ज्ञानयोग पर षष्ठ प्रवचन – स्वामी विवेकानंद
“ज्ञानयोग पर षष्ठ प्रवचन” में स्वामी विवेकानंद ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में विचार के महत्व पर प्रकाश डाल रहे हैं। वे ये भी समझाते हैं कि कैसे ज्ञान इंद्रियों से परे है। पढ़ें “ज्ञानयोग पर षष्ठ प्रवचन”। स्वामी विवेकानंद की प्रस्तुत पुस्तक के शेष प्रवचन पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग पर प्रवचन।
विचार बहुत महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि ‘जो कुछ हम सोचते हैं, वही हम हो जाते हैं।’ एक समय एक संन्यासी एक पेड़ के नीचे बैठता था और लोगों को पढ़ाया करता था। वह केवल दूध पीता था और फल खाता था और असंख्य प्राणायाम किया करता था। फलतः अपने को बहुत पवित्र समझता था। उसी गाँव में एक कुलटा स्त्री रहती थी। प्रति दिन संन्यासी उसके पास जाता था और उसे चेतावनी देता था कि उसकी दुष्टता उसे नरक में ले जायगी। बेचारी स्त्री अपने जीवन का ढंग नहीं बदल पाती थी, क्योंकि वही उसकी जीविका का एकमात्र उपाय था, फिर भी वह उस भयंकर भविष्य की कल्पना से सहम जाती थी, जिसे संन्यासी ने उसके समक्ष चित्रित किया था। वह रोती थी और प्रभु से प्रार्थना करती थी कि वे उसे क्षमा करें क्योंकि वह विवश थी। कालान्तर में कुलटा स्त्री और संन्यासी दोनों ही मरे। स्वर्गदूत आये और उसे स्वर्ग ले गये, जब कि संन्यासी की आत्मा को यमदूतों ने पकड़ा। वह चिल्लाया, “ऐसा क्यों? क्या मैंने पवित्रतम जीवन नहीं बिताया है और प्रत्येक मनुष्य को पवित्र होने की शिक्षा नहीं दी है? मैं नरक में क्यों ले जाया जाऊँ, जब कि यह कुलटा स्त्री स्वर्ग ले जायी जा रही है।” यमदूतों ने उत्तर दिया, “क्योंकि जब वह अपवित्र कार्य करने को विवश थी, उसका मन सदैव भगवान् में लगा रहता था और वह मुक्ति माँगती थी, जो अब उसे मिली है। किन्तु इसके विपरीत तुम यद्यपि पवित्र कार्य ही करते थे, परन्तु अपना मन सदैव दूसरों की दुष्टता पर ही रखते थे, तुम केवल पाप देखते थे और केवल पाप का ही विचार करते थे और इसलिए अब तुम्हें उस स्थान को जाना पड़ रहा है, जहाँ केवल पाप ही पाप है।” इस कहानी की शिक्षा स्पष्ट है। बाह्य जीवन कम महत्त्व का होता है, हृदय शुद्ध होना चाहिए और शुद्ध हृदय केवल शुभ को ही देखता है, अशुभ को कभी नहीं। हमें मनुष्य जाति के अभिभावक बनने की कभी चेष्टा न करनी चाहिए, न कभी पापियों का सुधार करनेवाले सन्त के रूप में वक्तृतामंच पर खड़े होना चाहिए। अच्छा हो, यदि हम अपने को पवित्र करें, और फलस्वरूप हम दूसरे की यथार्थ सहायता भी करेंगे।
भौतिक विज्ञान की दोनों सीमाएँ (प्रारम्भ और अन्त) अध्यात्म विद्या द्वारा आवेष्टित हैं। यही बात तर्क के विषय में है। वह अतर्क से प्रारम्भ होकर फिर अतर्क में ही समाप्त होता है। यदि हम जिज्ञासा को इन्द्रियजन्य बोध के क्षेत्र में बहुत दूर तक ले जायँ तो हम बोध से परे के एक स्तर पर पहुँच जाएँगे। तर्क तो वास्तव में स्मृति द्वारा सुरक्षित, संगृहीत और वर्गीकृत बोध ही है। हम अपने इन्द्रिय-बोध से परे न तो कल्पना कर सकते हैं और न तर्क कर