धर्मस्वामी विवेकानंद

शुद्ध ज्ञान व शुद्ध भक्ति एक हैं

स्थल – बेलुड़ मठ (निर्माण के समय)

विषय – शुद्ध ज्ञान व शुद्ध भक्ति एक हैं – पूर्णप्रज्ञ न होने पर प्रेम कीअनुभूति असम्भव है – यथार्थ ज्ञान और भक्ति जब तक प्राप्त न हो, तभी तक विवाद है – धर्मराज्य में वर्तमान भारत में किस प्रकार धर्म का अनुष्ठान करना उचित है – श्रीरामचन्द्र, महावीर तथा गीताकार श्रीकृष्ण की पूजा का प्रचलन करना आवश्यक है – अवतारी महापुरुषों के आविर्भाव का कारणाउर श्रीरामकृष्णदेव का माहात्म्य।

शिष्य – स्वामीजी, ज्ञान और भक्ति का मेल किस प्रकार हो सकता है। देखता हूँ, भक्ति मार्ग का अवलम्बन करनेवाले तो आचार्य शंकर का नाम सुनते ही कानों में उंगली दे देते हैं। और उधर ज्ञानपन्थी लोग भक्तों का आकुल क्रन्दन, उल्लास व नृत्यगीत आदि देखकर कहते हैं, वे एक प्रकार के पागल हैं।

स्वामीजी – बात क्या है, जानता है? गौण ज्ञान और गौण भक्ति लेकर ही विवाद उपस्थित होता है। श्रीरामकृष्ण की भूत-बन्दर की कहानी*तो सुनी है न?

शिष्य – जी हाँ!

स्वामीजी – परन्तु मुख्य भक्ति और मुख्य ज्ञान में कोई अन्तर नहीं है। मुख्य भक्ति का अर्थ है – भगवान की प्रेम के रूप में उपलब्धि करना। यदि तू सर्वत्र सभी के बीच में भगवान की प्रेममूर्ति का दर्शन करता है तो फिर हिंसा-द्वेष किससे करेगा? वह प्रेमानुभूति जरासी वासना के रहते – जिसे श्रीरामकृष्ण कामकांचन के प्रति आसक्त्ति कहा करते थे – प्राप्त नहीं हो सकती। सम्पूर्ण प्रेमानुभूति में देहबुद्धि तक नहीं रहती। और मुख्य ज्ञान का अर्थ है सर्वत्र एकत्व की अनुभूति, आत्मस्वरूप का सर्वत्र दर्शन, पर वह जरासी भी अहंबुद्धि के रहते प्राप्त नहीं हो सकता।

शिष्य – तो क्या आप जिसे प्रेम कहते हैं वही परम ज्ञान है?

स्वामीजी – नहीं तो क्या? पूर्णप्रज्ञ न होने पर किसी को प्रेमानुभूति नहीं होती। देखता है न, वेदान्त शास्त्र में ब्रह्म को सच्चिदानन्द कहा है। उस सच्चिदानन्द शब्द का अर्थ है – सत् यानी अस्तित्व, चित् अर्थात् चैतन्य या ज्ञान और आनन्द अर्थात् प्रेम। भगवान के ‘सत्’ भाव के विषय में भक्त व ज्ञानी के बीच में कोई विवाद नहीं है। परन्तु ज्ञानमार्गी ब्रह्म के चित् या चैतन्य सत्ता पर ही सदा अधिक जोर देते हैं और भक्तगण सदा ‘आनन्द’ सत्ता पर दृष्टि रखते हैं। परन्तु ‘चित्’ स्वरूप की अनुभूति होने के साथ ही आनन्दस्वरूप की भी उपलब्धि हो जाती है क्योंकि जो चित् है, वही आनन्द है।

शिष्य – तो फिर भारतवर्ष में इतना साम्प्रदायिक भाव प्रबल क्यों है और ज्ञान तथा भक्तिशास्त्रों में भी इतना विरोध क्यों है?

