समुद्र मंथन की कथा – महाभारत का अठारहवाँ अध्याय (आस्तीक पर्व)
“समुद्र मंथन की कथा” महाभारत में आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में आती है। पढ़ें समुद्र मंथन की कथा और जानें क्या था इसके पीछे कारण, कैसे हुआ इसका आरंभ और किस तरह समुद्र के अंदर से निकला अमृत का कलश। यह कहानी पिछले अध्याय से आगे बढ़ती है। पूरी कथा बहुत ही रोचक है और इसका वर्णन कई शास्त्रों में है। यहाँ पढ़ें महाभारत के अनुसार समुद्र मंथन की कथा। शेष महाभारत पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत महाकाव्य।
सौतिरुवाच
ततोऽभ्रशिखराकारैर्गिरिशृङ्गैरलंकृतम् ।
मन्दरं पर्वतवरं लताजालसमाकुलम् ॥ १ ॥
नानाविहगसंघुष्टं नानादंष्ट्रिसमाकुलम् ।
किन्नरैरप्सरोभिश्च देवैरपि च सेवितम् ॥ २ ॥
एकादश सहस्राणि योजनानां समुच्छ्रितम् ।
अधो भूमेः सहस्रेषु तावत्स्वेव प्रतिष्ठितम् ॥ ३ ॥
तमुद्धर्तुमशक्ता वै सर्वे देवगणास्तदा ।
विष्णुमासीनमभ्येत्य ब्रह्माणं चेदमब्रुवन् ॥ ४ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—शौनक जी! तदनन्तर सम्पूर्ण देवता मिलकर पर्वत-श्रेष्ठ मन्दराचल को उखाड़ने के लिये उसके समीप गये। वह पर्वत श्वेत मेघ खण्डों के समान प्रतीत होने वाले गगनचुम्बी शिखरों से सुशोभित था। सब ओर फैली हुई लताओं के समुदाय ने उसे आच्छादित कर रखा था। उसपर चारों ओर भाँति-भाँति के विहंगम कलरव कर रहे थे। बड़ी-बड़ी दाढ़ों वाले व्याघ्र-सिंह आदि अनेक हिंसक जीव वहाँ सर्वत्र भरे हुए थे। उस पर्वत के विभिन्न प्रदेशों में किन्नरगण, अप्सराएँ तथा देवता लोग निवास करते थे। उसकी ऊँचाई ग्यारह हजार योजन थी और भूमि के नीचे भी वह उतने ही सहस्र योजनों में प्रतिष्ठित था। जब देवता उसे उखाड़ न सके, तब वहाँ बैठे हुए भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी से इस प्रकार बोले— ॥ १—४ ॥
भवन्तावत्र कुर्वीतां बुद्धिं नैःश्रेयसीं पराम् ।
मन्दरोद्धरणे यत्नः क्रियतां च हिताय नः ॥ ५ ॥
‘आप दोनों इस विषय में कल्याणमयी उत्तम बुद्धि प्रदान करें और हमारे हित के लिये मन्दराचल पर्वत को उखाड़ने का यत्न करें’ ॥ ५ ॥
सौतिरुवाच
तथेति चाब्रवीद् विष्णुर्ब्रह्मणा सह भार्गव ।
अचोदयदमेयात्मा फणीन्द्रं पद्मलोचनः ॥ ६ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—भृगुनन्दन! देवताओं के ऐसा कहने पर ब्रह्मा जी सहित भगवान् विष्णु ने कहा—‘तथास्तु (ऐसा ही हो)’। तदनन्तर जिनका स्वरूप मन, बुद्धि एवं प्रमाणों की पहुँच से परे है, उन कमल-नयन भगवान् विष्णु ने नागराज अनन्त को मन्दराचल उखाड़ने के लिये आज्ञा दी ॥ ६ ॥
ततोऽनन्तः समुत्थाय ब्रह्मणा परिचोदितः ।
नारायणेन चाप्युक्तस्तस्मिन् कर्मणि वीर्यवान् ॥ ७ ॥
जब ब्रह्मा जी ने प्रेरणा दी और भगवान नारायण ने भी आदेश दे दिया, तब अतुल पराक्रमी अनन्त (शेषनाग) उठकर उस कार्य में लगे ॥ ७ ॥
