श्री हनुमान चालीसा हिंदी में – Hanuman Chalisa in Hindi
श्री हनुमान चालीसा हिंदी में आपके सामने प्रस्तुत करते हुए हमें बहुत प्रसन्नता हो रही है। हनुमान जी कृपा के सागर हैं और अपने भक्तों को तारने के लिए विख्यात है। श्रद्धाभाव से पढ़ें हनुमान चालीसा और अपने जीवन को सफल बनाएँ।
दिस हनुमान चालीसा इन हिंदी इज़ डेडीकेटिड टू ऑल हनुमान भक्त्स। जय हनुमान! जय हनुमान चालीसा! Jai Hanuman Chalisa!
“श्री हनुमान चालीसा” पढ़ें
दोहा – श्रीगुरु चरन सरोज रज
निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु
जो दायकु फल चारि ॥१॥ (क)
भावार्थ – श्री गुरुदेव के चरण-कमलों की धूलि से अपने मन रूपी दर्पण को निर्मल करके मैं श्री रघुवर के उस सुन्दर यश का वर्णन करता हूँ जो चारों फल (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) को प्रदान करने वाला है।
व्याख्या – मन-रूपी दर्पण में शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध रूपी विषयों की पाँच परतों वाली जो काई चढ़ी हुई है, वह साधारण मिट्टी से साफ़ होने वाली नहीं है। इसलिए इसे स्वच्छ करने के लिये ‘श्रीगुरु चरन सरोज रज’ की आवश्यकता पड़ती है। साक्षात् भगवान् शंकर ही यहाँ गुरु स्वरूप में वर्णित हैं – ‘गुरुं शङ्कररूपिणम्।’ भगवान् शंकर की कृपा से ही रघुवर के सुयशका वर्णन करना सम्भव है।
दोहा – बुद्धिहीन तनु जानिके
सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं
हरहु कलेस बिकार ॥१॥ (ख)
भावार्थ – हे पवनकुमार! मैं अपने को शरीर और बुद्धि से हीन जानकर आपका स्मरण (ध्यान) कर रहा हूँ। आप मुझे बल, बुद्धि और विद्या प्रदान करके मेरे समस्त कष्टों और दोषों को दूर करने की कृपा कीजिये।
व्याख्या – मैं अपने को देही न मानकर देह मान बैठा हूँ, इस कारण बुद्धिहीन हूँ और पाँचों प्रकार के क्लेश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश) तथा षड्विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) से संतप्त हूँ। अतः आप जैसा सामर्थ्यवान् ‘अतुलितबलधामम् ज्ञानिनामग्रगण्यम्’ से बल, बुद्धि एवं विद्या की याचना करता हूँ तथा समस्त क्लेशों एवं विकारों से मुक्ति पाना चाहता हूँ।
चौपाई – जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥१॥
भावार्थ – ज्ञान और गुणों के सागर श्री हनुमान जी की जय हो। तीनों लोकों (स्वर्ग लोक, भू-लोक, पाताल लोक) को अपनी कीर्ति से प्रकाशित करने वाले कपीश्वर श्री हनुमान जी जय हो।
व्याख्या – श्री हनुमान जी कपि के रूप में साक्षात् शिवके अवतार हैं, इसलिये यहाँ इन्हें कपीश कहा गया। यहाँ हनुमान जी के स्वरूप की तुलना सागर से की गयी। समुद्र की दो विशेषताएँ हैं – एक तो सागर से भण्डार का तात्पर्य है और दूसरा सभी वस्तुओं की उसमें परिसमाप्ति होती है। श्री हनुमन्त लाल जी भी ज्ञान के भण्डार हैं और इनमें समस्त गुण समाहित हैं। किसी विशिष्ट व्यक्ति का ही जय-जयकार किया जाता है। श्री हनुमान जी ज्ञानियों में अग्रगण्य, सकल गुणों के निधान तथा तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाले हैं, अतः यहाँ उनका जय-जयकार किया गया है।
राम दूत अतुलित बल धामा ।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥२॥
भावार्थ – हे अतुलित बल के भण्डार-घर राम के दूत हनुमान जी! आप लोक में अंजनी-पुत्र और पवन-सुत के नाम से विख्यात हैं।
व्याख्या – सामान्यतः जब किसी से कोई कार्य सिद्ध करना हो तो उसके सुपरिचित, इष्ट अथवा पूज्य का नाम लेकर उससे मिलने पर कार्य की सिद्धि होने में देर नहीं लगती। अतः यहाँ श्री हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिये भगवान् श्री राम, माता अंजनी तथा पिता पवन देव का नाम लिया गया।
महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी ॥३॥
भावार्थ – हे महावीर! आप वज्र के समान अंग वाले और अनन्त पराक्रमी हैं। आप कुमति (दुर्बुद्धि) का निवारण करने वाले हैं तथा सद्बुद्धि धारण करने वालों के संगी हैं।