सकते हैं। तर्क से परे कोई भी वस्तु इन्द्रियज्ञान का विषय नहीं हो सकती है। हम तर्क से सीमाबद्ध रूप को अनुभव करते हैं, फिर भी वह हमें एक ऐसे स्तर पर ले जाता है, जहाँ हम उससे कुछ परे की वस्तु की भी झलक पाते हैं। तब प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्य के पास तर्कोपरि कोई साधन है? यह बहुत सम्भव है कि मनुष्य में तर्क से परे पहुँचने का सामर्थ्य हो, वास्तव में सभी युगों में सन्तों ने अपने इस सामर्थ्य की अवस्थिति निश्चित रूप से कही है। किन्तु वस्तुओं के स्वभावानुसार आध्यात्मिक विचारों तथा अनुभव को तर्क की भाषा में अनूदित करना असम्भव है और इन सभी सन्तों ने अपने आध्यात्मिक अनुभव को प्रकट करने में अपनी असमर्थता घोषित की है। सचमुच भाषा उन्हें शब्द नहीं दे सकती, ताकि केवल यह कहा जा सके कि ये वास्तविक अनुभव हैं और सभी के द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं। केवल इसी प्रकार वे (अनुभव) जाने जा सकते हैं, किन्तु वे कभी वर्णित नहीं किये जा सकते। धर्म वह विज्ञान है जो मनुष्य में स्थित अतीन्द्रिय माध्यम से प्रकृति में स्थित अतीन्द्रिय का ज्ञान प्राप्त करता है। अब भी हम मनुष्य के विषय में बहुत कम जानते हैं, फलतः विश्व के सम्बन्ध में भी बहुत कम जानते हैं। जब हम मनुष्य के विषय में और अधिक ज्ञान प्राप्त करेंगे, तब हम विश्व के विषय में सम्भवतः और अधिक जान जाएँगे। मनुष्य सभी वस्तुओं का सारसंग्रह है और उसमें संपूर्ण ज्ञान निहित है। विश्व के केवल उस अति क्षुद्र भाग के विषय में, जो हमारे इन्द्रिय-बोध में आता है, हम कोई तर्क ढूँढ़ सकते हैं, हम किसी मूलभूत सिद्धान्त के लिए कोई तर्क कभी नहीं उठा सकते। किसी वस्तु के लिए तर्क उठाना केवल मात्र उस वस्तु का वर्गीकरण करना और दिमाग के एक दरबे में उसे डाल लेना है। जब हम किसी नये तथ्य को पाते हैं तो हम तुरन्त उसे किसी प्रचलित प्रवर्ग में डालने की चेष्टा करते हैं और इसी प्रयत्न का नाम तर्क है। जब हम उस तथ्य को किसी वर्ग-विशेष में रख पाते हैं तो कुछ सन्तोष मिलता है, किन्तु इस वर्गीकरण के द्वारा हम भौतिक स्तर से ऊपर कभी नहीं जा सकते। मनुष्य इन्द्रियों की सीमा के परे पहुँच सकता है, यह बात प्राचीन युगों में निश्चित रूप से प्रमाणित हुई थी। ५००० वर्ष पूर्व उपनिषदों ने बताया था कि ईश्वर का साक्षात्कार इन्द्रियों द्वारा कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता। यहाँ तक तो आधुनिक अज्ञेयवाद स्वीकार करता है, किन्तु वेद इस नकारात्मक पक्ष से और परे जाते हैं और स्पष्टतम शब्दों में दृढ़ता के साथ कहते हैं कि मनुष्य इस इन्द्रियबद्ध जड़ जगत् के परे पहुँच सकता है एवं अवश्य पहुँचता है। वह मानो इस विशाल हिमराशि रूप जगत् में रन्ध्र पा सकता है और उसके द्वारा निकलकर जीवन के पूर्ण महासागर तक पहुँच सकता है। इन्द्रिय सम्बन्धी संसार का इस प्रकार अतिक्रमण करके ही वह अपने सत् स्वरूप तक पहुँच सकता है और उसका साक्षात्कार कर सकता है।
