वेदान्त का उद्देश्य – स्वामी विवेकानंद
“वेदान्त का उद्देश्य” नामक स्वामी विवेकानंद यह व्याख्यान “भारत में विवेकानंद” नामक पुस्तक से लिया गया है। इसमें स्वामी जी जीवन में वेदांत तथा विशेषतः अद्वैत को व्यावहारिक रूप से उपयोग में लाने का आह्वान कर रहे हैं।
स्वामी विवेकानंद के कुम्भकोणम् पधारने के अवसर पर वहाँ की हिन्दू जनता ने निम्नलिखित मानपत्र भेंट किया था:
कुंभकोणम में स्वामी विवेकानंद को भेंट किया गया मानपत्र
परमपूज्य स्वामीजी,
इस प्राचीन तथा धार्मिक नगर कुम्भकोणम् के हिन्दू निवासियों की ओर से हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं, कि आप पाश्चात्य देशों से लौटने के अवसर पर, आज हमारे इस पवित्र नगर में, जो मन्दिरों से परिपूर्ण होने तथा प्रसिद्ध महात्माओं एवं ऋषियों की जन्मभूमि होने के नाते विशेष विख्यात है, हमारा हार्दिक स्वागत स्वीकार करें। आपको अपने धार्मिक प्रचार के कार्य में जो अनुपम सफलता अमेरिका तथा यूरोप आदि देशों में प्राप्त हुई है, उसके लिए हम ईश्वर के परम कृतज्ञ हैं। साथ ही हम उसे इस बात के लिए भी धन्यवाद देते हैं कि उसकी कृपा द्वारा आपने शिकागो धर्म-महासभा में एकत्र संसार के महान् धर्मों के चुने हुए प्रतिनिधि विद्वानों के मन में यह बात बैठा दी कि हिन्दू धर्म तथा दर्शन दोनों ही इतने विशाल, उदार तथा इतने युक्तिसंगत हैं, कि उनमें ईश्वरसम्बधी समस्त सिद्धान्तों तथा समस्त आध्यात्मिक आदर्शों के समावेश और सामंजस्य की शक्ति है।
यह आस्था हमारे जीवन धर्म का हजारों वर्षों से मुख्य अंग रही है कि जगत् के प्राण तथा आत्मा-स्वरूप भगवान् के हाथों में सत्य का हित सर्वदा सुरक्षित है। और आज जब हम आपके उस पवित्र कार्य की सफलता पर हर्ष मनाते हैं, जो आपने ईसाइयों के देश में किया है, तो उसका कारण यही है कि उस सत्कार्य के द्वारा भारतवासियों तथा विदेशियों दोनों की आँखें खुल गयी हैं और उन्हें यह अन्दाज लग गया है कि धर्मप्राण हिन्दू जाति की आध्यात्मिक सम्पत्ति कितनी अनमोल है। अपने महान् कार्य में आपने जो सफलता प्राप्त की है, उससे स्वाभाविकतः आपके परमपूज्य गुरुदेव का पहले से ही विख्यात नाम अधिक आभामण्डित हो उठा है, साथ ही हम लोग भी सभ्य समाज की दृष्टि में बहुत ऊँचे उठ गये हैं और सब से बड़ी बात तो यह है कि इसके द्वारा हम भी इस बात का अनुभव करने लगे हैं कि एक जाति के नाते हमें भी अपनी अतीत सफलताओं तथा उन्नति पर गर्व करने का अधिकार है; और यह कि हममें आक्रामक वृत्ति की जो कमी है वह किसी प्रकार हमारी शिथिलता अथवा हमारे पतन का द्योतक नहीं कही जा सकती। आपके सदृश स्पष्ट दृष्टिवाले, निष्ठावान् तथा पूर्णतः निःस्वार्थ कार्यकर्ताओं को पाकर हिन्दू जाति का भविष्य निश्चय ही उज्ज्वल तथा आशाजनक है, इसमें सन्देह नहीं। समग्र जगत् का ईश्वर, जो सब जातियों का भी ईश्वर है, आपको पूर्ण स्वास्थ्य तथा दीर्घ जीवन दे और आपको निरन्तर अधिकाधिक शक्ति तथा बुद्धि प्रदान करे, जिससे आप हिन्दू दर्शन तथा धर्म के एक सुयोग्य प्रचारक एवं शिक्षक होने के नाते अपना महान् तथा श्रेष्ठ कार्य योग्यतापूर्वक कर सकें।
इसके बाद उसी नगर के हिन्दू विद्यार्थियों की ओर से भी स्वामीजी को एक मानपत्र भेंट किया गया, और उसके पश्चात् स्वामी विवेकानंद जी ने ‘वेदान्त का उद्देश्य’ नामक विषय पर निम्नलिखित भाषण दिया:
स्वामी विवेकानंद का “वेदान्त का उद्देश्य” विषयक व्याख्यान
“स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्” – अर्थात् धर्म का थोड़ा भी कार्य करने पर परिणाम बहुत बड़ा होता है। श्रीमद्भगवद्गीता की उपर्युक्त उक्ति के प्रमाण में यदि उदाहरण की आवश्यकता हो, तो अपने इस सामान्य जीवन में मैं इसकी सत्यता का नित्यप्रति अनुभव करता हूँ। मैंने जो कुछ किया है, वह बहुत ही तुच्छ और सामान्य है, तथापि कोलम्बो से लेकर इस नगर तक आने में अपने प्रति मैंने लोगों में जो ममता तथा आत्मीयतापूर्ण स्वागत की भावना देखी है, वह अप्रत्याशित है। पर साथ ही साथ मैं यह भी कहूँगा कि यह संवर्धना हमारी जाति के अतीत संस्कार और भावों के अनुरूप ही है; क्योंकि हम वही हिन्दू हैं, जिनकी जीवन-शक्ति, जिनके जीवन का मूलमन्त्र, अर्थात् जिनकी आत्मा ही धर्ममय है। प्राच्य और पाश्चात्य राष्ट्रों में घूमकर मुझे दुनिया की कुछ अभिज्ञता प्राप्त हुई और मैंने सर्वत्र सब जातियों का कोई न कोई ऐसा आदर्श देखा है, जिसे उस जाति का मेरुदण्ड कह सकते हैं। कहीं राजनीति, कहीं समाज-संस्कृति, कहीं बौद्धिक उन्नति, और इसी प्रकार कुछ न कुछ प्रत्येक के मेरुदण्ड का काम करता है। पर हमारी मातृभूमि भारत वर्ष का मेरुदण्ड धर्म – केवल धर्म ही है। धर्म ही के आधार पर, उसी की नींव पर, हमारी जाति के जीवन का प्रासाद खड़ा है। तुममें से कुछ लोगों को शायद मेरी वह बात याद होगी, जो मैंने मद्रासवासियों के द्वारा अमेरिका भेजे गये स्नेहपूर्ण मानपत्र के उत्तर में कही थी। मैंने इस तथ्य का निर्देश किया था कि भारतवर्ष के एक किसान को जितनी धार्मिक शिक्षा प्राप्त है, उतनी पाश्चात्य देशों के पढ़े-लिखे सभ्य कहलानेवाले नागरिकों को भी प्राप्त नहीं है, और आज मैं अपनी उस बात की सत्यता का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा हूँ। एक समय था, जब कि भारत की जनता की संसार के समाचारों से अनभिज्ञता और दुनिया की जानकारी हासिल करने की चाह के अभाव से मुझे कष्ट होता था, परन्तु आज मैं इसका कारण समझ रहा हूँ। भारतवासियों की अभिरुचि जिस ओर है, उस विषय की अभिज्ञता प्राप्त करने के लिए वे संसार के अन्यान्य देशों के, जहाँ मैं गया हूँ, साधारण लोगों की अपेक्षा बहुत अधिक उत्सुक रहते हैं। अपने यहाँ के किसानों से यूरोप के गुरुतर राजनीतिक परिवर्तनों के विषय में, सामाजिक उथल-पुथल के बारे में पूछो तो वे उस विषय में कुछ भी नहीं बता सकेंगे, और न उन बातों को जानने की उनमें उत्कण्ठा ही है। परन्तु भारतवासियों की कौन कहे, सीलोन के किसान भी – भारत से जिसका सम्बन्ध बहुत कुछ विच्छिन्न है और भारत से जिनका बहुत कम लगाव है – इस बात को जानते हैं कि अमेरिका में एक धर्म-महासभा हुई थी, जिसमें भारतवर्ष से कोई संन्यासी गया था और उसने वहाँ कुछ सफलता भी पायी थी।
इसी से जाना जाता है कि जिस विषय की ओर उनकी अभिरुचि है, उस विषय की जानकारी रखने के लिए वे संसार की अन्यान्य जातियों के समान ही उत्सुक रहते हैं। और वह विषय है धर्म, जो भारतवासियों की मूल अभिरुचि का एकमात्र विषय है। मैं अभी इस विषय पर विचार नहीं कर रहा हूँ कि किसी जाति की जीवन-शक्ति का राजनीतिक आदर्श पर प्रतिष्ठित होना अच्छा है अथवा धार्मिक आदर्श पर; परन्तु, अच्छा हो या बुरा, हमारी जाति की जीवन-शक्ति धर्म में ही केन्द्रीभूत है। तुम इसे बदल नहीं सकते, न तो इसे विनष्ट कर सकते हो, और न इसे हटाकर इसकी जगह दूसरी किसी चीज को ही रख सकते हो। तुम किसी विशाल उगते हुए वृक्ष को एक भूमि से दूसरी पर स्थानान्तरित नहीं कर सकते और न वह शीघ्र ही वहाँ जड़ें पकड़ सकता हैं। भला हो या बुरा, भारत में हजारों वर्ष से धार्मिक आदर्श की धारा प्रवाहित हो रही है। भला हो या बुरा, भारत का वायुमण्डल इसी धार्मिक आदर्श से बीसियों सदियों तक पूर्ण रहकर जगमगाता रहा है। भला हो या बुरा, हम इसी धार्मिक आदर्श के भीतर पैदा हुए और पले हैं – यहाँ तक कि अब वह हमारे रक्त में ही मिल गया है; हमारे रोम-रोम में वही धार्मिक आदर्श रम रहा है, वह हमारे शरीर का अंश और हमारी जीवन-शक्ति बन गया है। क्या तुम उस शक्ति की प्रतिक्रिया जागृत कराये बिना, उस वेगवती नदी के तल को, जिसे उसने हजारों वर्ष में अपने लिए तैयार किया है, भरे बिना ही धर्म का त्याग कर सकते हो? क्या तुम चाहते हो कि गंगा की धारा फिर बर्फ से ढके हुए हिमालय को लौट जाए और फिर वहाँ से नवीन धारा बनकर प्रवाहित हो? यदि ऐसा होना सम्भव भी हो, तो भी, यह कदापि सम्भव नहीं हो सकता कि यह देश अपने धर्ममय जीवन के विशिष्ट मार्ग को छोड़ सके और अपने लिए राजनीति अथवा अन्य किसी नवीन मार्ग का प्रारम्भ कर सके। जिस रास्ते में बाधाएँ कम हैं, उसी रास्ते में तुम काम कर सकते हो। और भारत के लिए धर्म का मार्ग ही स्वल्पतम बाधावाला मार्ग है। धर्म के पथ का अनुसरण करना हमारे जीवन का मार्ग है, हमारी उन्नति का मार्ग है और हमारे कल्याण का मार्ग भी यही है।
