम से बढ़ती है तो दुःखी होने की शक्ति ‘ज्यामितीय क्रम’ (Geometrical Progression)7 के नियम से बढ़ेगी। जंगली मनुष्य समाज के सम्बन्ध में अधिक नहीं जानता। किन्तु हम उन्नतिशील लोग जानते हैं कि हम जितने ही उन्नत होंगे, हमारी सुख और दुःख अनुभव करने की शक्ति भी उतनी ही तीव्र होती जाएगी। और यही माया है ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि माया संसार की व्याख्या करने के निमित्त कोई सिद्धान्त नहीं है। यह संसार की वस्तुस्थिति का वर्णन मात्र है । विरोध ही हमारे अस्तित्व का आधार है; सर्वत्र इन्हीं प्रचण्ड विरोधों में से होकर हमें जाना होगा । जहाँ शुभ है वहीं अशुभ भी है; और जहाँ अशुभ है; वहीं अवश्य कुछ शुभ भी है । जहाँ जीवन है; वहीं मृत्यु छाया की भाँति उसका अनुसरण कर रही है । जो हँस रहा है, उसी को रोना पड़ेगा; और जो रो रहा है, वह भी हंसेगा। यह क्रम बदल नहीं सकता। हम भले ही ऐसे स्थान की कल्पना करें जहाँ केवल शुभ रहेगा, अशुभ नहीं, जहाँ हम केवल हँसेंगे रोएँगे नहीं। पर वस्तुस्थिति के स्वभाव से इस प्रकार होना असम्भव है, क्योंकि शर्त समान रूप से सर्वत्र विद्यमान है । जहाँ हमें हँसाने की शक्ति विद्यमान है, वहीं फिर रुलाने की भी शक्ति निहित है । जहाँ सुख उत्पन्न करने वाली शक्ति विद्यमान है दुःख देने वाली शक्ति भी वहीं छिपी हुई है ।

अतएव वेदान्त-दर्शन आशावादी भी नहीं है और निराशावादी भी नहीं । वह तो दोनों ही वादों का प्रचार करता है, सारी घटनाएँ जिस रूप में होती हैं,वह उन्हें बस उसी रूप में ग्रहण करता है । उसके मतानुसार यह संसार शुभ और अशुभ, सुख और दुःख का मिश्रण है; एक को बढ़ाओ, तो दूसरा भी साथ साथ अनिवार्य रूप से बढ़ेगा। केवल सुख का संसार अथवा केवल दुःख का संसार हो नहीं सकता। इस प्रकार की धारणा ही स्वतः विरोधी है । किन्तु इस प्रकार का मत व्यक्त करके और इस विश्लेषण के द्वारा वेदान्त ने इस महान रहस्य का भेद किया है कि शुभ और अशुभ ये दो एकदम विभिन्न सताएं नहीं है । इस संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जिसे केवल शुभ या केवल अशुभ कहा जा सके । एक ही घटना, जो आज शुभजनक मालूम पड़ती है, कल अशुभजनक मालूम पड़ सकती है । एक ही वस्तु जो एक व्यक्ति को दुःखी करती है, दूसरे को सुखी बना सकती है । जो अग्नि बच्चे को जला देती है, वही भूख से मरते व्यक्ति के लिए स्वादिष्ट खाना भी पका सकती है । जिस स्नायुमण्डल के द्वारा दुःख का संवेदन हमारे अन्दर पहुँचता है, सुख का संवेदन भी उसी के द्वारा भीतर जाता है । अशुभ को दूर करना चाहो, तो साथ ही तुम्हें शुभ को भी दूर करना होगा। