स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री प्रमदादास मित्र को लिखित (30 मई, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का श्री प्रमदादास मित्र को लिखा गया पत्र)
अल्मोड़ा,
३० मई, १८९७
प्रिय महाशय,
मैंने सुना है कि आपके ऊपर कोई अपरिहार्य पारिवारिक दुःख आ पड़ा है। यह दुःख आप जैसे ज्ञानी पुरुष का क्या कर सकता है? फिर भी इस सांसारिक जीवन के संदर्भ में मित्रता के स्निग्ध व्यवहार की प्रेरणा से मेरे लिए इसकी चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। किन्तु वे दुःख के क्षण बहुधा आध्यात्मिक अनुभव को उच्चतर रूप से व्यक्त करते हैं। जैसे कि थोड़ी देर के लिए बादल हट गए हों और सत्य रूपी सूर्य चमक उठे। कुछ लोगों के लिए ऐसी अवस्था में आधे बन्धन शिथिल पड़ जाते हैं। सबसे बड़ा बन्धन है मान का – नाम डूबने का भय मृत्यु के भय से प्रबल है; और उस समय यह बन्धन भी कुछ ढीला दिखायी देता है। जैसे कि एक क्षण के लिए मन को यह अनुभव होता हो कि मानव-मत की अपेक्षा अन्तर्यामी प्रभु की ओर ध्यान देना अधिक अच्छा है। परन्तु फिर से बादल आकर घेर लेते हैं ओर वास्तव में यही माया है।
यद्यपि बहुत दिनों से मेरा आप से पत्र-व्यवहार नहीं था, परन्तु औरों से आपका प्रायः सब समाचार सुनता रहा हूँ। कुछ समय हुआ, आपने कृपापूर्वक मुझे इंग्लैण्ड में गीता के अनुवाद की एक प्रति भेजी थी। उसकी जिल्द पर आपके हाथ की एक पंक्ति लिखी हुई थी। इस उपहार की स्वीकृति थोड़े से शब्दों में दिए जाने के कारण मैंने सुना कि आपको मेरी आपके प्रति पुराने प्रेम की भावना में सन्देह उत्पन्न हो गया।
कृपया इस सन्देह को आधार रहित जानिए। उस संक्षिप्त स्वीकृति का कारण यह था कि पाँच वर्ष में मैंने आपकी लिखी हुई एक ही पंक्ति उस अंग्रेजी गीता की जिल्द पर देखी, इस बात से मैंने यह विचार किया कि यदि इससे अधिक लिखने का आपको अवकाश न था तो क्या अधिक पढ़ने का अवकाश हो सकता है? दूसरी बात, मुझे यह पता लगा कि हिन्दू धर्म के गौरांग मिशनरिया के आप विशेष मित्र हैं और दुष्ट काले भारतवासी आपकी घृणा के पात्र हैं! यह मन में शंका उत्पन्न करने वाला विषय था। तीसरे, मैं म्लेच्छ, शूद्र इत्यादि हूँ – जो मिले सो खाता हूँ वह भी जिस किसी के साथ और सभी के सामने – चाहे देश हो या परदेश। इसके अतिरिक्त मेरी विचारधारा में बहुत विकृति आ गयी है – मैं एक निर्गुण पूर्ण ब्रह्म को देखता हूँ, और कुछ-कुछ समझता भी हूँ, और इने-गिने व्यक्तियों में मैं उस ब्रह्म का विशेष आविर्भाव भी देखता हूँ; यदि वे ही व्यक्ति ईश्वर के नाम से पुकारे जाएँ तो मैं इस विचार को ग्रहण कर सकता हूँ परन्तु बौद्धिक सिद्धान्तों द्वारा परिकल्पित विधाता आदि की ओर मन आकर्षित नहीं होता।
ऐसा ही ईश्वर मैंने अपने जीवन में देखा है और उनके आदेशों का पालन करने के लिए मैं जीवित हूँ। स्मृति और पुराण सीमित बुद्धिवाले व्यक्तियों की रचनाएँ हैं और भ्रम, त्रुटि, प्रमाद, भेद तथा द्वेष भाव से परिपूर्ण हैं। उनके केवल कुछ अंश जिनमें आत्मा की व्यापकता और प्रेम की भावना विद्यमान है, ग्रहण करने योग्य हैं, शेष सबका त्याग कर देना चाहिए। उपनिषद् और गीता सच्चे शास्त्र हैं और राम, कृष्ण, बुद्ध, चैतन्य, नानक, कबीर आदि सच्चे अवतार हैं; क्योंकि उनके हृदय आकाश के समान विशाल थे – और इन सबमें श्रेष्ठ हैं रामकृष्ण। रामानुज, शंकर इत्यादि संकीर्ण हृदय वाले केवल पण्डित मालूम होते हैं। वह प्रेम कहाँ है, वह हृदय जो दूसरों का दुःख देखकर द्रवित हो? पण्डितों का शुष्क विद्याभिमान और जैसे-तैसे केवल अपने आपको मुक्त करने की इच्छा! परन्तु महाशय, क्या यह सम्भव है? क्या इसकी कभी सम्भावना थी या हो सकती है? क्या अहंभाव का अल्पांश भी रहने से किसी चीज की प्राप्ति हो सकती है?
