महाभारत का अनुक्रमणिकापर्व (प्रथम अध्याय) – Mahabharat Anukramanika Parva Hindi
महाभारत ग्रंथ का आरंभ अनुक्रमणिकापर्व से ही होता है। इसमें संपूर्ण महाभारत में आए सभी विषयों की संक्षिप्त विषयसूची सन्निहित है। साथ ही अनुक्रमणिकापर्व में महाभारत के पाठ की महिमा का भी वर्णन किया गया है। महाभारत के शेष अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत कथा। पढ़ें महाभारत का अनुक्रमणिकापर्व–
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥
‘बदरिकाश्रमनिवासी प्रसिद्ध ऋषि श्रीनारायण तथा श्रीनर (अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन), उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार कर (आसुरी सम्पत्तियोंका नाश करके अन्तःकरणपर दैवी सम्पत्तियोंको विजय प्राप्त करानेवाले) जय1 (महाभारत एवं अन्य इतिहास-पुराणादि)-का पाठ करना चाहिये।’2
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। ॐ नमः पितामहाय। ॐ नमः प्रजापतिभ्यः। ॐ नमः कृष्णद्वैपायनाय। ॐ नमः सर्वविघ्नविनायकेभ्यः।
ॐकारस्वरूप भगवान् वासुदेवको नमस्कार है। ॐकारस्वरूप भगवान् पितामहको नमस्कार है। ॐकारस्वरूप प्रजापतियोंको नमस्कार है। ॐकारस्वरूप श्रीकृष्णद्वैपायनको नमस्कार है। ॐकारस्वरूप सर्व-विघ्नविनाशक विनायकोंको नमस्कार है।
लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सौतिः पौराणिको
नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेर्द्वादशवार्षिके सत्रे ॥ १ ॥
सुखासीनानभ्यगच्छद् ब्रह्मर्षीन् संशितव्रतान् ।
विनयावनतो भूत्वा कदाचित् सूतनन्दनः ॥ २ ॥
एक समयकी बात है, नैमिषारण्यमें3 कुलपति4 महर्षि शौनकके बारह वर्षोंतक चालू रहनेवाले सत्रमें5 जब उत्तम एवं कठोर ब्रह्मचर्यादि व्रतोंका पालन करनेवाले ब्रह्मर्षिगण अवकाशके समय सुखपूर्वक बैठे थे, सूतकुलको आनन्दित करनेवाले लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवा सौति स्वयं कौतूहलवश उन ब्रह्मर्षियोंके समीप बड़े विनीतभावसे आये। वे पुराणोंके विद्वान् और कथावाचक थे ॥ १-२ ॥
तमाश्रममनुप्राप्तं नैमिषारण्यवासिनाम् ।
चित्राः श्रोतुं कथास्तत्र परिवब्रुस्तपस्विनः ॥ ३ ॥
उस समय नैमिषारण्यवासियोंके आश्रममें पधारे हुए उन उग्रश्रवाजीको, उनसे चित्र-विचित्र कथाएँ सुननेके लिये, सब तपस्वियोंने वहीं घेर लिया ॥ ३ ॥
अभिवाद्य मुनींस्तांस्तु सर्वानेव कृताञ्जलिः ।
अपृच्छत् स तपोवृद्धिं सद्भिश्चैवाभिपूजितः ॥ ४ ॥
उग्रश्रवाजीने पहले हाथ जोड़कर उन सभी मुनियोंको अभिवादन किया और ‘आपलोगोंकी तपस्या सुखपूर्वक बढ़ रही है न?’ इस प्रकार कुशल-प्रश्न किया। उन सत्पुरुषोंने भी उग्रश्रवाजीका भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया ॥ ४ ॥
अथ तेषूपविष्टेषु सर्वेष्वेव तपस्विषु ।
निर्दिष्टमासनं भेजे विनयाल्लौमहर्षणिः ॥ ५ ॥
इसके अनन्तर जब वे सभी तपस्वी अपने-अपने आसनपर विराजमान हो गये, तब लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाजीने भी उनके बताये हुए आसनको विनयपूर्वक ग्रहण किया ॥ ५ ॥
सुखासीनं ततस्तं तु विश्रान्तमुपलक्ष्य च ।
अथापृच्छदृषिस्तत्र कश्चित् प्रस्तावयन् कथाः ॥ ६ ॥
तत्पश्चात् यह देखकर कि उग्रश्रवाजी थकावटसे रहित होकर आरामसे बैठे हुए हैं, किसी महर्षिने बातचीतका प्रसंग उपस्थित करते हुए यह प्रश्न पूछा— ॥ ६ ॥
कुत आगम्यते सौते क्व चायं विहृतस्त्वया ।
कालः कमलपत्राक्ष शंसैतत् पृच्छतो मम ॥ ७ ॥
कमलनयन सूतकुमार! आपका शुभागमन कहाँ से हो रहा है? अबतक आपने कहाँ आनन्दपूर्वक समय बिताया है? मेरे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये ॥ ७ ॥
एवं पृष्टोऽब्रवीत् सम्यग् यथावल्लौमहर्षणिः ।
वाक्यं वचनसम्पन्नस्तेषां च चरिताश्रयम् ॥ ८ ॥
तस्मिन् सदसि विस्तीर्णे मुनीनां भावितात्मनाम् ।
उग्रश्रवाजी एक कुशल वक्ता थे। इस प्रकार प्रश्न किये जानेपर वे शुद्ध अन्तःकरणवाले मुनियों की उस विशाल सभामें ऋषियों तथा राजाओंसे सम्बन्ध रखनेवाली उत्तम एवं यथार्थ कथा कहने लगे ॥ ८ ॥
सौतिरुवाच
जनमेजयस्य राजर्षेः सर्पसत्रे महात्मनः ॥ ९ ॥
समीपे पार्थिवेन्द्रस्य सम्यक् पारिक्षितस्य च ।
कृष्णद्वैपायनप्रोक्ताः सुपुण्या विविधाः कथाः ॥ १० ॥
कथिताश्चापि विधिवद् या वैशम्पायनेन वै ।
श्रुत्वाहं ता विचित्रार्था महाभारतसंश्रिताः ॥ ११ ॥
उग्रश्रवाजीने कहा—महर्षियो! चक्रवर्ती सम्राट् महात्मा राजर्षि परीक्षित्-नन्दन जनमेजयके सर्पयज्ञमें उन्हींके पास वैशम्पायनने श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीके द्वारा निर्मित परम पुण्यमयी चित्र-विचित्र अर्थसे युक्त महाभारतकी जो विविध कथाएँ विधिपूर्वक कही हैं, उन्हें सुनकर मैं आ रहा हूँ ॥ ९—११ ॥
बहूनि सम्परिक्रम्य तीर्थान्यायतनानि च ।
समन्तपञ्चकं नाम पुण्यं द्विजनिषेवितम् ॥ १२ ॥
गतवानस्मि तं देशं युद्धं यत्राभवत् पुरा ।
कुरूणां पाण्डवानां च सर्वेषां च महीक्षिताम् ॥ १३ ॥
मैं बहुत-से तीर्थों एवं धामोंकी यात्रा करता हुआ ब्राह्मणोंके द्वारा सेवित उस परम पुण्यमय समन्तपंचक क्षेत्र कुरुक्षेत्र देशमें गया, जहाँ पहले कौरव-पाण्डव एवं अन्य सब राजाओंका युद्ध हुआ था ॥ १२-१३ ॥
दिदृक्षुरागतस्तस्मात् समीपं भवतामिह ।
आयुष्मन्तः सर्व एव ब्रह्मभूता हि मे मताः ।
अस्मिन् यज्ञे महाभागाः सूर्यपावकवर्चसः ॥ १४ ॥
वहींसे आपलोगोंके दर्शनकी इच्छा लेकर मैं यहाँ आपके पास आया हूँ। मेरी यह मान्यता है कि आप सभी दीर्घायु एवं ब्रह्मस्वरूप हैं। ब्राह्मणो! इस यज्ञमें सम्मिलित आप सभी महात्मा बड़ेभाग्यशाली तथा सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी हैं ॥ १४ ॥
कृताभिषेकाः शुचयः कृतजप्याहुताग्नयः ।
भवन्त आसने स्वस्था ब्रवीमि किमहं द्विजाः ॥ १५ ॥
पुराणसंहिताः पुण्याः कथा धर्मार्थसंश्रिताः ।
इति वृत्तं नरेन्द्राणामृषीणां च महात्मनाम् ॥ १६ ॥
इस समय आप सभी स्नान, संध्या-वन्दन, जप और अग्निहोत्र आदि करके शुद्ध हो अपने-अपने आसनपर स्वस्थचित्तसे विराजमान हैं। आज्ञा कीजिये, मैं आपलोगोंको क्या सुनाऊँ? क्या मैं आपलोगोंको धर्म और अर्थके गूढ़ रहस्यसे युक्त, अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाली भिन्न-भिन्न पुराणोंकी कथा सुनाऊँ अथवा उदारचरित महानुभाव ऋषियों एवं सम्राटोंके पवित्र इतिहास? ॥ १५-१६ ॥
ऋषय ऊचुः
द्वैपायनेन यत् प्रोक्तं पुराणं परमर्षिणा ।
सुरैर्ब्रह्मर्षिभिश्चैव श्रुत्वा यदभिपूजितम् ॥ १७ ॥
तस्याख्यानवरिष्ठस्य विचित्रपदपर्वणः ।
सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च ॥ १८ ॥
भारतस्येतिहासस्य पुण्यां ग्रन्थार्थसंयुताम् ।
संस्कारोपगतां ब्राह्मीं नानाशास्त्रोपबृंहिताम् ॥ १९ ॥
जनमेजयस्य यां राज्ञो वैशम्पायन उक्तवान् ।
यथावत् स ऋषिस्तुष्ट्या सत्रे द्वैपायनाज्ञया ॥ २० ॥
वेदैश्चतुर्भिः संयुक्तां व्यासस्याद्भुतकर्मणः ।
संहितां श्रोतुमिच्छामः पुण्यां पापभयापहाम् ॥ २१ ॥
ऋषियोंने कहा — उग्रश्रवाजी! परमर्षि श्रीकृष्ण-द्वैपायनने जिस प्राचीन इतिहास रूप पुराणका वर्णन किया है और देवताओं तथा ऋषियोंने अपने-अपने लोकमें श्रवण करके जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जो आख्यानोंमें सर्वश्रेष्ठ है, जिसका एक-एक पद, वाक्य एवं पर्व विचित्र शब्दविन्यास और रमणीय अर्थसे परिपूर्ण है, जिसमें आत्मा-परमात्माके सूक्ष्म स्वरूपका निर्णय एवं उनके अनुभवके लिये अनुकूल युक्तियाँ भरी हुई हैं और जो सम्पूर्ण वेदोंके तात्पर्यानुकूल अर्थसे अलंकृत है, उस भारत-इतिहासकी परम पुण्यमयी, ग्रन्थ के गुप्त भावोंको स्पष्ट करनेवाली, पदों वाक्योंकी व्युत्पत्तिसे युक्त, सब शास्त्रोंके अभिप्रायके अनुकूल और उनसे समर्थित जो अद्भुतकर्मा व्यासकी संहिता है, उसे हम सुनना चाहते हैं। अवश्य ही वह चारों वेदोंके अर्थोंसे भरी हुई तथा पुण्यस्वरूपा है। पाप और भयका नाश करनेवाली है। भगवान् वेदव्यासकी आज्ञासे राजा जनमेजयके यज्ञमें प्रसिद्ध ऋषि वैशम्पायनने आनन्दमें भरकर भलीभाँति इसका निरूपण किया है ॥ १७—२१ ॥
सौतिरुवाच
आद्यं पुरुषमीशानं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् ।
ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म व्यक्ताव्यक्तं सनातनम् ॥ २२ ॥
असच्च सदसच्चैव यद् विश्वं सदसत्परम् ।
परावराणां स्रष्टारं पुराणं परमव्ययम् ॥ २३ ॥
मङ्गल्यं मङ्गलं विष्णुं वरेण्यमनघं शुचिम् ।
नमस्कृत्य हृषीकेशं चराचरगुरुं हरिम् ॥ २४ ॥
महर्षेः पूजितस्येह सर्वलोकैर्महात्मनः ।
प्रवक्ष्यामि मतं पुण्यं व्यासस्याद्भुतकर्मणः ॥ २५ ॥
उग्रश्रवाजीने कहा — जो सबका आदि कारण, अन्तर्यामी और नियन्ता है, यज्ञोंमें जिसका आवाहन और जिसके उद्देश्यसे हवन किया जाता है, जिसकी अनेक पुरुषोंद्वारा अनेक नामोंसे स्तुति की गयी है, जो ऋत (सत्यस्वरूप), एकाक्षर ब्रह्म (प्रणव एवं एकमात्र अविनाशी और सर्वव्यापी परमात्मा), व्यक्ताव्यक्त (साकार-निराकार)-स्वरूप एवं सनातन है, असत्-सत् एवं उभयरूपसे जो स्वयं विराजमान है; फिर भी जिसका वास्तविक स्वरूप सत्-असत् दोनोंसे विलक्षण है, यह विश्व जिससे अभिन्न है, जो सम्पूर्ण परावर (स्थूल-सूक्ष्म) जगत्का स्रष्टा, पुराणपुरुष, सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर एवं वृद्धि-क्षय आदि विकारोंसे रहित है, जिसे पाप कभी छू नहीं सकता, जो सहज शुद्ध है, वह ब्रह्म ही मंगलकारी एवं मंगलमय विष्णु है। उन्हीं चराचरगुरु हृषीकेश (मन-इन्द्रियोंके प्रेरक) श्रीहरिको नमस्कार करके सर्वलोकपूजित अद्भुतकर्मा महात्मा महर्षि व्यासदेवके इस अन्तःकरणशोधक मतका मैं वर्णन करूँगा ॥ २२—२५ ॥
आचख्युः कवयः केचित् सम्प्रत्याचक्षते परे ।
आख्यास्यन्ति तथैवान्ये इतिहासमिमं भुवि ॥ २६ ॥
पृथ्वीपर इस इतिहासका अनेकों कवियोंने वर्णन किया है और इस समय भी बहुत-से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार अन्य कवि आगे भी इसका वर्णन करते रहेंगे ॥ २६ ॥
इदं तु त्रिषु लोकेषु महज्ज्ञानं प्रतिष्ठितम् ।
विस्तरैश्च समासैश्च धार्यते यद् द्विजातिभिः ॥ २७ ॥
इस महाभारतकी तीनों लोकोंमें एक महान् ज्ञानके रूपमें प्रतिष्ठा है। ब्राह्मणादि द्विजाति संक्षेप और विस्तार दोनों ही रूपोंमें अध्ययन और अध्यापनकी परम्पराके द्वारा इसे अपने हृदयमें धारण करते हैं ॥ २७ ॥
अलंकृतं शुभैः शब्दैः समयैर्दिव्यमानुषैः ।
छन्दोवृत्तैश्च विविधैरन्वितं विदुषां प्रियम् ॥ २८ ॥