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है । मृत्यु को दूर करने के लिए जीवन को भी दूर करना पड़ेगा। मृत्युहीन जीवन और दुःखहीन सुख ये बातें परस्पर-विरोधी हैं, इनमें कोई भी अकेला प्राप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि इनमें से प्रत्येक एक ही वस्तु की विभिन्न अभिव्यक्ति है । कल जो शुभप्रद लगता था आज वह वैसा नहीं लगता। जब हम बीते जीवन पर नजर डालते हैं और भिन्न-भिन्न समय के अपने आदर्शों की आलोचना करते हैं, तो इस बात की सत्यता हमें तुरन्त दीख पड़ती है । एक समय था जब शक्तिशाली घोड़ों के जोड़े हाँकना ही मेरा आदर्श था। अब वैसी इच्छा नहीं होती। बचपन में सोचता था कि यदि मैं अमुक मिठाई बना सकूँ, तो मैं पूर्ण सुखी होऊँगा। बाद में सोचता था पत्नी-पुत्र और पर्याप्त धन होने से मैं सुखी होऊँगा। अब लड़कपन की ये सब बातें सोचकर हँसी आती है ।

वेदान्त कहता है कि एक समय ऐसा अवश्य आएगा जब हम पीछे नजर डालेंगे और उन आदर्शों पर हँसेंगे, जिनके कारण अपने इस क्षुद्र व्यक्तित्व का त्याग करते हममें भय का संचार होता है । सभी अपनी अपनी देह की रक्षा करने में व्यस्त हैं । कोई भी उसे छोड़ना नहीं चाहता। हम सोचते हैं कि इस देह की यथेच्छ समय तक रक्षा कर लेने से हम अत्यन्त सुखी होंगे । पर समय आने पर हम इस बात पर भी हँसेंगे। अतएव, यदि हमारी वर्तमान अवस्था सत् भी न हो और असत् भी नहीं – पर दोनों का मिश्रण हो, दुःख भी न हो और सुख भी नहीं – पर दोनों का मिश्रण हो अर्थात् हम यदि ऐसे निराशा जनक अन्तर्विरोध की स्थिति में हों तो, फिर वेदान्त तथा अन्य दर्शनशास्त्र और धर्म-मत आदि की क्या आवश्यकता है? और सर्वोपरि शुभ कर्म आदि करने का भी भला क्या प्रयोजन है? यही प्रश्न मन में उठता है । यदि यह सत्य है कि तुम अशुभ किये बिना शुभ नहीं कर सकते और सुख उत्पन्न करने का प्रयत्न करने पर भी घोर दुःख बना ही रहता हो, तो लोग तुमसे पूछेंगे, “शुभ करने की आवश्यकता ही क्या?” इसका उत्तर यह है कि पहले तो हमें दुःख को कम करने के लिए कर्म करना ही चाहिए, क्योंकि स्वयं सुखी होने का यही एकमात्र उपाय है। हममें से प्रत्येक अपने अपने जीवन में देर-सबेर इस बात की यथार्थता समझ लेते है। तीक्ष्ण बुद्धिवाले कुछ शीघ्र समझ जाते हैं और मन्द बुद्धिवाले कुछ देरी से। मन्द बुद्धि वाले कड़ी यातना भोगने के बाद इसे समझ पाते हैं, तो तीक्ष्ण बुद्धि वाले थोड़ी ही यातना भोगने के बाद। और दूसरे, यद्यपि हम जानते है कि ऐसा समय कभी न आएगा, जब यह संसार केवल सुख से भरा रहेगा और दुःख बिलकुल न रहेगा, फिर भी हमें यही कार्य करना होगा। अन्तर्विरोध से बचने के लिए यही एकमात्र उपाय है । ये दोनों शक्तियाँ शुभ एवं अशुभ संसार को जीवित रखेंगी, और अन्त में एक दिन ऐसा आएगा, जब हम स्वप्न से जाग जाएँगे और यह सब मिट्टी के घरौंदे बनाना बन्द कर देंगे। सचमुच, हम चिरकाल घरौंदे बनाने में ही लगे हुए है। हमें यह शिक्षा लेनी ही होगी; और इसके लिए समय भी बहुत लग जाएगा।