परन्तु अन्यान्य देशों में धर्म अनेक आवश्यक वस्तुओं में से केवल एक है। यहाँ पर मैं एक सामान्य उदाहरण देता हूँ जो मैं अक्सर दिया करता हूँ। एक गृहस्वामिनी के अपने वार्ताकक्ष में अनेक वस्तुएँ सज्जित रहती हैं, और आजकल के फैशन के अनुसार एक जापानी कलश रहना आवश्यक है, अतः वह उसे जरूर प्राप्त करेगी, क्योंकि उसके बिना कमरे की सजावट पूरी नहीं होती। इसी तरह हमारे गृहस्वामी या स्वामिनी की अनेक प्रकार की सांसारिक व्यस्तताएँ हैं, इनके साथ कुछ धर्म भी चाहिए, नहीं तो जीवन अधूरा रह जाता है। इसीलिए वे थोड़ी बहुत धर्मचर्चा करते हैं। राजनीतिक, सामाजिक उन्नति अथवा एक शब्द में, यह संसार ही पाश्चात्य देशवासियों के जीवन का एकमात्र ध्येय और उद्देश्य है। ईश्वर और धर्म तो केवल उनके सांसारिक सुख के ही साधन-स्वरूप हैं। उनका ईश्वर एक ऐसा जीव है, जो उनके लिए दुनिया को साफ-सुथरा रखता है और साधन-सम्पन्न बनाता है। प्रत्यक्षतः उनकी दृष्टि में ईश्वर का इतना ही मूल्य है। क्या तुम नहीं जानते कि इधर सौ दो सौ वर्षों से तुम बारम्बार उन लोगों के मुख से कैसी कैसी बातें सुनते रहे हो, जो अज्ञ होकर भी ज्ञान का प्रदर्शन करते हैं? वे भारतीय धर्म के विरुद्ध जो युक्तियाँ पेश करते हैं, वे यही हैं कि हमारा धर्म सांसारिक उन्नति करने की शिक्षा नहीं देता, हमारे धर्म से धन की प्राप्ति नहीं होती, हमारा धर्म हमें देशों का लुटेरा नहीं बनाता, हमारा धर्म बलवानों को दुर्बलों की छाती पर मूँग दलने की शिक्षा नहीं देता और न हमें बलवान् बनाकर दुर्बलों का खून चूसने की शक्ति प्रदान करता है। सचमुच हमारा धर्म यह सब काम नहीं करता। हमारा धर्म ऐसी सेना नहीं भेजता, जिसके पैरों के नीचे धरती काँपती है, और जो संसार में रक्तपात, लूटमार और अन्य जातियों का सर्वनाश करने में ही अपना गौरव मानती है। इसीलिए वे कहते हैं, ‘तो फिर तुम्हारे धर्म में है क्या? जब इससे उदर-दरी की पूर्ति नहीं हो सकती, शक्ति-सामर्थ्य की वृद्धि नहीं होती, तब फिर ऐसे धर्म में रखा ही क्या है?’
वे स्वप्न में भी इस बात की कल्पना नहीं करते कि यही वह युक्ति है जिसके द्वारा हमारे धर्म की श्रेष्ठता प्रमाणित होती है, क्योंकि हमारा धर्म पार्थिवता पर आश्रित नहीं है। हमारा धर्म तो इसलिए सच्चा धर्म है कि यह सभी को इस दो दिन के क्षुद्र इन्द्रियाश्रित सीमित संसार को ही अपना अभीष्ट और उद्दिष्ट मानने से मना करता है और इसी को हमारा सर्वोच्च ध्येय नहीं बताता। इस पृथ्वी का यह क्षुद्र क्षितिज, जो केवल कुछ एक हाथ ही विस्तृत है, हमारे धर्म की दृष्टि को सीमित नहीं कर सकता। हमारा धर्म दूर तक, बहुत दूर तक फैला हुआ है; वह इन्द्रियों की सीमा से भी आगे तक फैला है; वह देश और काल के भी परे है। वह दूर, और दूर विस्तृत होता हुआ उस सीमातीत स्थिति में पहुँचता है जहाँ इस भौतिक जगत् का कुछ भी शेष नहीं रहता और सारा विश्व-ब्रह्माण्ड ही आत्मा के दिगन्तव्यापी महामहिम अनन्त सागर की एक बूँद के समान दिखाई देता है। वह हमें यह सिखाता है कि एकमात्र ईश्वर ही सत्य हैं; संसार असत्य और क्षणभंगुर है; तुम्हारा सोने का ढेर खाक के ढेर जैसा है, तुम्हारी सारी शक्तियाँ परिमित और सीमाबद्ध हैं; बल्कि तुम्हारा यह जीवन भी निःसार है। यही कारण है कि हमारा धर्म ही सच्चा है। हमारा धर्म इसलिए भी सत्य है कि उसकी सर्वोच्च शिक्षा है त्याग; और युगों के अनुभव से प्राप्त अपने अगाध विज्ञान और प्रज्ञा को लेकर यह सिर ऊँचा करके खड़ा होता और उन जातियों के सामने, जो हम हिन्दुओं की तुलना में अभी दुधमुँहे बच्चे के बराबर है, ललकारकर घोषणा करता हुआ कहता है, ‘बच्चो! तुम इन्द्रिय-जनित सुखों के गुलाम हो। ये सुख सीमाबद्ध हैं, बरबादी के कारण हैं, ये तीन दिन के भोग-विलास अन्त में बरबादी ही लाते हैं। इस सब को छोड़ दो, भोग-विलास की लालसा को त्याग दो, संसार की माया में न लिपटो। यही धर्म का मार्ग है।’ त्याग के द्वारा ही तुम अपने अभीष्ट तक पहुँच सकते हो, भोग-विलास के द्वारा नहीं। इसीलिए हमारा धर्म ही सच्चा धर्म है।
हाँ, यह बड़े ही मार्के की बात है कि एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा, इस तरह कितने ही राष्ट्र दुनिया के रंगमंच पर आये और कुछ दिनों तक बड़े जोशोखरोश के साथ अपना नाट्य दिखाकर बिना एक भी चिह्न अथवा एक भी लहर छोड़े काल के अनन्त सागर में विलीन हो गये। और हम यहाँ इस तरह से जीवित हैं, मानो हमारा जीवन अनन्त है। पाश्चात्य देशवाले ‘बलिष्ठ की अतिजीविता’ (Survival of the fittest) के नये सिद्धान्तों के विषय में बड़ी लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं। और वे सोचते हैं कि जिसकी भुजाओं में सब से अधिक बल है, वही सब से अधिक काल तक जीवित रहेगा। यदि यह बात सच होती, तो पुरानी दुनिया की कोई वैसी ही जाति, जिसने अपने भुजबल से कितने ही देशों पर विजय पायी थी, आज अपने अप्रतिहत गौरव से संसार में जगमगाती हुई दिखाई देती और हमारी कमजोर हिन्दू जाति, जिसने कभी किसी जाति या राष्ट्र को पराजित नहीं किया है, आज पृथ्वी से विलुप्त हो गयी होती। पर अब भी हम तीस करोड़ हिन्दू जीवित हैं। (एक दिन एक अंग्रेज युवती ने मुझसे कहा कि हिन्दुओं ने किया क्या है? उन्होंने तो एक भी देश पर विजय नहीं पायी है!) फिर इस बात में तनिक भी सत्यता नहीं है कि हमारी सारी शक्तियाँ खर्च हो गयी हैं, हमारा शरीर बिलकुल अकर्मण्य हो गया है यह बिलकुल गलत बात है। हमारे अन्दर अभी भी यथेष्ट जीवन-शक्ति विद्यमान है, जो कभी उचित समय पर आवश्यकतानुसार प्रवेग से निकलकर सारे संसार को आप्लावित कर देती है।
हमने मानो बहुत ही पुराने जमाने से सारे संसार को एक समस्यापूर्ति के लिए ललकारा है। पाश्चात्य देशवाले वहाँ इस बात की चेष्टा कर रहे हैं कि मनुष्य अधिक से अधिक कितना वैभव संग्रह कर सकता है, और यहाँ हम लोग इस बात की चेष्टा करते हैं कि कम से कम कितने में हमारा काम चल सकता है। यह द्वन्द्वयुद्ध और यह पार्थक्य अभी सदियों तक जारी रहेगा। परन्तु, यदि इतिहास में कुछ भी सत्यता है और वर्तमान लक्षणों से भविष्य का कुछ आभास दिखाई देता है, तो अन्त में उन्हीं की विजय होगी जो बहुत ही कम द्रव्यों पर निर्भर रहते हुए जीवन व्यतीत करने और अच्छी तरह से आत्मसंयम का अभ्यास करने की चेष्टा करते हैं; और जो भोग-विलास तथा ऐश्वर्य के उपासक है, वे वर्तमान में कितने ही बलशाली क्यों न हों, अन्त में अवश्य ही विनष्ट होंगे तथा संसार से विलुप्त हो जाएँगे। मनुष्य मात्र के जीवन में एक ऐसा समय आता है – नहीं, प्रत्येक राष्ट्र के इतिहास में एक ऐसा समय आता है, जब संसार के प्रति एक प्रकार की वितृष्णा आ जाती है, जो अत्यन्त प्रबल तथा पीड़ाजनक प्रतीत होती है। ऐसा जान पड़ता है कि पाश्चात्य देशों में यह संसार-विरक्ति का भाव फैलना आरम्भ हो गया है। वहाँ भी विचारशील, विवेकशील महान व्यक्ति है जो धन और बाहुबल की इस घुड़दौड़ को बिलकुल मिथ्या समझने लगे हैं। बहुतेरे प्रायः वहाँ के अधिकतर शिक्षित स्त्री-पुरुष, अब इस होड़ से, इस प्रतिद्वन्द्विता से ऊब गये हैं; वे अपनी इस व्यापार-वाणिज्यप्रधान सभ्यता की पाशविकता से तंग आ गये हैं, और इससे अच्छी परिस्थिति में पहुँचना चाहते हैं। परन्तु वहाँ ऐसे मनुष्यों की भी एक श्रेणी है, जो अब भी राजनीतिक और सामाजिक उन्नति को पाश्चात्य देशों की सारी बुराइयों के लिए रामबाण समझकर उससे सटे रहना चाहते हैं। पर वहाँ जो महान् विचारशील व्यक्ति हैं, उनकी धारणा बदल रही है, उनका आदर्श परिवर्तित हो रहा है। वे अच्छी तरह समझ गये हैं कि चाहे जैसी भी राजनीतिक या सामाजिक उन्नति क्यों न हो जाए, उससे मनुष्य-जीवन की बुराइयाँ दूर नहीं हो सकती। उन्नततर जीवन के लिए आमूल हृदय-परिवर्तन की आवश्यकता है; केवल इसी से मानव-जीवन का सुधार सम्भव है। चाहे जैसी बड़ी से बड़ी शक्ति का प्रयोग किया जाए, और चाहे कड़े से कड़े कायदे-कानून का आविष्कार ही क्यों न किया जाए, पर इससे किसी जाति की दशा बदली नहीं जा सकती। समाज या जाति की असद्वृत्तियों को सद्वृत्तियों की ओर फेरने की शक्ति तो केवल आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति में ही है। इस प्रकार पश्चिम की जातियाँ किसी नये विचार के लिए, किसी नवीन दर्शन के लिए उत्कण्ठित और व्यग्र सी हो रही हैं। उनका ईसाई धर्म यद्यपि कई अंशों में बहुत अच्छा है, पर वहाँ वालों ने सम्यक् रूप से उसे समझा नहीं है, और अब तक जितना समझा है वह उन्हें पर्याप्त नहीं दिखाई देता। वहाँ के विचारशील मनुष्यों को हमारे यहाँ के प्राचीन दर्शनों में, विशेषतः वेदान्त में वह नयी विचार-प्रणाली मिली है, जिसकी वे खोज में रहे हैं और वह आध्यात्मिक खाद्य मिला है जिसकी भूख से वे व्याकुल से रहे हैं। और ऐसा होने में कुछ अनोखापन या आश्चर्य नहीं है।
