स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी शुद्धानन्द को लिखित
(स्वामी विवेकानंद का स्वामी शुद्धानन्द को लिखा गया पत्र)
अल्मोड़ा,
कल्याणवरेषु –
अवागमं कुशलम् तत्रत्यानां वार्ताञ्च सविशेषां तव पत्रिकायाम्। ममापि विशेषोऽस्ति शरीरस्य, शेषो ज्ञातव्यो भिषक्प्रवरस्य शशिभूषणस्य सकाशात्। ब्रह्मानन्देन संस्कृतया एव रीत्या चलत्वधुना शिक्षा, यदि पश्चात्परिवर्तनमर्हेत्तदपि कारयेत्। सर्वेषां सम्मतिं गृहीत्वा तु करणीयमिति न विस्मर्तव्यम्।
अहमधुना अल्मोडानगरस्य किञ्चिदुत्तरं कस्यचिद्वणिज उपवनोपदेशे निवसामि। सम्मुखे हिमशिखराणि हिमालस्य प्रतिफलितदिवाकरकरः पिण्डीकृतरजत इव भान्ति प्रीणयन्ति च। अव्याहतवायुसेवनेन, मितेन भोजनेन, समधिकव्यायामसेवया च सुदृढ़ सुस्थञ्च सञ्जातं मे शरीरम्। योगानन्दः खलु समधिकमस्वस्थ इति शृणोमि, आमन्त्रयामि तमागन्तुमत्रेव। विभेत्यसौ पुनः पार्वत्याज्जलाद्वायोश्च। “उषित्वा कतिपयदिवसान्यत्रोपवने यदि न तावद्विशेषो व्याधेर्गच्छ त्वं कलिकाताम्” इत्यहमद्य तमलिखम्। यथाभिरुचि करिष्यति।
अच्युतानन्दः प्रतिदिनं सायाह्ने अल्मोड़ानगर्यां गीतादिशास्त्रपाठं जनानाहुय करोति। बहूनां नगरवासिनां स्कन्धावारसैन्यानांच समागमोऽस्ति तत्र प्रत्यहम् सर्वानसौ प्रीणाति चेति शृणोमि। “यावानर्थ” इत्यादि श्लोकस्य यो बङ्गार्थस्त्वया। लिखितो नासौ मन्यते समीचीनः। “सति जलप्लाविते उदपाने नास्ति अर्थः प्रयोजनम्” इत्यसावर्थः। विषमोऽयमुपन्यासः, किं संप्लुतोदके सति जीवानां तृष्णां विलुप्ता भवति?
यद्येवं भवेत्प्राकृतिको नियमः, जलप्लाविते भूतले सति जलपानं निरर्थकं, केनचिदपि वायुमार्गेनाथवान्येन केनापि गूढेनोपायेन जीवानां तृष्णानिवारणं स्यात्, तदासावपूर्वोऽर्थः सार्थको भवितुमर्हेन्नान्यथा।
शंकर एवावलम्बनीयः। इयमपि भवितुमर्हति –
सर्वतः संप्लुतोदकेऽपि भूतले यावानुदपाने अर्थः तृष्णातुराणां (अल्पमात्रं जलमलं भवेदित्यर्थः), – “आस्तां तावज्जलराशिः, मम प्रयोजनम् स्वल्पेऽपि जले सिध्यति” एवं विजानतो ब्राह्मणस्य सर्वेषु वेदेषु अर्थः प्रयोजनम्। यथा संप्लुतोदके पानमात्रप्रयोजनम् तथा सर्वेषु वेदेषु ज्ञानमात्रप्रयोजनम्।
इयमपि व्याख्या अधिकतरं सन्निधिमापन्ना ग्रन्थकाराभिप्रायस्य –
उपप्लावितेऽपि भूतले, पानाय उपादेयं पानाय हितं जलमेव अन्विष्यन्ति लोका नान्यत्। नानाविधानि जलानि सन्ति भिन्नगुणधर्माणि, उपप्लावितेऽपि भूमेस्तारतम्यात्। एवं विजानन् बाह्मणोऽपि विविधज्ञानोपप्लाविते वेदाख्ये शब्दसमुद्रे संसारतृष्णनिवारणार्थं तदेव गृह्लीयात् यदलं भवति निःश्रेयसाय। ब्रह्मज्ञानं हि तत्।
इति शं साशीर्वादं विवेकानन्दस्य
(हिन्दी अनुवाद)
प्रिय शुद्धानन्द,
तुम्हारे पत्र से यह जानकर कि वहाँ सब कुशलपूर्वक हैं, तथा अन्य सब समाचार विस्तारपूर्वक पढ़कर मुझे हर्ष हुआ। मैं भी अब पहले से अच्छा हूँ और शेष तुम्हें सब डॉ. शशिभूषण से मालूम हो जायेगा। ब्रह्मानन्द द्वारा संशोधित पद्धति के अनुसार शिक्षा जैसी चल रही है, अभी वैसी ही चलने दो और भविष्य में यदि परिवर्तन की आवश्यकता हो तो कर लेना। परन्तु यह कभी न भूलना कि ऐसा सर्वसम्मति ही से होना चाहिए।