मुझे एक बड़ा विभेद और दिखायी देता है – मेरे मन में दिनोंदिन यह विश्वास बढ़ता जा रहा है कि जाति-भाव सबसे अधिक भेद उत्पन्न करने वाला और माया का मूल है। सब प्रकार का जाति-भेद चाहे वह जन्मगत हो या गुणगत, बन्धन ही है। कुछ मित्र यह सुझाव देते हैं, “सच है, मन में ऐसा ही समझो, परन्तु बाहर व्यावहारिक जगत् में जाति जैसे भेदों को बनाए रखना उचित ही है।”
…मन में एकता का भाव कहने के लिए उसे स्थापित करने की कातर निर्वरीय चेष्टा और बाह्य जगत् में राक्षसों का नरक-नृत्य – अत्याचार और उत्पीड़न – निर्धनों के लिए साक्षात् यमराज! परन्तु यदि वही अछूत काफी धनी हो जाये तो ‘अरे, वह तो धर्म का रक्षक है।’
सबसे अधिक अपने अध्ययन से मैंने यह जाना है कि धर्म के विधि-निषेधादि नियम शूद्र के लिए नहीं हैं; यदि वह भोजन में या विदेश जाने में कुछ विचार दिखाए तो उसके लिए वह सब व्यर्थ है, केवल निरर्थक परिश्रम। मैं शूद्र हूँ, म्लेच्छ हूँ, इसलिए मुझे इन सब झंझटों से क्या सम्बन्ध? मेरे लिए म्लेच्छ का भोजन हुआ तो क्या, और शूद्र का हुआ तो क्या? पुरोहितों की लिखी हुई पुस्तकों ही में जाति जैसे पागल विचार पाए जाते हैं, ईश्वर द्वारा प्रकट की हुई पुस्तकों में नहीं। अपने पूर्वजों के कार्य का फल पुरोहितों को भोगने दो; मैं तो भगवान् की वाणी का अनुसरण करूँगा, क्योंकि मेरा कल्याण उसी में है।
एक और सत्य, जिसका मैंने अनुभव किया है, वह यह है कि निःस्वार्थ सेवा ही धर्म है और बाह्य विधि, अनुष्ठान आदि केवल पागलपन है यहाँ तक कि अपनी मुक्ति की अभिलाषा करना भी अनुचित है। मुक्ति केवल उसके लिए है जो दूसरों के लिए सर्वस्व त्याग देता है, परन्तु वे लोग जो ‘मेरी मुक्ति’, ‘मेरी मुक्ति’ की अहर्निश रट लगाए रहते हैं, वे अपना वर्तमान और भावी वास्तविक कल्याण नष्ट कर इधरउधर भटकते रह जाते हैं। ऐसा होते मैंने कई बार प्रत्यक्ष देखा है। इन विविध विषयों पर विचार करते हुए आपको पत्र लिखने का मेरा मन नहीं था। इन सब मतभेदों के होते हुए भी यदि आपका प्रेम मेरे प्रति पहले जैसा ही हो तो इसे मैं बड़े आनन्द का विषय समझूँगा।
आपका,
विवेकानन्द