यह शुभ (ललित एवं मंगलमय) शब्दविन्याससे अलंकृत है तथा वैदिक-लौकिक या संस्कृत-प्राकृत संकेतोंसे सुशोभित है। अनुष्टुप्, इन्द्रवज्रा आदि नाना प्रकारके छन्द भी इसमें प्रयुक्त हुए हैं; अतः यह ग्रन्थ विद्वानोंको बहुत ही प्रिय है ॥ २८ ॥
(पुण्ये हिमवतः पादे मध्ये गिरिगुहालये ।
विशोध्य देहं धर्मात्मा दर्भसंस्तरमाश्रितः ॥
शुचिः सनियमो व्यासः शान्तात्मा तपसि स्थितः ।
भारतस्येतिहासस्य धर्मेणान्वीक्ष्य तां गतिम् ॥
प्रविश्य योगं ज्ञानेन सोऽपश्यत् सर्वमन्ततः ।)
हिमालयकी पवित्र तलहटीमें पर्वतीय गुफाके भीतर धर्मात्मा व्यासजी स्नानादिसे शरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुशका आसन बिछाकर बैठे थे। उस समय नियमपालनपूर्वक शान्तचित्त हो वे तपस्यामें संलग्न थे। ध्यानयोगमें स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत-इतिहासके स्वरूपका विचार करके ज्ञानदृष्टिद्वारा आदिसे अन्ततक सब कुछ प्रत्यक्षकी भाँति देखा (और इस ग्रन्थका निर्माण किया)।
निष्प्रभेऽस्मिन् निरालोके सर्वतस्तमसावृते ।
बृहदण्डमभूदेकं प्रजानां बीजमव्ययम् ॥ २९ ॥
सृष्टिके प्रारम्भमें जब यहाँ वस्तुविशेष या नामरूप आदिका भान नहीं होता था, प्रकाशका कहीं नाम नहीं था, सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्ड प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजाओंका अविनाशी
बीज था ॥ २९ ॥
युगस्यादौ निमित्तं तन्महद्दिव्यं प्रचक्षते ।
यस्मिन् संश्रूयते सत्यं ज्योतिर्ब्रह्म सनातनम् ॥ ३० ॥
ब्रह्मकल्पके आदिमें उसी महान् एवं दिव्य अण्डको चार प्रकारके प्राणिसमुदायका कारण कहा जाता है। जिसमें सत्यस्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हुआ है, ऐसा श्रुति वर्णन करती है6 ॥ ३० ॥
अद्भुतं चाप्यचिन्त्यं च सर्वत्र समतां गतम् ।
अव्यक्तं कारणं सूक्ष्मं यत्तत् सदसदात्मकम् ॥ ३१ ॥
वह ब्रह्म अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समानरूपसे व्याप्त, अव्यक्त, सूक्ष्म, कारणस्वरूप एवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत्-असत्रूपमें उपलब्ध होता है, सब वही है ॥ ३१ ॥
यस्मात् पितामहो जज्ञे प्रभुरेकः प्रजापतिः ।
ब्रह्मा सुरगुरुः स्थाणुर्मनुः कः परमेष्ठ्यथ ॥ ३२ ॥
प्राचेतसस्तथा दक्षो दक्षपुत्राश्च सप्त वै ।
ततः प्रजानां पतयः प्राभवन्नेकविंशतिः ॥ ३३ ॥
उस अण्डसे ही प्रथम देहधारी, प्रजापालक प्रभु, देवगुरु पितामह ब्रह्मा तथा रुद्र, मनु, प्रजापति, परमेष्ठी, प्रचेताओंके पुत्र, दक्ष तथा दक्षके सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत, अंगिरा, कर्दम और अश्व) प्रकट हुए। तत्पश्चात् इक्कीस प्रजापति (मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु)7 पैदा हुए ॥ ३२-३३ ॥
पुरुषश्चाप्रमेयात्मा यं सर्व ऋषयो विदुः ।
विश्वेदेवास्तथादित्या वसवोऽथाश्विनावपि ॥ ३४ ॥
जिन्हें मत्स्य-कूर्म आदि अवतारोंके रूपमें सभी ऋषि-मुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा विष्णुरूप पुरुष और उनकी विभूतिरूप विश्वेदेव, आदित्य, वसु एवं अश्विनीकुमार आदि भी क्रमशः प्रकट हुए हैं ॥ ३४ ॥
यक्षाः साध्याः पिशाचाश्च गुह्यकाः पितरस्तथा ।
ततः प्रसूता विद्वांसः शिष्टा ब्रह्मर्षिसत्तमाः ॥ ३५ ॥
तदनन्तर यक्ष, साध्य, पिशाच, गुह्यक और पितर एवं तत्त्वज्ञानी सदाचारपरायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए ॥ ३५ ॥
राजर्षयश्च बहवः सर्वे समुदिता गुणैः ।
आपो द्यौः पृथिवी वायुरन्तरिक्षं दिशस्तथा ॥ ३६ ॥
इसी प्रकार बहुत-से राजर्षियोंका प्रादुर्भाव हुआ है, जो सब-के-सब शौर्यादि सद्गुणोंसे सम्पन्न थे। क्रमशः उसी ब्रह्माण्डसे जल, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष और दिशाएँ भी प्रकट हुई हैं ॥ ३६ ॥
संवत्सरर्तवो मासाः पक्षाहोरात्रयः क्रमात् ।
यच्चान्यदपि तत् सर्वं सम्भूतं लोकसाक्षिकम् ॥ ३७ ॥
संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, दिन तथा रात्रिका प्राकट्य भी क्रमशः उसीसे हुआ है। इसके सिवा और भी जो कुछ लोकमें देखा या सुना जाता है, वह सब उसी अण्डसे उत्पन्न हुआ है ॥ ३७ ॥
यदिदं दृश्यते किंचिद् भूतं स्थावरजङ्गमम् ।
पुनः संक्षिप्यते सर्वं जगत् प्राप्ते युगक्षये ॥ ३८ ॥
यह जो कुछ भी स्थावर-जंगम जगत् दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलयकाल आनेपर अपने कारणमें विलीन हो जाता है ॥ ३८ ॥
यथर्तावृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये ।
दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु ॥ ३९ ॥
जैसे ऋतुके आनेपर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकारके चिह्न प्रकट होते हैं और ऋतु बीत जानेपर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार कल्पका आरम्भ होनेपर पूर्ववत् वे-वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्पके अन्तमें उनका लय हो जाता है ॥ ३९ ॥
एवमेतदनाद्यन्तं भूतसंहारकारकम् ।
अनादिनिधनं लोके चक्रं सम्परिवर्तते ॥ ४० ॥
इस प्रकार यह अनादि और अनन्त काल-चक्र लोकमें प्रवाहरूपसे नित्य घूमता रहता है। इसीमें प्राणियोंकी उत्पत्ति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उद्भव और विनाश नहीं होता ॥ ४० ॥
त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि च ।
त्रयस्त्रिंशच्च देवानां सृष्टिः संक्षेपलक्षणा ॥ ४१ ॥
देवताओंकी सृष्टि संक्षेपसे तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती है ॥ ४१ ॥
दिवःपुत्रो बृहद्भानुश्चक्षुरात्मा विभावसुः ।
सविता स ऋचीकोऽर्को भानुराशावहो रविः ॥ ४२ ॥
पुरा विवस्वतः सर्वे मह्यस्तेषां तथावरः ।
देवभ्राट् तनयस्तस्य सुभाडिति ततः स्मृतः ॥ ४३ ॥
पूर्वकालमें दिवःपुत्र, बृहत्, भानु, चक्षु, आत्मा, विभावसु, सविता, ऋचीक, अर्क, भानु, आशावह तथा रवि—ये सब शब्द विवस्वान्के बोधक माने गये हैं, इन सबमें जो अन्तिम ‘रवि’ हैं वे ‘मह्य’ (मही—पृथ्वीमें गर्भ स्थापन करनेवाले एवं पूज्य) माने गये हैं। इनके तनय देवभ्राट् हैं और देवभ्राट्के तनय सुभ्राट् माने गये हैं ॥ ४२-४३ ॥
सुभ्राजस्तु त्रयः पुत्राः प्रजावन्तो बहुश्रुताः ।
दशज्योतिः शतज्योतिः सहस्रज्योतिरेव च ॥ ४४ ॥
सुभ्राट्के तीन पुत्र हुए, वे सब-के-सब संतानवान् और बहुश्रुत (अनेक शास्त्रोंके) ज्ञाता हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं—दशज्योति, शतज्योति तथा सहस्रज्योति ॥ ४४ ॥
दशपुत्रसहस्राणि दशज्योतेर्महात्मनः ।
ततो दशगुणाश्चान्ये शतज्योतेरिहात्मजाः ॥ ४५ ॥
महात्मा दशज्योतिके दस हजार पुत्र हुए। उनसे भी दस गुने अर्थात् एक लाख पुत्र यहाँ शतज्योतिके हुए ॥ ४५ ॥
भूयस्ततो दशगुणाः सहस्रज्योतिषः सुताः ।
तेभ्योऽयं कुरुवंशश्च यदूनां भरतस्य च ॥ ४६ ॥
ययातीक्ष्वाकुवंशश्च राजर्षीणां च सर्वशः ।
सम्भूता बहवो वंशा भूतसर्गाः सुविस्तराः ॥ ४७ ॥
फिर उनसे भी दस गुने अर्थात् दस लाख पुत्र सहस्रज्योतिके हुए। उन्हींसे यह कुरुवंश, यदुवंश, भरतवंश, ययाति और इक्ष्वाकुके वंश तथा अन्य राजर्षियोंके सब वंश चले। प्राणियोंकी सृष्टिपरम्परा और बहुत-से वंश भी इन्हींसे प्रकट हो विस्तारको प्राप्त हुए हैं ॥ ४६-४७ ॥
भूतस्थानानि सर्वाणि रहस्यं त्रिविधं च यत् ।
वेदा योगः सविज्ञानो धर्मोऽर्थः काम एव च ॥ ४८ ॥
धर्मकामार्थयुक्तानि शास्त्राणि विविधानि च ।
लोकयात्राविधानं च सर्वं तद् दृष्टवानृषिः ॥ ४९ ॥
भगवान् वेदव्यासने, अपनी ज्ञानदृष्टिसे सम्पूर्ण प्राणियोंके निवासस्थान, धर्म, अर्थ और कामके भेदसे त्रिविध रहस्य, कर्मोपासनाज्ञानरूप वेद, विज्ञानसहित योग, धर्म, अर्थ एवं काम, इन धर्म, काम और अर्थरूप तीन पुरुषार्थोंके प्रतिपादन करनेवाले विविध शास्त्र, लोकव्यवहारकी सिद्धिके लिये आयुर्वेद, धनुर्वेद, स्थापत्यवेद, गान्धर्ववेद आदि लौकिक शास्त्र सब उन्हीं दशज्योति आदिसे हुए हैं—इस तत्त्वको और उनके स्वरूपको भलीभाँति अनुभव किया ॥ ४८-४९ ॥
इतिहासाः सवैयाख्या विविधाः श्रुतयोऽपि च ।
इह सर्वमनुक्रान्तमुक्तं ग्रन्थस्य लक्षणम् ॥ ५० ॥
उन्होंने ही इस महाभारत ग्रन्थमें, व्याख्याके साथ उस सब इतिहासका तथा विविध प्रकारकी श्रुतियोंके रहस्य आदिका पूर्णरूपसे निरूपण किया है और इस पूर्णताको ही इस ग्रन्थका लक्षण बताया गया है ॥ ५० ॥
विस्तीर्यैतन्महज्ज्ञानमृषिः संक्षिप्य चाब्रवीत् ।
इष्टं हि विदुषां लोके समासव्यासधारणम् ॥ ५१ ॥
महर्षिने इस महान् ज्ञानका संक्षेप और विस्तार दोनों ही प्रकारसे वर्णन किया है; क्योंकि संसारमें विद्वान् पुरुष संक्षेप और विस्तार दोनों ही रीतियोंको पसंद करते हैं ॥ ५१ ॥
मन्वादि भारतं केचिदास्तीकादि तथा परे ।
तथोपरिचराद्यन्ये विप्राः सम्यगधीयते ॥ ५२ ॥
कोई-कोई इस ग्रन्थका आरम्भ ‘नारायणं नमस्कृत्य’-से मानते हैं और कोई-कोई आस्तीकपर्वसे। दूसरे विद्वान् ब्राह्मण उपरिचर वसुकी कथासे इसका विधिपूर्वक पाठ प्रारम्भ करते हैं ॥ ५२ ॥
विविधं संहिताज्ञानं दीपयन्ति मनीषिणः ।
व्याख्यातुं कुशलाः केचिद् ग्रन्थान् धारयितुं परे ॥ ५३ ॥
विद्वान् पुरुष इस भारतसंहिताके ज्ञानको विविध प्रकारसे प्रकाशित करते हैं। कोई-कोई ग्रन्थकी व्याख्या करके समझानेमें कुशल होते हैं तो दूसरे विद्वान् अपनी तीक्ष्ण मेधाशक्तिके द्वारा इन ग्रन्थोंको धारण करते हैं ॥ ५३ ॥
तपसा ब्रह्मचर्येण व्यस्य वेदं सनातनम् ।
इतिहासमिमं चक्रे पुण्यं सत्यवतीसुतः ॥ ५४ ॥
सत्यवतीनन्दन भगवान् व्यासने अपनी तपस्या एवं ब्रह्मचर्यकी शक्तिसे सनातन वेदका विस्तार करके इस लोकपावन पवित्र इतिहासका निर्माण किया है ॥ ५४ ॥
पराशरात्मजो विद्वान् ब्रह्मर्षिः संशितव्रतः ।
तदाख्यानवरिष्ठं स कृत्वा द्वैपायनः प्रभुः ॥ ५५ ॥
कथमध्यापयानीह शिष्यान्नित्यन्वचिन्तयत् ।
तस्य तच्चिन्तितं ज्ञात्वा ऋषेर्द्वैपायनस्य च ॥ ५६ ॥
तत्राजगाम भगवान् ब्रह्मा लोकगुरुः स्वयम् ।
प्रीत्यर्थं तस्य चैवर्षेर्लोकानां हितकाम्यया ॥ ५७ ॥
प्रशस्त व्रतधारी, निग्रहानुग्रह-समर्थ, सर्वज्ञ पराशरनन्दन ब्रह्मर्षि श्रीकृष्णद्वैपायन इस इतिहासशिरोमणि महाभारतकी रचना करके यह विचार करने लगे कि अब शिष्योंको इस ग्रन्थका अध्ययन कैसे कराऊँ? जनतामें इसका प्रचार कैसे हो? द्वैपायन ऋषिका यह विचार जानकर लोकगुरु भगवान् ब्रह्मा उन महात्माकी प्रसन्नता तथा लोककल्याणकी कामनासे स्वयं ही व्यासजीके आश्रमपर पधारे ॥ ५५—५७ ॥
तं दृष्ट्वा विस्मितो भूत्वा प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः ।