जर्मनी में इस आधार पर कि असीम ही ससीम हो गया है, दर्शनशास्त्र रचने की चेष्टा की गयी है। इंग्लैंड में अब भी इस प्रकार की चेष्टा चल रही है। पर इन सब दार्शनिकों के मत का विश्लेषण करने पर यही पाया जाता है कि असीम अपने को जगत् में व्यक्त करने की चेष्टा कर रहा है, और एक समय आएगा अब वह ऐसा करने में सफल हो जाएगा। बहुत ठीक है और हमने ‘असीम’, ‘विकास’, ‘अभिव्यक्ति’ आदि दार्शनिक शब्दों का भी प्रयोग किया। किन्तु ससीम किस प्रकार असीम को पूर्ण रूप से व्यक्त कर सकता है, इस कथन का न्यायसंगत मौलिक आधार क्या है, यह प्रश्न दार्शनिकगण स्वभावतः ही पूछ सकते हैं। निरपेक्ष और असीम केवल उपाधि द्वारा ही यह जगत् हो सकता है। जो कुछ इन्द्रिय, मन और बुद्धि के माध्यम से आएगा, उसे स्वतः ही सीमाबद्ध होना पड़ेगा, अतएव ससीम का असीम होना नितान्त असंगत है । ऐसा हो नहीं सकता।

दूसरी ओर वेदान्त कहता है, यह ठीक है कि निरपेक्ष या असीम अपने को ससीम रूप में व्यक्त करने की चेष्टा कर रहा है, किन्तु एक समय ऐसा आएगा जब इस प्रयत्न को असम्भव जानकर उसे पीछे लौटना पड़ेगा। यह पीछे लौटना ही धर्म का यथार्थ आरम्भ है, जिसका अर्थ है वैराग्य आधुनिक मनुष्य से वैराग्य की बात कहना अत्यन्त कठिन है। अमेरिका में मेरे बारे में लोग कहते थे कि मैं पाँच हजार वर्ष तक मृत और विस्मृत एक देश से आकर वैराग्य का उपदेश दे रहा हूँ। इंग्लैंड के दार्शनिक भी शायद ऐसा ही कहें । पर यह भी सत्य है कि धर्म का एकमात्र पथ यही है । त्याग दो और विरक्त बनो। ईसा मसीह ने क्या कहा है? ‘जो मेरे निमित्त अपने जीवन का त्याग करेगा, वही जीवन को प्राप्त करेगा’ । पूर्णता की प्राप्ति के लिए त्याग ही एकमात्र साधन है, इसकी शिक्षा उन्होंने बारम्बार दी है। ऐसा समय आता है, जब अन्तरात्मा इस लम्बे विषादमय स्वप्न से जाग उठती है, बच्चा खेलकूद छोड़कर अपनी माता के निकट लौट जाने को अधीर हो उठता है । तब इस उक्ति की यथार्थता सिद्ध होती है – काम्य वस्तु के उपभोग से कभी वासना की निवृत्ति नहीं होती, वरन् घृताहुति के द्वारा अग्नि के समान वह तो और भी बढ़ जाती है।’8

इन्द्रियविलास, बौद्धिक आनन्द, और जहाँ तक हो सके मानवात्मा के उपभोग्य सब प्रकार के सुख के सम्बन्ध में यह लागू होता है । सभी मिथ्या है – सभी माया के अधीन है। सभी इस संसार के बन्धन के अन्तर्गत है, हम उसके परे नहीं जा सकते। हम उसके अन्दर भले ही अनन्त काल तक दौड़ते फिरें, पर उसका अन्त नहीं पा सकते और जब कभी हम थोड़ा-सा सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, सभी दुःख का ढेर हमारे सिर पर आ गिरता है । कितनी भयानक अवस्था है