आजकल मैं एक व्यापारी के बाग में रह रहा हूँ, जो अल्मोड़े से कुछ दूर उत्तर में है। हिमालय के हिम-शिखर मेरे सामने हैं, जो सूर्य के प्रकाश में रजतराशि के समान आभासित होते हैं, और हृदय को आनन्दित करते हैं। शुद्ध हवा, नियमानुसार भोजन और यथेष्ट व्यायाम करने से मेरा शरीर बलवान तथा स्वस्थ हो गया है। परन्तु मैंने सुना है कि योगानन्द बहुत बीमार है। मैं उसको यहाँ आने के लिए निमंत्रित कर रहा हूँ, परन्तु वह पहाड़ की हवा और पानी से डरता है। मैंने आज उसे यह लिखा है कि ‘इस बाग में कुछ दिन आकर रहो और यदि रोग में कोई सुधार न हो तो तुम कलकत्ते चले जाना।’ आगे उसकी इच्छा।
अल्मोड़ा में रोज शाम को अच्युतानन्द लोगों को एकत्र करता है और उन्हें गीता तथा अन्य शास्त्र पढ़कर सुनाता है। बहुत से नगरवासी और छावनी से सिपाही प्रतिदिन वहाँ आ जाते हैं। मैंने सुना है कि सब लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। ‘यावानर्थ… ’1 इत्यादि श्लोक की जो तुमने बंगला में व्याख्या की है, वह मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ती।
तुम्हारी व्याख्या इस प्रकार की है – ‘जब (पृथ्वी) जल से आप्लावित हो जाती है, तब पीने के पानी की क्या आवश्यकता?’
यदि प्रकृति का ऐसा नियम हो कि पृथ्वी के जल से आप्लावित हो जाने पर पानी पीना व्यर्थ हो जाय, और यदि वायु-मार्ग से किसी विशेष अथवा और किसी गुप्त रीति से लोगों की प्यास बुझ सके, तभी यह अद्भुत व्याख्या संगत हो सकती है, अन्यथा नहीं। तुम्हें श्रीशंकराचार्य का अनुसरण करना चाहिए या तुम इस प्रकार भी व्याख्या कर सकते हो :
जैसे कि, जब बड़े-बड़े भूमि-भाग जल से आप्लावित हुए रहते हैं, तब भी छोटे छोटे तालाब प्यासे मनुष्यों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं (अर्थात् उसके लिए थोड़ा-सा जल भी पर्याप्त होता है और वह मानो कहता है, इस विपुल जल-राशि को रहने दो, मेरा काम थोड़े जल से ही चल जायगा) – इसी प्रकार विद्वान् ब्राह्मण के लिए सम्पूर्ण वेद उपयोगी होते हैं। जैसे भूमि के जल में डूबे हुए होने के बावजूद भी हमें केवल पानी पीने से मतलब है और कुछ नहीं, इसी प्रकार वेदों से हमारा अभिप्राय केवल ज्ञान की प्राप्ति से है।
एक और व्याख्या है जिससे ग्रन्थकर्ता का अर्थ अधिक योग्य रीति से समझ में आता है : जब भूमि जल से आप्लावित होती है, तब भी लोग हितकर और पीने योग्य जल की ही खोज करते हैं, और दूसरे प्रकार के जल की नहीं। भूमि के पानी से आप्लावित होने पर भी उस पानी के अनेक भेद होते हैं, और उसमें भिन्न-भिन्न गुण और धर्म पाए जाते हैं। वे भेद आश्रयभूत भूमि के गुण एवं प्रकृति के अनुसार होते हैं। इसी प्रकार बुद्धिमान ब्राह्मण भी अपनी संसार-तृष्णा को शान्त करने के लिए उस शब्द-समुद्र में से – जिसका नाम वेद है तथा जो अनेक प्रकार के ज्ञान-प्रवाहों से पूर्ण है – उसी धारा को खोजेगा जो उसे मुक्ति के पथ में ले जाने के लिए समर्थ हो और वह ज्ञान-प्रवाह ब्रह्मज्ञान ही है, जो ऐसा कर सकता है।
आशीर्वाद और शुभकामनाओं सहित,
तुम्हारा,
विवेकानन्द
- यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान् सर्वेषु वेदेषु बाह्मणस्य विजानतः॥ गीता १-४६