व्याख्या – किसी को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये सर्वप्रथम उसके गुणों का वर्णन करना चाहिये। अतः यहाँ हनुमान जी के गुणों का वर्णन है। श्री हनुमन्त लाल जी त्याग, दया, विद्या, दान तथा युद्ध इन पाँच प्रकार के वीरता-पूर्ण कार्यों में विशिष्ट स्थान रखते हैं, इस कारण ये महावीर हैं। अत्यन्त पराक्रमी और अजेय होने के कारण आप विक्रम और बजरंगी हैं। प्राणि-मात्र के परम हितैषी होने के कारण उन्हें विपत्ति से बचाने के लिये उनकी कुमति को दूर करते हैं तथा जो सुमति हैं, उनके आप सहायक हैं।
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा ॥४॥
भावार्थ – आपके स्वर्ण के समान कान्तिमान् अंग पर सुन्दर वेश-भूषा, कानों में कुण्डल और घुंघराले केश सुशोभित हो रहे हैं।
व्याख्या – इस चौपाई में श्री हनुमन्त लाल जी के सुन्दर स्वरूप का वर्णन हुआ है। आपकी देह स्वर्ण-शैल की आभा के सदृश सुन्दर है और कान में कुण्डल सुशोभित है। उपर्युक्त दोनों वस्तुओं से तथा घुँघराले बालों से आप अत्यन्त सुन्दर लगते हैं।
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।
काँधे मूँज जनेऊ साजै ॥५॥
भावार्थ – आपके हाथ में वज्र (वज्र के समान कठोर गदा) और (धर्म का प्रतीक) ध्वजा विराजमान है तथा कंधे पर मूँज का जनेऊ सुशोभित है।
व्याख्या – सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार वज्र एवं ध्वजा का चिह्न सर्वसमर्थ महानुभाव एवं सर्वत्र विजय-श्री प्राप्त करने वाले के हाथ में होता है और कन्धे पर मूँज का जनेऊ नैष्ठिक ब्रह्मचारी का लक्षण है। हनुमान जी इन सभी लक्षणों से सम्पन्न हैं।
संकर सुवन केसरीनंदन।
तेज प्रताप महा जग बंदन॥६॥
भावार्थ – आप भगवान् शंकर के अंश (अवतार) और केशरी पुत्र के नामसे विख्यात हैं। आप (अतिशय) तेजस्वी, महान् प्रतापी और समस्त जगत के वन्दनीय हैं।
व्याख्या – प्राणिमात्र के लिये तेज की उपासना सर्वोत्कृष्ट है। तेज से ही जीवन है। अन्त काल में देहाकाश से तेज ही निकल कर महाकाश में विलीन हो जाता है।
बिद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥७॥
भावार्थ – आप सारी विद्याओं से सम्पन्न, गुणवान् और अत्यन्त चतुर हैं। आप भगवान् श्री राम का कार्य (संसार के कल्याण का कार्य) पूर्ण करने के लिये तत्पर (उत्सुक) रहते हैं।
व्याख्या – हनुमान जी समग्र विद्याओं में निष्णात हैं और समस्त गुणों को धारण करने से ‘सकलगुणनिधान’ हैं। वे श्रीराम के कार्य-सम्पादन-हेतु अत्यन्त आतुरता (तत्परता, व्याकुलता) का भाव रखने वाले हैं। क्योंकि ‘राम काज लगि तव अवतारा’ यही उद्घोषित करता है कि श्री हनुमान् जी के जन्म का मूल हेतु मात्र भगवान् श्री राम के हित-कार्यों का सम्पादन ही है। ब्रह्म की दो शक्तियाँ हैं – पहली स्थित्यात्मक और दूसरी गत्यात्मक। हनुमान जी गत्यात्मक क्रिया-शक्ति हैं अर्थात् निरन्तर राम काज में संनद्ध रहते हैं।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया ॥८॥
भावार्थ – आप प्रभु श्री राघवेन्द्र का चरित्र (उनकी पवित्र मंगलमयी कथा) सुननेके लिये सदा लालायित और उत्सुक (कथा रस के आनन्द में निमग्न) रहते हैं। श्रीराम, लक्ष्मण और माता सीता जी सदा आपके हृदय में विराजमान रहते हैं।
व्याख्या – ‘राम लखन सीता मन बसिया’ का दूसरा अर्थ यह भी है कि भगवान् श्री राम, श्री लक्ष्मण जी एवं भगवती सीता जी के हृदय में आप बसते हैं।
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सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा ॥९॥
भावार्थ – आपने अत्यन्त लघु रूप धारण करके माता सीताजी को दिखाया और अत्यन्त विकराल रूप धारण कर लंका नगरी को जलाया।