यह! जब मैं इस पर विचार करता हूँ, तो मैं निस्सन्दिग्ध रूप से यह अनुभव करता हूँ कि यह मायावाद, यह कथन कि सब कुछ माया है, इसकी एकमात्र ठीक ठीक व्याख्या है । इस संसार में कितना दुःख है! यदि तुम विभिन्न देशों में भ्रमण करो तो तुम समझ सकोगे कि एक राष्ट्र अपने दोषों को एक उपाय के द्वारा दूर करने की चेष्टा कर रहा है, तो दूसरा राष्ट्र किसी अन्य उपाय द्वारा। एक ही दोष को विभिन्न राष्ट्रों ने विभिन्न उपायों से दूर करने का प्रयत्न किया है पर कोई भी कृतकार्य न हो सका। यदि किसी स्थान पर दोष कुछ कम हो भी गया, तो किसी दूसरे स्थान पर दोषों का एक ढेर खड़ा हो जाता है। बस ऐसा ही चलता रहता है । हिन्दुओं ने अपने जातीय जीवन में सतीत्व-धर्म को पुष्ट करने के लिए बालविवाह के प्रचलन द्वारा अपनी सन्तान को और धीरे धीरे सारी जाति को अधोगामी कर दिया है । पर यह बात भी मैं अस्वीकार नहीं कर सकता कि बालविवाह ने हिन्दू जाति को सतीत्व- धर्म से विभूषित किया है। तुम क्या चाहते हो? यदि जाति को सतीत्व-धर्म से थोड़ा बहुत विभूषित करना चाहो, तो इस भयानक बालविवाह द्वारा सारे सी-पुरुषों को शारीरिक दृष्टि से दुर्बल करना पड़ेगा। दूसरी ओर, क्या तुम्हारी स्थिति इंग्लैंड में कुछ भी अच्छी है? नहीं क्योंकि सतीत्व ही राष्ट्र का जीवन है । क्या तुमने इतिहास में नहीं पढ़ा है कि असतीत्व या व्यभिचार देश की मृत्यु का प्रथम चिह्न है? जब यह किसी राष्ट्र में प्रवेश कर जाता है, तो समझना कि उसका विनाश निकट आ गया है । इन सब दुःखजनक प्रश्नों का समाधान कहाँ मिलेगा? यदि माता-पिता अपनी सन्तान के लिए वर-वधू का निर्वाचन करें तो यह दोष कम हो सकता है। भारत की बेटियाँ भावुक होने की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक होती हैं । उनके जीवन में फिर कविता बहुत कम रह जाती है । फिर यदि लोग स्वयं पति और पत्नी का निर्वाचन करते हैं, तो इससे भी उन्हें कोई अधिक सुख नहीं मिलता। भारतीय नारियाँ साधारणतः अधिक सुखी हैं । पत्नी और पति के बीच कलह अधिक नहीं होता। दूसरी ओर अमेरिका में जहाँ स्वाधीनता की अधिकता है, सुखी परिवार बहुत कम देखने में आते हैं। दुःख यहाँ वहाँ सभी जगह है । इससे क्या सिद्ध होता है? यही कि इन सब आदर्शों के द्वारा अधिक सुख प्राप्त नहीं हो सकता। हम सभी सुख के लिए उत्कट संघर्ष कर रहे हैं, पर एक ओर कुछ प्राप्त होने के पहले ही दूसरी ओर दुःख आ उपस्थित होता है । तब क्या हम कोई शुभ कर्म न करें? अवश्य करें और पहले की अपेक्षा अधिक उत्साहित होकर हम ऐसा करें । इन बातों के शान से इतना होगा कि हमारी धर्मान्धता कट्टरता नष्ट हो जाएगी। तब अंग्रेज लोग हठधर्मी नहीं होंगे और हिन्दू की ओर उँगली नहीं उठाएँगे।