आसनं कल्पयामास सर्वैर्मुनिगणैर्वृतः ॥ ५८ ॥
व्यासजी ब्रह्माजी को देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और खड़े रहे। फिर सावधान होकर सब ऋषि-मुनियोंके साथ उन्होंने ब्रह्माजीके लिये आसनकी व्यवस्था की ॥ ५८ ॥
हिरण्यगर्भमासीनं तस्मिंस्तु परमासने ।
परिवृत्यासनाभ्याशे वासवेयः स्थितोऽभवत् ॥ ५९ ॥
जब उस श्रेष्ठ आसनपर ब्रह्माजी विराज गये, तब व्यासजीने उनकी परिक्रमा की और ब्रह्माजीके आसनके समीप ही विनयपूर्वक खड़े हो गये ॥ ५९ ॥
अनुज्ञातोऽथ कृष्णस्तु ब्रह्मणा परमेष्ठिना ।
निषसादासनाभ्याशे प्रीयमाणः शुचिस्मितः ॥ ६० ॥
परमेष्ठी ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे उनके आसनके पास ही बैठ गये। उस समय व्यासजीके हृदयमें आनन्दका समुद्र उमड़ रहा था और मुखपर मन्द-मन्द पवित्र मुसकान लहरा रही थी ॥ ६० ॥
उवाच स महातेजा ब्रह्माणं परमेष्ठिनम् ।
कृतं मयेदं भगवन् काव्यं परमपूजितम् ॥ ६१ ॥
परम तेजस्वी व्यासजीने परमेष्ठी ब्रह्माजीसे निवेदन किया—‘भगवन्! मैंने यह सम्पूर्ण लोकोंसे अत्यन्त पूजित एक महाकाव्यकी रचना की है’ ॥ ६१ ॥
ब्रह्मन् वेदरहस्यं च यच्चान्यत् स्थापितं मया ।
साङ्गोपनिषदां चैव वेदानां विस्तरक्रिया ॥ ६२ ॥
ब्रह्मन्! मैंने इस महाकाव्यमें सम्पूर्ण वेदोंका गुप्ततम रहस्य तथा अन्य सब शास्त्रोंका सार-सार संकलित करके स्थापित कर दिया है। केवल वेदोंका ही नहीं, उनके अंग एवं उपनिषदोंका भी इसमें विस्तारसे निरूपण किया है ॥ ६२ ॥
इतिहासपुराणानामुन्मेषं निर्मितं च यत् ।
भूतं भव्यं भविष्यं च त्रिविधं कालसंज्ञितम् ॥ ६३ ॥
इस ग्रन्थमें इतिहास और पुराणोंका मन्थन करके उनका प्रशस्त रूप प्रकट किया गया है। भूत, वर्तमान और भविष्यकालकी इन तीनों संज्ञाओंका भी वर्णन हुआ है ॥ ६३ ॥
जरामृत्युभयव्याधिभावाभावविनिश्चयः ।
विविधस्य च धर्मस्य ह्याश्रमाणां च लक्षणम् ॥ ६४ ॥
इस ग्रन्थमें बुढ़ापा, मृत्यु, भय, रोग और पदार्थोंके सत्यत्व और मिथ्यात्वका विशेषरूपसे निश्चय किया गया है तथा अधिकारी-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रकारके धर्मों एवं आश्रमोंका भी लक्षण बताया गया है ॥ ६४ ॥
चातुर्वर्ण्यविधानं च पुराणानां च कृत्स्नशः ।
तपसो ब्रह्मचर्यस्य पृथिव्याश्चन्द्रसूर्ययोः ॥ ६५ ॥
ग्रहनक्षत्रताराणां प्रमाणं च युगैः सह ।
ऋचो यजूंषि सामानि वेदाध्यात्मं तथैव च ॥ ६६ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—इन चारों वर्णोंके कर्तव्यका विधान, पुराणोंका सम्पूर्ण मूलतत्त्व भी प्रकट हुआ है। तपस्या एवं ब्रह्मचर्यके स्वरूप, अनुष्ठान एवं फलोंका विवरण, पृथ्वी, चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग—इन सबके परिमाण और प्रमाण, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और इनके आध्यात्मिक अभिप्राय और अध्यात्मशास्त्रका इस ग्रन्थमें विस्तारसे वर्णन किया गया है ॥ ६५-६६ ॥
न्यायशिक्षाचिकित्सा च दानं पाशुपतं तथा ।
हेतुनैव समं जन्म दिव्यमानुषसंज्ञितम् ॥ ६७ ॥
न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान तथा पाशुपत (अन्तर्यामीकी महिमा)-का भी इसमें विशद निरूपण है। साथ ही यह भीबतलाया गया है कि देवता, मनुष्य आदि भिन्न-भिन्न योनियोंमें जन्मका कारण क्या है? ॥ ६७ ॥
तीर्थानां चैव पुण्यानां देशानां चैव कीर्तनम् ।
नदीनां पर्वतानां च वनानां सागरस्य च ॥ ६८ ॥
लोकपावन तीर्थों, देशों, नदियों, पर्वतों, वनों और समुद्रका भी इसमें वर्णन किया गया है ॥ ६८ ॥
पुराणां चैव दिव्यानां कल्पानां युद्धकौशलम् ।
वाक्यजातिविशेषाश्च लोकयात्राक्रमश्च यः ॥ ६९ ॥
यच्चापि सर्वगं वस्तु तच्चैव प्रतिपादितम् ।
परं न लेखकः कश्चिदेतस्य भुवि विद्यते ॥ ७० ॥
दिव्य नगर एवं दुर्गोंके निर्माणका कौशल तथा युद्धकी निपुणताका भी वर्णन है। भिन्न-भिन्न भाषाओं और जातियोंकी जो विशेषताएँ हैं, लोकव्यवहारकी सिद्धिके लिये जो कुछ आवश्यक है तथा और भी जितने लोकोपयोगी पदार्थ हो सकते हैं, उन सबका इसमें प्रतिपादन किया गया है; परंतु मुझे इस बातकी चिन्ता है कि पृथ्वीमें इस ग्रन्थको लिख सके ऐसा कोई नहीं है’ ॥ ६९-७० ॥
ब्रह्मोवाच
तपोविशिष्टादपि वै विशिष्टान्मुनिसंचयात् ।
मन्ये श्रेष्ठतरं त्वां वै रहस्यज्ञानवेदनात् ॥ ७१ ॥
ब्रह्माजीने कहा—व्यासजी! संसारमें विशिष्ट तपस्या और विशिष्ट कुलके कारण जितने भी श्रेष्ठ ऋषि-मुनि हैं, उनमें मैं तुम्हें सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ; क्योंकि तुम जगत्, जीव और ईश्वर-तत्त्वका जो ज्ञान है, उसके ज्ञाता हो ॥ ७१ ॥
जन्मप्रभृति सत्यां ते वेद्मि गां ब्रह्मवादिनीम् ।
त्वया च काव्यमित्युक्तं तस्मात् काव्यं भविष्यति ॥ ७२ ॥
मैं जानता हूँ कि आजीवन तुम्हारी ब्रह्मवादिनी वाणी सत्य भाषण करती रही है और तुमने अपनी रचनाको काव्य कहा है, इसलिये अब यह काव्यके नामसे ही प्रसिद्ध होगी ॥ ७२ ॥
अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे ।
विशेषणे गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः ॥ ७३ ॥
काव्यस्य लेखनार्थाय गणेशः स्मर्यतां मुने ।
संसारके बड़े-से-बड़े कवि भी इस काव्यसे बढ़कर कोई रचना नहीं कर सकेंगे। ठीक वैसे ही, जैसे ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तीनों आश्रम अपनी विशेषताओंद्वारा गृहस्थाश्रमसे आगे नहीं बढ़ सकते। मुनिवर! अपने काव्यको लिखवानेके लिये तुम गणेशजीका स्मरण करो ॥ ७३ ॥
सौतिरुवाच
एवमाभाष्य तं ब्रह्मा जगाम स्वं निवेशनम् ॥ ७४ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं – महात्माओ! ब्रह्माजी व्यासजीसे इस प्रकार सम्भाषण करके अपने धाम ब्रह्मलोकमें चले गये ॥ ७४ ॥
ततः सस्मार हेरम्बं व्यासः सत्यवतीसुतः ।
स्मृतमात्रो गणेशानो भक्तचिन्तितपूरकः ॥ ७५ ॥
तत्राजगाम विघ्नेशो वेदव्यासो यतः स्थितः ।
पूजितश्चोपविष्टश्च व्यासेनोक्तस्तदाऽनघ ॥ ७६ ॥
निष्पाप शौनक! तदनन्तर सत्यवतीनन्दन व्यासजीने भगवान् गणेशका स्मरण किया और स्मरण करते ही भक्तवांछाकल्पतरु विघ्नेश्वर श्रीगणेशजी महाराज वहाँ आये, जहाँ व्यासजी विद्यमान थे। व्यासजीने गणेशजीका बड़े आदर और प्रेमसे स्वागत-सत्कार किया और वे जब बैठ गये, तब उनसे कहा— ॥ ७५-७६ ॥
लेखको भारतस्यास्य भव त्वं गणनायक ।
मयैव प्रोच्यमानस्य मनसा कल्पितस्य च ॥ ७७ ॥
‘गणनायक! आप मेरे द्वारा निर्मित इस महाभारत-ग्रन्थके लेखक बन जाइये; मैं बोलकर लिखाता जाऊँगा। मैंने मन-ही-मन इसकी रचना कर ली है’ ॥ ७७ ॥
श्रुत्वैतत् प्राह विघ्नेशो यदि मे लेखनी क्षणम् ।
लिखितो नावतिष्ठेत तदा स्यां लेखको ह्यहम् ॥ ७८ ॥
यह सुनकर विघ्नराज श्रीगणेशजीने कहा – ‘व्यासजी! यदि लिखते समय क्षणभरके लिये भी मेरी लेखनी न रुके तो मैं इस ग्रन्थका लेखक बन सकता हूँ’ ॥ ७८ ॥
व्यासोऽप्युवाच तं देवमबुद्ध्वा मा लिख क्वचित् ।
ओमित्युक्त्वा गणेशोऽपि बभूव किल लेखकः ॥ ७९ ॥
व्यासजीने भी गणेशजीसे कहा—‘बिना समझे किसी भी प्रसंगमें एक अक्षर भी न लिखियेगा।’ गणेशजीने ‘ॐ’ कहकर स्वीकार किया और लेखक बन गये ॥ ७९ ॥
ग्रन्थग्रन्थिं तदा चक्रे मुनिर्गूढं कुतूहलात् ।
यस्मिन् प्रतिज्ञया प्राह मुनिर्द्वैपायनस्त्विदम् ॥ ८० ॥
तब व्यासजी भी कुतूहलवश ग्रन्थमें गाँठ लगाने लगे। वे ऐसे-ऐसे श्लोक बोल देते जिनका अर्थ बाहरसे दूसरा मालूम पड़ता और भीतर कुछ और होता। इसके सम्बन्धमें प्रतिज्ञापूर्वक श्रीकृष्णद्वैपायन मुनिने यह बात कही है— ॥ ८० ॥
अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च ।
अहं वेद्मि शुको वेत्ति संजयो वेत्ति वा न वा ॥ ८१ ॥
इस ग्रन्थमें ८,८०० (आठ हजार आठ सौ) श्लोक ऐसे हैं, जिनका अर्थ मैं समझता हूँ, शुकदेव समझते हैं और संजय समझते हैं या नहीं, इसमें संदेह है ॥ ८१ ॥
तच्छ्लोककूटमद्यापि ग्रथितं सुदृढं मुने ।
भेत्तुं न शक्यतेऽर्थस्य गूढत्वात् प्रश्रितस्य च ॥ ८२ ॥
मुनिवर! वे कूट श्लोक इतने गुँथे हुए और गम्भीरार्थक हैं कि आज भी उनका रहस्य-भेदन नहीं किया जा सकता; क्योंकि उनका अर्थ भी गूढ़ है और शब्द भी योगवृत्ति और रूढवृत्ति आदि रचनावैचित्र्यके कारण गम्भीर हैं ॥ ८२ ॥
सर्वज्ञोऽपि गणेशो यत् क्षणमास्ते विचारयन् ।
तावच्चकार व्यासोऽपि श्लोकानन्यान् बहूनपि ॥ ८३ ॥
स्वयं सर्वज्ञ गणेशजी भी उन श्लोकोंका विचार करते समय क्षणभरके लिये ठहर जाते थे। इतने समयमें व्यासजी भी और बहुत-से श्लोकोंकी रचना कर लेते थे ॥ ८३ ॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य लोकस्य तु विचेष्टतः ।
ज्ञानाञ्जनशलाकाभिर्नेत्रोन्मीलनकारकम् ॥ ८४ ॥
धर्मार्थकाममोक्षार्थैः समासव्यासकीर्तनैः ।
तथा भारतसूर्येण नृणां विनिहतं तमः ॥ ८५ ॥
संसारी जीव अज्ञानान्धकारसे अंधे होकर छटपटा रहे हैं। यह महाभारत ज्ञानांजनकी शलाका लगाकर उनकी आँख खोल देता है। वह शलाका क्या है? धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थोंका संक्षेप और विस्तारसे वर्णन। यह न केवल अज्ञानकी रतौंधी दूर करता, प्रत्युत सूर्यके समान उदित होकर मनुष्योंकी आँखके सामनेका सम्पूर्ण अन्धकार ही नष्ट कर देता है ॥ ८४-८५ ॥
पुराणपूर्णचन्द्रेण श्रुतिज्योत्स्नाः प्रकाशिताः ।
नृबुद्धिकैरवाणां च कृतमेतत् प्रकाशनम् ॥ ८६ ॥
यह भारत-पुराण पूर्ण चन्द्रमाके समान है, जिससे श्रुतियोंकी चाँदनी छिटकती है और मनुष्योंकी बुद्धिरूपी कुमुदिनी सदाके लिये खिल जाती है ॥ ८६ ॥
इतिहासप्रदीपेन मोहावरणघातिना ।
लोकगर्भगृहं कृत्स्नं यथावत् सम्प्रकाशितम् ॥ ८७ ॥
यह भारत-इतिहास एक जाज्वल्यमान दीपक है। यह मोहका अन्धकार मिटाकर लोगोंके अन्तःकरण-रूप सम्पूर्ण अन्तरंग गृहको भलीभाँति ज्ञानालोकसे प्रकाशित कर देता है ॥ ८७ ॥
संग्रहाध्यायबीजो वै पौलोमास्तीकमूलवान् ।
सम्भवस्कन्धविस्तारः सभारण्यविटङ्कवान् ॥ ८८ ॥
महाभारत-वृक्षका बीज है संग्रहाध्याय और जड़ है पौलोम एवं आस्तीकपर्व। सम्भवपर्व इसके स्कन्धका विस्तार है और सभा तथा अरण्यपर्व पक्षियोंके रहनेयोग्य कोटर हैं ॥ ८८ ॥
अरणीपर्वरूपाढ्यो विराटोद्योगसारवान् ।
भीष्मपर्वमहाशाखो द्रोणपर्वपलाशवान् ॥ ८९ ॥
अरणीपर्व इस वृक्षका ग्रन्थिस्थल है। विराट और उद्योगपर्व इसका सारभाग है। भीष्मपर्व इसकी बड़ी शाखा है और द्रोणपर्व इसके पत्ते हैं ॥ ८९ ॥
कर्णपर्वसितैः पुष्पैः शल्यपर्वसुगन्धिभिः ।
स्त्रीपर्वैषीकविश्रामः शान्तिपर्वमहाफलः ॥ ९० ॥
कर्णपर्व इसके श्वेत पुष्प हैं और शल्यपर्व सुगन्ध। स्त्रीपर्व और ऐषीकपर्व इसकी छाया है तथा शान्तिपर्व इसका महान् फल है ॥ ९० ॥