संसार में जितने भी धर्म हैं, उनमें से प्रत्येक की श्रेष्ठता स्थापित करने के अनोखे अनोखे दावे सुनने का मुझे अभ्यास हो गया है। तुमने भी शायद हाल में मेरे एक बड़े मित्र डॉक्टर बैरोज द्वारा पेश किये गये दावे के विषय में सुना होगा कि ईसाई धर्म ही एक ऐसा धर्म है, जिसे सार्वजनीन कह सकते हैं। मैं अब इस प्रश्न की मीमांसा करूँगा और तुम्हारे सम्मुख उन तर्कों को प्रस्तुत करूँगा जिनके कारण मैं वेदान्त – सिर्फ वेदान्त को ही सार्वजनीन मानता हूँ। वेदान्त के सिवा कोई अन्य धर्म सार्वजनीन नहीं कहला सकता। हमारे वेदान्त धर्म के सिवा दुनिया के रंगमंच पर जितने भी अन्यान्य धर्म हैं, वे उनके संस्थापकों के जीवन के साथ सम्पूर्णतः संश्लिष्ट और सम्बद्ध है। उनके सिद्धान्त, उनकी शिक्षाएँ, उनके मत और उनका आचार-शास्त्र जो कुछ है, सब किसी न किसी व्यक्तिविशेष या धर्म-संस्थापक के जीवन के आधार पर ही खड़े हैं और उसी से वे अपने आदेश, प्रमाण और शक्ति ग्रहण करते हैं। और आश्चर्य तो यह है कि उसी अधिष्ठाताविशेष के जीवन की ऐतिहासिकता पर ही उन धर्मों की सारी नींव प्रतिष्ठित है। यदि किसी तरह उसके जीवन की ऐतिहासिकता पर आघात लगे, और उसकी नींव हिल जाए या ध्वस्त हो जाए तो उस पर खड़ा धर्म का सम्पूर्ण भवन भरभराकर गिर पड़ता है और सदा के लिए अपना अस्तित्व खो देता है। और वर्तमान युग में प्रायः ऐसा ही देखने में आता है कि बहुधा सभी धर्मसंस्थापकों और अधिष्ठाताओं की जीवनी के आधे भाग पर तो विश्वास किया ही नहीं जाता; बाकी बचे आधे हिस्से पर भी सन्दिग्ध दृष्टि से देखा जाता है।
हमारे धर्म के सिवा संसार में अन्य जितने बड़े धर्म हैं, सभी ऐसे ही ऐतिहासिक जीवनियों के आधार पर खड़े हैं। परन्तु हमारा धर्म कुछ तत्त्वों की नींव पर खड़ा है। पृथ्वी में कोई भी व्यक्ति – स्त्री हो अथवा पुरुष – वेदों के निर्माण करने का दम नहीं भर सकता। अनन्तकाल-स्थायी सिद्धान्तों द्वारा इनका निर्माण हुआ है, ऋषियों ने इन सिद्धान्तों का पता लगाया है, और कहीं कहीं प्रसंगानुसार उन ऋषियों के नाममात्र आये हैं। हम यह भी नहीं जानते कि वे ऋषि कौन थे और क्या थे? कितने ही ऋषियों के पिता का नाम तक नहीं मालूम होता, और इसका तो कहीं जिक्र भी नहीं आया है कि कौन ऋषि कब और कहाँ पैदा हुए हैं? पर इन ऋषियों को अपने नाम-धाम की परवाह क्या थी? वे सनातन तत्त्वों के प्रचारक थे, उन्होंने अपने जीवन को ठीक वैसे ही साँचे में ढाल रखा था जैसे मत या सिद्धान्त का वे प्रचार किया करते थे। फिर जिस प्रकार हमारे ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों हैं, ठीक उसी प्रकार धर्म भी पूर्णतः निर्गुण है – अर्थात् किसी व्यक्तिविशेष के ऊपर हमारा धर्म निर्भर नहीं करता, तो भी इसमें असंख्य अवतार और महापुरुष स्थान पा सकते हैं। हमारे धर्म में जितने अवतार, महापुरुष और ऋषि हैं उतने और किस धर्म में हैं? इतना ही नहीं, हमारा धर्म यहाँ तक कहता है कि वर्तमान समय तथा भविष्य में और भी बहुतेरे महापुरुष और अवतारादि आविर्भूत होंगे। श्रीमद्भागवत में कहा है : “अवताराः ह्यसंख्येयाः।” अतएव हमारे धर्म में नये नये धर्मप्रवर्तकों के आने के मार्ग में कोई रुकावट नहीं। इसीलिए भारतवर्ष के धार्मिक इतिहास में यदि कोई एक व्यक्ति या अधिक व्यक्तियों, एक या अधिक अवतारी महापुरुषों अथवा हमारे एक या अधिक पैगम्बरों की ऐतिहासिकता अप्रमाणित हो जाए, तो भी हमारे धर्म पर किसी प्रकार का आघात नहीं लग सकता। वह पहले की ही तरह अटल और दृढ़ रहेगा; क्योंकि यह धर्म किसी व्यक्ति विशेष के ऊपर अधिष्ठित न होकर केवल चिरन्तन तत्त्वों के ऊपर ही अधिष्ठित है। संसार भर के लोगों से किसी व्यक्तिविशेष की महत्ता बलपूर्वक स्वीकार कराने की चेष्टा वृथा है – यहाँ तक कि सनातन और सार्वभौम तत्त्वसमूह के विषय में भी बहुसंख्यक मनुष्यों को एकमतावलम्बी बनाना भी बड़ा कठिन काम है। अगर कभी संसार के अधिकांश मनुष्यों को धर्म के विषय में एकमतावलम्बी बनाना सम्भव है तो वह किसी व्यक्तिविशेष की महत्ता स्वीकार कराने से नहीं हो सकता; वरन् सनातन सत्य सिद्धान्तों के ऊपर विश्वास कराने से ही हो सकता है। फिर भी हमारा धर्म विशेष व्यक्तियों की प्रामाणिकता या प्रभाव को पूर्णतया स्वीकार कर लेता है – जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ। हमारे देश में ‘इष्टनिष्ठा’रूपी जो अपूर्व सिद्धान्त प्रचलित है, उसके अनुसार इन महान् धार्मिक व्यक्तियों में से किसी को भी अपना इष्ट देवता मानने की पूरी स्वाधीनता दी जाती है। तुम चाहे जिस अवतार या आचार्य को अपने जीवन का आदर्श बनाकर विशेष रूप से उपासना करना चाहो, कर सकते हो। यहाँ तक कि तुमको यह सोचने की भी स्वाधीनता है कि जिसको तुमने स्वीकार किया है, वह सब पैगम्बरों में महान् है और सब अवतारों में श्रेष्ठ है, इसमें कोई आपत्ति नहीं है; परन्तु सनातन तत्त्वसमूह पर ही तुम्हारे धर्मसाधन की नींव होनी चाहिए। यहाँ अद्भुत तथ्य यह है कि जहाँ तक वे वैदिक सनातन सत्य सिद्धान्तों के ज्वलन्त उदाहरण हैं, वहीं तक हमारे अवतार मान्य हैं। भगवान् श्रीकृष्ण का माहात्म्य यही है, कि वे भारत में इसी तत्त्ववादी सनातन धर्म के सर्वश्रेष्ठ प्रचारक और वेदान्त के सर्वोत्कृष्ट व्याखाता हुए हैं।
संसार भर के लोगों को वेदान्त के विषय में ध्यान देने का दूसरा कारण यह है कि संसार के समस्त धर्मग्रन्थों में एकमात्र वेदान्त ही ऐसा एक धर्मग्रन्थ है जिसकी शिक्षाओं के साथ बाह्य प्रकृति के वैज्ञानिक अनुसन्धान से प्राप्त परिणामों का सम्पूर्ण सामंजस्य है। अत्यन्त प्राचीन समय में समान आकार-प्रकार, समान वंश और सदृश भावों से पूर्ण दो विभिन्न मेधाएँ भिन्न भिन्न मार्गों से संसार के तत्त्वों का अनुसन्धान करने को प्रवृत्त हुईं। एक प्राचीन हिन्दू मेधा है और दूसरी प्राचीन यूनानी मेधा। यूनानी जाति के लोग बाह्य जगत् का विश्लेषण करते हुए उसी अन्तिम लक्ष्य की ओर अग्रसर हुए थे, जिस ओर हिन्दू भी अन्तर्जगत् का विश्लेषण करते हुए आगे बढ़े। इन दोनों जातियों की इस विश्लेषण-क्रिया के इतिहास की विभिन्न अवस्थाओं की आलोचना करने पर मालूम होता है कि दोनों ने उस सुदूर चरम लक्ष्य पर पहुँचकर एक ही प्रकार की प्रतिध्वनि की है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि आधुनिक भौतिक विज्ञान के सिद्धान्तसमूह को केवल वेदान्ती ही, जो हिन्दू कहे जाते हैं, अपने धर्म के साथ सामंजस्यपूर्वक ग्रहण कर सकते हैं। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वर्तमान भौतिकवाद अपने सिद्धान्तों को छोड़े बिना यदि केवल वेदान्त के सिद्धान्त को ग्रहण कर ले, तो वह आप ही आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हो सकता है। हमें और उन सब को जो जानने की चेष्टा करते हैं, यह स्पष्ट दिखाई देता है कि आधुनिक भौतिकविज्ञान उन्हीं निष्कर्षों तक पहुँचा है जिन तक वेदान्त युगों पहले पहुँच चुका था। अन्तर केवल इतना ही है कि आधुनिक विज्ञान में ये सिद्धान्त जड़ शक्ति की भाषा में लिखे गये हैं। वर्तमान पाश्चात्य जातियों के लिए वेदान्त की चर्चा करने का और एक कारण है वेदान्त की युक्तिसिद्धता अर्थात् आश्चर्यजनक युक्तिवाद। पाश्चात्य देशों के कई बड़े बड़े वैज्ञानिकों ने मुझसे स्वयं वेदान्त के सिद्धान्तों की युक्तिपूर्णता की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। इनमें से एक वैज्ञानिक महाशय के साथ मेरा विशेष परिचय है। वे अपनी वैज्ञानिक गवेषणाओं में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें स्थिरता के साथ खाने-पीने या कहीं घूमने-फिरने की भी फुरसत नहीं रहती, परन्तु जब कभी मैं वेदान्तसम्बन्धी विषयों पर व्याख्यान देता, तब वे घण्टों मुग्ध रहकर सुना करते थे। क्योंकि उनके कथनानुसार ‘वेदान्त की सब बातें अत्यन्त विज्ञानसम्मत हैं, वर्तमान वैज्ञानिक युग की आकांक्षाओं को वे बड़ी सुन्दरता के साथ पूर्ण करती हैं, और आधुनिक विज्ञान बड़े बड़े अनुसन्धानों के बाद जिन सिद्धान्तों पर पहुँचता है, उनसे इनका बहुत सामंजस्य है।’
विभिन्न धर्मों की तुलनात्मक समालोचना करने पर हमें उसमें से जो दो वैज्ञानिक सिद्धान्त प्राप्त होते हैं, मैं उनकी ओर तुम लोगों का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। पहला धर्मों की सार्वभौम भावना और दूसरा संसार की वस्तुओं की अभिन्नता पर आधारित है। बैबिलोनियनों और यहूदियों के धार्मिक इतिहास में हमें एक बड़ी दिलचस्प विशेषता दिखाई देती है। बैबिलोनियनों और यहूदियों में बहुतसी छोटी छोटी शाखाओं के पृथक् पृथक् देवता थे। इन सारे अलग अलग देवताओं का एक साधारण नाम भी था। बैबिलोनियनों में इन देवताओं का साधारण नाम था – ‘बाल’। उनमें ‘बाल मेरोडक’ सब से प्रधान देवता माने जाते थे। समय समय पर एक उपजातिवाले उसी जाति के अन्यान्य उपजातिवालों को जीतकर अपने में मिला लेते थे। जो उपजातिवाले जितने समय तक औरों पर अधिकार किये रहते थे उनके देवता भी उतने समय तक औरों के देवताओं से श्रेष्ठ माने जाते थे। वहाँ की ‘सेमाईट’ जाति के लोग तथाकथित एकेश्वरवाद के जिस सिद्धान्त के कारण अपना गौरव समझते हैं, वह इसी प्रकार बना है। यहूदियों के सारे देवताओं का साधारण नाम ‘मोलोक’ था। इनमें से इसरायल जातिवालों के देवता का नाम था ‘मोलोक याह्वे’ या ‘मोलोक याव’। इसी इसरायल उपजाति ने अपने समकक्षी कई अन्यान्य उपजातियों को जीतकर अपने देवता ‘मोलोक याह्वे’ को औरों के देवताओं से श्रेष्ठ होने की घोषणा की। इस प्रकार के धर्मयुद्धों में कितनी खूनखराबी, अत्याचार तथा बर्बरता हुई है, यह बात शायद तुम लोगों में बहुतों को मालूम होगी। कुछ काल बाद बैबिलोनियनों ने यहूदियों के इस ‘मोलोक याह्वे’ की प्रधानता का लोप करने की चेष्टा की थी, पर इस चेष्टा में वे कृतकार्य नहीं हुए।
मैं समझता हूँ कि भारत की सीमाओं में भी पृथक् पृथक् उपजातियों में धर्मसम्बन्धी प्रधानता पाने की चेष्टा हुई थी। और सम्भवतः भारतवर्ष में भी प्राचीन आर्य जाति की विभिन्न शाखाओं ने परस्पर अपने अपने देवता की प्रधानता स्थापित करने की चेष्टा की थी। परन्तु भारत का इतिहास दूसरे प्रकार होना था, उसे यहूदियों के इतिहास की तरह नहीं होना था। समस्त देशों में भारत को ही सहिष्णुता और आध्यात्मिकता का देश होना था और इसीलिए यहाँ की विभिन्न उपजातियों या सम्प्रदायों में अपने देवता की प्रधानता का झगड़ा दीर्घकाल तक नहीं चल सका। जिस समय का हाल बताने में इतिहास असमर्थ है, यहाँ तक कि परम्परा भी जिसका कुछ आभास नहीं दे सकती है, उस अति प्राचीन युग में भारत में एक महापुरुष प्रकट हुए और उन्होंने घोषित किया, “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” – अर्थात् वास्तव में संसार में एक ही वस्तु (ईश्वर) है; ज्ञानी लोग उसी एक वस्तु का नाना रूपों में वर्णन करते हैं। ऐसी चिरस्मरणीय पवित्र वाणी संसार में कभी और कहीं उच्चारित नहीं हुई थी; ऐसा महान् सत्य इसके पहले कभी आविष्कृत नहीं हुआ था। और यही महान् सत्य हमारे हिन्दू राष्ट्र के राष्ट्रीय जीवन का मेरुदण्डस्वरूप हो गया है। सैकड़ों सदियों तक “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” – इस तत्त्व का हमारे यहाँ प्रचार होते होते हमारा राष्ट्रीय जीवन उससे ओतप्रोत हो गया है। यह सत्य सिद्धान्त हमारे खून के साथ मिल गया है और वह जीवन के साथ एक हो गया है। हम लोक इस महान् सत्य को बहुत पसन्द करते हैं, इसी से हमारा देश धर्मसहिष्णुता का एक उज्ज्वल दृष्टान्त बन गया है! यहाँ और केवल यहीं, लोग अपने धर्म के विद्वेषियों के लिए, परधर्मावलम्बी लोगों के लिए – उपासना-गृह और गिरजे आदि बनवा देते हैं। समग्र संसार हमसे इस धर्मसहिष्णुता की शिक्षा ग्रहण करने के इन्तजार में बैठा हुआ है। हाँ, तुम लोग शायद नहीं जानते कि विदेशों में कितना परधर्म-विद्वेष है। विदेशों में कई जगह तो मैंने लोगों में दूसरों के धर्म के प्रति ऐसा घोर विद्वेष देखा कि उनके आचरण से मुझे जान पड़ा कि यदि ये मुझे मार डालते तो भी आश्चर्य नहीं। धर्म के लिए किसी मनुष्य की हत्या कर डालना पाश्चात्य देशवासियों के लिए इतनी मामूली बात है कि आज नहीं तो कल गर्वित पाश्चात्य सभ्यता के केन्द्रस्थल में ऐसी घटना हो सकती है। अगर कोई पाश्चात्य देशवासी हिम्मत बाँधकर अपने देश के प्रचलित धर्ममत के विरुद्ध कुछ कहे तो उसे समाजबहिष्कार का भयानकतम रूप स्वीकार करना पड़ेगा। यहाँ वे हमारे जातिभेद के सम्बन्ध में सहज भाव से बकवादी आलोचना करते दिखाई देते हैं, परन्तु मेरी तरह यदि तुम लोग भी कुछ दिनों के लिए पाश्चात्य देशों में जाकर रहो, तो तुम देखोगे कि वहाँ के कुछ बड़े बड़े आचार्य भी, जिनका नाम तुम सुना करते हो, निरे कापुरुष हैं और धर्म के सम्बन्ध में जिन बातों को सत्य समझकर विश्वास करते हैं, जनमत के भय से वे उनका शतांश भी कह नहीं सकते।
इसीलिए संसार धर्मसहिष्णुता के महान् सार्वभौम सिद्धान्त को सीखने की प्रतीक्षा कर रहा है। आधुनिक सभ्यता के अन्दर यह भाव प्रवेश करने पर उसका विशेष कल्याण होगा। वास्तव में उस भाव का समावेश हुए बिना कोई भी सभ्यता स्थायी नहीं हो सकती। जब तक धर्मोन्माद, खून-खराबा और पाशविक अत्याचारों का अन्त नहीं होता तब तक किसी सभ्यता का विकास ही नहीं हो सकता। जब तक हम लोग एक दूसरे के साथ सद्भाव रखना नहीं सीखते, तब तक कोई भी सभ्यता सिर नहीं उठा सकती! और इस पारस्परिक सद्भाववृद्धि की पहली सीढ़ी है – एक दूसरे के धार्मिक विश्वास के प्रति सहानुभूति प्रकट करना। केवल यही नहीं, वास्तव में हृदय के अन्दर यह भाव जमाने के लिए केवल मित्रता या सद्भाव से ही काम नहीं चलेगा, वरन् हमारे धार्मिक भावों तथा विश्वासों में चाहे जितना ही अन्तर क्यों न हो, हमें परस्पर एक दूसरे की सहायता करनी होगी। हम लोग भारतवर्ष में यही किया करते हैं, यही मैंने तुम लोगों से अभी कहा है। इसी भारतवर्ष में हिन्दुओं ने ईसाइयों के लिए गिरजे और मुसलमानों के लिए मसजिदें बनवायी हैं और अब भी बनवा रहे हैं। ऐसा ही करना पड़ेगा। वे हमें चाहे जितनी घृणा की दृष्टि से देखें, चाहे जितनी पशुता दिखाएँ, चाहे जितनी निष्ठुरता दिखाएँ, अथवा अत्याचार करें और हमारे प्रति चाहे जैसी कुत्सित भाषा का प्रयोग करें, पर हम ईसाइयों के लिए गिरजे और मुसलमानों के लिए मसजिदें बनवाना नहीं छोड़ेंगे। हम तब तक यह काम बन्द न करें, जब तक हम अपने प्रेमबल से उन पर विजय न प्राप्त कर लें, जब तक हम संसार के सम्मुख यह प्रमाणित न कर दें कि घृणा और विद्वेष की अपेक्षा प्रेम के द्वारा ही राष्ट्रीय जीवन स्थायी हो सकता है। केवल पशुत्व और शारीरिक शक्ति विजय नहीं प्राप्त कर सकती, क्षमा और नम्रता ही संसारसंग्राम में विजय दिला सकती है।