अथ पर्वतराजानं तमनन्तो महाबलः ।
उज्जहार बलाद् ब्रह्मन् सवनं सवनौकसम् ॥ ८ ॥
ब्रह्मन्! फिर तो महाबली अनन्त ने जोर लगाकर गिरिराज मन्दराचल को वन और वनवासी जन्तुओं सहित उखाड़ लिया ॥ ८ ॥
ततस्तेन सुराः सार्धं समुद्रमुपतस्थिरे ।
तमूचुरमृतस्यार्थे निर्मथिष्यामहे जलम् ॥ ९ ॥
अपां पतिरथोवाच ममाप्यंशो भवेत् ततः ।
सोढास्मि विपुलं मर्दं मन्दरभ्रमणादिति ॥ १० ॥
तत्पश्चात् देवता लोग उस पर्वत के साथ समुद्र तट पर उपस्थित हुए और समुद्र से बोले—‘हम अमृत के लिये तुम्हारा मन्थन करेंगे।’ यह सुनकर जल के स्वामी समुद्र ने कहा—‘यदि अमृत में मेरा भी हिस्सा रहे तो मैं मन्दराचल को घुमाने से जो भारी पीड़ा होगी, उसे सह लूँगा’ ॥ ९-१० ॥
ऊचुश्च कूर्मराजानमकूपारे सुरासुराः ।
अधिष्ठानं गिरेरस्य भवान् भवितुमर्हति ॥ ११ ॥
तब देवताओं और असुरों ने (समुद्र की बात स्वीकार करके) समुद्र तल में स्थित कच्छपराज से कहा—‘भगवन्! आप इस मन्दराचल के आधार बनिये’ ॥ ११ ॥
कूर्मेण तु तथेत्युक्त्वा पृष्ठमस्य समर्पितम् ।
तं शैलं तस्य पृष्ठस्थं वज्रेणेन्द्रो न्यपीडयत् ॥ १२ ॥
तब कच्छपराज ने ‘तथास्तु’ कहकर मन्दराचल के नीचे अपनी पीठ लगा दी। देवराज इन्द्र ने उस पर्वत को वज्र द्वारा दबाये रखा ॥ १२ ॥
मन्थानं मन्दरं कृत्वा तथा नेत्रं च वासुकिम् ।
देवा मथितुमारब्धाः समुद्रं निधिमम्भसाम् ॥ १३ ॥
अमृतार्थे पुरा ब्रह्मंस्तथैवासुरदानवाः ।
एकमन्तमुपाश्लिष्टा नागराज्ञो महासुराः ॥ १४ ॥
विबुधाः सहिताः सर्वे यतः पुच्छं ततः स्थिताः ।
ब्रह्मन्! इस प्रकार पूर्व काल में देवताओं, दैत्यों और दानवों ने मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को डोरी बनाकर अमृत के लिये जलनिधि समुद्र को मथना आरम्भ किया। उन महान् असुरों ने नागराज वासुकि के मुखभाग को दृढ़ता पूर्वक पकड़ रखा था और जिस ओर उसकी पूँछ थी उधर सम्पूर्ण देवता उसे पकड़ कर खड़े थे ॥ १३-१४ ॥
अनन्तो भगवान् देवो यतो नारायणस्ततः ।
शिर उत्क्षिप्य नागस्य पुनः पुनरवाक्षिपत् ॥ १५ ॥
भगवान् अनन्त देव उधर ही खड़े थे, जिधर भगवान् नारायण थे। वे वासुकि नाग के सिर को बार-बार ऊपर उठाकर झटकते थे ॥ १५ ॥
वासुकेरथ नागस्य सहसाऽऽक्षिप्यतः सुरैः ।
सधूमाः सार्चिषो वाता निष्पेतुरसकृन्मुखात् ॥ १६ ॥
तब देवताओं द्वारा बार-बार खींचे जाते हुए वासुकि नाग के मुख से निरन्तर धूएँ तथा आग की लपटों के साथ गर्म-गर्म साँसें निकलने लगीं ॥ १६ ॥
ते धूमसङ्घाः सम्भूता मेघसङ्घाः सविद्युतः ।
अभ्यवर्षन् सुरगणान् श्रमसंतापकर्शितान् ॥ १७ ॥
वे धूम-समुदाय बिजलियों सहित मेघों की घटा बनकर परिश्रम एवं संताप से कष्ट पाने वाले देवताओं पर जल की धारा बरसाते रहते थे ॥ १७ ॥
तस्माच्च गिरिकूटाग्रात् प्रच्युताः पुष्पवृष्टयः ।
सुरासुरगणान् सर्वान् समन्तात् समवाकिरन् ॥ १८ ॥