अश्वमेधामृतरसस्त्वाश्रमस्थानसंश्रयः ।
मौसलः श्रुतिसंक्षेपः शिष्टद्विजनिषेवितः ॥ ९१ ॥
अश्वमेधपर्व इसका अमृतमय रस है और आश्रम-वासिकपर्व आश्रय लेकर बैठनेका स्थान। मौसलपर्व श्रुति-रूपा ऊँची-ऊँची शाखाओंका अन्तिम भाग है तथा सदाचार एवं विद्यासे सम्पन्न द्विजाति इसका सेवन करते हैं ॥ ९१ ॥
सर्वेषां कविमुख्यानामुपजीव्यो भविष्यति ।
पर्जन्य इव भूतानामक्षयो भारतद्रुमः ॥ ९२ ॥
संसारमें जितने भी श्रेष्ठ कवि होंगे उनके काव्यके लिये यह मूल आश्रय होगा। जैसे मेघ सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये जीवनदाता है, वैसे ही यह अक्षय भारत-वृक्ष है ॥ ९२ ॥सौतिरुवाच
तस्य वृक्षस्य वक्ष्यामि शश्वत्पुष्पफलोदयम् ।
स्वादुमेध्यरसोपेतमच्छेद्यममरैरपि ॥ ९३ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं—यह भारत एक वृक्ष है। इसके स्वादु, पवित्र, सरस एवं अविनाशी पुष्प तथा फल हैं—धर्म और मोक्ष। उन्हें देवता भी इस वृक्षसे अलग नहीं कर सकते; अब मैं उन्हींका वर्णन करूँगा ॥ ९३ ॥
मातुर्नियोगाद् धर्मात्मा गाङ्गेयस्य च धीमतः ।
क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य कृष्णद्वैपायनः पुरा ॥ ९४ ॥
त्रीनग्नीनिव कौरव्यान् जनयामास वीर्यवान् ।
उत्पाद्य धृतराष्ट्रं च पाण्डुं विदुरमेव च ॥ ९५ ॥
पहलेकी बात है—शक्तिशाली, धर्मात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन (व्यास)-ने अपनी माता सत्यवती और परमज्ञानी गंगापुत्र भीष्मपितामहकी आज्ञासे विचित्रवीर्यकी पत्नी अम्बिका आदिके गर्भसे तीन अग्नियोंके समान तेजस्वी तीन कुरुवंशी पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम हैं—धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर ॥ ९४-९५ ॥
जगाम तपसे धीमान् पुनरेवाश्रमं प्रति ।
तेषु जातेषु वृद्धेषु गतेषु परमां गतिम् ॥ ९६ ॥
अब्रवीद् भारतं लोके मानुषेऽस्मिन् महानृषिः ।
जनमेजयेन पृष्टः सन् ब्राह्मणैश्च सहस्रशः ॥ ९७ ॥
शशास शिष्यमासीनं वैशम्पायनमन्तिके ।
ससदस्यैः सहासीनः श्रावयामास भारतम् ॥ ९८ ॥
कर्मान्तरेषु यज्ञस्य चोद्यमानः पुनः पुनः ।
इन तीन पुत्रोंको जन्म देकर परम ज्ञानी व्यासजी फिर अपने आश्रमपर चले गये। जब वे तीनों पुत्र वृद्ध हो परम गतिको प्राप्त हुए, तब महर्षि व्यासजीने इस मनुष्यलोकमें महाभारतका प्रवचन किया। जनमेजय और हजारों ब्राह्मणोंके प्रश्न करनेपर व्यासजीने पास ही बैठे अपने शिष्य वैशम्पायनको आज्ञा दी कि तुम इन लोगोंको महाभारत सुनाओ। वैशम्पायन याज्ञिक सदस्योंके साथ ही बैठे थे, अतः जब यज्ञकर्ममें बीच-बीचमें अवकाश मिलता, तब यजमान आदिके बार-बार आग्रह करनेपर वे उन्हें महाभारत सुनाया करते थे ॥ ९६-९८ ॥
विस्तरं कुरुवंशस्य गान्धार्या धर्मशीलताम् ॥ ९९ ॥
क्षत्तुः प्रज्ञां धृतिं कृन्त्याः सम्यग् द्वैपायनोऽब्रवीत् ।
वासुदेवस्य माहात्म्यं पाण्डवानां च सत्यताम् ॥ १०० ॥
दुर्वृत्तं धार्तराष्ट्राणामुक्तवान् भगवानृषिः ।
इदं शतसहस्रं तु लोकानां पुण्यकर्मणाम् ॥ १०१ ॥
उपाख्यानैः सह ज्ञेयमाद्यं भारतमुत्तमम् ।
इस महाभारत-ग्रन्थमें व्यासजीने कुरुवंशके विस्तार, गान्धारीकी धर्मशीलता, विदुरकी उत्तम प्रज्ञा और कुन्तीदेवीके धैर्यका भलीभाँति वर्णन किया है। महर्षि भगवान् व्यासने इसमें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके माहात्म्य, पाण्डवोंकी सत्यपरायणता तथा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन आदिके दुर्व्यवहारोंका स्पष्ट उल्लेख किया है। पुण्यकर्मा मानवोंके उपाख्यानोंसहित एक लाख श्लोकोंके इस उत्तम ग्रन्थको आद्यभारत (महाभारत) जानना चाहिये ॥ ९९—१०१ ॥
चतुर्विंशतिसाहस्रीं चक्रे भारतसंहिताम् ॥ १०२ ॥
उपाख्यानैर्विना तावद् भारतं प्रोच्यते बुधैः ।
ततोऽप्यर्धशतं भूयः संक्षेपं कृतवानृषिः ॥ १०३ ॥
अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तान्तं सर्वपर्वणाम् ।
इदं द्वैपायनः पूर्वं पुत्रमध्यापयच्छुकम् ॥ १०४ ॥
तदनन्तर व्यासजीने उपाख्यानभागको छोड़कर चौबीस हजार श्लोकोंकी भारतसंहिता बनायी; जिसे विद्वान् पुरुष भारत कहते हैं। इसके पश्चात् महर्षिने पुनः पर्वसहित ग्रन्थमें वर्णित वृत्तान्तोंकी अनुक्रमणिका (सूची)-का एक संक्षिप्त अध्याय बनाया, जिसमें केवल डेढ़ सौ श्लोक हैं। व्यासजीने सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेवजीको इस महाभारत-ग्रन्थका अध्ययन कराया ॥ १०२—१०४ ॥
ततोऽन्येभ्योऽनुरूपेभ्यः शिष्येभ्यः प्रददौ विभुः ।
षष्टिं शतसहस्राणि चकारान्यां स संहिताम् ॥ १०५ ॥
तदनन्तर उन्होंने दूसरे-दूसरे सुयोग्य (अधिकारी एवं अनुगत) शिष्योंको इसका उपदेश दिया। तत्पश्चात् भगवान् व्यासने साठ लाख श्लोकोंकी एक दूसरी संहिता बनायी ॥ १०५ ॥
त्रिंशच्छतसहस्रं च देवलोके प्रतिष्ठितम् ।
पित्र्ये पञ्चदश प्रोक्तं गन्धर्वेषु चतुर्दश ॥ १०६ ॥
उसके तीस लाख श्लोक देवलोकमें समादृत हो रहे हैं, पितृलोकमें पंद्रह लाख तथा गन्धर्वलोकमें चौदह लाख श्लोकोंका पाठ होता है ॥ १०६ ॥
एकं शतसहस्रं तु मानुषेषु प्रतिष्ठितम् ।
नारदोऽश्रावयद् देवानसितो देवलः पितॄन् ॥ १०७ ॥
इस मनुष्यलोकमें एक लाख श्लोकोंका आद्यभारत (महाभारत) प्रतिष्ठित है। देवर्षि नारदने देवताओंको और असित-देवलने पितरोंको इसका श्रवण कराया है ॥ १०७ ॥
गन्धर्वयक्षरक्षांसि श्रावयामास वै शुकः ।
अस्मिंस्तु मानुषे लोके वैशम्पायन उक्तवान् ॥ १०८ ॥
शिष्यो व्यासस्य धर्मात्मा सर्ववेदविदां वरः ।
एकं शतसहस्रं तु मयोक्तं वै निबोधत ॥ १०९ ॥
शुकदेवजीने गन्धर्व, यक्ष तथा राक्षसोंको महाभारतकी कथा सुनायी है; परंतु इस मनुष्यलोकमें सम्पूर्ण वेदवेत्ताओंके शिरोमणि व्यास-शिष्य धर्मात्मा वैशम्पायनजीने इसका प्रवचन किया है। मुनिवरो! वही एक लाख श्लोकोंका महाभारत आपलोग मुझसे श्रवण कीजिये ॥ १०८-१०९ ॥
दुर्योधनो मन्युमयो महाद्रुमः
स्कन्धः कर्णः शकुनिस्तस्य शाखाः ।
दुःशासनः पुष्पफले समृद्धे
मूलं राजा धृतराष्ट्रोऽमनीषी ॥ ११० ॥
दुर्योधन क्रोधमय विशाल वृक्षके समान है। कर्ण स्कन्ध, शकुनि शाखा और दुःशासन समृद्ध फल-पुष्प है। अज्ञानी राजा धृतराष्ट्र ही इसके मूल हैं8 ॥ ११० ॥
युधिष्ठिरो धर्ममयो महाद्रुमः
स्कन्धोऽर्जुनो भीमसेनोऽस्य शाखाः ।
माद्रीसुतौ पुष्पफले समृद्धे
मूलं कृष्णो ब्रह्म च ब्राह्मणाश्च ॥ १११ ॥
युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। अर्जुन स्कन्ध, भीमसेन शाखा और माद्रीनन्दन इसके समृद्ध फल-पुष्प हैं। श्रीकृष्ण, वेद और ब्राह्मण ही इस वृक्षके मूल (जड़) हैं9 ॥ १११ ॥
पाण्डुर्जित्वा बहून् देशान् बुद्धया विक्रमणेन च ।
अरण्ये मृगयाशीलो न्यवसन्मुनिभिः सह ॥ ११२ ॥
महाराज पाण्डु अपनी बुद्धि और पराक्रमसे अनेक देशोंपर विजय पाकर (हिंसक) मृगोंको मारनेके स्वभाववाले होनेके कारण ऋषि-मुनियोंके साथ वनमें ही निवास करते थे ॥ ११२ ॥
मृगव्यवायनिधनात् कृच्छ्रां प्राप स आपदम् ।
जन्मप्रभृति पार्थानां तत्राचारविधिक्रमः ॥ ११३ ॥
एक दिन उन्होंने मृगरूपधारी महर्षिको मैथुनकालमें मार डाला। इससे वे बड़े भारी संकटमें पड़ गये (ऋषिने यह शाप दे दिया कि स्त्री-सहवास करनेपर तुम्हारी मृत्यु हो जायगी), यह संकट होते हुए भी युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंके जन्मसे लेकर जातकर्म आदि सब संस्कार वनमें ही हुए और वहीं उन्हें शील एवं सदाचारकी रक्षाका उपदेश हुआ ॥ ११३ ॥
मात्रोरभ्युपपत्तिश्च धर्मोपनिषदं प्रति ।
धर्मस्य वायोः शक्रस्य देवयोश्च तथाश्विनोः ॥ ११४ ॥
(पूर्वोक्त शाप होनेपर भी संतान होनेका कारण यह था कि) कुल-धर्मकी रक्षाके लिये दुर्वासाद्वारा प्राप्त हुई विद्याका आश्रय लेनेके कारण पाण्डवोंकी दोनों माताओं कुन्ती और माद्रीके समीप क्रमशः धर्म, वायु, इन्द्र तथा दोनों अश्विनीकुमार—इन देवताओंका आगमन सम्भव हो सका (इन्हींकी कृपासे युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन एवं नकुल-सहदेवकी उत्पत्ति हुई) ॥ ११४ ॥
(ततो धर्मोपनिषदः श्रुत्वा भर्तुः प्रिया पृथा ।
धर्मानिलेन्द्रान् स्तुतिभिर्जुहाव सुतवाञ्छया ।
तद्दत्तोपनिषन्माद्री चाश्विनावाजुहाव च ।)
तापसैः सह संवृद्धा मातृभ्यां परिरक्षिताः ।
मेध्यारण्येषु पुण्येषु महतामाश्रमेषु च ॥ ११५ ॥
पतिप्रिया कुन्तीने पतिके मुखसे धर्म-रहस्यकी बातें सुनकर पुत्र पानेकी इच्छासे मन्त्र-जपपूर्वक स्तुतिद्वारा धर्म, वायु और इन्द्र देवताका आवाहन किया। कुन्तीके उपदेश देनेपर माद्री भी उस मन्त्र-विद्याको जान गयी और उसने संतानके लिये दोनों अश्विनीकुमारोंका आवाहन किया। इस प्रकार इन पाँचों देवताओंसे पाण्डवोंकी उत्पत्ति हुई। पाँचों पाण्डव अपनी दोनों माताओंद्वारा ही पाले-पोसे गये। वे वनोंमें और महात्माओंके परम पुण्य आश्रमोंमें ही तपस्वी लोगोंके साथ दिनोदिन बढ़ने लगे ॥ ११५ ॥
ऋषिभिर्यत्तदाऽऽनीता धार्तराष्ट्रान् प्रति स्वयम् ।
शिशवश्चाभिरूपाश्च जटिला ब्रह्मचारिणः ॥ ११६ ॥
(पाण्डुकी मृत्यु होनेके पश्चात्) बड़े-बड़े ऋषि-मुनि स्वयं ही पाण्डवोंको लेकर धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रोंके पास आये। उस समय पाण्डव नन्हे-नन्हे शिशुके रूपमें बड़े ही सुन्दर लगते थे। वे सिरपर जटा धारण किये ब्रह्मचारीके वेशमें थे ॥ ११६ ॥
पुत्राश्च भ्रातरश्चेमे शिष्याश्च सुहृदश्च वः ।
पाण्डवा एत इत्युक्त्वा मुनयोऽन्तर्हितास्ततः ॥ ११७ ॥
ऋषियोंने वहाँ जाकर धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रोंसे कहा—‘ये तुम्हारे पुत्र, भाई, शिष्य और सुहृद् हैं। ये सभी महाराज पाण्डुके ही पुत्र हैं।’ इतना कहकर वे मुनि वहाँसे अन्तर्धान हो गये ॥ ११७ ॥
तांस्तैर्निवेदितान् दृष्ट्वा पाण्डवान् कौरवास्तदा ।
शिष्टाश्च वर्णाः पौरा ये ते हर्षाच्चुक्रुशुर्भृशम् ॥ ११८ ॥
ऋषियोंद्वारा लाये हुए उन पाण्डवोंको देखकर सभी कौरव और नगरनिवासी, शिष्ट तथा वर्णाश्रमी हर्षसे भरकर अत्यन्त कोलाहल करने लगे ॥ ११८ ॥
आहुः केचिन्न तस्यैते तस्यैत इति चापरे ।
यदा चिरमृतः पाण्डुः कथं तस्येति चापरे ॥ ११९ ॥
कोई कहते, ‘ये पाण्डुके पुत्र नहीं हैं।’ दूसरे कहते, ‘अजी! ये उन्हींके हैं।’ कुछ लोग कहते, ‘जब पाण्डुको मरे इतने दिन हो गये, तब ये उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं?’ ॥
स्वागतं सर्वथा दिष्ट्या पाण्डोः पश्याम संततिम् ।
उच्यतां स्वागतमिति वाचोऽश्रूयन्त सर्वशः ॥ १२० ॥
