वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 24 हिंदी में – Valmiki Ramayana Balakanda Chapter – 24
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श्रीराम और लक्ष्मण का गंगा पार होते समय विश्वामित्र जी से जल में उठती हुई तुमुल ध्वनि के विषय में प्रश्न करना, विश्वामित्रजी का उन्हें इसका कारण बताना तथा मलद, करूष एवं ताटका वनका परिचय देते हुए इन्हें ताटका वध के लिये आज्ञा प्रदान करना
तदनन्तर निर्मल प्रभातकाल में नित्यकर्म से निवृत्त हुए विश्वामित्रजी को आगे करके शत्रुदमन वीर श्रीराम और लक्ष्मण गंगानदी के तटपर आये॥ १ ॥
उस समय उत्तम व्रत का पालन करने वाले उन पुण्याश्रम निवासी महात्मा मुनियों ने एक सुन्दर नाव मँगवाकर विश्वामित्र जी से कहा—॥ २ ॥
‘महर्षे! आप इन राजकुमारों को आगे करके इस नाव पर बैठ जाइये और मार्ग को निर्विघ्नता पूर्वक तै कीजिये, जिससे विलम्ब न हो’॥ ३ ॥
विश्वामित्रजी ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उन महर्षियों की सराहना की और वे श्रीराम तथा लक्ष्मण के साथ समुद्र-गामिनी गंगा नदी को पार करने लगे॥ ४ ॥
गंगा की बीच धारा में आने पर छोटे भाई इसहित महातेजस्वी श्रीराम को दो जलों के टकराने की बड़ी भारी आवाज सुनायी देने लगी। ‘यह कैसी आवाज है? क्यों तथा कहाँ से आ रही है?’ इस बातको निश्चितरूप से जानने की इच्छा उनके भीतर जाग उठी॥ ५ १/२ ॥
तब श्रीराम ने नदी के मध्यभाग में मुनिवर विश्वामित्र से पूछा—‘जल के परस्पर मिलने से यहाँ ऐसी तुमुलध्वनि क्यों हो रही है?’॥ ६ १/२ ॥
श्रीरामचन्द्र जी के वचनमें इस रहस्यको जाननेकी उत्कण्ठा भरी हुई थी। उसे सुनकर धर्मात्मा विश्वामित्रने उस महान् शब्द (तुमुलध्वनि) का सुनिश्चित कारण बताते हुए कहा—॥ ७ १/२ ॥
‘नरश्रेष्ठ राम! कैलास पर्वत पर एक सुन्दर सरोवर है। उसे ब्रह्माजी ने अपने मानसिक संकल्प से प्रकट किया था। मन के द्वारा प्रकट होने से ही वह उत्तम सरोवर ‘मानस’ कहलाता है॥ ८ १/२ ॥
‘उस सरोवर से एक नदी निकली है, जो अयोध्यापुरी से सटकर बहती है। ब्रह्मसर से निकलने के कारण वह पवित्र नदी सरयू के नाम से विख्यात है॥ ९ १/२ ॥
‘उसीका जल गंगाजी में मिल रहा है। दो नदियों के जलोंके संघर्षसे ही यह भारी आवाज हो रही है; जिसकी कहीं तुलना नहीं है। राम! तुम अपने मनको संयम में रखकर इस संगम के जल को प्रणाम करो’॥ १० १/२ ॥
यह सुनकर उन दोनों अत्यन्त धर्मात्मा भाइयों ने उन दोनों नदियोंको प्रणाम किया और गंगा के दक्षिण किनारे पर उतरकर वे दोनों बन्धु जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए चलने लगे॥ ११ १/२ ॥
उस समय इक्ष्वाकुनन्दन राजकुमार श्रीराम ने अपने सामने एक भयङ्कर वन देखा, जिसमें मनुष्यों के आने-जानेका कोई चिह्न नहीं था। उसे देखकर उन्होंने मुनिवर विश्वामित्र से पूछा—॥ १२ १/२ ॥
‘गुरुदेव! यह वन तो बड़ा ही अद्भुत एवं दुर्गम है। यहाँ चारों ओर झिल्लियों की झनकार सुनायी देती है। भयानक हिंसक जन्तु भरे हुए हैं। भयङ्कर बोली बोलने वाले पक्षी सब ओर फैले हुए हैं। नाना प्रकारके विहंगम भीषण स्वर में चहचहा रहे हैं॥ १३-१४ ॥