व्याख्या – श्री हनुमान जी अष्ट सिद्धियों से सम्पन्न हैं। उनमें सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अति विस्तीर्ण दोनों रूपों को धारण करने की विशेष क्षमता विद्यमान है। वे शिव (ब्रह्म) का अंश होने के कारण तथा अत्यन्त सूक्ष्म रूप धारण करने से अविज्ञेय भी हैं – “सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयम्’ साथ ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, अहंकार, दम्भ आदि भयावह एवं विकराल दुर्गुणों से युक्त लंका को विशेष पराक्रम एवं विकट रूप से ही भस्मसात् किया जाना सम्भव था। अतः हनुमान जी ने दूसरी परिस्थिति में विराट रूप धारण किया।
भीम रूप धरि असुर सँहारे ।
रामचन्द्र के काज सँवारे ॥१०॥
भावार्थ – आपने अत्यन्त विशाल और भयानक रूप धारण करके राक्षसों का संहार किया और विविध प्रकार से भगवान् श्री रामचन्द्र जी के कार्यों को पूरा किया।
व्याख्या – श्री हनुमान जी परब्रह्म राम की क्रिया-शक्ति हैं। अत: उसी शक्ति के द्वारा उन्होंने भयंकर रूप धारण करके असुरों का संहार किया। भगवान् श्रीराम के कार्य में लेश मात्र भी अपूर्णता हनुमान जी लिये सहनीय नहीं थी। तभी तो ‘राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम’ का भाव अपने हृदय में सतत सँजोये हुए वे प्रभु श्री राम के कार्य सँवारने में सदा क्रियाशील रहते थे।
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥११॥
भावार्थ – आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मणजी को जिलाया। इस कार्य से प्रसन्न होकर भगवान् श्रीराम ने आपको हृदय से लगा लिया।
व्याख्या – हनुमान जी उनकी स्तुति में श्री लक्ष्मण-प्राणदाता भी कहा गया है। श्री सुषेण वैद्य के परामर्श के अनुसार आप द्रोणाचल पर्वत पर गये, अनेक व्यवधानों एवं कष्टों के बाद भी समय के भीतर ही संजीवनी बूटी लाकर श्री लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा की। विशेष स्नेह और प्रसन्नता के कारण ही किसी को हृदय से लगाया जाता है। अंश को पूर्ण परिणति अंशी से मिलने पर ही होती है, जिसे हनुमान जी ने चरितार्थ किया।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥१२॥
भावार्थ – भगवान् श्री राघवेन्द्र ने आपकी बड़ी प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि तुम भाई भरत के समान ही मेरे प्रिय हो।
व्याख्या – श्री रामचन्द्र जी ने हनुमान जी के प्रति अपनी प्रियता की तुलना भरत के प्रति अपनी प्रीति से करके हनुमान जी विशेष रूप से महिमामण्डित किया है। भरत के समान राम का प्रिय कोई नहीं है; क्योंकि समस्त जगत द्वारा आराधित श्री राम स्वयं भरत का जप करते हैं– “भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥”
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं ।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ॥ १३॥
भावार्थ – हजार मुख वाले श्री शेष जी सदा तुम्हारे यश का गान करते रहेंगे – ऐसा कहकर लक्ष्मी जी के पति विष्णु के स्वरूप भगवान् श्री राम ने आपको अपने हृदय से लगा लिया।
व्याख्या – हनुमान जी की चतुर्दिक् प्रशंसा हजारों मुखों से होती रहे – ऐसा कहते हुए भगवान् श्री रामजी ने श्री हनुमान जी को कण्ठ से लगा लिया।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा ॥१४॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।
कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥ १५॥
भावार्थ – श्री सनक, सनातन, सनन्दन, सनत्कुमार आदि मुनिगण, ब्रह्मा आदि देवगण, नारद, सरस्वती, शेषनाग, यमराज, कुबेर तथा समस्त दिक्पाल भी जब आपका यश कहने में असमर्थ हैं तो फिर (सांसारिक) विद्वान् तथा कवि उसे कैसे कह सकते हैं? अर्थात् आपका यश अवर्णनीय है।
व्याख्या – उपमा के द्वारा किसी वस्तुका आंशिक ज्ञान हो सकता है, पूर्ण ज्ञान नहीं। कवि-कोविद उपमा का ही आश्रय लिया करते हैं। श्री हनुमान जी की महिमा अनिर्वचनीय है। अत: वाणी के द्वारा उसका वर्णन करना सम्भव नहीं।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा॥१६॥
भावार्थ – आपने वानरराज सुग्रीव का महान् उपकार किया तथा उन्हें भगवान श्री राम से मिलाकर [बालि-वध के उपरान्त] राजपद प्राप्त करा दिया।
