शबरी के बेर की कथा – शबरी का जीवन चरित्र
शबरी के बेर की कथा लोक-विख्यात है। उसी तरह शबरी की कहानी भी निराली है। यह कथा हृदय में भक्ति का प्रस्फुरण कर देती है। राम-भक्ति की ऐसी अनोखी कहानी जो सुनता है, वह गदगद हुए बिना नहीं रह सकता। यह कहानी बताती है कि यदि अन्तःकरण पवित्र हो और हृदय भक्तिपूर्ण हो, तो शबरी के जूठे भी मुक्ति का साधन बन जाते हैं। पवित्र भाव के अभाव में सारा कर्मकाण्ड धरा-का-धरा रह जाता है।
शबरी का जन्म भीलकुल में हुआ था। वह भीलराज की एकमात्र कन्या थी। उसका विवाह एक पशुस्वभाव के क्रूर व्यक्ति से निश्चय हुआ। अपने विवाह के अवसरपर अनेक निरीह पशुओं को बलि के लिये लाया गया देखकर शबरी का हृदय दया से भर गया। उसके संस्कारों में दया, अहिंसा और भगवद्भक्ति थी। विवाह की रात्रि में भीलनी शबरी पिता के अपयश की चिन्ता छोड़कर बिना किसी को बताये जंगल की ओर चल पड़ी। रात्रिभर वह जी-तोड़कर भागती रही और प्रातःकाल महर्षि मतंग के आश्रम में पहुंची। त्रिकालदर्शी ऋषि ने उसे संस्कारी बालिका समझकर अपने आश्रम में स्थान दिया। उन्होंने शबरी को गुरुमन्त्र देकर नाम-जप की विधि भी समझायी।
महर्षि मतंग ने सामाजिक बहिष्कार स्वीकार किया, किन्तु शरणागता शबरी का त्याग नहीं किया। महर्षि का अन्त निकट था। उनके वियोग की कल्पना मात्र से शबरी व्याकुल हो गयी। महर्षि ने उसे निकट बुलाकर समझाया, “बेटी, धैर्य से कष्ट सहन करती हुई साधना में लगी रहना। प्रभु राम एक दिन तेरी कुटिया में अवश्य आयेंगे। प्रभु की दृष्टि में कोई दीन-हीन और अस्पृश्य नहीं है। वे तो भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं।” उनका मन अप्रत्याशित आनन्द से भर गया और महर्षि की जीवन लीला समाप्त हो गयी।
वे अब वृद्धा हो गयी थीं। प्रभु आयेंगे – गुरु देव की यह वाणी उसके कानों में गूंजती रहती थी और इसी विश्वास पर वह कर्मकाण्डी लोगों के अनाचार शान्ति से सहती हुई अपनी साधना में लगी रही। वह नित्य भगवान के दर्शन की लालसा से अपनी कुटिया को साफ करती, उनके भोग के लिये फल लाकर रखती। आखिर शबरी की प्रतीक्षा पूरी हुई। अभी वह भगवान् के भोग के लिये मीठे-मीठे फलों को चखकर और उन्हें धोकर दोनों में सजा ही रही थी कि अचानक एक वृद्ध ने उसे सूचना दी – शबरी, तेरे राम अपने भाई लक्ष्मण सहित आ रहे हैं। वृद्ध के शब्दों ने शबरी में नवीन चेतना का संचार कर दिया। वह बिना लकुट लिये हड़बड़ी में भागी।
रामायण कथा में जिस तरह जटायु भगवान के अनन्य भक्त थे, वही दशा शबरी की भी थी। श्री राम को देखते ही वह निहाल हो गयी और उनके चरणों में लोट गयी। देह की सुध भूलकर वह श्रीराम के चरणों को अपने अश्रुजल से धोने लगी। किसी तरह राम जी ने उसे उठाया। अब वह आगे-आगे उन्हें मार्ग दिखाती अपनी कुटिया की ओर चलने लगी। कुटिया में पहुंचकर उसने भगवान का चरण धोकर उन्हें आसन पर बिठाया। फलों के दोने उनके सामने रखकर वह स्नेहसिक्त वाणी में बोली, “प्रभु! मैं आपको अपने हाथों से फल खिलाऊंगी। खाओगे न भीलनी के हाथ के फल? वैसे तो लोग नारी जाति को ही अधम कहते हैं और मैं तो अन्त्यज, मूढ़ और गँवार हूँ।” कहते-कहते शबरी की वाणी रुक गयी और उसके नेत्रों से अंबुजल छलक पड़े।
श्रीराम ने कहा, “बूढ़ी माँ! मैं तो एक भक्ति का ही नाता मानता हूँ। जाति-पाँति, कुल-धर्म सब मेरे सामने गौण हैं। मुझे भूख लग रही है। जल्दी से मुझे फल खिलाकर तृप्त कर दो।” शबरी भगवान को बेर आदि फल खिलाती जाती थी और वे बार-बार माँगकर खाते जाते थे। मान्यता है कि शबरी भगवान को बेर खिलाने से पहले स्वयं चखकर देखती थी ताकि श्री राम को केवल मीठे बेर खाने को ही मिलें। महर्षि मतंग की वाणी आज सत्य हो गयी और पूर्ण हो गयी शबरी की साधना। उसने भगवान को सीता की खोज के लिये सुग्रीव से मित्रता करनेकी सलाह दी और स्वयं को योगाग्नि में भस्म करके सदा के लिये श्री राम के चरणों में लीन हो गया। श्रीराम-भक्ति की अनुपम पात्र शबरी धन्य है। रामायण मनका 108 में भी शबरी की यह घटना इस रूप में वर्णित है–
चख-चख कर फल शबरी लायी, प्रेम सहित खाए रघुराई।ऐसे मीठे नहीं हैं आम, पतितपावन सीता राम॥