सूरदास का जीवन परिचय
भारतीय वाङ्मय के अमर ग्रन्थ सूरसागर के रचयिता श्री सूरदास जी (Soordas) का जीवन परिचय भक्ति और प्रेम से परिपूर्ण है। ऐसा कौन होगा जिसने सूरदास के पद, दोहे और भजन न सुने-पढ़े हों। उनका जन्म दिल्ली के सन्निकट सीही ग्राम में विक्रम सम्वत् 1535 की वैशाख शुक्ल पञ्चमी को हुआ था। इनकी प्रतिभा अत्यन्त प्रखर थी। बचपन से ही ये काव्य और संगीत में अत्यन्त निपुण थे। चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार ये सारस्वत ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम रामदास था।
पुष्टि सम्प्रदायाचार्य महाप्रभु वल्लभाचार्य विक्रम सम्वत् 1560 में अपनी ब्रज-यात्रा के समय मथुरा में निवास कर रहे थे। वहीं सूरदास जी ने उनसे दीक्षा प्राप्त की। आचार्य के इष्टदेव श्रीनाथ जी के प्रति इनकी अपूर्व श्रद्धा भक्ति थी। आचार्य की कृपा से ये श्रीनाथजी के प्रधान कीर्तनकार नियुक्त हुए। प्रतिदिन श्रीनाथजी के दर्शन करके उन्हें नये-नये पद सुनाने में इन्हें बड़ा सुख मिलता था।
श्री राधा-कृष्ण के अनन्य अनुरागी श्री सूरदास जी बड़े ही प्रेमी और त्यागी भक्त थे। इनकी मानस पूजा सिद्ध थी। भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का सुन्दर और सरस वर्णन करने में ये अद्वितीय थे। गुरु की आज्ञा से इन्होंने श्रीमद्भागवत की कथा का पदों में प्रणयन किया। इनके द्वारा प्रणीत सूरसागर में श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध की कथा का अत्यन्त सरस तथा मार्मिक चित्रण है। उसमें सवा लाख पद बताये जाते हैं, यद्यपि इस समय उतने पद नहीं मिलते हैं।
एक बार सूरदास जी एक कुएँ में गिर गये और छः दिनों तक उसमें पड़े रहे। सातवें दिन भगवान् माधव ने प्रकट होकर इन्हें दृष्टि प्रदान की। इन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के रूप माधुर्य का छककर पान किया। इन्होंने श्री गोपाल से यह वर माँगा कि “मैंने जिन नेत्रों से आपका दर्शन किया, उनसे संसार के किसी अन्य व्यक्ति और वस्तु का दर्शन न करूँ।” इसलिये ये कुएँ से निकलने के बाद पहले की तरह अन्धे हो गये। कहते हैं इनके साथ बराबर एक लेखक रहा करता था। इनके मुँह से जो भजन निकलते, उन्हें वह लिखता जाता था। कई अवसरों पर लेखक के अभाव में कन्हैया स्वयं इनके लेखक का काम करते थे।
सूरदास का साहित्यिक परिचय बताता है कि एक बार संगीत सम्राट तानसेन बादशाह अकबर के सामने सूर का एक अत्यन्त सरस और भक्तिपूर्ण पद गा रहे थे। बादशाह पद की सरसता पर मुग्ध हो गये और उन्होंने सूर दास से स्वयं मिलने की इच्छा प्रकट की। वे तानसेन के साथ सूरदासजी से मिलने गये। उनके अनुनय विनय से प्रसन्न होकर सूरदास जी ने एक पद गाया, जिसका अभिप्राय था कि “हे मन! तुम माधव से प्रीति करो। संसार की नश्वरता में क्या रखा है।” बादशाह उनकी अनुपम भक्ति से अत्यन्त प्रभावित हुए।
इनकी उपासना सख्य भाव की थी। यहाँ तक कि ये उद्धव के अवतार कहे जाते हैं। विक्रम संवत् 1620 के लगभग गोसाईं विट्ठलनाथ जी के सामने परसोली ग्राम में ये श्री राधाकृष्ण की अखण्ड रास में सदा के लिये लीन हो गये। सूरदास के पद बड़े ही अनूठे हैं। ब्रज भाषा में उपलब्ध इन रचनाओं में डूबने से आत्मा को वास्तविक सुख-शान्ति और तृप्ति मिलती है। शृंगार और वात्सल्य का जैसा वर्णन इनकी रचनाओं में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
प्रश्नोत्तरी
यह ग्रंथ श्री सूरदासजी द्वारा रचित है। यह हिन्दी साहित्य में ब्रज भाषा की अनुपम कृति है।
इनके गुरु का नाम महाप्रभु वल्लभाचार्य था।
सूर विरचित पद ब्रज भाषा में लिखे गए हैं।
विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म चौदहवीं शताब्दी में हुआ था।