तब वे विभिन्न देशों के रीति-रिवाजों का आदर करना सीखेंगे। धर्मान्धता कम होगी यथार्थ कार्य अधिक होगा। धर्मान्ध आदमी अधिक कार्य नहीं कर पाता। वह अपनी शक्ति का तीन-चौथाई व्यर्थ ही नष्ट कर देता है । जो धीर, प्रशान्तचित्त, ‘काम के आदमी’ कहे जाते हैं, वे ही कर्म करते हैं । अतः इस धारणा से कार्य करने की शक्ति अधिक बढ़ जाएगी। यह जान लेने से कि वस्तुस्थिति ऐसी ही है, हमारी तितिक्षा अधिक होगी। दुःख और अशुभ के दृश्य हमें हमारे सन्तुलन से च्युत न कर सकेंगे और छाया के पीछे पीछे दौड़ा न सकेंगे। अतएव यह जानकर कि संसार की गति ही अपने नियम के अनुसार ऐसी है हम सहिष्णु बनेंगे। उदाहरणस्वरूप हम कह सकते हैं कि यदि सभी मनुष्य सत् हो जाएँ, तो पशु भी क्रमशः मनुष्यत्व प्राप्त कर इन्हीं अवस्थाओं में से होकर गुजरेंगे, और वनस्पतियों की भी यही दशा होगी । पर यह एक बात निश्चित है – यह विशाल नदी प्रबल वेग से समुद्र की ओर बह रही है । और ऐसा समय आएगा, जब नदी के सभी जलकण उस अनन्त सागर के वक्षःस्थल में समा जाएँगे। अतएव यह निश्चित है कि जीवन सारे दुःख और क्लेश, आनन्द, हास्य और क्रन्दन के साथ उस अनन्त सागर की ओर प्रबल वेग से प्रवाहित हो रहा है, और यह केवल समय का प्रश्न है जब तुम, मैं, जीव, उदभित और सामान्य जीवाणुकण तक जो जहाँ पर है, सब कुछ उसी अनन्त जीवन-समुद्र में – मुक्ति और ईश्वर में आ पहुँचेगा।

मैं एक बार फिर कहता हूँ कि वेदान्त का दृष्टिकोण न तो आशावादी है और न निराशावादी ही । वह ऐसा नहीं कहता कि संसार केवल शुभ ही शुभ है अथवा केवल अशुभ ही अशुभ। वह कहता है कि हमारे शुभ और अशुभ दोनों का मूल्य बराबर है। ये दोनों इसी प्रकार हिल-मिलकर रहते हैं। संसार ऐसा ही है, यह समझकर तुम धैर्यपूर्वक कर्म करो। पर क्यों? क्यों हम कर्म करें? यदि घटनाचक्र ही इस प्रकार का हो, तो हम क्या करें? हम अज्ञेयवादी क्यों न हो जाएँ? आजकल के अज्ञेयवादी भी तो कहते हैं कि इस समस्या का कोई समाधान नहीं है; वेदान्त की भाषा में कहेंगे कि इस मायापाश से छुटकारा नहीं है। सन्तुष्ट रहो और जीवन का उपभोग करो। पर यहाँ भी फिर एकभूल, एक भयंकर भूल, एक अत्यन्त असंगत भ्रम है। और वह यह है : जीवन से तुम क्या समझते हो? क्या ‘जीवन’ शब्द से तुम केवल पाँच इन्द्रियों में आबद्ध जीवन को ही लेते हो? यदि ऐसा हो, तो हम पशुओं से कोई अधिक भिन्न नहीं हैं। किन्तु मुझे विश्वास है कि यहाँ बैठे हुए लोगों में से एक भी ऐसा नहीं है, जिसका जीवन सम्पूर्ण रूप से केवल इन्द्रियों में आबद्ध हो। अतएव हमारे वर्तमान जीवन का अर्थ इन्द्रियों की अपेक्षा और भी कुछ अधिक है। हमारे सुख- दुःख का अनुभव, हमारे विचार और हमारी आकांक्षाएँ भी तो हमारे जीवन के अंग हैं। और उस महान् आदर्श, उस पूर्णता की ओर अग्रसर होने का कठोर संघर्ष भी क्या