उस पर्वत शिखर के अग्रभाग से सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों पर सब ओर से फूलों की वर्षा होने लगी ॥ १८ ॥
बभूवात्र महानादो महामेघरवोपमः ।
उदधेर्मथ्यमानस्य मन्दरेण सुरासुरैः ॥ १९ ॥
देवताओं और असुरों द्वारा मन्दराचल से समुद्र का मन्थन होते समय वहाँ महान् मेघों की गम्भीर गर्जना के समान जोर-जोर से शब्द होने लगा ॥ १९ ॥
तत्र नाना जलचरा विनिष्पिष्टा महाद्रिणा ।
विलयं समुपाजग्मुः शतशो लवणाम्भसि ॥ २० ॥
उस समय उस महान पर्वत के द्वारा सैकड़ों जलचर जन्तु पिस गये और खारे पानी के उस महासागर में विलीन हो गये ॥ २० ॥
वारुणानि च भूतानि विविधानि महीधरः ।
पातालतलवासीनि विलयं समुपानयत् ॥ २१ ॥
मन्दराचल ने वरुणालय (समुद्र) तथा पातालतल में निवास करने वाले नाना प्रकार के प्राणियों का संहार कर डाला ॥ २१ ॥
तस्मिंश्च भ्राम्यमाणेऽद्रौ संघृष्यन्तः परस्परम् ।
न्यपतन् पतगोपेताः पर्वताग्रान्महाद्रुमाः ॥ २२ ॥
जब वह पर्वत घुमाया जाने लगा, उस समय उसके शिखर से बड़े-बड़े वृक्ष आपस में टकरा कर उनपर निवास करने वाले पक्षियों सहित नीचे गिर पड़े ॥ २२ ॥
तेषां संघर्षजश्चाग्निरर्चिर्भिः प्रज्वलन् मुहुः ।
विद्युद्भिरिव नीलाभ्रमावृणोन्मन्दरं गिरिम् ॥ २३ ॥
उनकी आपस की रगड़ से बार-बार आग प्रकट होकर ज्वालाओं के साथ प्रज्वलित हो उठी और जैसे बिजली नीले मेघ को ढक ले, उसी प्रकार उसने मन्दराचल को आच्छादित कर लिया ॥ २३ ॥
ददाह कुञ्जरांस्तत्र सिंहांश्चैव विनिर्गतान् ।
विगतासूनि सर्वाणि सत्त्वानि विविधानि च ॥ २४ ॥
उस दावानल ने पर्वतीय गजराजों, गुफाओं से निकले हुए सिंहों तथा अन्यान्य सहस्रों जन्तुओं को जलाकर भस्म कर दिया। उस पर्वत पर जो नाना प्रकार के जीव रहते थे, वे सब अपने प्राणों से हाथ धो बैठे ॥ २४ ॥
तमग्निममरश्रेष्ठः प्रदहन्तमितस्ततः ।
वारिणा मेघजेनेन्द्रः शमयामास सर्वशः ॥ २५ ॥
तब देवराज इन्द्र ने इधर-उधर सबको जलाती हुई उस आग को मेघों के द्वारा जल बरसा कर सब ओर से बुझा दिया ॥ २५ ॥
ततो नानाविधास्तत्र सुस्रुवुः सागराम्भसि ।
महाद्रुमाणां निर्यासा बहवश्चौषधीरसाः ॥ २६ ॥
तदनन्तर समुद्र के जल में बड़े-बड़े वृक्षों के भाँति-भाँति के गोंद तथा ओषधियों के प्रचुर रस चू-चूकर गिरने लगे ॥ २६ ॥
तेषाममृतवीर्याणां रसानां पयसैव च ।
अमरत्वं सुरा जग्मुः काञ्चनस्य च निःस्रवात् ॥ २७ ॥
वृक्षों और ओषधियों के अमृत तुल्य प्रभावशाली रसों के जल से तथा सुवर्णमय मन्दराचल की अनेक दिव्य प्रभावशाली मणियों से चूने वाले रस से ही देवता लोग अमरत्व को प्राप्त होने लगे ॥ २७ ॥
ततस्तस्य समुद्रस्य तज्जातमुदकं पयः ।
रसोत्तमैर्विमिश्रं च ततः क्षीरादभूद् घृतम् ॥ २८ ॥
उन उत्तम रसों के सम्मिश्रण से समुद्र का सारा जल दूध बन गया और दूध से घी बनने लगा ॥ २८ ॥
ततो ब्रह्माणमासीनं देवा वरदमब्रुवन् ।
श्रान्ताः स्म सुभृशं ब्रह्मन् नोद्भवत्यमृतं च तत् ॥ २९ ॥
विना नारायणं देवं सर्वेऽन्ये देवदानवाः ।