ज्ञान कभी इन्द्रियजन्य ज्ञान नहीं होता। हम ब्रह्म को विषयतया ‘जान’ नहीं सकते, किन्तु हम पूर्णतया ब्रह्म ही हैं, उसके एक खण्ड मात्र नहीं। अशरीरी वस्तु कभी विभाजित नहीं की जा सकती। आभासिक नानात्व काल और देश में दृष्टिगत होनेवाला है, जैसा हम सूर्य को लाखों ओस-बिन्दुओं में प्रतिबिम्बित देखते हैं, यद्यपि हम जानते हैं सूर्य
एक है, अनेक नहीं। ज्ञान में हमें नानात्व त्यागना होता है और केवल एकत्व का अनुभव करना होता है। यहाँ विषयी, विषय, ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय, तू, वह अथवा मैं नहीं है, केवल एक पूर्ण एकत्व ही है! हम सदैव वही हैं। मनुष्य, कार्य-कारण द्वारा यथार्थतः ‘नहीं’ बँधा है। दुःख और कष्ट मनुष्य में नहीं हैं, वे तो भागते हुए बादल के समान होते हैं जो सूर्य पर अपनी परछाई डालता है। बादल हट जाता है, पर सूर्य अपरिवर्तित रहता है, और यही बात मनुष्य के विषय में है। वह उत्पन्न नहीं होता, वह मरता नहीं, वह देश और काल में नहीं है। यह सब विचार केवल मन ही के प्रतिबिम्ब हैं, किन्तु हम उन्हें भ्रमवश यथार्थ समझ लेते हैं और इस प्रकार उस महिमान्वित प्रकृत सत्य को जो विचारों से आच्छादित हुआ है, हम नहीं प्राप्त कर सकते। काल तो हमारे चिन्तन की प्रक्रिया है, परन्तु हम तो यथार्थतः नित्य वर्तमान काल ही हैं। शुभ और अशुभ का अस्तित्व केवल हमारे सम्बन्ध से है। एक के बिना दूसरा नहीं प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि दोनों में से किसी का भी दूसरे से पृथक् न तो अस्तित्व है और न अर्थ। जब तक हम द्वैतवाद को मान्यता देते हैं अथवा ईश्वर और मनुष्य को पृथक् करके मानते हैं, तब तक हमें शुभ और अशुभ – दोनों ही देखने पड़ेंगे, केवल केन्द्र में जाकर ही, केवल ईश्वर से एकीकृत होकर ही हम इन्द्रियों के मोह-जाल से बच सकते हैं।
जब हम कामना के अनन्त ज्वर को, उस अनन्त तृष्णा को, जो हमें चैन नहीं लेने देती, त्याग देंगे, जब हम सदा के लिए कामना को जीत लेंगे तब हम शुभ-अशुभ – दोनों से छूट पायेंगे, क्योंकि तब हम उन दोनों का अतिक्रमण कर जाएँगे। कामना की पूर्ति उसे केवल और अधिक बढ़ाती है, जैसे कि अग्नि में डाला हुआ घी, उसे और भी तीव्रता से प्रज्वलित कर देता है। चक्र जितना ही केन्द्र से दूर होगा, उतना ही तीव्र चलेगा, और उतना ही उसे कम विश्राम मिलेगा। केन्द्र के निकट जाओ, कामना का दमन करो, उसे निकाल बाहर करो, मिथ्या अहं को त्याग दो, तब हमारी दिव्य दृष्टि खुल जायगी और हम ईश्वर का दर्शन करेंगे, इहलौकिक और पारलौकिक जीवन के त्याग द्वारा ही हम उस अवस्था पर पहुँचेंगे, जहाँ कि हम वास्तविक आत्म-तत्त्व पर दृढ़तापूर्वक प्रतिष्ठित हो सकेंगे। जब तक हम किसी वस्तु की आकांक्षा करते हैं, तब तक कामना हमारा शासन करती है। केवल एक क्षण के लिए वास्तव में ‘आशाहीन’ हो जाओ और कुहरा साफ हो जाएगा। चूँकि जब कोई स्वयं सत्यस्वरूप है तो वह किसकी आशा करे? ज्ञान का रहस्य है सब कुछ का त्याग और स्वयं में ही परिपूर्ण हो जाना। ‘नहीं’ कहो, और तुम ‘नहीं’ रह जाओगे, और ‘है’ कहो तो तुम ‘है’ बन जाओगे। अंतःस्थ आत्मा की उपासना करो, और कुछ तो है ही नहीं; जो कुछ हमें बन्धन में डालता है, वह माया है, भ्रम-जाल है।