हम जिसे जीवन कहते हैं, उसका एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपादान नहीं है? अज्ञेयवादी कहते हैं कि जीवन जैसा है, बस वैसा ही उसका भोग करो। पर इस जीवन का अर्थ है, सर्वोपरि इस आदर्श की ओर यह अन्वेषण; जीवन का सार ही है, पूर्णता की ओर जाना। हमें इसी को प्राप्त करना होगा। अतएव हम अज्ञेयवादी नहीं हो सकते और संसार जिस प्रकार प्रतीत हो रहा है, हम उसे ग्रहण नहीं कर सकते। अज्ञेयवादी तो जीवन के आदर्शात्मक उपादान को छोड़कर अवशिष्ट अंश को ही सर्वस्व मानते है। और अज्ञेयवादी का दावा है कि इस आदर्श तक नहीं पहुँचा जा सकता अतः अवश्य इसका अन्वेषण त्याग देना है। बस इस प्रकृति, इस जगत् को ही माया कहते हैं।

सभी धर्म इसी प्रकृति के बन्धन को तोड़ने की अल्प-अधिक चेष्टा कर रहे हैं । चाहे देवो पासना द्वारा हो, चाहे प्रतीकोपासना द्वारा, चाहे दार्शनिक विचारों द्वारा हो, अथवा देव-चरित्र, प्रेत-चरित्र, साधु-चरित्र, ऋषि-चरित्र, महात्मा-चरित्र अथवा अवतार-चरित्र की सहायता से अनुष्ठित हो, सभी धर्मों का, चाहे वे विकसित हों चाहे अविकसित, उद्देश्य एक ही है – सभी सीमाओं के परे जाना। संक्षेप में सभी धर्म मुक्ति की ओर अग्रसर होने का कठोर प्रयत्न कर रहे हैं। जाने या अनजाने मनुष्य समझ गया है कि वह बद्ध है । वह जो कुछ होने की इच्छा करता है सो नहीं है । जिस क्षण से उसने अपने चारों ओर दृष्टि फेरी, उसी क्षण से उसे यह ज्ञान हो गया। उसी क्षण से उसे अनुभव हो गया कि वह बद्ध है और उसने यह भी जाना कि इस बन्धन से जकड़ा हुआ कोई मानो उसके भीतर विद्यमान है, जो देह के भी परे किसी स्थान में उड़ जाना चाहता है। संसार के उन निम्नतम धर्मों में भी, जहाँ दुर्दान्त, नृशंस, आत्मीयों के घरों में लुक-छिपकर फिरनेवाले, हत्या और सुराप्रिय मृत पितरों या अन्य भूत- प्रेतों की पूजा की जाती है, हम मुक्ति का यह भाव पाते है । जो लोग देवताओं की उपासना करते हैं वे उन देवताओं को अपनी अपेक्षा अधिक स्वाधीन देखते हैं। उनका ऐसा विश्वास रहता है कि द्वार बन्द होने पर भी देवता लोग घर की दीवारों को भेदकर आ सकते हैं, दीवारें उनके मार्ग में बाधा नहीं डाल सकतीं। मुक्ति का यह भाव क्रमशः बढ़ते बढ़ते अन्त में सगुण ईश्वर के आदर्श में परिणत हो जाता है। इस आदर्श का केन्द्रीय भाव यह है कि ईश्वर प्रकृति के बन्धन के परे, माया के परे है। मैं मानो अपने मनसशु के सामने भारत के उन प्राचीन आचार्यों को अरण्यस्थित आश्रम में इन्हीं सब प्रश्नों पर विचार-विमर्श करते देख रहा हूँ; वयोवृद्ध और अत्यन्त पवित्र महर्षि भी इन प्रश्नों का समाधान करने में असमर्थ हो रहे हैं, पर एक युवक उनके बीच खड़ा हो घोषणा करता है – “हे अमृत के पुत्रों! सुनो! हे दिव्यधाम के निवासी, सुनो! मुझे मार्ग मिल गया है। जो अन्धकार या अज्ञान के परे है उसे जान लेने पर हम मृत्यु के परे जा सकते हैं।”9