चिरारब्धमिदं चापि सागरस्यापि मन्थनम् ॥ ३० ॥
तब देवता लोग वहाँ बैठे हुए वरदायक ब्रह्मा जी से बोले—‘ब्रह्मन्! भगवान नारायण के अतिरिक्त हम सभी देवता और दानव बहुत थक गये हैं; किंतु अभी तक वह अमृत प्रकट नहीं हो रहा है। इधर समुद्र का मन्थन आरम्भ हुए बहुत समय बीत चुका है’ ॥ २९-३० ॥
ततो नारायणं देवं ब्रह्मा वचनमब्रवीत् ।
विधत्स्वैषां बलं विष्णो भवानत्र परायणम् ॥ ३१ ॥
यह सुनकर ब्रह्मा जी ने भगवान् नारायण से यह बात कही—‘सर्वव्यापी परमात्मन्! इन्हें बल प्रदान कीजिये, यहाँ एक मात्र आप ही सबके आश्रय हैं’ ॥ ३१ ॥
विष्णुरुवाच
बलं ददामि सर्वेषां कर्मैतद् ये समास्थिताः ।
क्षोभ्यतां कलशः सर्वैर्मन्दरः परिवर्त्यताम् ॥ ३२ ॥
श्री विष्णु बोले—जो लोग इस कार्य में लगे हुए हैं, उन सबको मैं बल दे रहा हूँ। सब लोग पूरी शक्ति लगाकर मन्दराचल को घुमावें और इस सागर को क्षुब्ध कर दें ॥ ३२ ॥
सौतिरुवाच
नारायणवचः श्रुत्वा बलिनस्ते महोदधेः ।
तत् पयः सहिता भूयश्चक्रिरे भृशमाकुलम् ॥ ३३ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—शौनक जी! भगवान् नारायण का वचन सुनकर देवताओं और दानवों का बल बढ़ गया। उन सबने मिलकर पुनः वेगपूर्वक महासागर का वह जल मथना आरम्भ किया और उस समस्त जल राशि को अत्यन्त क्षुब्ध कर डाला ॥ ३३ ॥
ततः शतसहस्रांशुर्मथ्यमानात्तु सागरात् ।
प्रसन्नात्मा समुत्पन्नः सोमः शीतांशुरुज्ज्वलः ॥ ३४ ॥
फिर तो उस महासागर से अनन्त किरणों वाले सूर्य के समान तेजस्वी, शीतल प्रकाश से युक्त, श्वेतवर्ण एवं प्रसन्नात्मा चन्द्रमा प्रकट हुआ ॥ ३४ ॥
श्रीरनन्तरमुत्पन्ना घृतात् पाण्डुरवासिनी ।
सुरादेवी समुत्पन्ना तुरगः पाण्डुरस्तथा ॥ ३५ ॥
तदनन्तर उस घृत स्वरूप जल से श्वेतवस्त्रधारिणी लक्ष्मी देवी का आविर्भाव हुआ। इसके बाद सुरादेवी और श्वेत अश्व प्रकट हुए ॥ ३५ ॥
कौस्तुभस्तु मणिर्दिव्य उत्पन्नो घृतसम्भवः ।
मरीचिविकचः श्रीमान् नारायण उरोगतः ॥ ३६ ॥
फिर अनन्त किरणों से समुज्ज्वल दिव्य कौस्तुभ मणि का उस जल से प्रादुर्भाव हुआ, जो भगवान् नारायण के वक्षःस्थल पर सुशोभित हुई ॥ ३६ ॥
(पारिजातश्च तत्रैव सुरभिश्च महामुने ।
जज्ञाते तौ तदा ब्रह्मन् सर्वकामफलप्रदौ ॥
श्रीः सुरा चैव सोमश्च तुरगश्च मनोजवः ।
यतो देवास्ततो जग्मुरादित्यपथमाश्रिताः ॥ ३७ ॥
ब्रह्मन्! महामुने! वहाँ सम्पूर्ण कामनाओं का फल देने वाले पारिजात वृक्ष एवं सुरभि गौ की उत्पत्ति हुई। फिर लक्ष्मी, सुरा, चन्द्रमा तथा मन के समान वेगशाली उच्चैःश्रवा घोड़ा—ये सब सूर्य के मार्ग आकाश का आश्रय ले, जहाँ देवता रहते हैं, उस लोक में चले गये ॥ ३७ ॥
धन्वन्तरिस्ततो देवो वपुष्मानुदतिष्ठत ।
श्वेतं कमण्डलुं बिभ्रदमृतं यत्र तिष्ठति ॥ ३८ ॥
इसके बाद दिव्य शरीरधारी धन्वन्तरि देव प्रकट हुए। वे अपने हाथ में श्वेत कलश लिये हुए थे, जिसमें अमृत भरा था ॥ ३८ ॥
एतदत्यद्भुतं दृष्ट्वा दानवानां समुत्थितः ।