फिर सब लोग कहने लगे, ‘हम तो सर्वथा इनका स्वागत करते हैं। हमारे लिये बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज हम महाराज पाण्डुकी संतानको अपनी आँखोंसे देख रहे हैं।’ फिर तो सब ओरसे स्वागत बोलनेवालोंकी ही बातें सुनायी देने लगीं ॥ १२० ॥
तस्मिन्नुपरते शब्दे दिशः सर्वा निनादयन् ।
अन्तर्हितानां भूतानां निःस्वनस्तुमुलोऽभवत् ॥ १२१ ॥
दर्शकोंका वह तुमुल शब्द बन्द होनेपर सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करती हुई अदृश्य भूतों—देवताओंकी यह सम्मिलित आवाज (आकाशवाणी) गूँज उठी—‘ये पाण्डव ही हैं’ ॥ १२१ ॥
पुष्पवृष्टिः शुभा गन्धाः शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनाः ।
आसन् प्रवेशे पार्थानां तदद्भुतमिवाभवत् ॥ १२२ ॥
जिस समय पाण्डवोंने नगरमें प्रवेश किया, उसी समय फूलोंकी वर्षा होने लगी, सब ओर सुगन्ध छा गयी तथा शंख| और दुन्दुभियोंके मांगलिक शब्द सुनायी देने लगे। यह एक अद्भुत चमत्कारकी-सी बात हुई ॥ १२२ ॥
तत्प्रीत्या चैव सर्वेषां पौराणां हर्षसम्भवः ।
शब्द आसीन्महांस्तत्र दिवःस्पृक्कीर्तिवर्धनः ॥ १२३ ॥
सभी नागरिक पाण्डवोंके प्रेमसे आनन्दमें भरकर ऊँचे स्वरसे अभिनन्दन-ध्वनि करने लगे। उनका वह महान् शब्द स्वर्गलोकतक गूँज उठा जो पाण्डवोंकी कीर्ति बढ़ानेवाला था ॥ १२३ ॥
तेऽधीत्य निखिलान् वेदाञ्छास्त्राणि विविधानि च ।
न्यवसन् पाण्डवास्तत्र पूजिता अकुतोभयाः ॥ १२४ ॥
वे सम्पूर्ण वेद एवं विविध शास्त्रोंका अध्ययन करके वहीं निवास करने लगे। सभी उनका आदर करते थे और उन्हें किसीसे भय नहीं था ॥ १२४ ॥
युधिष्ठिरस्य शौचेन प्रीताः प्रकृतयोऽभवन् ।
धृत्या च भीमसेनस्य विक्रमेणार्जुनस्य च ॥ १२५ ॥
गुरुशुश्रूषया क्षान्त्या यमयोर्विनयेन च ।
तुतोष लोकः सकलस्तेषां शौर्यगुणेन च ॥ १२६ ॥
राष्ट्रकी सम्पूर्ण प्रजा युधिष्ठिरके शौचाचार, भीमसेनकी धृति, अर्जुनके विक्रम तथा नकुल-सहदेवकी गुरुशुश्रूषा, क्षमाशीलता और विनयसे बहुत ही प्रसन्न होती थी। सब लोग पाण्डवोंके शौर्यगुणसे संतोषका अनुभव करते थे10 ॥
समवाये ततो राज्ञां कन्यां भर्तृस्वयंवराम् ।
प्राप्तवानर्जुनः कृष्णां कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ॥ १२७ ॥
तदनन्तर कुछ कालके पश्चात् राजाओंके समुदायमें अर्जुनने अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करके स्वयं ही पति चुननेवाली
द्रुपदकन्या कृष्णाको प्राप्त किया ॥ १२७ ॥
ततः प्रभृति लोकेऽस्मिन् पूज्यः सर्वधनुष्मताम् ।
आदित्य इव दुष्प्रेक्ष्यः समरेष्वपि चाभवत् ॥ १२८ ॥
तभीसे वे इस लोकमें सम्पूर्ण धनुर्धारियोंके पूजनीय (आदरणीय) हो गये और समरांगणमें प्रचण्ड मार्तण्डकी भाँति प्रतापी अर्जुनकी ओर किसीके लिये आँख उठाकर देखना भी कठिन हो गया ॥ १२८ ॥
स सर्वान् पार्थिवाञ् जित्वा सर्वांश्च महतो गणान् ।
आजहारार्जुनो राज्ञो राजसूयं महाक्रतुम् ॥ १२९ ॥
उन्होंने पृथक्-पृथक् तथा महान् संघ बनाकर आये हुए सब राजाओंको जीतकर महाराज युधिष्ठिरके राजसूय नामक महायज्ञको सम्पन्न कराया ॥ १२९ ॥
अन्नवान् दक्षिणावांश्च सर्वैः समुदितो गुणैः ।
युधिष्ठिरेण सम्प्राप्तो राजसूयो महाक्रतुः ॥ १३० ॥
सुनयाद् वासुदेवस्य भीमार्जुनबलेन च ।
घातयित्वा जरासन्धं चैद्यं च बलगर्वितम् ॥ १३१ ॥
भगवान् श्रीकृष्णकी सुन्दर नीति और भीमसेन तथा अर्जुनकी शक्तिसे बलके घमण्डमें चूर रहनेवाले जरासन्ध और चेदिराज शिशुपालको मरवाकर धर्मराज युधिष्ठिरने महायज्ञ राजसूयका सम्पादन किया। वह यज्ञ सभी उत्तम11 गुणोंसे सम्पन्न था। उसमें प्रचुर अन्न और पर्याप्त दक्षिणाका वितरण किया गया था ॥ १३०-१३१ ॥
दुर्योधनं समागच्छन्नर्हणानि ततस्ततः ।
मणिकाञ्चनरत्नानि गोहस्त्यश्वधनानि च ॥ १३२ ॥
विचित्राणि च वासांसि प्रावारावरणानि च ।
कम्बलाजिनरत्नानि राङ्कवास्तरणानि च ॥ १३३ ॥
उस समय इधर-उधर विभिन्न देशों तथा नृपतियोंके यहाँसे मणि, सुवर्ण, रत्न, गाय, हाथी, घोड़े, धन-सम्पत्ति, विचित्र वस्त्र, तम्बू, कनात, परदे, उत्तम कम्बल, श्रेष्ठ मृगचर्म तथा रंकुनामक मृगके बालोंसे बने हुए कोमल बिछौने आदि जो उपहारकी बहुमूल्य वस्तुएँ आतीं, वे दुर्योधनके हाथमें दी जातीं—उसीकी देख-रेखमें रखी जाती थीं ॥ १३२-१३३ ॥
समृद्धां तां तथा दृष्ट्वा पाण्डवानां तदा श्रियम् ।
ईर्ष्यासमुत्थः सुमहांस्तस्य मन्युरजायत ॥ १३४ ॥
उस समय पाण्डवोंकी वह बढ़ी-चढ़ी समृद्धि-सम्पत्ति देखकर दुर्योधनके मनमें ईर्ष्याजनित महान् रोष एवं दुःखका उदय हुआ ॥ १३४ ॥
विमानप्रतिमां तत्र मयेन सुकृतां सभाम् ।
पाण्डवानामुपहृतां स दृष्ट्वा पर्यतप्यत ॥ १३५ ॥
उस अवसरपर मयदानवने पाण्डवोंको एक सभाभवन भेंटमें दिया था, जिसकी रूपरेखा विमानके समान थी। वह भवन उसके शिल्पकौशलका एक अच्छा नमूना था। उसे देखकर दुर्योधनको और अधिक संताप हुआ ॥ १३५ ॥
तत्रावहसितश्चासीत् प्रस्कन्दन्निव सम्भ्रमात् ।
प्रत्यक्षं वासुदेवस्य भीमेनानभिजातवत् ॥ १३६ ॥
उसी सभाभवनमें जब सम्भ्रम (जलमें स्थल और स्थलमें जलका भ्रम) होनेके कारण दुर्योधनके पाँव फिसलने-से लगे, तब भगवान् श्रीकृष्णके सामने ही भीमसेनने उसे गँवार-सा सिद्ध करते हुए उसकी हँसी उड़ायी थी ॥ १३६ ॥
स भोगान् विविधान् भुञ्जन् रत्नानि विविधानि च ।
कथितो धृतराष्ट्रस्य विवर्णो हरिणः कृशः ॥ १३७ ॥
दुर्योधन नाना प्रकारके भोग तथा भाँति-भाँतिके रत्नोंका उपयोग करते रहनेपर भी दिनोदिन दुबला रहने लगा। उसका रंग फीका पड़ गया। इसकी सूचना कर्मचारियोंने महाराज धृतराष्ट्रको दी ॥ १३७ ॥
अन्वजानात् ततो द्यूतं धृतराष्ट्रः सुतप्रियः ।
तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य कोपः समभवन्महान् ॥ १३८ ॥
धृतराष्ट्र अपने उस पुत्रके प्रति अधिक आसक्त थे, अतः उसकी इच्छा जानकर उन्होंने उसे पाण्डवोंके साथ जूआ खेलनेकी आज्ञा दे दी। जब भगवान् श्रीकृष्णने यह समाचार सुना, तब उन्हें धृतराष्ट्रपर बड़ा क्रोध आया ॥ १३८ ॥
नातिप्रीतमनाश्चासीद् विवादांश्चान्वमोदत ।
द्यूतादीननयान् घोरान् विविधांश्चाप्युपैक्षत ॥ १३९ ॥
यद्यपि उनके मनमें कलहकी सम्भावनाके कारण कुछ विशेष प्रसन्नता नहीं हुई, तथापि उन्होंने (मौन रहकर) इन विवादोंका अनुमोदन ही किया और भिन्न-भिन्न प्रकारके भयंकर अन्याय, द्यूत आदिको देखकर भी उनकी उपेक्षा कर दी ॥ १३९ ॥
निरस्य विदुरं भीष्मं द्रोणं शारद्वतं कृपम् ।
विग्रहे तुमुले तस्मिन् दहन् क्षत्रं परस्परम् ॥ १४० ॥
(इस अनुमोदन या उपेक्षाका कारण यह था कि वे धर्मनाशक दुष्ट राजाओंका संहार चाहते थे। अतः उन्हें विश्वास था कि) इस विग्रहजनित महान् युद्धमें विदुर, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्यकी अवहेलना करके सभी दुष्ट क्षत्रिय एक-दूसरेको अपनी क्रोधाग्निमें भस्म कर डालेंगे ॥ १४० ॥
जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुत्वा सुमहदप्रियम् ।
दुर्योधनमतं ज्ञात्वा कर्णस्य शकुनेस्तथा ॥ १४१ ॥
धृतराष्ट्रश्चिरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत् ।
शृणु संजय सर्वं मे न चासूयितुमर्हसि ॥ १४२ ॥
श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान् प्राज्ञसम्मतः ।
न विग्रहे मम मतिर्न च प्रीये कुलक्षये ॥ १४३ ॥
जब युद्धमें पाण्डवोंकी जीत होती गयी, तब यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर तथा दुर्योधन, कर्ण और शकुनिके दुराग्रहपूर्ण निश्चित विचार जानकर धृतराष्ट्र बहुत देरतक चिन्तामें पड़े रहे। फिर उन्होंने संजयसे कहा—‘संजय! मेरी सब बातें सुन लो। फिर इस युद्ध या विनाशके लिये मुझे दोष न दे सकोगे। तुम विद्वान्, मेधावी, बुद्धिमान् और पण्डितके लिये भी आदरणीय हो। इस युद्धमें मेरी सम्मति बिलकुल नहीं थी और यह जो हमारे कुलका विनाश हो गया है, इससे मुझे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई है ॥ १४१—१४३ ॥
न मे विशेषः पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु वा ।
वृद्धं मामभ्यसूयन्ति पुत्रा मन्युपरायणाः ॥ १४४ ॥
मेरे लिये अपने पुत्रों और पाण्डवोंमें कोई भेद नहीं था। किंतु क्या करूँ? मेरे पुत्र क्रोधके वशीभूत हो मुझपर ही दोषारोपण करते थे और मेरी बात नहीं मानते थे ॥ १४४ ॥
अहं त्वचक्षुः कार्पण्यात् पुत्रप्रीत्या सहामि तत् ।
मुह्यन्तं चानुमुह्यामि दुर्योधनमचेतनम् ॥ १४५ ॥
मैं अंधा हूँ, अतः कुछ दीनताके कारण और कुछ पुत्रोंके प्रति अधिक आसक्ति होनेसे भी वह सब अन्याय सहता आ रहा हूँ। मन्दबुद्धि दुर्योधन जब मोहवश दुःखी होता था, तब मैं भी उसके साथ दुःखी हो जाता था ॥ १४५ ॥
राजसूये श्रियं दृष्ट्वा पाण्डवस्य महौजसः ।
तच्चावहसनं प्राप्य सभारोहणदर्शने ॥ १४६ ॥
अमर्षणः स्वयं जेतुमशक्तः पाण्डवान् रणे ।
निरुत्साहश्च सम्प्राप्तुं सुश्रियं क्षत्रियोऽपि सन् ॥ १४७ ॥
गान्धारराजसहितश्छद्मद्यूतममन्त्रयत् ।
तत्र यद् यद् यथा ज्ञातं मया संजय तच्छृणु ॥ १४८ ॥
राजसूय-यज्ञमें महापराक्रमी पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरकी सर्वोपरि समृद्धि-सम्पत्ति देखकर तथा सभाभवनकी सीढ़ियोंपर चढ़ते और उस भवनको देखते समय भीमसेनके द्वारा उपहास पाकर दुर्योधन भारी अमर्षमें भर गया था। युद्धमें पाण्डवोंको हरानेकी शक्ति तो उसमें थी नहीं; अतः क्षत्रिय होते हुए भी वह युद्धके लिये उत्साह नहीं दिखा सका। परंतु पाण्डवोंकी उस उत्तम सम्पत्तिको हथियानेके लिये उसने गान्धारराज शकुनिको साथ लेकर कपटपूर्ण द्यूत खेलनेका ही निश्चय किया। संजय! इस प्रकार जूआ खेलनेका निश्चय हो जानेपर उसके पहले और पीछे जो-जो घटनाएँ घटित हुई हैं उन सबका विचार करते हुए मैंने समय-समयपर विजयकी आशाके विपरीत जो-जो अनुभव किया है उसे कहता हूँ, सुनो— ॥ १४६-१४८ ॥
श्रुत्वा तु मम वाक्यानि बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः ।
ततो ज्ञास्यसि मां सौते प्रज्ञाचक्षुषमित्युत ॥ १४९ ॥
सूतनन्दन! मेरे उन बुद्धिमत्तापूर्ण वचनोंको सुनकर तुम ठीक-ठीक समझ लोगे कि मैं कितना प्रज्ञाचक्षु हूँ ॥ १४९ ॥
यदाश्रौषं धनुरायम्य चित्रं
विद्धं लक्ष्यं पातितं वै पृथिव्याम् ।
कृष्णां हृतां प्रेक्षतां सर्वराज्ञां
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १५० ॥
संजय! जब मैंने सुना कि अर्जुनने धनुषपर बाण चढ़ाकर अद्भुत लक्ष्य बेध दिया और उसे धरतीपर गिरा दिया। साथ ही सब राजाओंके सामने, जबकि वे टुकुर-टुकुर देखते ही रह गये, बलपूर्वक द्रौपदीको ले आया, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी ॥ १५० ॥
यदाश्रौषं द्वारकायां सुभद्रां