यह माया हमें चारों ओर से घेरे हुए है और वह अति भयंकर है । फिर भी हमें माया में से होकर ही कार्य करना पड़ता है । जो कहता है, “संसार को पूर्ण शुभमय हो जाने दो, तब मैं कार्य करूँगा और आनन्द भोगूंगा” , उसकी बात उसी व्यक्ति की तरह है जो गंगातट पर बैठकर कहता है कि जब इसका सारा पानी समुद्र में पहुँच जाएगा, तब मैं इसके पार जाऊँगा। दोनों बातें असम्भव हैं । रास्ता माया के साथ नहीं है, वह तो माया के विरुद्ध है – यह बात भी हमें जान लेनी होगी। हम प्रकृति के सहायक होकर नहीं जन्मे हैं, वरन् हम तो प्रकृति के प्रतियोगी होकर जन्मे हैं । हम बाँधनेवाले होकर भी स्वयं बँधे जा रहे हैं। यह मकान कहाँ से आया? प्रकृति ने तो दिया नहीं । प्रकृति कहती है “जाओ, जंगल में जाकर बसो। “मनुष्य कहता है, “नहीं, मैं मकान बनाऊँगा और प्रकृति के साथ लहंगा “और वह ऐसा कर भी रहा है । मानवजाति का इतिहास तथाकथित प्राकृतिक नियमों के साथ लगातार संग्राम का इतिहास है और अन्त में मनुष्य ही प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है। अन्तर्जगत् में आकर देखो, वहाँ भी यही युद्ध चल रहा है – पशुमानव और आध्यात्मिक मानव का प्रकाश और अन्धकार का यह संग्राम निरन्तर जारी है और मानव यहाँ भी विजयी होता है । मुक्ति की प्राप्ति के लिए प्रकृति के बन्धन को चीरकर मनुष्य अपने गन्तव्य मार्ग को प्राप्त कर लेता है ।

हमने अभी तक देखा कि वेदान्ती दार्शनिकों ने इस माया के परे ऐसी किसी वस्तु को जान लिया है, जो माया के अधीन नहीं है, और यदि हम उसके पास पहुँच सकें, तो हम भी माया से बँध नहीं जाएँगे। किसी न किसी रूप में यह भाव सभी धर्मों की सामान्य सम्पत्ति है । किन्तु वेदान्त के मत में यह धर्म का केवल प्रारम्भ है, अन्त नहीं। जो विश्व की सृष्टि तथा पालन करनेवाले हैं, जो मायाधिष्ठित हैं, जिन्हें माया या प्रकृति का कर्ता कहा जाता है, उन सगुण ईश्वर का ज्ञान ही वेदान्त का अन्त नहीं है केवल आदि है । यह ज्ञान क्रमशः बढ़ता जाता है और अन्त में वेदान्ती देखता है कि जिसे वह बाहर खड़ा हुआ समझता था, वह उसके अन्दर ही है और वह स्वयं वस्तुतः वही है । जिसने अपने को अज्ञान के कारण बद्ध समझ रखा था, वह वास्तव में वही मुक्त स्वरूप है।


  1. इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते। (ऋग्वेद, ६ ।४ ७ । १८)
  2. नीहारेण प्रावृता जन्मा चासुतृप उक्यशासश्चरन्ति। (ऋग्वेद, १० । ८२१७)
  3. मायां तु प्रकृति विद्यान्मायिन तु महेश्वरन्। (श्वेताश्वतर उप, ४ । १०)