अमृतार्थे महान् नादो ममेदमिति जल्पताम् ॥ ३९ ॥
यह अत्यन्त अद्भुत दृश्य देखकर दानवों में अमृत के लिये कोलाहल मच गया। वे सब कहने लगे ‘यह मेरा है, यह मेरा है’ ॥ ३९ ॥
श्वेतैर्दन्तैश्चतुर्भिस्तु महाकायस्ततः परम् ।
ऐरावतो महानागोऽभवद् वज्रभृता धृतः ॥ ४० ॥
तत्पश्चात् श्वेत रंग के चार दाँतों से सुशोभित विशालकाय महानाग ऐरावत प्रकट हुआ, जिसे वज्रधारी इन्द्र ने अपने अधिकार में कर लिया ॥ ४० ॥
अतिनिर्मथनादेव कालकूटस्ततः परः ।
जगदावृत्य सहसा सधूमोऽग्निरिव ज्वलन् ॥ ४१ ॥
तदनन्तर अत्यन्त वेग से मथने पर कालकूट महाविष उत्पन्न हुआ, वह धूमयुक्त अग्नि की भाँति एकाएक सम्पूर्ण जगत् को घेरकर जलाने लगा ॥ ४१ ॥
त्रैलोक्यं मोहितं यस्य गन्धमाघ्राय तद् विषम् ।
प्राग्रसल्लोकरक्षार्थं ब्रह्मणो वचनाच्छिवः ॥ ४२ ॥
उस विष की गन्ध सूँघते ही त्रिलोकी के प्राणी मूर्च्छित हो गये। तब ब्रह्मा जी के प्रार्थना करने पर भगवान श्री शंकर ने त्रिलोकी की रक्षा के लिये उस महान् विष को पी लिया ॥ ४२ ॥
दधार भगवान् कण्ठे मन्त्रमूर्तिर्महेश्वरः ।
तदाप्रभृति देवस्तु नीलकण्ठ इति श्रुतिः ॥ ४३ ॥
मन्त्रमूर्ति भगवान् महेश्वर ने विषपान करके उसे अपने कण्ठ में धारण कर लिया। तभी से महादेव जी नीलकण्ठ के नाम से विख्यात हुए, ऐसी जनश्रुति है ॥ ४३ ॥
एतत् तदद्भुतं दृष्ट्वा निराशा दानवाः स्थिताः ।
अमृतार्थे च लक्ष्म्यर्थे महान्तं वैरमाश्रिताः ॥ ४४ ॥
ये सब अद्भुत बातें देखकर दानव निराश हो गये और अमृत तथा लक्ष्मी के लिये उन्होंने देवताओं के साथ महान् वैर बाँध लिया ॥ ४४ ॥
ततो नारायणो मायां मोहिनीं समुपाश्रितः ।
स्त्रीरूपमद्भुतं कृत्वा दानवानभिसंश्रितः ॥ ४५ ॥
उसी समय भगवान् विष्णु ने मोहिनी माया का आश्रय ले मनोहारिणी स्त्री का अद्भुत रूप बनाकर, दानवों के पास पदार्पण किया ॥ ४५ ॥
ततस्तदमृतं तस्यै ददुस्ते मूढचेतसः ।
स्त्रियै दानवदैतेयाः सर्वे तद्गतमानसाः ॥ ४६ ॥
समस्त दैत्यों और दानवों ने उस मोहिनी पर अपना हृदय निछावर कर दिया। उनके चित्त में मूढ़ता छा गयी। अतः उन सबने स्त्री रूपधारी भगवान् को वह अमृत सौंप दिया ॥ ४६ ॥
(सा तु नारायणी माया धारयन्ती कमण्डलुम् ।
आस्यमानेषु दैत्येषु पङ्क्त्या च प्रति दानवैः ।
देवानपाययद् देवी न दैत्यांस्ते च चुक्रुशुः ॥)
भगवान् नारायण की वह मूर्तिमती माया हाथ में कलश लिये अमृत परोसने लगी। उस समय दानवों सहित दैत्य पंगत लगाकर बैठे ही रह गये, परंतु उस देवी ने देवताओं को ही अमृत पिलाया; दैत्यों को नहीं दिया, इससे उन्होंने बड़ा कोलाहल मचाया।
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थनेऽष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
इस प्रकार श्री महाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में अमृत मन्थन विषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