प्रसह्योढां माधवीमर्जुनेन ।च्यवन
इन्द्रप्रस्थं वृष्णिवीरौ च यातौ
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १५१ ॥
संजय! जब मैंने सुना कि अर्जुनने द्वारकामें मधुवंशकी राजकुमारी (और श्रीकृष्णकी बहिन) सुभद्राको बलपूर्वक हरण कर लिया और श्रीकृष्ण एवं बलराम (इस घटनाका विरोध न कर) दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थमें आये, तभी समझ लिया था कि मेरी विजय नहीं हो सकती ॥ १५१ ॥
यदाश्रौषं देवराजं प्रविष्टं
शरैर्दिव्यैर्वारितं चार्जुनेन ।
अग्निं तथा तर्पितं खाण्डवे च
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १५२ ॥
जब मैंने सुना कि खाण्डवदाहके समय देवराज इन्द्र तो वर्षा करके आग बुझाना चाहते थे और अर्जुनने उसे अपने दिव्य बाणोंसे रोक दिया तथा अग्निदेव को तृप्त किया, संजय! तभी मैंने समझ लिया कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती ॥ १५२ ॥
यदाश्रौषं जातुषाद् वेश्मनस्तान्
मुक्तान् पार्थान् पञ्च कुन्त्या समेतान् ।
युक्तं चैषां विदुरं स्वार्थसिद्धौ
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १५३ ॥
जब मैंने सुना कि लाक्षाभवनसे अपनी मातासहित पाँचों पाण्डव बच गये हैं और स्वयं विदुर उनकी स्वार्थसिद्धिके प्रयत्नमें तत्पर हैं, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी ॥ १५३ ॥
यदाश्रौषं द्रौपदीं रङ्गमध्ये
लक्ष्यं भित्त्वा निर्जितामर्जुनेन ।
शूरान् पञ्चालान् पाण्डवेयांश्च युक्तां-
स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १५४ ॥
जब मैंने सुना कि रंगभूमिमें लक्ष्यवेध करके अर्जुनने द्रौपदी प्राप्त कर ली है और पांचाल वीर तथा पाण्डव वीर परस्पर सम्बद्ध हो गये हैं, संजय! उसी समय मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ॥१५४॥
यदाश्रौषं मागधानां वरिष्ठं
जरासन्धं क्षत्रमध्ये ज्वलन्तम् ।
दोर्भ्यां हतं भीमसेनेन गत्वा
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १५५ ॥
जब मैंने सुना कि मगधराज-शिरोमणि, क्षत्रियजातिके जाज्वल्यमान रत्न जरासन्धको भीमसेनने उसकी राजधानीमें जाकर बिना अस्त्र-शस्त्रके हाथोंसे ही चीर दिया। संजय! मेरी जीतकी आशा तो तभी टूट गयी ॥ १५५ ॥
यदाश्रौषं दिग्विजये पाण्डुपुत्रै-
र्वशीकृतान् भूमिपालान् प्रसह्य ।
महाक्रतुं राजसूयं कृतं च
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १५६ ॥
जब मैंने सुना कि दिग्विजयके समय पाण्डवोंने बलपूर्वक बड़े-बड़े भूमिपतियोंको अपने अधीन कर लिया और महायज्ञ राजसूय सम्पन्न कर दिया। संजय! तभी मैंने समझ लिया कि मेरी विजयकी कोई आशा नहीं है ॥ १५६ ॥
यदाश्रौषं द्रौपदीमश्रुकण्ठीं
सभां नीतां दुःखितामेकवस्त्राम् ।
रजस्वलां नाथवतीमनाथवत्
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १५७ ॥
संजय! जब मैंने सुना कि दुःखिता द्रौपदी रजस्वलावस्थामें आँखोंमें आँसू भरे केवल एक वस्त्र पहने वीर पतियोंके रहते हुए भी अनाथके समान भरी सभामें घसीटकर लायी गयी है, तभी मैंने समझ लिया था कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती ॥ १५७ ॥
यदाश्रौषं वाससां तत्र राशिं
समाक्षिपत् कितवो मन्दबुद्धिः ।
दुःशासनो गतवान् नैव चान्तं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १५८ ॥
जब मैंने सुना कि धूर्त एवं मन्दबुद्धि दुःशासनने द्रौपदी का वस्त्र खींचा और वहाँ वस्त्रोंका इतना ढेर लग गया कि वह उसका पार न पा सका; संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ॥ १५८ ॥
यदाश्रौषं हृतराज्यं युधिष्ठिरं
पराजितं सौबलेनाक्षवत्याम् ।
अन्वागतं भ्रातृभिरप्रमेयै-
स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १५९ ॥
संजय! जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिरको जूएमें शकुनिने हरा दिया और उनका राज्य छीन लिया, फिर भी उनके अतुल बलशाली धीर गम्भीर भाइयोंने युधिष्ठिरका अनुगमन ही किया, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ॥ १५९ ॥
यदाश्रौषं विविधास्तत्र चेष्टा
धर्मात्मनां प्रस्थितानां वनाय ।
ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १६० ॥
जब मैंने सुना कि वनमें जाते समय धर्मात्मा पाण्डव धर्मराज युधिष्ठिरके प्रेमवश दुःख पा रहे थे और अपने हृदयका भाव प्रकाशित करनेके लिये विविध प्रकारकी चेष्टाएँ कर रहे थे; संजय! तभी मेरी विजयकी आशा नष्ट हो गयी ॥ १६० ॥
यदाश्रौषं स्नातकानां सहस्रै-
रन्वागतं धर्मराजं वनस्थम् ।
भिक्षाभुजां ब्राह्मणानां महात्मनां
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १६१ ॥
जब मैंने सुना कि हजारों स्नातक वनवासी युधिष्ठिरके साथ रह रहे हैं और वे तथा दूसरे महात्मा एवं ब्राह्मण उनसे भिक्षा प्राप्त करते हैं। संजय! तभी मैं विजयके सम्बन्धमें निराश हो गया ॥ १६१ ॥
यदाश्रौषमर्जुनं देवदेवं
किरातरूपं त्र्यम्बकं तोष्य युद्धे ।
अवाप्तवन्तं पाशुपतं महास्त्रं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १६२ ॥
संजय! जब मैंने सुना कि किरातवेषधारी देवदेव त्रिलोचन महादेवको युद्धमें संतुष्ट करके अर्जुनने पाशुपत नामकमहान् अस्त्र प्राप्त कर लिया है, तभी मेरी आशा निराशामें परिणत हो गयी ॥ १६२ ॥
(यदाश्रौषं वनवासे तु पार्थान्
समागतान् महर्षिभिः पुराणैः ।
उपास्यमानान् सगणैर्जातसख्यान्
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥)
यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनञ्जयं
शक्रात् साक्षाद् दिव्यमस्त्रं यथावत् ।
अधीयानं शंसितं सत्यसन्धं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १६३ ॥
जब मैंने सुना कि वनवासमें भी कुन्तीपुत्रोंके पास पुरातन महर्षिगण पधारते और उनसे मिलते हैं। उनके साथ उठते-बैठते और निवास करते हैं तथा सेवक-सम्बन्धियोंसहित पाण्डवोंके प्रति उनका मैत्रीभाव हो गया है। संजय! तभीसे मुझे अपने पक्षकी विजयका विश्वास नहीं रह गया था। जब मैंने सुना कि सत्यसंध धनंजय अर्जुन स्वर्गमें गये हुए हैं और वहाँ साक्षात् इन्द्रसे दिव्य अस्त्र-शस्त्रकी विधिपूर्वक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और वहाँ उनके पौरुष एवं ब्रह्मचर्य आदिकी प्रशंसा हो रही है, संजय! तभीसे मेरी युद्धमें विजयकी आशा जाती रही ॥ १६३ ॥
यदाश्रौषं कालकेयास्ततस्ते
पौलोमानो वरदानाच्च दृप्ताः ।
देवैरजेया निर्जिताश्चार्जुनेन
तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १६४ ॥
जबसे मैंने सुना कि वरदानके प्रभावसे घमंडके नशेमें चूर कालकेय तथा पौलोम नामके असुरोंको, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं जीत सकते थे, अर्जुनने बात-की-बातमें पराजित कर दिया, तभीसे संजय! मैंने विजयकी आशा कभी नहीं की ॥ १६४ ॥
यदाश्रौषमसुराणां वधार्थे
किरीटिनं यान्तममित्रकर्शनम् ।
कृतार्थं चाप्यागतं शक्रलोकात्
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६५ ।।
मैंने जब सुना कि शत्रुओंका संहार करनेवाले किरीटी अर्जुन असुरोंका वध करनेके लिये गये थे और इन्द्रलोकसे अपना काम पूरा करके लौट आये हैं, संजय! तभी मैंने समझ लिया—अब मेरी जीतकी कोई आशा नहीं ।। १६५ ।।
(यदाश्रौषं तीर्थयात्राप्रवृत्तं
पाण्डोः सुतं सहितं लोमशेन ।
तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।)
यदाश्रौषं वैश्रवणेन सार्धं
समागतं भीममन्यांश्च पार्थान् ।
तस्मिन् देशे मानुषाणामगम्ये
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६६ ।।
जब मैंने सुना कि पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर महर्षि लोमशजीके साथ तीर्थयात्रा कर रहे हैं और लोमशजीके मुखसे ही उन्होंने यह भी सुना है कि स्वर्गमें अर्जुनको अभीष्ट वस्तु (दिव्यास्त्र)-की प्राप्ति हो गयी है, संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा ही छोड़ दी। जब मैंने सुना कि भीमसेन तथा दूसरे भाई उस देशमें जाकर, जहाँ मनुष्योंकी गति नहीं है, कुबेर के साथ मेल-मिलाप कर आये, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी ।। १६६ ।।
यदाश्रौषं घोषयात्रागतानां
बन्धं गन्धर्वैर्मोक्षणं चार्जुनेन ।
स्वेषां सुतानां कर्णबुद्धौ रतानां
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६७ ।।
जब मैंने सुना कि कर्णकी बुद्धिपर विश्वास करके चलनेवाले मेरे पुत्र घोषयात्राके निमित्त गये और गन्धर्वोंके हाथ बन्दी बन गये और अर्जुनने उन्हें उनके हाथसे छुड़ाया। संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १६७ ।।
यदाश्रौषं यक्षरूपेण धर्मं
समागतं धर्मराजेन सूत ।
प्रश्नान् कांश्चिद् विब्रुवाणं च सम्यक्
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६८ ।।
सूत संजय! जब मैंने सुना कि धर्मराज यक्षका रूप धारण करके युधिष्ठिरसे मिले और युधिष्ठिरने उनके द्वारा किये गये गूढ़ प्रश्नोंका ठीक-ठीक समाधान कर दिया, तभी विजयके सम्बन्धमें मेरी आशा टूट गयी ।। १६८ ।।
यदाश्रौषं न विदुर्मामकास्तान्
प्रच्छन्नरूपान् वसतः पाण्डवेयान् ।
विराटराष्ट्रे सह कृष्णया च
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६९ ।।
संजय! विराटकी राजधानीमें गुप्तरूपसे द्रौपदीके साथ पाँचों पाण्डव निवास कर रहे थे, परंतु मेरे पुत्र और उनके सहायक इस बातका पता नहीं लगा सके; जब मैंने यह बात सुनी, मुझे यह निश्चय हो गया कि मेरी विजय सम्भव नहीं है ।। १६९ ।।
(यदाश्रौषं कीचकानां वरिष्ठं
निषूदितं भ्रातृशतेन सार्धम् ।
द्रौपद्यर्थं भीमसेनेन संख्ये
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।)
यदाश्रौषं मामकानां वरिष्ठान्
धनञ्जयेनैकरथेन भग्नान् ।
विराटराष्ट्रे वसता महात्मना
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७० ।।
संजय! जब मैंने सुना कि भीमसेनने द्रौपदीके प्रति किये हुए अपराधका बदला लेनेके लिये कीचकोंके सर्वश्रेष्ठ वीरको उसके सौ भाइयोंसहित युद्धमें मार डाला था, तभीसे मुझे विजयकी बिलकुल आशा नहीं रह गयी थी। संजय! जब मैंने सुना कि विराटकी राजधानीमें रहते समय महात्मा धनंजयने एकमात्र रथकी सहायतासे हमारे सभी श्रेष्ठ महारथियोंको (जो गो-हरणके लिये पूर्ण तैयारीके साथ वहाँ गये थे) मार भगाया, तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७० ।।
यदाश्रौषं सत्कृतां मत्स्यराज्ञा
सुतां दत्तामुत्तरामर्जुनाय ।
तां चार्जुनः प्रत्यगृह्णात् सुतार्थे
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७१ ।।