व्याख्या – राजपद पर सुकण्ठ की ही स्थिति है और उसका ही कण्ठ सुकण्ठ है जिसके कण्ठ पर सदैव रामनाम का वास हो। यह कार्य हनुमान जी की कृपा से ही सम्भव है। सुग्रीव बालि के भयसे व्याकुल रहता था और उसका सर्वस्व हरण कर लिया गया था। भगवान् श्रीराम ने उसका गया हुआ राज्य वापस दिलवा दिया तथा उसे भयरहित कर दिया। श्री हनुमान जी ने ही सुग्रीव की मित्रता भगवान राम से करायी।
तुम्हरो मन्त्र बिभीषन माना।
लंकेस्वर भए सब जग जाना॥१७॥
भावार्थ – आपके परम मन्त्र (परामर्श) को विभीषण ने ग्रहण किया। इसके कारण वे लंका के राजा बन गये। इस बात को सारा संसार जानता है।
व्याख्या – श्री हनुमान जी महाराज ने श्री विभीषण जी को शरणागत होने का मन्त्र दिया था, जिसके फलस्वरूप वे लंका के राजा हो गये।
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥१८॥
भावार्थ – हे हनुमान जी! [जन्मके समय ही] आपने दो हजार योजनकी दूरी पर स्थित सूर्य को [कोई] मीठा फल समझकर निगल लिया था।
व्याख्या – श्री हनुमान जी को जन्म से ही आठों सिद्धियाँ प्राप्त थीं। वे जितना ऊँचा चाहें उड़ सकते थे, जितना छोटा या बड़ा शरीर बनाना चाहें बना सकते थे तथा मनुष्य-रूप अथवा वानर-रूप धारण करने की उनमें क्षमता थी।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥१९॥
भावार्थ – आप अपने स्वामी श्री रामचन्द्र जी की मुद्रिका [अंगूठी] को मुख में रखकर [सौ योजन विस्तृत] महासमुद्र को लाँघ गये थे। [आपकी अपार महिमा को देखते हुए] इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।
व्याख्या – हनुमान जी महाराज को समस्त सिद्धियाँ प्राप्त हैं तथा उनके हृदय में प्रभु विराजमान हैं, इसलिये समस्त शक्तियाँ भी आपके साथ रहेंगी ही। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥२०॥
भावार्थ – हे महाप्रभु हनुमान जी! संसार के जितने भी कठिन कार्य हैं, वे सब आपकी कृपा-मात्र से सरल हो जाते हैं।
व्याख्या – संसार में रहकर मोक्ष (जन्म-मरणके बन्धन से मुक्ति) प्राप्त करना ही दुर्गम कार्य है, जो आपकी कृपा से सुलभ है। आपका अनुग्रह न होनेपर सुगम कार्य भी दुर्गम प्रतीत होता है, परंतु सरल साधन से जीव पर श्री हनुमान जी की कृपा शीघ्र हो जाती है।
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥२१॥
भावार्थ – भगवान राम के द्वार के रखवाले (द्वारपाल) आप ही हैं। आपकी आज्ञा के बिना उनके दरबार में किसी का प्रवेश नहीं हो सकता (अर्थात् भगवन्नाम की कृपा और भक्ति प्राप्त करने के लिये आपकी कृपा बहुत आवश्यक है)।
व्याख्या – संसार में मनुष्यके लिये चार पुरुषार्थ हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। भगवान के दरबार में बड़ी भीड़ न हो इसके लिये भक्तों के तीन पुरुषार्थ को हनुमान जी द्वार पर ही पूरा कर देते हैं। अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति के अधिकारी श्री हनुमन्त लाल जी की अनुमति से भगवान का सान्निध्य पाते हैं। मुक्ति के चार प्रकार हैं – सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य एवं सायुज्य। यहाँ प्राय: सालोक्य मुक्ति से अभिप्राय है।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रच्छक काहू को डर ना ॥२२॥
भावार्थ – आपकी शरण में आये हुए भक्त को सभी सुख प्राप्त हो जाते हैं। आप जिसके रक्षक हैं उसे किसी भी व्यक्ति या वस्तुका भय नहीं रहता है।
व्याख्या – श्री हनुमान जी महाराज की शरण लेने पर सभी प्रकार के दैहिक, दैविक, भौतिक भय समाप्त हो जाते हैं तथा तीनों प्रकार के – आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक सुख सुलभ हो जाते हैं। आप सुखनिधान हैं तथा सभी सुख आपकी कृपा से सुलभ हैं। यहाँ सभी सुख का तात्पर्य आत्यन्तिक सुख तथा परम सुख से है। परमात्म प्रभु की शरण में जाने पर सदैव के लिये दु:खों से छुटकारा मिल जाता है तथा शाश्वत शान्ति प्राप्त होती है।