स्वामीजी – देख, गौणभाव लेकर अर्थात् जिन भावों को पकड़कर मनुष्य यथार्थ ज्ञान अथवा यथार्थ भक्ति को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होते हैं उन्हीं पर सारी मारपीट होते देखी जाती है। तेरी क्या राय है? उद्देश्य बड़ा है या उपाय बड़े हैं? निश्चय है कि उद्देश्य से उपाय कभी बड़ा नहीं बन सकता। क्योंकि अधिकारियों की भिन्नता से एक ही उद्देश्य की प्राप्ति अनेक उपायों से होती है। तू यह जो देख रहा है कि जप-ध्यान, पूजाहोम आदि धर्म के अंग हैं, सो ये सभी उपाय हैं और पराभक्ति अथवा परब्रह्म स्वरूप का दर्शन ही मुख्य उद्देश्य है। अतः जरा गौर से देखने पर ही समझ सकेगा कि विवाद किस पर हो रहा है। एक व्यक्ति कह रहा है कि पूर्व की ओर मुँह करके बैठकर पुकारने से ईश्वर प्राप्त होता है; और एक व्यक्ति कहता है, ‘नहीं, पश्चिम की ओर मुँह करके बैठना होगा।’ सम्भव है किसी व्यक्ति ने वर्षों पहले पूर्व की ओर मुँह करके बैठकर ध्यान-भजन करके ईश्वरलाभ किया हो, तो उसके अनुयायी यह देखकर उसी समय से उस मत का प्रचार करते हुए कहने लगे, पूर्व की ओर मुँह करके बैठे बिना ईश्वर-प्राप्ति नहीं हो सकती; और एक दल ने कहा, ‘यह कैसी बात है? हमने तो सुना है, पश्चिम की ओर मुँह करके बैठकर अमुक ने ईश्वर को प्राप्त किया है!’ – दूसरा बोला, ‘हम तुम्हारा मत नहीं मानते।’ बस, इसी प्रकार दलबन्दी का जन्म हो गया। इसी प्रकार एक व्यक्ति ने सम्भव है, हरिनाम का जप करके पराभक्ति को प्राप्त किया हो; उसी समय शास्त्र बन गया, ‘नास्तेव गतिरन्यथा’। फिर कोई अल्लाह कहकर सिद्ध हुए और उसी समय उनका एक दूसरा अलग मत चलने लगा। हमें अब देखना होगा, इन सब जप, पूजा आदि की जड़ कहाँ है? यह जड़ है श्रद्धा। संस्कृत भाषा के ‘श्रद्धा’ शब्द को समझाने योग्य कोई शब्द हमारी भाषा में नहीं है। उपनिषद् में बतलाया है यही श्रद्धा नचिकेता के हृदय में प्रविष्ट हुई थी। ‘एकाग्रता’ शब्द द्वारा भी ‘श्रद्धा’ शब्द का समस्त भाव प्रकट नहीं होता। मेरे मत से संस्कृत ‘श्रद्धा’ शब्द का निकटतम अर्थ ‘एकाग्रनिष्ठा’ शब्द द्वारा व्यक्त्त हो सकता है। निष्ठा के साथ एकाग्र मन से किसी भी तत्व का चिन्तन करते रहने पर तू देखेगा कि मन की गति धीरे धीरे एकत्व की ओर चली है अथवा सच्चिदानन्द स्वरूप की अनुभूति की ओर जा रही है। भक्ति और ज्ञानशास्त्र दोनों ही उसी प्रकार एक एक निष्ठा को जीवन में लाने के लिए मनुष्य को विशद रूप से उपदेश कर रहे हैं। युगपरम्परा से विकृत भाव धारण करके वे ही सब महान् सत्य धीरे धीरे देशाचार में परिणत हुए हैं। केवल तुम्हारे भारतवर्ष में ही ऐसा नहीं हुआ है – पृथ्वी की सभी जातियों में और सभी समाजों में ऐसा हुआ है। विचारविहीन साधारण जीव, उन बातों को लेकर उसी समय से आपस में लड़कर मर रहे हैं। जड़ को भूल गये इसीलिए तो इतनी मारकाट हो रही है।

शिष्य – महाराज, तो अब उपाय क्या है?

स्वामीजी – पहले जैसी यथार्थ श्रद्धा लानी होगी। व्यर्थ की बातों को जड़ से निकाल डालना होगा। सभी मतों में, सभी पन्थों में देश-काल से परे के सत्य अवश्य पाये जाते हैं; परन्तु उन पर मैल जम गया है। उन्हें साफ करके यथार्थ तत्त्वों को लोगों के सामने रखना होगा, तभी तुम्हारे धर्म और देश का भला होगा।

शिष्य – ऐसा किस प्रकार करना होगा?

स्वामीजी – पहलेपहल महापुरुषों की पूजा चलानी होगी। जो लोग उन सब सनातन तत्त्वों को प्रत्यक्ष कर गये हैं, उन्हें लोगों के सामने आदर्श या इष्ट के रूप में खड़ा करना होगा, जैसे भारतवर्ष में श्रीरामचन्द्र, श्रीकृष्ण, महावीर तथा श्रीरामकृष्ण। देश में श्रीरामचंद्र और महावीर की पूजा चला दे तो देखूँ? वृन्दावनलीला-फीला अब रख दे। गीतारूपी सिंहनाद करने वाले श्रीकृष्ण की पूजा चला दे; शक्ति की पूजा चला दे!

शिष्य – क्यों, वृन्दावनलीला क्या बुरी है?

स्वामीजी – इस समय श्रीकृष्णजी की उस प्रकार की पूजा से तुम्हारे देश का कल्याण न होगा। बंसी बजाकर अब देश का कल्याण न होगा। अब चाहिए महान् त्याग, महान् निष्ठा, महान् धैर्य और स्वार्थगन्धशून्य शुद्ध बुद्धि की सहायता से महान् उद्यम प्रकट करके सभी बातें ठीक ठीक जानने के लिए कमर कसकर लग जाना।

शिष्य – महाराज, तो क्या आपकी राय में वृन्दावनलीला सत्य नहीं है?