हमें संसार को – यूरोप के ही नहीं वरन् सारे संसार के विचारशील मनुष्यों को – एक और महान् तत्त्व की शिक्षा देनी होगी। समग्र संसार का आध्यात्मिक एकत्वरूपी यह महान् सनातन तत्त्व सम्भवतः ऊँची जातियों की अपेक्षा छोटी जातियों के लिए, शिक्षितों की अपेक्षा अशिक्षित मूक जनता के लिए और बलवानों की अपेक्षा दुर्बलों के लिए ही अधिक आवश्यक है। मद्रास विश्वविद्यालय के शिक्षित सज्जनों को विस्तारपूर्वक यह बताना नहीं पड़ेगा कि यूरोप की वर्तमान वैज्ञानिक अनुसन्धान-प्रणाली किस तरह भौतिक दृष्टि से सारे जगत का एकत्व सिद्ध कर रही है। भौतिक दृष्टि से भी हम, तुम, सूर्य, चन्द्र और सितारे इत्यादि सब अनन्त जड़-समुद्र की छोटी छोटी तरंगों के समान हैं। इधर सैकड़ों सदियों पहले भारतीय मनोविज्ञान ने जड़विज्ञान की तरह यह प्रमाणित कर दिया है कि शरीर और मन दोनों ही समष्टि रूप में जड़समुद्र की क्षुद्र तरंगें हैं, फिर एक कदम आगे बढ़कर वेदान्त में दिखाया गया है कि जगत् के इस एकत्वभाव के पीछे जो आत्मा है, वह भी एक ही है। समस्त ब्रह्माण्ड में केवल एक आत्मा ही विद्यमान है – सब कुछ एक उसी की सत्ता है। विश्वब्रह्माण्ड की जड़ में वास्तव में एकत्व है, इस महान् सत्य को सुनकर बहुतेरे लोग डर जाते हैं। दूसरे देशों की बात दूर रही, इस देश में भी इस सिद्धान्त के माननेवालों की अपेक्षा इसके विरोधियों की संख्या ही अधिक है। तो भी तुम लोगों से मेरा कहना है कि यदि संसार हमसे कोई तत्त्व ग्रहण करना चाहता है और भारत की मूक जनता अपनी उन्नति के लिए कोई तत्त्व चाहती है तो वह यही जीवनदायी तत्त्व है। क्योंकि कोई भी हमारी इस मातृभूमि का पुनरुत्थान अद्वैतवाद को व्यावहारिक और कारगर तरीके से कार्यरूप में परिणत किये बिना नहीं कर सकता।
युक्तिवादी पाश्चात्य जाति अपने यहाँ के सारे दर्शनों और आचारशास्त्रों का मुख्य प्रयोजन खोजने की प्राणपण से चेष्टा कर रही है। पर तुम सब भलीभाँति जानते हो कि कोई व्यक्तिविशेष, चाहे वह कितना भी महान् देवोपम क्यों न हो – जब वह जन्म-मरण के अधीन है, तो उसके द्वारा अनुमोदित होने से ही किसी धर्म या आचारशास्त्र की प्रामाणिकता नहीं मानी जा सकती। दर्शन या नीति के विषय में यदि केवल यही एकमात्र प्रमाण पेश किया जाए, तो संसार के उच्च कोटि के चिन्तनशील लोगों को वह प्रमाण स्वीकृत नहीं हो सकता। वे किसी व्यक्तिविशेष द्वारा अनुमोदित होने को प्रामाणिकता नहीं मान सकते, पर वे उसी दार्शनिक या नैतिक सिद्धान्त को मानने के लिए तैयार हैं, जो सनातन तत्त्वों के आधार पर खड़ा हो। आचार शास्त्र की नींव जो सनातन आत्मतत्त्व के सिवा और क्या हो सकती है? यही एक ऐसा सत्य और अनन्त तत्त्व है जो तुममें, हममें और हम सब की आत्माओं में विद्यमान है। आत्मा का अनन्त एकत्व ही सब तरह के आचरण की नींव है। हममें और तुममें केवल ‘भाई-भाई’ का ही सम्बन्ध नहीं है – मनुष्यजाति को दासता के बन्धन से मुक्त करने की चेष्टा से जितने भी ग्रन्थ लिखे गये हैं, उन सब में मनुष्य के इस परस्पर ‘भाई-भाई’ के सम्बन्ध का उल्लेख है – परन्तु वास्तविक बात तो यह है कि तुम और हम बिलकुल एक हैं। भारतीय दर्शन का यही आदेश है। सब तरह के आचारशास्त्र और धर्मविज्ञान का एकमात्र तार्किक आधार यही है।
जिस प्रकार पैरों तले कुचले हुए हमारे जनसमूह को, उसी प्रकार यूरोप के लोगों को भी इस सिद्धान्त की चाह है। सच तो यह है कि इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रान्स और अमेरिका में जिस तरीके से राजनीतिक और सामाजिक उन्नति की चेष्टा की जा रही है, उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उसकी जड़ में – यद्यपि वे इसे नहीं जानते – यही महान् तत्त्व मौजूद है। और भाइयो! तुम यह भी देख पाओगे कि साहित्य में जहाँ मनुष्य की मुक्ति – विश्व की मुक्ति प्राप्त करने की चेष्टा की चर्चा की गयी है, वहीं भारतीय वेदान्ती सिद्धान्त भी परिस्फुटित होते हैं। कहीं कहीं लेखकों को अपने भावों के मूल प्रेरणा-स्रोत का पता नहीं है। फिर कहीं कहीं प्रतीत होता है कि कुछ लेखकों ने अपनी मौलिकता प्रकट करने की चेष्टा की है। और कुछ ऐसे साहसी और कृतज्ञहृदय लेखक भी हैं, जिन्होंने स्पष्ट शब्दों में अपने प्रेरणा-स्रोत का उल्लेख किया है और उनके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त की है।
जब मैं अमेरिका में था, तब कई बार लोगों ने मेरे ऊपर यह अभियोग लगाया था कि मैं द्वैतवाद पर विशेष जोर नहीं देता, बल्कि केवल अद्वैतवाद का ही प्रचार किया करता हूँ। द्वैतवाद के प्रेम, भक्ति और उपासना में कैसा अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है, यह मैं जानता हूँ। उसकी अपूर्व महिमा को मैं भलीभाँति समझता हूँ। परन्तु भाइयो! हमारे आनन्दपुलकित होकर आँखों से प्रेमाश्रु बरसाने का अब समय नहीं है। हमने बहुत बहुत आँसू बहाये हैं। अब हमारे कोमल भाव धारण करने का समय नहीं है। कोमलता की साधना करते करते हम लोग रुई के ढेर की तरह कोमल और मृतप्राय हो गये हैं। हमारे देश के लिए इस समय आवश्यकता है, लोहे की तरह ठोस मांस-पेशियों और मजबूत स्नायुवाले शरीरों की। आवश्यकता है इस तरह के दृढ़ इच्छाशक्तिसम्पन्न होने की कि कोई उसका प्रतिरोध करने में समर्थ न हो। आवश्यकता है ऐसी अदम्य इच्छाशक्ति की, जो ब्रह्माण्ड के सारे रहस्यों को भेद सकती हो। यदि यह कार्य करने के लिए अथाह समुद्र के मार्ग में जाना पड़े, सदा सब तरह से मौत का सामना करना पड़े, तो भी हमें यह काम करना ही पड़ेगा। यही हमारे लिए परम आवश्यक है और इसका आरम्भ, स्थापना और दृढ़ीकरण अद्वैतवाद अर्थात् सर्वात्मभाव के महान् आदर्श को समझने तथा उसके साक्षात्कार से ही सम्भव है। श्रद्धा श्रद्धा! अपने आप पर श्रद्धा, परमात्मा में श्रद्धा – यही महानता का एकमात्र रहस्य है। यदि पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर, और विदेशियों ने बीच बीच में जिन देवताओं को तुम्हारे बीच घुसा दिया है उन सब पर भी, तुम्हारी श्रद्धा हो, और अपने आप पर श्रद्धा न हो, तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते। अपने आप पर श्रद्धा करना सीखो! इसी आत्मश्रद्धा के बल से अपने पैरों आप खड़े होओ, और शक्तिशाली बनो। इस समय हमें इसी की आवश्यकता है। हम तैतीस करोड़ भारतवासी हजारों वर्ष से मुठ्ठी भर विदेशियों के द्वारा शासित और पददलित क्यों है? इसका यही कारण है कि हमारे ऊपर शासन करनेवालों में अपने आप पर श्रद्धा थी, पर हममें वह बात नहीं थी। मैंने पाश्चात्य देशों में जाकर क्या सीखा? ईसाई धर्मसम्प्रदायों के इन निरर्थक कथनों के पीछे कि मनुष्य पापी था और सदा से निरुपाय पापी था, मैंने उनकी राष्ट्रीय उन्नति का कारण क्या देखा? देखा कि अमेरिका और यूरोप दोनों के राष्ट्रीय हृदय के अन्तरतम प्रदेश में महान् आत्मश्रद्धा भरी हुई है। एक अँग्रेज बालक तुमसे कह सकता है, “मैं अंग्रेज हूँ, मैं सब कुछ कर सकता हूँ।” एक अमेरिकन या यूरोपियन बालक इसी तरह की बात बड़े दावे के साथ कह सकता है। हमारे भारतवर्ष के बच्चे क्या इस तरह की बात कह सकते हैं? कदापि नहीं। लड़कों की कौन कहे, लड़कों के बाप भी इस तरह की बात नहीं कह सकते। हमने अपनी आत्मश्रद्धा खो दी है। इसीलिए वेदान्त के अद्वैतवाद के भावों का प्रचार करने की आवश्यकता है, ताकि लोगों के हृदय जाग जाएँ, और वे अपनी आत्मा की महत्ता समझ सकें। इसीलिए मैं अद्वैतवाद का प्रचार करता हूँ। और इसका प्रचार किसी साम्प्रदायिक भाव से प्रेरित होकर नहीं करता, बल्कि मैं सार्वभौम, युक्तिपूर्ण और अकाट्य सिद्धान्तों के आधार पर इसका प्रचार करता हूँ।
