स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (30 मई, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
६३, सेन्ट जार्जेस रोड,
लन्दन, दक्षिण-पश्चिम
३० मई, १८९६
प्रिय मेरी,
अभी अभी तुम्हारा पत्र मिला। तुममें निःसन्देह ईर्ष्या नहीं थी, किन्तु जो था, वह ग़रीब भारत के प्रति अकस्मात् सहानुभूति थी। जो भी कुछ हो, डरने की आवश्यकता नही है। कुछ सप्ताह पूर्व मदर चर्च को मैने एक पत्र लिखा था; आज तक उनसे एक पंक्ति भी जवाब में न मिला। मुझे डर है कि कहीं अपने दल के साथ संन्यास लेकर उन्होंने किसी कैथोलिक चर्च का आश्रय तो नहीं ले लिया है; घर पर चार चार प्रौढ़ कुमारियों के रहते हुए माँ के लिए संन्यास लिए बिना और उपाय ही क्या है?
अध्यापक मैक्स मुलर के साथ बहुत अच्छी तरह भेंट हुई। वे ऋषि जैसे हैं – वेदान्त की भावनाओं से पूर्ण हैं। इस बारे में तुम्हारी क्या धारणा है? बहुत दिनों से ही मेरे गुरुदेव के प्रति वे अत्यन्त श्रद्धा रखते हैं। उन्होंने ‘नाइन्टीन्थ सेन्चुरी’ में आचार्यपाद के सम्बन्ध में एक लेख लिखा है और वह शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाला है। भारत सम्बन्धी विविध विषयों में उनके साथ लम्बी वार्ता हुई। हाय, हाय, भारत के प्रति उनके प्रेम का अर्द्धांश भी यदि मुझमें होता!
यहाँ से एक दूसरी छोटी सी पत्रिका हम निकालना चाहते हैं। ‘ब्रह्मवादिन’ का क्या समाचार है? उसका प्रचार तो अधिकाधिक कर रही हो न? यदि चार उत्साही प्रौढ़ कुमारी मिलकर एक पत्रिका को भली भाँति चालू न कर सकीं, तो मेरी सारी आशाओं पर पानी फिर जायगा। तुम्हें बीच बीच में मेरा पत्र मिलता रहेगा। मैं सुई तो हूँ नहीं कि जहाँ कहीं खो जाने का डर हो। अब यहाँ पर मैंने कक्षा चालू कर दी है। आगामी सप्ताह से प्रति रविवार भाषण देना प्रारम्भ करूँगा। कक्षा बड़े पैमाने पर चल रही है। सारे मौसम के लिए जो मकान किराये पर लिया गया है, वहीं पर ही कक्षा की व्यवस्था की गयी है। कल रात मैने ख़ुद भोजन बनाया था। केशर, गुलाबजल, जावित्री, जायफल, दालचीनी, लौंग, इलायची, मक्खन, नींबू का रस, प्याज, किशमिश, बादाम, काली मिर्च तथा चावल – ये सब मिलाकर ऐसी स्वादिष्ट खिचड़ी बनायी थी कि मैं स्वयं ही उसे गले से नीचे नहीं उतार सका। घर पर हींग नहीं थी, नहीं तो कुछ हींग मिला लेने पर कम से कम निगलने में सुविधा होती।
कल एक आधुनिक फ़ैशन के विवाह में सम्मिलित हुआ था। मेरे एक मित्र कुमारी मूलर नाम की एक धनी महिला ने एक हिन्दू बालक को गोद लिया है एवं मेरे कार्यों में सहायता प्रदान करने के लिए, मैं जिस मकान में रहता हूँ, उसीमें एक कमरा किराये पर लिया है, वे ही हम लोगों को उस समारोह को दिखाने के लिए ले गयी थीं। उनकी ही एक भतीजी अथवा भांजी वधू होनेवाली थी और वर भी किसी न किसीका भतीजा अथवा भांजा अवश्य होगा। विवाह का समारोह देर तक जारी रहा, ख़तम होने का कोई नाम ही नहीं – मैं तो परेशान हो गया। तुम जो विवाह करना नहीं चाहती हो – मैं उसे पसन्द करता हूँ। अच्छा, तो अब मैं बिदा चाहता हूँ! तुम सब मेरी प्रीति ग्रहण करना। अधिक लिखने का अवकाश नहीं है, अभी कुमारी मैक्लिऑड के घर पर मध्याह्न-भोजन के लिए, चलना है। इति।
तुम लोगों का चिर शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द