जिस दिन मैंने यह बात सुनी कि मत्स्यराज विराटने अपनी प्रिय एवं सम्मानित पुत्री उत्तराको अर्जुनके हाथ अर्पित कर दिया, परंतु अर्जुनने अपने लिये नहीं, अपने पुत्रके लिये उसे स्वीकार किया, संजय! उसी दिनसे मैं विजयकी आशा नहीं करता था ।। १७१ ।।
यदाश्रौषं निर्जितस्याधनस्य
प्रव्राजितस्य स्वजनात् प्रच्युतस्य ।
अक्षौहिणीः सप्त युधिष्ठिरस्य
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७२ ।।
संजय! युधिष्ठिर जूएमें पराजित हैं, निर्धन हैं, घरसे निकाले हुए हैं और अपने सगे-सम्बन्धियोंसे बिछुड़े हुए हैं। फिर भी जब मैंने सुना कि उनके पास सात अक्षौहिणी सेना एकत्र हो चुकी है, तभी विजयके लिये मेरे मनमें जो आशा थी, उसपर पानी फिर गया ।। १७२ ।।
यदाश्रौषं माधवं वासुदेवं
सर्वात्मना पाण्डवार्थे निविष्टम् ।
यस्येमां गां विक्रममेकमाहु-
स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७३ ।।
(वामनावतारके समय) यह सम्पूर्ण पृथ्वी जिनके एक डगमें ही आ गयी बतायी जाती है, वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण पूरे हृदयसे पाण्डवोंकी कार्यसिद्धिके लिये तत्पर हैं, जब यह बात मैंने सुनी, संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७३ ।।
यदाश्रौषं नरनारायणौ तौ
कृष्णार्जुनौ वदतो नारदस्य ।
अहं द्रष्टा ब्रह्मलोके च सम्यक्
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७४ ।।
जब देवर्षि नारदके मुखसे मैंने यह बात सुनी कि श्रीकृष्ण और अर्जुन साक्षात् नर और नारायण हैं और इन्हें मैंने ब्रह्मलोकमें भलीभाँति देखा है, तभीसे मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १७४ ।।
यदाश्रौषं लोकहिताय कृष्णं
शमार्थिनमुपयातं कुरूणाम् ।
शमं कुर्वाणमकृतार्थं च यातं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७५ ।।
संजय! जब मैंने सुना कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण लोककल्याणके लिये शान्तिकी इच्छासे आये हुए हैं और कौरव-पाण्डवोंमें शान्ति-सन्धि करवाना चाहते हैं, परंतु वे अपने प्रयासमें असफल होकर लौट गये, तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७५ ।।
यदाश्रौषं कर्णदुर्योधनाभ्यां
बुद्धिं कृतां निग्रहे केशवस्य ।
तं चात्मानं बहुधा दर्शयानं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७६ ।।
संजय! जब मैंने सुना कि कर्ण और दुर्योधन दोनोंने यह सलाह की है कि श्रीकृष्णको कैद कर लिया जाय और श्रीकृष्णने अपने-आपको अनेक रूपोंमें विराट् या अखिल विश्वके रूपमें दिखा दिया, तभीसे मैंने विजयाशा त्याग दी थी ।। १७६ ।।
यदाश्रौषं वासुदेवे प्रयाते
रथस्यैकामग्रतस्तिष्ठमानाम् ।
आर्तां पृथां सान्त्वितां केशवेन
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७७ ।।
जब मैंने सुना—यहाँसे श्रीकृष्णके लौटते समय अकेली कुन्ती उनके रथके सामने आकर खड़ी हो गयी और अपने हृदयकी आर्ति-वेदना प्रकट करने लगी, तब श्रीकृष्णने उसे भलीभाँति सान्त्वना दी। संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १७७ ।।
यदाश्रौषं मन्त्रिणं वासुदेवं
तथा भीष्मं शान्तनवं च तेषाम् ।
भारद्वाजं चाशिषोऽनुब्रुवाणं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७८ ।।
संजय! जब मैंने सुना कि श्रीकृष्ण पाण्डवोंके मन्त्री हैं और शान्तनुनन्दन भीष्म तथा भारद्वाज द्रोणाचार्य उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं, तब मुझे विजय-प्राप्तिकी किंचित् भी आशा नहीं रही ।। १७८ ।।
यदाश्रौषं कर्ण उवाच भीष्मं
नाहं योत्स्ये युध्यमाने त्वयीति ।
हित्वा सेनामपचक्राम चापि
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७९ ।।
जब कर्णने भीष्मसे यह बात कह दी कि ‘जबतक तुम युद्ध करते रहोगे तबतक मैं पाण्डवोंसे नहीं लड़ूँगा’, इतना ही नहीं—वह सेनाको छोड़कर हट गया, संजय! तभीसे मेरे मनमें विजयके लिये कुछ भी आशा नहीं रह गयी ।। १७९ ।।
यदाश्रौषं वासुदेवार्जुनौ तौ
तथा धनुर्गाण्डीवमप्रमेयम् ।
त्रीण्युग्रवीर्याणि समागतानि
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८० ।।
संजय! जब मैंने सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण, वीरवर अर्जुन और अतुलित शक्तिशाली गाण्डीव धनुष—ये तीनों भयंकर प्रभावशाली शक्तियाँ इकट्ठी हो गयी हैं, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।।१८० ।।
यदाश्रौषं कश्मलेनाभिपन्ने
रथोपस्थे सीदमानेऽर्जुने वै ।
कृष्णं लोकान् दर्शयानं शरीरे
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८१ ।।
संजय! जब मैंने सुना कि रथके पिछले भागमें स्थित मोहग्रस्त अर्जुन अत्यन्त दुःखी हो रहे थे और श्रीकृष्णने अपने शरीरमें उन्हें सब लोकोंका दर्शन करा दिया, तभी मेरे मनसे विजयकी सारी आशा समाप्त हो गयी ।। १८१ ।
यदाश्रौषं भीष्मममित्रकर्शनं
निघ्नन्तमाजावयुतं रथानाम् ।
नैषां कश्चिद् वध्यते ख्यातरूप-
स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८२ ।।
जब मैंने सुना कि शत्रुघाती भीष्म रणांगणमें प्रतिदिन दस हजार रथियोंका संहार कर रहे हैं, परंतु पाण्डवोंका कोई प्रसिद्ध योद्धा नहीं मारा जा रहा है, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १८२ ।।
यदाश्रौषं चापगेयेन संख्ये
स्वयं मृत्युं विहितं धार्मिकेण ।
तच्चाकार्षुः पाण्डवेयाः प्रहृष्टा-
स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८३ ।।
जब मैंने सुना कि परम धार्मिक गंगानन्दन भीष्मने युद्धभूमिमें पाण्डवोंको अपनी मृत्युका उपाय स्वयं बता दिया और पाण्डवोंने प्रसन्न होकर उनकी उस आज्ञाका पालन किया। संजय! तभी मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १८३ ।।
यदाश्रौषं भीष्ममत्यन्तशूरं
हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम् ।
शिखण्डिनं पुरतः स्थापयित्वा
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८४ ।।
जब मैंने सुना कि अर्जुनने सामने शिखण्डीको खड़ा करके उसकी ओटसे सर्वथा अजेय अत्यन्त शूर भीष्मपितामहको युद्धभूमिमें गिरा दिया। संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। १८४ ।।
यदाश्रौषं शरतल्पे शयानं
वृद्धं वीरं सादितं चित्रपुङ्खैः ।
भीष्मं कृत्वा सोमकानल्पशेषां-
स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८५ ।।
जब मैंने सुना कि हमारे वृद्ध वीर भीष्मपितामह अधिकांश सोमकवंशी योद्धाओंका वध करके अर्जुनके बाणोंसे क्षत-विक्षत शरीर हो शरशय्यापर शयन कर रहे हैं, संजय! तभी मैंने समझ लिया अब मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १८५ ।।
यदाश्रौषं शान्तनवे शयाने
पानीयार्थे चोदितेनार्जुनेन ।
भूमिं भित्त्वा तर्पितं तत्र भीष्मं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८६ ।।
संजय! जब मैंने सुना कि शान्तनुनन्दन भीष्मपितामह ने शरशय्यापर सोते समय अर्जुनको संकेत किया और उन्होंने बाणसे धरतीका भेदन करके उनकी प्यास बुझा दी, तब मैंने विजयकी आशा त्याग दी ।। १८६ ।।
यदा वायुश्चन्द्रसूर्यौ च युक्तौ
कौन्तेयानामनुलोमा जयाय ।
नित्यं चास्माञ्श्वापदा भीषयन्ति
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८७ ।।
जब वायु अनुकूल बहकर और चन्द्रमा-सूर्य लाभस्थानमें संयुक्त होकर पाण्डवोंकी विजयकी सूचना दे रहे हैं और कुत्ते आदि भयंकर प्राणी प्रतिदिन हमलोगोंको डरा रहे हैं। संजय! तब मैंने विजयके सम्बन्धमें अपनी आशा छोड़ दी ।। १८७ ।।
यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गान्
निदर्शयन् समरे चित्रयोधी ।
न पाण्डवाञ्श्रेष्ठतरान् निहन्ति
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८८ ।।
संजय! हमारे आचार्य द्रोण बेजोड़ योद्धा थे और उन्होंने रणांगणमें अपने अस्त्र-शस्त्रके अनेकों विविध कौशल दिखलाये, परंतु जब मैंने सुना कि वे वीर-शिरोमणि पाण्डवोंमेंसे किसी एकका भी वध नहीं कर रहे हैं, तब मैंने विजयकी आशा त्याग दी ।। १८८ ।।
यदाश्रौषं चास्मदीयान् महारथान्
व्यवस्थितानर्जुनस्यान्तकाय ।
संशप्तकान् निहतानर्जुनेन
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८९ ।।
संजय! मेरी विजयकी आशा तो तभी नहीं रही जब मैंने सुना कि मेरे जो महारथी वीर संशप्तक योद्धा अर्जुनके वधके लिये मोर्चेपर डटे हुए थे, उन्हें अकेले ही अर्जुनने मौतके घाट उतार दिया ।। १८९ ।।
यदाश्रौषं व्यूहमभेद्यमन्यै-
र्भारद्वाजेनात्तशस्त्रेण गुप्तम् ।
भित्त्वा सौभद्रं वीरमेकं प्रविष्टं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९० ।।
संजय! स्वयं भारद्वाज द्रोणाचार्य अपने हाथमें शस्त्र उठाकर उस चक्रव्यूहकी रक्षा कर रहे थे, जिसको कोई दूसरा तोड़ ही नहीं सकता था, परंतु सुभद्रानन्दन वीर अभिमन्यु अकेला ही छिन्न-भिन्न करके उसमें घुस गया, जब यह बात मेरे कानोंतक पहुँची, तभी मेरी विजयकी आशा लुप्त हो गयी ।। १९० ।।
यदाभिमन्युं परिवार्य बालं
सर्वे हत्वा हृष्टरूपा बभूवुः ।
महारथाः पार्थमशक्नुवन्त-
स्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९१ ।।
संजय! मेरे बड़े-बड़े महारथी वीरवर अर्जुनके सामने तो टिक न सके और सबने मिलकर बालक अभिमन्युको घेर लिया और उसको मारकर हर्षित होने लगे, जब यह बात मुझतक पहुँची, तभीसे मैंने विजयकी आशा त्याग दी ।। १९१ ।।
यदाश्रौषमभिमन्युं निहत्य
हर्षान्मूढान् क्रोशतो धार्तराष्ट्रान् ।
क्रोधादुक्तं सैन्धवे चार्जुनेन
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९२ ।।
जब मैंने सुना कि मेरे मूढ़ पुत्र अपने ही वंशके होनहार बालक अभिमन्यु की हत्या करके हर्षपूर्ण कोलाहल कर रहे हैं और अर्जुनने क्रोधवश जयद्रथको मारनेकी भीषण प्रतिज्ञा की है, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १९२ ।।
यदाश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञां
प्रतिज्ञातां तद्वधायार्जुनेन ।
सत्यां तीर्णां शत्रुमध्ये च तेन
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९३ ।।
जब मैंने सुना कि अर्जुनने जयद्रथको मार डालनेकी जो दृढ़ प्रतिज्ञा की थी, उसने वह शत्रुओंसे भरी रणभूमिमें सत्य एवं पूर्ण करके दिखा दी। संजय! तभीसे मुझे विजयकी सम्भावना नहीं रह गयी ।। १९३ ।।
यदाश्रौषं श्रान्तहये धनञ्जये
मुक्त्वा हयान् पाययित्वोपवृत्तान् ।
पुनर्युक्त्वा वासुदेवं प्रयातं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९४ ।।