  4. हमारी इंद्रियों से ग्राह्य सारा जगत् हमारे मन की ही विभिन्न अनुभूति मात्र है, उनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है इस मत को विज्ञानवाद या Idealism कहते हैं।
  5. जगत् हमारे मन की अनुभूति मात्र नहीं है, वरन् उसकी यथार्थ सत्ता है, इस मत को वास्तववाद या Realism कहते हैं।
  6. सुवर्ण लोम (Golden Fleece) ग्रीक पौराणिक साहित्य की कथा है कि ग्रीस के अन्तर्गत थेसाली देश में राजवंश के आथामास की पत्नी नेफेल के गर्भ से फिक्सस नामक पुत्र और हेल नाम की कन्या ने जन्म लिया। कुछ दिन के बाद नेफेल की मृत्यु होनेपर आथामास ने कैडमस की कन्या इनो के साथ विवाह कर लिया। इनो का नेफेल की सन्तानों के प्रति द्वेष रहने के कारण, उसने नाना उपायों से अपने पति को देवताओं के लिए फिक्सस की बलि दे देने के लिए राजी कर लिया। किन्तु बलिदान के पूर्व ही फिक्सस की स्वर्गीय माता की आत्मा फ्रिक्सस के सम्मुख आविर्भूत हुई और एक सुवर्ण लोमयुक्त मेढ़े को उसके निकट लाकर भाई-बहन को उस पर चढ़कर समुद्र-पार भाग जाने का आदेश देने लगी। मार्ग में उसकी बहन हेल गिरकर डूब गयी – प्रिक्सस ने काले समुद्र की पूर्व दिशा में कलचिस नामक स्थान में उतरकर वहाँ के जिउस देवता को उस मेढ़े की बलि चढ़ा दी और उसकी खाल को मार्स (मंगल) देवता के कुंज में टाँग दिया। एक दैत्य उसकी रखवाली के लिए नियुक्त हुआ। कुछ दिन बाद इस सुवर्ण लोम की खाल को लाने के लिए आथामास का भतीजा जैसन अपने प्रतिद्वन्दी पेलियस द्वारा नियुक्त किया गया और वह आर्गों नामक एक बड़े जहाज में अनेक प्रसिद्ध वीर पुरुषों सहित बैठकर नाना प्रकार के कधा-विघों को पार करता हुआ उस सुवर्ण लोम को लाने में सफल हुआ। ग्रीक पुराणों में यह कथा Argonautic Expendition नाम से विख्यात है ।
  7. ‘गणितीय क्रम या समयुक्ताहान्तर श्रेणी – जैसे ३ ।५।७ ।९ इत्यादि। यहाँ पर प्रत्येक परवर्ती अंक अपने पूर्ववर्ती अंक से दो-दो अधिक है। ज्यामितीय क्रम या समगुणितान्तर श्रेणी – जैसे ३।६।१२।२४ इत्यादि। यहाँ पर प्रत्येक परवर्ती अंक अपने पूर्ववर्ती अंक का दुगुना है।
  8. न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाप्यति।
    हविषा कृष्णवत्मेंव भूय एवाभिवर्धते। । (विष्णुपुराण, ४। १०।२३)
  9. शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा: आ ये धामानि दिव्यानि तत्त्व ।
    वेदाहमेतं पुरुषं महानर आदित्यवर्ण तमस: परस्तात्
    तमेव विदित्वगितमृत्युमेति नान्यः पन्या विद्यतेपृयनाय। । (श्वेताश्वतर उपनिषद २।५, ३।८)

एक अमेज़न एसोसिएट के रूप में उपयुक्त ख़रीद से हमारी आय होती है। यदि आप यहाँ दिए लिंक के माध्यम से ख़रीदारी करते हैं, तो आपको बिना किसी अतिरिक्त लागत के हमें उसका एक छोटा-सा कमीशन मिल सकता है। धन्यवाद!

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!