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हाँक तें काँपै ॥२३॥
भावार्थ – अपने तेज [शक्ति, पराक्रम, प्रभाव, पौरुष और बल] के वेग को स्वयं आप ही सँभाल सकते हैं। आपके एक हुंकार मात्र से तीनों लोक काँप उठते हैं।
व्याख्या – देवता, दानव और मनुष्य – तीनों ही आपके तेज को सहन करने में असमर्थ हैं। आपकी भयंकर गर्जना से तीनों लोक काँपने लगते हैं।
भूत पिसाच निकट नहिं आवै ।
महाबीर जब नाम सुनावै ॥२४॥
भावार्थ – भूत-पिशाच आदि आपका ‘महावीर’ नाम सुनते ही (नामोच्चारण करने वाले के) समीप नहीं आते हैं।
व्याख्या – हनुमान जी का नाम लेने मात्र से भूत-पिशाच भाग जाते हैं तथा भूत-प्रेत आदि की बाधा मनुष्य के पास भी नहीं आ सकती। हनुमान जी का नाम लेते ही सारे भय दूर हो जाते हैं।
नासै रोग हरै सब पीरा ।
जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥२५॥
भावार्थ – वीर हनुमान जी का निरन्तर जप करने से वे रोगों का नाश करते हैं तथा सभी पीड़ाओं का हरण करते हैं।
व्याख्या – रोग के नाश के लिये बहुत-से साधन एवं औषधियाँ हैं। यहाँ रोग का मुख्य तात्पर्य भवरोग से तथा पीड़ा का तीनों तापों (दैहिक, दैविक, भौतिक) से है जिसका शमन हनुमान जी के स्मरण-मात्र से होता है। हनुमान जी के स्मरण से निरोगता तथा निर्द्वन्द्वता प्राप्त होती है।
संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥२६॥
भावार्थ – हे हनुमान जी! यदि कोई मन, कर्म और वाणी द्वारा आपका (सच्चे हृदय से) ध्यान करे तो निश्चय ही आप उसे सारे संकटों से छुटकारा दिला देते हैं।
व्याख्या – जो मन से सोचते हैं वही वाणी से बोलते हैं तथा वही कर्म करते हैं ऐसे महात्माओं को हनुमान जी संकट से छुड़ाते हैं। जो मन में कुछ सोचते हैं, वाणी से कुछ दूसरी बात बोलते हैं तथा कर्म कुछ और करते हैं, वे दुरात्मा हैं। वे संकट से नहीं छूटते।
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा ॥२७॥
भावार्थ – तपस्वी राम सारे संसार के राजा हैं। [ऐसे सर्वसमर्थ] प्रभु के समस्त कार्यों को आपने ही पूरा किया।
व्याख्या – ‘पिता दीन्ह मोहि कानन राजू’ के अनुसार श्री रामचन्द्र जी वन के राजा हैं और मुनि-वेश में हैं। उनमें हनुमान जी ही राम के निकटतम अनुचर हैं। इस कारण समस्त कार्यों को सुन्दर ढंगसे सम्पादन करने का श्रेय उन्हीं को है।
और मनोरथ जो कोइ लावै ।
सोइ अमित जीवन फल पावै ॥२८॥
भावार्थ – हे हनुमान जी! आपके पास कोई किसी प्रकार का भी मनोरथ [धन, पुत्र, यश आदि की कामना] लेकर आता है, (उसकी) वह कामना पूरी होती है। इसके साथ ही ‘अमित जीवन फल’ अर्थात् भक्ति भी उसे प्राप्त होती है।
व्याख्या – गोस्वामी श्री तुलसीदास जी की ‘कवितावली’ में ‘अमित जीवन फल’ का वर्णन इस प्रकार है-
सियराम-सरूपु अगाध अनूप बिलोचन-मीननको जलु है।
श्रुति रामकथा, मुख रामको नामु, हिएँ पुनि रामहिको थलु है।
मति रामहि सों, गति रामहि सों, रति रामसों, रामहि को बलु है।
सबकी न कहै, तुलसीके मतें इतनो जग जीवनको फलु है॥
श्री सीता-राम जी के चरणों में प्रीति और भक्ति प्राप्त हो जाय, यही जीवनफल है । यह प्रदान करने की क्षमता हनुमान जी में ही है।
चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा ॥२९॥
भावार्थ – हे हनुमान जी! चारों युगों (सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग) में आपका प्रताप जगत को सदैव प्रकाशित करता चला आया है – ऐसा लोक में प्रसिद्ध है।
व्याख्या – मनुष्य के जीवन में प्रतिदिन-रात्रि में चारों युग आते-जाते रहते हैं। इसकी अनुभूति श्री हनुमान जी के द्वारा ही होती है। अथवा जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय चारों अवस्थाओं में भी आप ही द्रष्टा-रूप से सदैव उपस्थित रहते हैं
साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे ॥३०॥
भावार्थ – आप साधु-संत की रक्षा करनेवाले हैं, राक्षसों का संहार करने वाले हैं और श्री रामजी के अति प्रिय हैं।