‘सिंह, व्याघ्र, सूअर और हाथी भी इस जंगल की शोभा बढ़ा रहे हैं। धव (धौरा), अश्वकर्ण (एक प्रकारके शालवृक्ष), ककुभ (अर्जुन), बेल, तिन्दुक (तेन्दू), पाटल (पाड़र) तथा बेरके वृक्षों से भरा हुआ यह भयङ्कर वन क्या है?—इसका क्या नाम है?’॥ १५ १/२ ॥
तब महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र ने उनसे कहा—‘वत्स! ककुत्स्थनन्दन! यह भयङ्कर वन जिसके अधिकारमें रहा है, उसका परिचय सुनो॥ १६ १/२ ॥
‘नरश्रेष्ठ! पूर्वकालमें यहाँ दो समृद्धिशाली जनपद थे—मलद और करूष। ये दोनों देश देवताओंके प्रयत्नसे निर्मित हुए थे॥ १७ १/२ ॥
‘राम! पहलेकी बात है, वृत्रासुरका वध करनेके पश्चात् देवराज इन्द्र मलसे लिप्त हो गये। क्षुधाने भी उन्हें धर दबाया और उनके भीतर ब्रह्महत्या प्रविष्ट हो गयी॥
‘तब देवताओं तथा तपोधन ऋषियों ने मलिन इन्द्र को यहाँ गंगाजलसे भरे हुए कलशों द्वारा नहलाया तथा उनके मल (और कारूष—क्षुधा) को छुड़ा दिया॥
इस भूभागमें देवराज इन्द्रके शरीरसे उत्पन्न हुए मल और कारूषको देकर देवतालोग बड़े प्रसन्न हुए॥
‘इन्द्र पूर्ववत् निर्मल, निष्करूष (क्षुधाहीन) एवं शुद्ध हो गये। तब उन्होंने प्रसन्न होकर इस देश को यह उत्तम वर प्रदान किया—‘ये दो जनपद लोकमें मलद और करूष नाम से विख्यात होंगे। मेरे अंगजनित मलको धारण करनेवाले ये दोनों देश बड़े समृद्धिशाली होंगे’॥
‘बुद्धिमान् इन्द्र के द्वारा की गयी उस देश की वह पूजा देखकर देवताओंने पाकशासन को बारम्बार साधुवाद दिया॥ २८ ॥
‘शत्रुदमन! मलद और करूष—ये दोनों जनपद दीर्घकालतक समृद्धिशाली, धन-धान्यसे सम्पन्न तथा सुखी रहे हैं॥ २९ ॥
‘कुछ कालके अनन्तर यहाँ इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली एक यक्षिणी आयी, जो अपने शरीर में एक हजार हाथियों का बल धारण करती है॥ ३० ॥
‘उसका नाम ताटका है। वह बुद्धिमान् सुन्द नामक दैत्यकी पत्नी है। तुम्हारा कल्याण हो। मारीच नामक राक्षस, जो इन्द्र के समान पराक्रमी है, उस ताटका का ही पुत्र है। उसकी भुजाएँ गोल, मस्तक बहुत बड़ा, मुँह फैला हुआ और शरीर विशाल है॥ ३१ ॥
‘वह भयानक आकारवाला राक्षस यहाँकी प्रजाको सदा ही त्रास पहुँचाता रहता है। रघुनन्दन! वह दुराचारिणी ताट का भी सदा मलद और करूष—इन दोनों जनपदोंका विनाश करती रहती है॥ ३२ ॥
‘वह यक्षिणी डेढ़ योजन (छ: कोस) तकके मार्गको घेरकर इस वनमें रहती है; अत: हमलोगोंको जिस ओर ताटकावन है, उधर ही चलना चाहिये। तुम अपने बाहुबलका सहारा लेकर इस दुराचारिणीको मार डालो॥ ३३ ॥
‘मेरी आज्ञासे इस देशको पुन: निष्कण्टक बना दो। यह देश ऐसा रमणीय है तो भी इस समय कोई यहाँ आ नहीं सकता है॥ ३४ ॥
‘राम! उस असह्य एवं भयानक यक्षिणीने इस देशको उजाड़ कर डाला है। यह वन ऐसा भयङ्कर क्यों है, यह सारा रहस्य मैंने तुम्हें बता दिया। उस यक्षिणीने ही इस सारे देशको उजाड़ दिया है और वह आज भी अपने उस क्रूर कर्मसे निवृत्त नहीं हुई है’॥ ३५ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें चौबीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ २४॥