यह अद्वैतवाद इस प्रकार प्रचारित किया जा सकता है कि द्वैतवादी और विशिष्टाद्वैतवादी किसी को कोई आपत्ति करने का मौका नहीं मिल सकता, और इन सब मतवादों का सामंजस्य दिखाना भी कोई कठिन काम नहीं है। भारत का कोई भी धर्मसम्प्रदाय ऐसा नहीं है, जो यह सिद्धान्त न मानता हो कि भगवान् हमारे अन्दर हैं और देवत्व सब के भीतर विद्यमान है। हमारे वेदान्तमतावलम्बियों में जो भिन्न भिन्न मतवादी हैं, वे सभी यह स्वीकार करते हैं कि जीवात्मा में पहले से ही पूर्ण पवित्रता, शक्ति और पूर्णत्व अन्तर्निहित है। पर किसी किसी के अनुसार यह पूर्णत्व मानो कभी संकुचित और कभी विकसित हो जाता है। जो हो, पर वह पूर्णत्व है तो हमारे भीतर ही – इसमें कोई सन्देह नहीं। अद्वैतवाद के अनुसार वह न संकुचित होता और न विकसित ही होता है। हाँ, कभी वह प्रकट होता और कभी अप्रकट रहता है। फलतः द्वैतवाद और अद्वैतवाद में बहुत ही कम अन्तर रहा। इतना कहा जा सकता है कि एक मत दूसरे की अपेक्षा अधिक युक्तिसम्मत है, परन्तु परिणाम में दोनों प्रायः एक ही है। इस मूलतत्त्व का प्रचार संसार के लिए आवश्यक हो गया है और हमारी इस मातृभूमि में, इस भारतवर्ष में, इसके प्रचार का जितना अभाव है, उतना और कहीं नहीं।
भाइयो! मैं तुम लोगों को दो-चार कठोर सत्यों से अवगत कराना चाहता हूँ। समाचारपत्रों में पढ़ने में आया कि हमारे यहाँ के एक व्यक्ति को किसी अँग्रेज ने मार डाला है अथवा उसके साथ बहुत बुरा बर्ताव किया है। बस, यह खबर पढ़ते ही सारे देश में हो-हल्ला मच गया। इस समाचार को पढ़कर मैंने भी आँसू बहाये; पर थोड़ी ही देर बाद मेरे मन में यह सवाल पैदा हुआ कि इस प्रकार की घटना के लिए उत्तरदायी कौन है? चूँकि मैं वेदान्तवादी हूँ, मैं स्वयं अपने से यह प्रश्न किये बिना नहीं रह सकता। हिन्दू सदा से अन्तर्दृष्टिपरायण रहा है। वह अपने अन्दर ही सब विषयों का कारण ढूँढ़ा करता है। जब कभी मैं अपने मन से यह प्रश्न करता हूँ कि इसके लिए कौन उत्तरदायी है, तभी मेरा मन बार बार यह जवाब देता है कि इसके लिए अंग्रेज उत्तरदायी नहीं हैं; बल्कि अपनी इस दुरवस्था के लिए, अपनी इस अवनति और इन सारे दुःख-कष्टों के लिए, एकमात्र हमीं उत्तरदायी हैं – हमारे सिवा इन बातों के लिए और कोई जिम्मेदार नहीं हो सकता। हमारे अभिजात पूर्वज साधारण जनसमुदाय को जमाने से पैरों तले कुचलते रहे। इसके फलस्वरूप वे बेचारे एकदम असहाय हो गये। यहाँ तक कि वे अपने आपको मनुष्य मानना भी भूल गये। सदियों तक वे धनी-मानियों की आज्ञा सिर-आँखों पर रखकर केवल लकड़ी काटते और पानी भरते रहे हैं। उनकी यह धारणा बन गयी कि मानो उन्होंने गुलाम के रूप में ही जन्म लिया है। और यदि कोई व्यक्ति इन पददलित निर्धन लोगों के प्रति सहानुभूति का शब्द कहता है, तो मैं प्रायः देखता हूँ कि आधुनिक शिक्षा की डींग हाँकने के बावजूद हमारे देश के लोग इनके उन्नयन के दायित्व से तुरन्त पीछे हट जाते हैं। यही नहीं, मैं यह भी देखता हूँ कि यहाँ के धनी-मानी और नवशिक्षित लोग पाश्चात्य देशों के आनुवंशिक संक्रमणवाद (Hereditary Transmission) आदि अंड-बंड कमजोर मतों को लेकर ऐसी दानवीय और निर्दयतापूर्ण युक्तियाँ पेश करते हैं कि ये पददलित लोग किसी तरह उन्नति न कर सकें और उन पर उत्पीड़न एवं अत्याचार करने का उन्हें काफी सुभीता मिले। अमेरिका में जो धर्म-महासभा हुई थी, उसमें अन्यान्य जाति तथा सम्प्रदायों के लोगों के साथ ही एक अफ्रीकी युवक भी आया था। वह अफ्रीका की नीग्रो जाति का था। उसने बड़ा सुन्दर व्याख्यान भी दिया था। मुझे उस युवक को देखकर बड़ा कुतूहल हुआ। मैं उससे बीच बीच में बातचीत करने लगा, पर उसके बारे में विशेष कुछ मालूम न हो सका। कुछ दिन बाद इंग्लैंड में मेरे साथ कुछ अमेरिकनों की मुलाकात हुई। उन लोगों ने मुझे उस नीग्रो युवक का परिचय इस प्रकार दिया, ‘यह युवक मध्य अफ्रीकी के किसी नीग्रो सरदार का लड़का है। किसी कारण से वहीं के किसी दूसरे नीग्रो सरदार के साथ उसके पिता का झगड़ा हो गया, और उसने इस युवक के पिता और माता को मार डाला, और दोनों का मांस पकाकर खा गया। उसने इस युवक को भी मारकर इसका मांस खा जाने का हुक्म दे दिया था। पर यह बड़ी कठिनाई से वहाँ से भाग निकला और सैकड़ों कोसों का रास्ता तय कर समुद्र के किनारे पहुँचा। वहाँ से यह एक अमेरिकन जहाज पर सवार होकर यहाँ आया।’ उस नीग्रो नवयुवक ने ऐसा सुन्दर व्याख्यान दिया! इसके बाद मैं तुम्हारे वंशानुक्रम के सिद्धान्त पर क्या विश्वास करूँ?
हे ब्राह्मणो! यदि वंशानुक्रम के आधार पर चण्डालों की अपेक्षा ब्राह्मण आसानी से विद्याभ्यास कर सकते हैं, तो उनकी शिक्षा पर धन व्यय मत करो, वरन् चण्डालों को शिक्षित बनाने पर वह सब धन व्यय करो। दुर्बलों की सहायता पहले करो, क्योंकि उनको हर प्रकार के प्रतिदान की आवश्यकता है। यदि ब्राह्मण जन्म से ही बुद्धिमान् होते हैं, तो वे किसी की सहायता बिना ही शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। यदि दूसरे लोग जन्म से कुशल नहीं हैं तो उन्हें आवश्यक शिक्षा तथा शिक्षक प्राप्त करने दो। हमें तो ऐसा करना ही न्याय और युक्तिसंगत जान पड़ता है। भारत के इन दीन-हीन लोगों को, इन पददलित जाति के लोगों को, उनका अपना वास्तविक रूप समझा देना परमावश्यक है। जात-पाँत का भेद छोड़कर, कमजोर और मजबूत का विचार छोड़कर, हर एक स्त्री-पुरुष को, प्रत्येक बालक-बालिका को, यह सन्देश सुनाओ और सिखाओ कि ऊँचनीच, अमीर-गरीब और बड़े-छोटे सभी में उसी एक अनन्त आत्मा का निवास है, जो सर्वव्यापी है; इसलिए सभी लोग महान् तथा सभी लोग साधु हो सकते हैं। आओ, हम प्रत्येक व्यक्ति में घोषित करें – ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत’1 – ‘उठो, जागो और जब तक तुम अपने अन्तिम ध्येय तक नहीं पहुँच जाते, तब तक चैन न लो।’ उठो, जागो – निर्बलता की इस मोहनिद्रा से जाग जाओ। वास्तव में कोई भी दुर्बल नहीं है। आत्मा अनन्त, सर्वशक्तिसम्पन्न और सर्वज्ञ है। इसलिए उठो, अपने वास्तविक रूप को प्रकट करो। तुम्हारे अन्दर जो भगवान् है, उसकी सत्ता को ऊँचे स्वर में घोषित करो, उसे अस्वीकार मत करो। हमारी जाति के ऊपर घोर आलस्य, दुर्बलता और व्यामोह छाया हुआ है। इसलिए ऐ आधुनिक हिन्दुओं! अपने को इस व्यामोह से मुक्त करो। इसका उपाय तुमको अपने धर्मशास्त्रों में ही मिल जाएगा। तुम अपने को और प्रत्येक व्यक्ति को अपने सच्चे स्वरूप की शिक्षा दो और घोरतम मोहनिद्रा में पड़ी हुई जीवात्मा को इस नींद से जगा दो। जब तुम्हारी जीवात्मा प्रबुद्ध होकर सक्रिय हो उठेगी, तब तुम आप ही शक्ति का अनुभव करोगे, महिमा और महत्ता पाओगे, साधुता आएगी, पवित्रता भी आप ही चली आएगी – मतलब यह कि जो कुछ अच्छे गुण हैं, वे सभी तुम्हारे पास आ पहुँचेंगे। गीता में यदि कोई ऐसी बात है, जिसे मैं अत्यधिक पसन्द करता हूँ, तो ये दो श्लोक है। कृष्ण के उपदेश के सारस्वरूप इन श्लोकों से बड़ा भारी बल प्राप्त होता है :
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥
समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्॥2
‘विनाश होनेवाले सब भूतों में जो लोग अविनाशी परमात्मा को स्थित देखते हैं, यथार्थ में उन्हीं का देखना सार्थक है; क्योंकि ईश्वर को सर्वत्र समान भाव से देखकर वे आत्मा के द्वारा आत्मा की हिंसा नहीं करते, इसलिए वे परमगति को प्राप्त होते हैं।’
इस प्रकार इस देश और अन्यान्य देशों में कल्याणकार्य की दृष्टि से वेदान्त के प्रचार और प्रसार के लिए विस्तृत क्षेत्र है। इस देश में, और विदेशों में भी, मनुष्यजाति के दुःख दूर करने के लिए तथा मानव-समाज की उन्नति के लिए हमें परमात्मा की सर्वव्यापकता और सर्वत्र समान रूप से उसकी विद्यमानता का प्रचार करना होगा। जहाँ भी बुराई दिखाई देती है, वहीं अज्ञान भी मौजूद रहता है। मैंने अपने ज्ञान और अनुभव द्वारा मालूम किया है और यही शास्त्रों में भी कहा गया है कि भेद-बुद्धि से ही संसार में सारे अशुभ और अभेद-बुद्धि से ही सारे शुभ फलते हैं। यदि सारी विभिन्नताओं के अन्दर ईश्वर के एकत्व पर विश्वास किया जाए, तो सब प्रकार से संसार का कल्याण किया जा सकता है। यही वेदान्त का सर्वोच्च आदर्श है। प्रत्येक विषय में आदर्श पर विश्वास करना एक बात है और प्रतिदिन के छोटे छोटे कामों में उसी आदर्श के अनुसार काम करना बिलकुल दूसरी बात है। एक उँचा आदर्श दिखा देना अच्छी बात है, इसमें सन्देह नहीं; पर उस आदर्श तक पहुँचने का उपाय कौनसा है?