व्याख्या – हनुमान जी महाराज राम के दुलारे हैं। तात्पर्य यह है कि कोई बात प्रभु से मनवानी हो तो श्री हनुमान जी की आराधना करें।
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता ॥ ३१॥
भावार्थ – माता जानकी ने आपको वरदान दिया है कि आप आठों प्रकार की सिद्धियाँ (अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व) और नवों प्रकार की निधियाँ (पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील, खर्व) प्रदान करने में समर्थ होंगे।
व्याख्या – रुद्र के अवतार होने के कारण समस्त प्रकार की सिद्धियाँ एवं निधियाँ श्री हनुमान जी को जन्म से ही प्राप्त थीं। उन सिद्धियों एवं निधियों को दूसरों को प्रदान करने की शक्ति माँ जानकी के आशीर्वाद से प्राप्त हुई।
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा ॥३२॥
भावार्थ – अनन्त काल से आप भगवान् श्रीराम के दास हैं। अत: रामनाम रूपी रसायन (भवरोग की अमोघ औषधि) सदा आपके पास रहती है।
व्याख्या – कोई औषधि सिद्ध करने के बाद ही रसायन बन पाती है। उसके सिद्धि की पुनः आवश्यकता नहीं पड़ती, तत्काल उपयोग में लायी जा सकती है और फलदायक सिद्ध हो सकती है। अतः रामनाम रसायन हो चुका है, इसकी सिद्धि की कोई आवश्यकता नहीं है। सेवन करने से सद्यः फल प्राप्त होगा।
तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम जनम के दुख बिसरावै ॥३३॥
भावार्थ – आपके भजन से लोग राम को प्राप्त कर लेते हैं और अपने जन्म जन्मान्तर के दु:खों को भूल जाते हैं अर्थात् उन दुःखों से उन्हें मुक्ति मिल जाती है।
व्याख्या – भजन का मुख्य तात्पर्य यहाँ सेवा से है। सेवा दो प्रकारकी होती है – पहली सकाम, दूसरी निष्काम। प्रभु को प्राप्त करनेके लिये निष्काम और नि:स्वार्थ सेवा की आवश्यकता है जैसा कि हनुमान जी करते चले आ रहे हैं। अतः श्री राम की हनुमान जी जैसी सेवा से यहाँ संकेत है।
अंत काल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥३४॥
भावार्थ – अन्त समय में मृत्यु होने पर वह भक्त प्रभु के परमधाम (साकेत-धाम) जायगा और यदि उसे जन्म लेना पड़ा तो उसकी प्रसिद्धि हरि-भक्त के रूप में हो जायगी।
व्याख्या – भजन अथवा सेवा का परम फल है हरि-भक्ति की प्राप्ति। यदि भक्त को पुनः जन्म लेना पड़ा तो अवध आदि तीर्थों में जन्म लेकर प्रभु का परम भक्त बन जाता है।
और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ॥३५॥
भावार्थ – आपकी इस महिमा को जान लेने के बाद कोई भी प्राणी किसी अन्य देवता को हृदय में धारण न करते हुए भी आपकी सेवा से ही जीवन का सभी सुख प्राप्त कर लेता है।
व्याख्या – हनुमान जी से अष्ट सिद्धि और नव निधि के अतिरिक्त मोक्ष या भक्ति भी प्राप्त की जा सकती है। इस कारण इस मानव-जीवन की अल्पायु में बहुत जगह न भटकने की बात कही गयी है। ऐसा दिशा-निर्देश किया गया है जहाँ से चारों पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) प्राप्त किये जा सकते हैं। यहाँ सर्वसुख का तात्पर्य आत्यन्तिक सुख से है जो श्री मारुतनन्दन के द्वारा ही मिल सकता है।
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥३६॥
भावार्थ – जो प्राणी वीर श्रेष्ठ श्री हनुमान जी का हृदय से स्मरण करता है, उसके सभी संकट दूर हो जाते हैं और सभी प्रकार की पीड़ाएँ समाप्त हो जाती हैं।
व्याख्या – जन्म-मरण-यातना का अन्त अर्थात् भव-बन्धन से छुटकारा परमात्म प्रभु ही करा सकते हैं। भगवान् हनुमान जी के वश में हैं। अतः श्री हनुमान जी सम्पूर्ण संकट और पीड़ाओं को दूर करते हुए जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त कराने में पूर्ण समर्थ हैं।
जै जै जै हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरु देव की नाईं ॥३७॥
भावार्थ – हे हनुमान स्वामिन्! आपकी जय हो! जय हो!! जय हो!!! आप श्री गुरुदेव की भाँति मेरे ऊपर कृपा कीजिये।