स्वामीजी – यह कौन कहता है। उस लीला की यथार्थ धारणा तथा उपलब्धि करने के लिए बहुत उच्च साधना की आवश्यकता है। इस घोर कामकांचनासक्त्ति के युग में उस लीला के उच्च भाव की धारणा कोई नहीं कर सकेगा।

शिष्य – महाराज, तो क्या आप कहना चाहते हैं कि जो लोग मधुर, सख्य आदि भावों का अवलम्बन कर इस समय साधना कर रहे हैं, उनमें से कोई भी यथार्थ पथ पर नहीं जा रहा है?

स्वामीजी – मुझे तो ऐसा ही लगता है – विशेष रूप से वे जो मधुर भाव के साधक बताकर अपना परिचय देते हैं उनमें दो एक को छोड़कर बाकी सभी घोर तमोभावापन्न हैं – अस्वाभाविक मानसिक दुर्बलता से पूर्ण हैं। इसीलिए कह रहा हूँ कि अब देश को उठाने के लिए महावीर की पूजा चलानी होगी, शक्ति की पूजा चलानी होगी, श्रीरामचन्द्रजी की पूजा घर घर में करनी होगी। तभी तुम्हारा और देश का कल्याण होगा, दूसरा कोई उपाय नहीं है।

शिष्य – परन्तु महाराज, सुना है श्रीरामकृष्णदेव तो सभी को लेकर संकीर्तन में विशेष आनन्द करते थे?

स्वामीजी – उनकी बात अलग है। उनके साथ क्या मनुष्य की तुलना हो सकती है? उन्होंने सभी मतों के अनुसार साधना करके देखा है – सभी मत एक ही तत्त्व में पहुँचा देते हैं। उन्होंने जो कुछ किया है, वह क्या तू या मैं कर सकता हूँ? वे कौन थे, और कितने बड़े थे, यह हम कोई भी अभी तक समझ नहीं सके। इसीलिए मैं उनकी बात जहाँ-तहाँ नहीं कहता हूँ। वे क्या थे वह वे ही जानते थे; उनकी देह ही केवल मनुष्य की थी, आचरण में तो उन्हें देवत्व प्राप्त था।

शिष्य – अच्छा महाराज, क्या आप उन्हे अवतार मानते हैं?

स्वामीजी – पहले यह बता कि तेरे ‘अवतार’ शब्द का अर्थ क्या है?

शिष्य – क्यों? जैसे श्रीराम, श्रीरामकृष्ण, श्रीगौरांग, बुद्ध आदि पुरुष।

स्वामीजी – तूने जिनका नाम लिया, मैं श्रीरामकृष्ण को उन सबसे बड़ा मानता हूँ – मानना तो छोटी बात है – जानता हूँ। रहने दे अब इस बात को, अब इतना ही सुन ले – समय और समाज के अनुसार जो एक एक महापुरुष धर्म का उद्धार करने आते हैं उन्हें महापुरुष कह, या अवतार, कह, इसमें कुछ भी अन्तर नहीं होता। वे संसार में आकर जीवों को अपना जीवन संगठित करने का आदर्श बता जाते हैं। जो जिस समय आते हैं उस समय उन्हीं के आदर्श पर सब कुछ होता है, मनुष्य बनते हैं और सम्प्रदाय चलते रहते हैं। समय पर वे सब सम्प्रदाय विकृत हो जाने पर फिर वैसे ही अन्य संस्कारक आते हैं, यह नियम प्रवाह के रूप में चला आ रहा है।

शिष्य – महाराज, तो आप श्रीरामकृष्ण को अवतार कहकर घोषित क्यों नहीं करते? आप में तो शक्ति – भाषणशक्ति काफी है।

स्वामीजी – इसका कारण, उनके सम्बन्ध में मेरी अल्पज्ञता है। मुझे वे इतने बड़े लगते हैं कि उनके सम्बन्ध में कुछ भी कहने में मुझे भय है कि कहीं सत्य का विपर्यास न हो जाय, कहीं मैं अपनी इस अल्पशक्ति के अनुसार उन्हें बड़ा करने के यत्न में उनका चित्र अपने ढाँचे में खींचकर उन्हें छोटा ही न कर डालूँ।

शिष्य – परन्तु आजकल अनेक लोग तो उन्हें अवतार बताकर ही प्रचार कर रहे हैं।

स्वामीजी – करें। जो जैसा समझ रहा है, वह वैसा कर रहा है। तेरा वैसा विश्वास हो तो तू भी कर।

शिष्य – मैं आप ही को अच्छी तरह समझ नहीं सकता, फिर श्रीरामकृष्ण की तो बात दूर रही। ऐसा लगता है कि आपकी कृपा का कण पाने से ही मैं इस जन्म में धन्य हो जाऊँगा।

आज यहीं पर वार्तालाप समाप्त हुआ और शिष्य स्वामीजी की पदधूलि लेकर घर लौटा।

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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