स्वभावतः यहाँ वही कठिन और उद्विग्न करनेवाला जातिभेद तथा समाजसुधार का सवाल आ उपस्थित होता है, जो कई सदियों से सर्वसाधारण के मन में उठता रहा है। मैं तुमसे यह बात स्पष्ट शब्दों में कह देना चाहता हूँ कि मैं केवल जाति-पाँति का भेद मिटानेवाला अथवा समाज-सुधारक मात्र नहीं हूँ। सीधे अर्थ में जातिभेद या समाज-सुधार से मेरा कुछ मतलब नहीं। तुम चाहे जिस जाति या समाज के क्यों न हो, उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, पर तुम किसी और जातिवाले को घृणा की दृष्टि से क्यों देखो? मैं केवल प्रेम और मात्र प्रेम की शिक्षा देता हूँ और मेरा यह कहना विश्वात्मा की सर्वव्यापकता और समतारूपी वेदान्त के सिद्धान्त पर आधारित है। प्रायः पिछले एक सौ वर्ष से हमारे देश में समाज-सुधारकों और उनके तरह तरह के समाज-सुधारसम्बन्धी प्रस्तावों की बाढ़ आ गयी है। व्यक्तिगत रूप से इन समाज-सुधारकों में मुझे कोई दोष नहीं मिलता। अधिकांश अच्छे व्यक्ति और सदुद्देश्यवाले हैं। और किसी किसी विषय में उनके उद्देश्य बहुत ही प्रशंसनीय हैं। परन्तु इसके साथ ही साथ यह भी बहुत ही निश्चित और प्रामाणिक बात है कि सामाजिक सुधारों के इन सौ वर्षों में सारे देश का कोई स्थायी और बहुमूल्य हित नहीं हुआ है। व्याख्यान-मंचों से हजारों व्याख्यान दिये जा चुके हैं, हिन्दू जाति और हिन्दू सभ्यता के माथे पर कलंक और निन्दा की न जाने कितनी बौछारें हो चुकी हैं, परन्तु इतने पर भी समाज का कोई वास्तविक उपकार नहीं हुआ है। इसका क्या कारण है? कारण ढूँढ़ निकालना बहुत मुश्किल काम नहीं है। यह भर्त्सना ही इसका कारण है। मैंने पहले ही तुमसे कहा है कि हमें सब से पहले अपनी ऐतिहासिक जातीय विशेषता की रक्षा करनी होगी। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि हमें अन्यान्य जातियों से बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त करनी पड़ेगी; पर मुझे बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हमारे अधिकांश समाज-सुधार आन्दोलन केवल पाश्चात्य कार्यप्रणाली के विवेकशून्य अनुकरणमात्र हैं। इस कार्यप्रणाली से भारत का कोई उपकार होना सम्भव नहीं है। इसलिए हमारे यहाँ जो सब समाज-सुधार के आन्दोलन हो रहे हैं, उनका कोई फल नहीं होता।
दूसरे, किसी की भर्त्सना करना किसी प्रकार भी दूसरे के हित का मार्ग नहीं है। एक छोटासा बच्चा भी जान सकता है कि हमारे समाज में बहुतेरे दोष हैं – और दोष भला किस समाज में नहीं हैं? ऐ मेरे देशवासी भाइयो! मैं इस अवसर पर तुम्हें यह बात बता देना चाहता हूँ कि मैंने संसार की जितनी भिन्न भिन्न जातियों को देखा है, उनकी तुलना करके मैं इसी निश्चय पर पहुँचा हूँ कि अन्यान्य जातियों की अपेक्षा हमारी यह हिन्दू जाति ही अधिक नीतिपरायण और धार्मिक है। और हमारी सामाजिक प्रथाएँ ही अपने उद्देश्य तथा कार्यप्रणाली में मानवजाति को सुखी करने में सब से अधिक उपयुक्त हैं। इसीलिए मैं कोई सुधार नहीं चाहता। मेरा आदर्श है, राष्ट्रीय मार्ग पर समाज की उन्नति, विस्तृति तथा विकास। जब मैं देश के प्राचीन इतिहास की पर्यालोचना करता हूँ, तब सारे संसार में मुझे कोई ऐसा देश नहीं दिखाई देता, जिसने भारत के समान मानव-हृदय को उन्नत और सुसंस्कृत बनाने की चेष्टा की हो। इसीलिए, मैं अपनी हिन्दू जाति की न तो निन्दा करता हूँ और न उसे अपराधी ठहराता हूँ। मैं उनसे कहता हूँ, ‘जो कुछ तुमने किया है, अच्छा ही किया है; पर इससे भी अच्छा करने की चेष्टा करो।’ पुराने जमाने में इस देश में बहुतेरे अच्छे काम हुए हैं; पर अब भी उससे बढ़े चढ़े काम करने का पर्याप्त समय और अवकाश है। यह निश्चित है कि तुम जानते हो कि हम एक जगह एक अवस्था में चुपचाप बैठे नहीं रह सकते। यदि हम एक जगह स्थिर रहें, तो हमारी मृत्यु अनिवार्य हैं। हमें या तो आगे बढ़ना होगा या पीछे हटना होगा – हमें उन्नति करते रहना होगा, नहीं तो हमारी अवनति आप से आप होती जाएगी। हमारे पूर्वपुरुषों ने प्राचीन काल में बहुत बड़े बड़े काम किये हैं, पर हमें उनकी अपेक्षा भी उच्चतर जीवन का विकास करना होगा और उनकी अपेक्षा और भी महान् कार्यों की ओर अग्रसर होना पड़ेगा। अब पीछे हटकर अवनति को प्राप्त होना कैसे हो सकता है? ऐसा कभी नहीं हो सकता। नहीं, हम कदापि वैसा होने नहीं देंगे। पीछे हटने से हमारी जाति का अधःपतन और मरण होगा। अतएव ‘अग्रसर होकर महत्तर कर्मों का अनुष्ठान करो’ – तुम्हारे सामने यही मेरा वक्तव्य है।
मैं किसी क्षणिक समाज-सुधार का प्रचारक नहीं हूँ। मैं समाज के दोषों का सुधार करने की चेष्टा नहीं कर रहा हूँ। मैं तुमसे केवल इतना ही कहता हूँ कि तुम आगे बढ़ो और हमारे पूर्वपुरुष समग्र मानवजाति की उन्नति के लिए जो सर्वांगसुन्दर प्रणाली बता गये हैं, उसी का अवलम्बन कर उनके उद्देश्य को सम्पूर्ण रूप से कार्य में परिणत करो। तुमसे मेरा कहना यही है कि तुम लोग मानव के एकत्व और उसके नैसर्गिक ईश्वरत्वभावरूपी वेदान्ती आदर्श के अधिकाधिक समीप पहुँचते जाओ। यदि मेरे पास समय होता, तो मैं तुम लोगों को बड़ी प्रसन्नता के साथ यह दिखाता और बताता कि आज हमें जो कुछ कार्य करना है, उसे हजारों वर्ष पहले हमारे स्मृतिकारों ने बता दिया है। और उनकी बातों से हम यह भी जान सकते हैं कि आज हमारी जाति और समाज के आचार-व्यवहार में जो सब परिवर्तन हुए हैं और होंगे, उन्हें भी उन लोगों ने आज से हजारों वर्ष पहले जान लिया था। वे भी जातिभेद को तोड़नेवाले थे, पर आजकल की तरह नहीं। जातिभेद को तोड़ने से उनका मतलब यह नहीं था कि शहर भर के लोग एक साथ मिलकर शराब-कबाब उड़ाएँ, या जितने मूर्ख और पागल हैं, वे सब चाहे जिसके साथ शादी कर लें और सारे देश को एक बहुत बड़ा पागलखाना बना दे, और न उनका यही विश्वास था कि जिस देश में जितने ही अधिक विधवा-विवाह हों, वह देश उतना ही उन्नत समझा जाए। इस प्रकार से किसी जाति को उन्नत होते मैंने अभी तक नहीं देखा है।
ब्राह्मण ही हमारे पूर्वपुरुषों के आदर्श थे। हमारे सभी शास्त्रों में ब्राह्मण का आदर्श विशिष्ट रूप से प्रतिष्ठित है। यूरोप के बड़े बड़े धर्माचार्य भी यह प्रमाणित करने के लिए हजारों रुपये खर्च कर रहे हैं कि उनके पूर्वपुरुष उच्च वंशों के थे और तब तक वे सन्तुष्ट नहीं होंगे जब तक अपनी वंशपरम्परा किसी भयानक क्रूर शासक से स्थापित नहीं कर लेंगे, जो पहाड़ पर रहकर राही बटोहियों की ताक में रहते थे और मौका पाते ही उन पर आक्रमण कर लूट लेते थे। आभिजात्य प्रदान करनेवाले इन पूर्वजों का यही पेशा था और हमारे धर्माध्यक्ष कार्डिनल इनमें से किसी से अपनी वंशपरम्परा स्थापित किये बिना सन्तुष्ट नहीं रहते। फिर दूसरी ओर भारत के बड़े से बड़े राजाओं के वंशधर इस बात की चेष्टा कर रहे हैं कि हम अमुक कौपीनधारी, सर्वस्वत्यागी, वनवासी, फल-मूलाहारी और वेदपाठी ऋषि की सन्तान हैं। भारतीय राजा भी अपनी वंशपरम्परा स्थापित करने के लिए वहीं जाते हैं। अगर तुम अपनी वंशपरम्परा किसी महर्षि से स्थापित कर सकते हो, तो ऊँची जाति के माने जाओगे, अन्यथा नहीं।