व्याख्या – गुरुदेव जैसे शिष्य की धृष्टता आदि का ध्यान नहीं रखते और उसके कल्याण में ही लगे रहते हैं [जैसे काक भुशुण्डि के गुरु], उसी प्रकार आप भी मेरे ऊपर गुरु देव की ही भाँति कृपा करें – ‘प्रभु मेरे अवगुन चित न धरो।’
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई ॥३८॥
भावार्थ – जो इस श्री हनुमान चालीसा (Shri Hanuman Chalisa) का सौ बार पाठ करता है, वह सारे बन्धनों और कष्टों से छुटकारा पा जाता है और उसे महान् सुख (परमपद-लाभ) की प्राप्ति होती है।
व्याख्या – श्री हनुमान चालीसा के पाठ की फलश्रुति इस तथा अगली चौपाई में बतलायी गयी है। संसार में किसी प्रकार के बन्धन से मुक्त होने के लिये प्रतिदिन सौ पाठ तथा दशांश रूप में ग्यारह पाठ, इस प्रकार एक सौ ग्यारह पाठ करना चाहिये। इससे व्यक्ति राघवेन्द्र प्रभु के सामीप्य का लाभ उठाकर अनन्त सुख प्राप्त करता है।
जो यह पढ़े हनुमान चलीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥३९॥
भावार्थ – जो व्यक्ति इस हनुमान चालीसा का पाठ करेगा उसे निश्चित रूप से सिद्धियों [लौकिक एवं पारलौकिक] की प्राप्ति होगी, भगवान शंकर इसके स्वयं साक्षी हैं।
व्याख्या – श्री शंकर जी के साक्षी होने का तात्पर्य यह है कि भगवान् श्री सदाशिव की प्रेरणा से ही तुलसीदास जी ने श्री हनुमान चालीसा (Shree Hanuman Chalisa) की रचना की। अतः इसे भगवान शंकर का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त है। इसलिये यह हनुमान जी की सिद्ध स्तुति है।
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥४०॥
भावार्थ – हे नाथ हनुमान जी! तुलसी दास सदा-सर्वदा के लिये श्रीहरि (भगवान श्री राम) का सेवक है। ऐसा समझकर आप उसके हृदय-भवन में निवास कीजिये।
व्याख्या – श्री हनुमान चालीसा में हनुमान जी स्तुति करने के बाद इस चौपाई में श्री तुलसीदास जी ने उनसे अन्तिम वरदान माँग लिया है कि हे हनुमान जी!आप मेरे हृदय में सदैव निवास करें।
दोहा – पवनतनय संकट हरन मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप ॥२॥
भावार्थ – हे पवनसुत श्री हनुमान जी! आप सारे संकटों को दूर करने वाले हैं तथा साक्षात् कल्याण की मूर्ति हैं। आप भगवान श्री रामचन्द्र जी, लक्ष्मण जी और माता सीता जी के साथ मेरे हृदय में निवास कीजिये।
व्याख्या – भक्त के हृदय में भगवान रहते ही हैं। इसलिये भक्त को हृदय में विराजमान करने पर प्रभु स्वतः विराजमान हो जाते हैं। हनुमान जी भगवान राम के परम भक्त हैं। उनसे अन्त में यह प्रार्थना की गयी है कि प्रभु के साथ मेरे हृदय में आप विराजमान हों। बिना श्रीराम, लक्ष्मण एवं सीताजी के श्री हनुमान जी का स्थायी निवास सम्भव भी नहीं है। इन चारों को हृदय में बैठाने का तात्पर्य चारों पदार्थों को एक साथ प्राप्त करनेका है। चारों पदार्थों से तात्पर्य ज्ञान (राम), विवेक (लक्ष्मण), शान्ति (सीता) एवं सत्संग (हनुमान जी) से है। सत्संग के द्वारा ज्ञान, विवेक एवं शान्ति की प्राप्ति होती है। यहाँ श्री हनुमान जी सत्संग के प्रतीक हैं। अतः हनुमान जी की आराधना से सब कुछ प्राप्त हो सकता है।
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विदेशों में बसे कुछ हिंदू स्वजनों के आग्रह पर श्री हनुमान चालीसा को हम रोमन में भी प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें आशा है कि वे इससे अवश्य लाभान्वित होंगे। पढ़ें श्री हनुमान चालीसा रोमन में–
Read Hanuman Chalisa in Hindi
dohā – śrīguru carana saroja raja
nija manu mukuru sudhāri।
baranau~ raghubara bimala jasu
jo dāyaku phala cāri ॥1॥ (ka)
dohā – buddhihīna tanu jānike
sumirauṃ pavana-kumāra।
bala budhi bidyā dehu mohiṃ
harahu kalesa bikāra ॥1॥ (kha)
caupāī – jaya hanumāna jñāna guna sāgara।
jaya kapīsa tihu~ loka ujāgara॥1॥
rāma dūta atulita bala dhāmā ।
aṃjani-putra pavanasuta nāmā ॥2॥
mahābīra bikrama bajaraṃgī।
kumati nivāra sumati ke saṃgī ॥3॥
kaṃcana barana birāja subesā।
kānana kuṃḍala kuṃcita kesā ॥4॥
hātha bajra au dhvajā birājai।
kā~dhe mū~ja janeū sājai ॥5॥
saṃkara suvana kesarīnaṃdana।
teja pratāpa mahā jaga baṃdana॥6॥
bidyāvāna gunī ati cātura।
rāma kāja karibe ko ātura॥7॥
prabhu caritra sunibe ko rasiyā।
rāma lakhana sītā mana basiyā ॥8॥
sūkṣma rūpa dhari siyahiṃ dikhāvā।
bikaṭa rūpa dhari laṃka jarāvā ॥9॥
bhīma rūpa dhari asura sa~hāre ।
rāmacandra ke kāja sa~vāre ॥10॥
lāya sajīvana lakhana jiyāye।
śrīraghubīra haraṣi ura lāye ॥11॥
raghupati kīnhī bahuta baḍa़āī।
tuma mama priya bharatahi sama bhāī ॥12॥
sahasa badana tumharo jasa gāvaiṃ ।
asa kahi śrīpati kaṃṭha lagāvaiṃ ॥ 13॥
sanakādika brahmādi munīsā।
nārada sārada sahita ahīsā ॥14॥
jama kubera digapāla jahā~ te।
kabi kobida kahi sake kahā~ te॥ 15॥
tuma upakāra sugrīvahiṃ kīnhā।
rāma milāya rāja pada dīnhā॥16॥
tumharo mantra bibhīṣana mānā।
laṃkesvara bhae saba jaga jānā॥17॥
juga sahastra jojana para bhānū।
līlyo tāhi madhura phala jānū ॥18॥
prabhu mudrikā meli mukha māhīṃ।
jaladhi lā~ghi gaye acaraja nāhīṃ ॥19॥
durgama kāja jagata ke jete।
sugama anugraha tumhare tete ॥20॥
rāma duāre tuma rakhavāre।
hota na ājñā binu paisāre ॥21॥
saba sukha lahai tumhārī saranā।
tuma racchaka kāhū ko ḍara nā ॥22॥
āpana teja samhāro āpai।
tīnoṃ loka hā~ka teṃ kā~pai ॥23॥
bhūta pisāca nikaṭa nahiṃ āvai ।
mahābīra jaba nāma sunāvai ॥24॥
nāsai roga harai saba pīrā ।
japata niraṃtara hanumata bīrā ॥25॥
saṃkaṭa teṃ hanumāna chuḍa़āvai।
mana krama bacana dhyāna jo lāvai ॥26॥
saba para rāma tapasvī rājā।
tina ke kāja sakala tuma sājā ॥27॥
aura manoratha jo koi lāvai ।
soi amita jīvana phala pāvai ॥28॥
cāroṃ juga paratāpa tumhārā।
hai parasiddha jagata ujiyārā ॥29॥
sādhu saṃta ke tuma rakhavāre।
asura nikaṃdana rāma dulāre ॥30॥
aṣṭa siddhi nau nidhi ke dātā।
asa bara dīna jānakī mātā ॥ 31॥
rāma rasāyana tumhare pāsā।
sadā raho raghupati ke dāsā ॥32॥
tumhare bhajana rāma ko pāvai।
janama janama ke dukha bisarāvai ॥33॥
aṃta kāla raghubara pura jāī।
jahā~ janma hari-bhakta kahāī ॥34॥
aura devatā citta na dharaī।
hanumata sei sarba sukha karaī ॥35॥
saṃkaṭa kaṭai miṭai saba pīrā।
jo sumirai hanumata balabīrā ॥36॥
jai jai jai hanumāna gosāīṃ।
kṛpā karahu guru deva kī nāīṃ ॥37॥
jo sata bāra pāṭha kara koī।
chūṭahi baṃdi mahā sukha hoī ॥38॥
jo yaha paḍha़e hanumāna calīsā।
hoya siddhi sākhī gaurīsā ॥39॥
tulasīdāsa sadā hari cerā।
kījai nātha hṛdaya maha~ ḍerā ॥40॥
dohā-pavanatanaya saṃkaṭa harana maṃgala mūrati rūpa।
rāma lakhana sītā sahita hṛdaya basahu sura bhūpa ॥2॥
श्री हनुमान चालीसा की शक्ति गागर में सागर की तरह है। यह चालीसा यूँ तो बहुत छोटी है, लेकिन इसे पढ़ने से अनन्त शक्ति उत्पन्न होती है। तुलसीदास जी तो यहाँ तक कहते हैं कि श्री हनुमान चालीसा सौ बार पाठ करने से जीवन-मृत्यु के चक्र तक से मुक्ति मिल जाती है, फिर सांसारिक मनोकामनाओं की पूर्ति तो सजह ही है। यदि आपको हमारा यह प्रयत्न अच्छा लगा हो, तो श्री हनुमान चालीसा के इस पृष्ठ पर “जय हनुमान, जय हनुमान चालीसा” (Jay Hanuman, Jay Hanuman Chalisa) टिप्पणी करें। नित्यप्रति हनुमान चालीसा हिंदी में पढ़ें (Hanuman Chalisa in Hindi) और इस पृष्ठ को बुकमार्क करना भी न भूलें।
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बहुत सुन्दर प्रयास ..आशा है आप आगे भी आस्था से जुड़े अनेक लेख लिखते रहेंगे एवं अपने पाठकों के ज्ञान में वृद्धि करते रहेंगे
भविष्य के लिए अनंत शुभकामनाएं