अतएव, हमारा उच्च वंश का आदर्श अन्यान्य देशवासियों के आदर्श से बिलकुल भिन्न है। आध्यात्मिक साधनासम्पन्न महात्यागी ब्राह्मण ही हमारे आदर्श हैं। इस ब्राह्मण-आदर्श से मेरा क्या मतलब है? आदर्श ब्राह्मणत्व वही है, जिसमें सांसारिकता एकदम न हो और असली ज्ञान पूर्ण मात्रा में विद्यमान हो। हिन्दू जाति का यही आदर्श है। क्या तुमने नहीं सुना है, शास्त्रों में लिखा है कि ब्राह्मण के लिए कोई कानून-कायदा नहीं है – वे राजा के शासनाधीन नहीं हैं, और उनके लिए फाँसी की सजा नहीं हो सकती? यह बात बिलकुल सच है। स्वार्थपर मूढ़ लोगों ने जिस भाव से इस तत्त्व की व्याख्या की है, उस भाव से उसको मत समझो; सच्चे वेदान्ती भाव से इस तत्त्व को समझने की चेष्टा करो। यदि ब्राह्मण कहने से ऐसे मनुष्य का बोध हो, जिसने स्वार्थपरता का एकदम नाश कर डाला है, जिसका जीवन ज्ञान और प्रेम की शक्ति को प्राप्त करने में तथा इनका विस्तार करने में ही बीतता है, जो देश ऐसे ही सच्चरित्र, नैष्ठिक तथा आध्यात्मिक ब्राह्मणों, स्त्री तथा पुरुषों से परिपूर्ण है, वह देश यदि विधि-निषेध के परे हो, तो इसमें आश्चर्य की कौनसी बात है? ऐसे लोगों पर शासन करने के लिए सेना या पुलिस इत्यादि की क्या आवश्यकता है? ऐसे आदमियों पर शासन करने का ही क्या काम है? अथवा ऐसे लोगों को किसी शासन-तन्त्र के अधीन रहने की ही क्या जरूरत है? ये लोग साधुस्वभाव महात्मा हैं – ईश्वर के अन्तरंगस्वरूप हैं, ये ही हमारे आदर्श ब्राह्मण हैं। और हम शास्त्रों में देखते हैं – सत्ययुग में पृथ्वी पर केवल एक जाति थी और वह ब्राह्मण थी। महाभारत में हम देखते हैं, पुराकाल में सारी पृथ्वी पर केवल ब्राह्मणों का ही निवास था। क्रमशः ज्यों ज्यों उनकी अवनति होने लगी, वह जाति भिन्न भिन्न जातियों में विभक्त होती गयी। फिर, जब कल्पचक्र घूमता-घूमता सत्ययुग आ पहुँचेगा, तब फिर से सभी ब्राह्मण ही हो जाएँगे। वर्तमान युगचक्र भविष्य में सत्ययुग के आने की सूचना दे रहा है, इसी बात की ओर मैं तुम्हारा ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। ऊँची जातियों को नीची करने, मनचाहे आहार-विहार करने और क्षणिक सुखभोग के लिए अपने अपने वर्णाश्रम-धर्म की मर्यादा तोड़ने से यह जातिभेद की समस्या हल नहीं होगी। इसकी मीमांसा तभी होगी जब हम लोगों में से प्रत्येक मनुष्य वेदान्ती धर्म का आदेश पालन करने लगेगा, जब हर कोई सच्चा धार्मिक होने की चेष्टा करेगा, और प्रत्येक व्यक्ति आदर्श बन जाएगा। तुम आर्य हो या अनार्य, ऋषिसन्तान हो, ब्राह्मण हो या अत्यन्त नीच अन्त्यज जाति के ही क्यों न हों, भारतभूमि के प्रत्येक निवासी के प्रति तुम्हारे पूर्वपुरुषों का दिया हुआ एक महान् आदेश है। तुम सब के प्रति बस एक ही आदेश है कि चुपचाप बैठे रहने से काम न होगा, निरन्तर उन्नति के लिए चेष्टा करते रहना होगा। ऊँची से ऊँची जाति से लेकर नीची से नीची जाति के लोगों को भी ब्राह्मण होने की चेष्टा करनी होगी। वेदान्त का यह आदर्श केवल भारतवर्ष के लिए ही नहीं, वरन् सारे संसार के लिए उपयुक्त है। हमारे जातिभेद का लक्ष्य यही है कि धीरे धीरे सारी मानवजाति आध्यात्मिक मनुष्य के महान् आदर्श को प्राप्त करने के लिए अग्रसर हो, जो धृति, क्षमा, शौच, शान्ति, उपासना और ध्यान का अभ्यासी है। इस आदर्श में ईश्वरप्राप्ति अनुस्यूत है।
इस उद्देश्य को कार्यरूप में परिणत करने का उपाय क्या है? मैं तुम लोगों को फिर एक बार याद दिला देना चाहता हूँ कि कोसने, निन्दा करने या गालियों की बौछार करने से कोई सदुद्देश्य पूर्ण नहीं हो सकता। लगातार वर्षों तक इस प्रकार की कितनी ही चेष्टाएँ की गयी हैं, पर कभी अच्छा परिणाम प्राप्त नहीं हुआ। केवल पारस्परिक सद्भाव और प्रेम के द्वारा ही अच्छे परिणाम की आशा की जा सकती है। यह महान् विषय है, और मेरी दृष्टि में जो योजनाएँ हैं उनकी व्याख्या के लिए कई भाषणों की आवश्यकता होगी, जिनमें मैं प्रतिदिन उठनेवाले अपने विचारों को व्यक्त कर सकूँ। अतएव, आज मैं यहीं पर अपने भाषण का उपसंहार करता हूँ। हिन्दुओं! मैं तुम्हें केवल इतनी ही याद दिला देना चाहता हूँ कि हमारा यह राष्ट्रीय बेड़ा हमें सदियों से इस पार से उस पार करता आ रहा है। शायद आजकल इसमें कुछ छेद हो गये हैं, शायद यह कुछ पुराना भी पड़ गया है। यदि यही बात है, तो हम सारे भारतवासियों को प्राणों की बाजी लगाकर इन छेदों को बन्द कर देने और इसका जीर्णोद्धार करने की चेष्टा करनी चाहिए। हमें अपने सभी देशभाइयों को इस खतरे की सूचना दे देनी चाहिए। वे जागे और हमारी सहायता करें। मैं भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक जोर से चिल्लाकर लोगों को इस परिस्थिति और कर्तव्य के प्रति जागरूक करूँगा। मान लो, लोगों ने मेरी बात अनसुनी कर दी, तो भी मैं इसके लिए उन्हें न तो कोसूँगा और न भर्त्सना ही करूँगा। पुराने जमाने में हमारी जाति ने बहुत बड़े बड़े काम किये हैं, और यदि हम उनसे भी बड़े बड़े काम न कर सकें, तो एक साथ ही शान्तिपूर्वक डूब मरने में हमें सन्तोष होगा। देशभक्त बनो – जिस जाति ने अतीत में हमारे लिए इतने बड़े बड़े काम किये हैं, उसे प्राणों से भी अधिक प्यारी समझो। हे स्वदेशवासियों! मैं संसार के अन्यान्य राष्ट्रों के साथ अपने राष्ट्र की जितनी ही अधिक तुलना करता हूँ, उतना ही अधिक तुम लोगों के प्रति मेरा प्यार बढ़ता जाता है। तुम लोग शुद्ध, शान्त और सत्स्वभाव हो, और तुम्हीं लोग सदा अत्याचारों से पीड़ित रहते आये हो – इस मायामय जड़ जगत् की पहेली ही कुछ ऐसी है। जो हो, तुम इसकी परवाह मत करो। अन्त में आत्मा की ही जय अवश्य होगी। इस बीच आओ हम काम में संलग्न हो जाएँ। केवल देश की निन्दा करने से काम नहीं चलने का। हमारी इस परम पवित्र मातृभूमि के काल-जर्जर कर्मजीर्ण आचारों और प्रथाओं की निन्दा मत करो। एकदम अन्धविश्वासपूर्ण और अतार्किक प्रथाओं के विरुद्ध भी एक शब्द मत कहो, क्योंकि उनके द्वारा भी अतीत में हमारी जाति और देश का कुछ न कुछ उपकार अवश्य हुआ है। सदा याद रखना कि हमारी सामाजिक प्रथाओं के उद्देश्य ऐसे महान् हैं, जैसे संसार के किसी और देश की प्रथाओं के नहीं हैं। मैंने संसार में प्रायः सर्वत्र जाति-पाति का भेदभाव देखा है, पर उद्देश्य ऐसा महिमामय नहीं है। अतएव, जब जातिभेद का होना अनिवार्य है, तब उसे धन पर खड़ा करने की अपेक्षा पवित्रता और आत्मत्याग के ऊपर खड़ा करना कहीं अच्छा है। इसलिए निन्दा के शब्दों का उच्चारण एकदम छोड़ दो। तुम्हारा मुँह बन्द हो और हृदय खुल जाए। इस देश और सारे जगत् का उद्धार करो। तुम लोगों में से प्रत्येक को यह सोचना होगा कि सारा भार तुम्हारे ही ऊपर है। वेदान्त का आलोक घर घर ले जाओ, प्रत्येक जीवात्मा में जो ईश्वरत्व अन्तर्निहित है, उसे जगाओ। तब तुम्हारी सफलता का परिमाण जो भी हो, तुम्हें इस बात का सन्तोष होगा कि तुमने एक महान् उद्देश्य की सिद्धि में ही अपना जीवन बिताया है, कर्म किया है और प्राण-उत्सर्ग किया है। जैसे भी हो, महत्-कार्य की सिद्धि होने पर मानवजाति का दोनों लोकों में कल्याण होगा।
- कठोपनिषद्, १।३।१४
- गीता, १३।२७-२८