युद्धभूमिमें धनञ्जय अर्जुनके घोड़े अत्यन्त श्रान्त और प्याससे व्याकुल हो रहे थे। स्वयं श्रीकृष्णने उन्हें रथसे खोलकर पानी पिलाया। फिरसे रथके निकट लाकर उन्हें जोत दिया और अर्जुनसहित वे सकुशल लौट गये। जब मैंने यह बात सुनी, संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। १९४ ।।
यदाश्रौषं वाहनेष्वक्षमेषु
रथोपस्थे तिष्ठता पाण्डवेन ।
सर्वान् योधान् वारितानर्जुनेन
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९५ ।।
जब संग्रामभूमिमें रथके घोड़े अपना काम करनेमें असमर्थ हो गये, तब रथके समीप ही खड़े होकर पाण्डववीर अर्जुनने अकेले ही सब योद्धाओंका सामना किया और उन्हें रोक दिया। मैंने जिस समय यह बात सुनी, संजय! उसी समय मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १९५ ।।
यदाश्रौषं नागबलैः सुदुःसहं
द्रोणानीकं युयुधानं प्रमथ्य ।
यातं वार्ष्णेयं यत्र तौ कृष्णपार्थौ
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९६ ।।
जब मैंने सुना कि वृष्णिवंशावतंस युयुधान—सात्यकिने अकेले ही द्रोणाचार्यकी उस सेनाको, जिसका सामना हाथियोंकी सेना भी नहीं कर सकती थी, तितर-बितर और तहस-नहस कर दिया तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनके पास पहुँच गये। संजय! तभीसे मेरे लिये विजयकी आशा असम्भव हो गयी ।। १९६ ।।
यदाश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्तं
वधाद् भीमं कुत्सयित्वा वचोभिः ।
धनुष्कोट्याऽऽतुद्य कर्णेन वीरं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९७ ।।
संजय! जब मैंने सुना कि वीर भीमसेन कर्णके पंजेमें फँस गये थे, परंतु कर्णने तिरस्कारपूर्वक झिड़ककर और धनुषकी नोक चुभाकर ही छोड़ दिया तथा भीमसेन मृत्युके मुखसे बच निकले। संजय! तभी मेरी विजयकी आशापर पानी फिर गया ।। १९७ ।।
यदा द्रोणः कृतवर्मा कृपश्च
कर्णो द्रौणिर्मद्रराजश्च शूरः ।
अमर्षयन् सैन्धवं वध्यमानं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९८ ।।
जब मैंने सुना कि द्रोणाचार्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, कर्ण और अश्वत्थामा तथा वीर शल्यने भी सिन्धुराज जयद्रथका वध सह लिया, प्रतीकार नहीं किया। संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १९८ ।।
यदाश्रौषं देवराजेन दत्तां
दिव्यां शक्तिं व्यंसितां माधवेन ।
घटोत्कचे राक्षसे घोररूपे
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९९ ।।
संजय! देवराज इन्द्रने कर्णको कवचके बदले एक दिव्य शक्ति दे रखी थी और उसने उसे अर्जुनपर प्रयुक्त करनेके लिये रख छोड़ा था; परंतु मायापति श्रीकृष्णने भयंकर राक्षस घटोत्कचपर छुड़वाकर उससे भी वंचित करवा दिया। जिस समय यह बात मैंने सुनी, उसी समय मेरी विजयकी आशा टूट गयी ।। १९९ ।।
यदाश्रौषं कर्णघटोत्कचाभ्यां
युद्धे मुक्तां सूतपुत्रेण शक्तिम् ।
यया वध्यः समरे सव्यसाची
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०० ।।
जब मैंने सुना कि कर्ण और घटोत्कचके युद्धमें कर्णने वह शक्ति घटोत्कचपर चला दी, जिससे रणांगणमें अर्जुन का वध किया जा सकता था। संजय! तब मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। २०० ।।
यदाश्रौषं द्रोणमाचार्यमेकं
धृष्टद्युम्नेनाभ्यतिक्रम्य धर्मम् ।
रथोपस्थे प्रायगतं विशस्तं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०१ ।।
संजय! जब मैंने सुना कि आचार्य द्रोण पुत्रकी मृत्युके शोकसे शस्त्रादि छोड़कर आमरण अनशन करनेके निश्चयसे अकेले रथके पास बैठे थे और धृष्टद्युम्नने धर्मयुद्धकी मर्यादाका उल्लंघन करके उन्हें मार डाला, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी ।। २०१ ।।
यदाश्रौषं द्रौणिना द्वैरथस्थं
माद्रीसुतं नकुलं लोकमध्ये ।
समं युद्धे मण्डलेभ्यश्चरन्तं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०२ ।।
जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा-जैसे वीरके साथ बड़े-बड़े वीरोंके सामने ही माद्रीनन्दन नकुल अकेले ही अच्छी तरह युद्ध कर रहे हैं। संजय! तब मुझे जीतकी आशा न रही ।। २०२ ।।
यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो
नारायणं दिव्यमस्त्रं विकुर्वन् ।
नैषामन्तं गतवान् पाण्डवानां
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०३ ।।
जब द्रोणाचार्य की हत्याके अनन्तर अश्वत्थामाने दिव्य नारायणास्त्रका प्रयोग किया; परंतु उससे वह पाण्डवोंका अन्त नहीं कर सका। संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। २०३ ।।
यदाश्रौषं भीमसेनेन पीतं
रक्तं भ्रातुर्युधि दुःशासनस्य ।
निवारितं नान्यतमेन भीमं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०४ ।।
जब मैंने सुना कि रणभूमिमें भीमसेनने अपने भाई दुःशासनका रक्तपान किया, परंतु वहाँ उपस्थित सत्पुरुषोंमेंसे किसी एकने भी निवारण नहीं किया। संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा बिलकुल नहीं रह गयी ।। २०४ ।।
यदाश्रौषं कर्णमत्यन्तशूरं
हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम् ।
तस्मिन् भ्रातॄणां विग्रहे देवगुह्ये
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०५ ।।
संजय! वह भाईका भाईसे युद्ध देवताओंकी गुप्त प्रेरणासे हो रहा था। जब मैंने सुना कि भिन्न-भिन्न युद्धभूमियोंमें कभी पराजित न होनेवाले अत्यन्त शूरशिरोमणि कर्णको पृथापुत्र अर्जुनने मार डाला, तब मेरी विजयकी आशा नष्ट हो गयी ।। २०५ ।।
यदाश्रौषं द्रोणपुत्रं च शूरं
दुःशासनं कृतवर्माणमुग्रम् ।
युधिष्ठिरं धर्मराजं जयन्तं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०६ ।।
जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, शूरवीर दुःशासन एवं उग्र योद्धा कृतवर्माको भी युद्धमें जीत रहे हैं, संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रह गयी ।। २०६ ।।
यदाश्रौषं निहतं मद्रराजं
रणे शूरं धर्मराजेन सूत ।
सदा संग्रामे स्पर्धते यस्तु कृष्णं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०७ ।।
संजय! जब मैंने सुना कि रणभूमिमें धर्मराज युधिष्ठिर ने शूरशिरोमणि मद्रराज शल्यको मार डाला, जो सर्वदा युद्धमें घोड़े हाँकनेके सम्बन्धमें श्रीकृष्णकी होड़ करनेपर उतारू रहता था, तभीसे मैं विजयकी आशा नहीं करता था ।। २०७ ।।
यदाश्रौषं कलहद्यूतमूलं
मायाबलं सौबलं पाण्डवेन ।
हतं संग्रामे सहदेवेन पापं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०८ ।।
जब मैंने सुना कि कलहकारी द्यूतके मूल कारण, केवल छल-कपटके बलसे बली पापी शकुनिको पाण्डुनन्दन सहदेवने रणभूमिमें यमराज के हवाले कर दिया, संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। २०८ ।
यदाश्रौषं श्रान्तमेकं शयानं
ह्रदं गत्वा स्तम्भयित्वा तदम्भः ।
दुर्योधनं विरथं भग्नशक्तिं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०९ ।।
जब दुर्योधनका रथ छिन्न-भिन्न हो गया, शक्ति क्षीण हो गयी और वह थक गया, तब सरोवरपर जाकर वहाँका जल स्तम्भित करके उसमें अकेला ही सो गया। संजय! जब मैंने यह संवाद सुना, तब मेरी विजयकी आशा भी चली गयी ।। २०९ ।।
यदाश्रौषं पाण्डवांस्तिष्ठमानान्
गत्वा ह्रदे वासुदेवेन सार्धम् ।
अमर्षणं धर्षयतः सुतं मे
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१० ।।
जब मैंने सुना कि उसी सरोवरके तटपर श्रीकृष्णके साथ पाण्डव जाकर खड़े हैं और मेरे पुत्रको असह्य दुर्वचन कहकर नीचा दिखा रहे हैं, तभी संजय! मैंने विजयकी आशा सर्वथा त्याग दी ।। २१० ।।
यदाश्रौषं विविधांश्चित्रमार्गान्
गदायुद्धे मण्डलशश्चरन्तम् ।
मिथ्याहतं वासुदेवस्य बुद्धया
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २११ ।।
संजय! जब मैंने सुना कि गदायुद्धमें मेरा पुत्र बड़ी निपुणतासे पैंतरे बदलकर रणकौशल प्रकट कर रहा है और श्रीकृष्णकी सलाहसे भीमसेनने गदायुद्धकी मर्यादाके विपरीत जाँघमें गदाका प्रहार करके उसे मार डाला, तब तो संजय! मेरे मनमें विजयकी आशा रह ही नहीं गयी ।। २११ ।।
यदाश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तै-
र्हतान् पञ्चालान् द्रौपदेयांश्च सुप्तान् ।
कृतं बीभत्समयशस्यं च कर्म
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१२ ।।
संजय! जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा आदि दुष्टोंने सोते हुए पाञ्चाल नरपतियों और द्रौपदीके होनहार पुत्रोंको मारकर अत्यन्त बीभत्स और वंशके यशको कलंकित करनेवाला काम किया है, तब तो मुझे विजयकी आशा रही ही नहीं ।। २१२ ।।
यदाश्रौषं भीमसेनानुयाते-
नाश्वत्थाम्ना परमास्त्रं प्रयुक्तम् ।
क्रुद्धेनैषीकमवधीद् येन गर्भं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१३ ।।
संजय! जब मैंने सुना कि भीमसेनके पीछा करनेपर अश्वत्थामाने क्रोधपूर्वक सींकके बाणपर ब्रह्मास्त्रका प्रयोग कर दिया, जिससे कि पाण्डवोंका गर्भस्थ वंशधर भी नष्ट हो जाय, तभी मेरे मनमें विजयकी आशा नहीं रही ।। २१३ ।।
यदाश्रौषं ब्रह्मशिरोऽर्जुनेन
स्वस्तीत्युक्त्वास्त्रमस्त्रेण शान्तम् ।
अश्वत्थाम्ना मणिरत्नं च दत्तं
तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१४ ।।
जब मैंने सुना कि अश्वत्थामाके द्वारा प्रयुक्त ब्रह्मशिर अस्त्रको अर्जुनने ‘स्वस्ति’, ‘स्वस्ति’ कहकर अपने अस्त्रसे शान्त कर दिया और अश्वत्थामाको अपना मणिरत्न भी देना पड़ा। संजय! उसी समय मुझे जीतकी आशा नहीं रही ।। २१४ ।।
यदाश्रौषं द्रोणपुत्रेण गर्भे
वैराट्या वै पात्यमाने महास्त्रैः ।
द्वैपायनः केशवो द्रोणपुत्रं|
परस्परेणाभिशापैः शशाप ।। २१५ ।।
शोच्या गान्धारी पुत्रपौत्रैर्विहीना
तथा बन्धुभिः पितृभिर्भ्रातृभिश्च ।
कृतं कार्यं दुष्करं पाण्डवेयैः
प्राप्तं राज्यमसपत्नं पुनस्तैः ।। २१६ ।।
जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा अपने महान् अस्त्रोंका प्रयोग करके उत्तराका गर्भ गिरानेकी चेष्टा कर रहा है तथा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास और स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने परस्पर विचार करके उसे शापोंसे अभिशप्त कर दिया है (तभी मेरी विजयकी आशा सदाके लिये समाप्त हो गयी)। इस समय गान्धारीकी दशा शोचनीय हो गयी है; क्योंकि उसके पुत्र-पौत्र, पिता तथा भाई-बन्धुओंमेंसे कोई नहीं रहा। पाण्डवोंने दुष्कर कार्य कर डाला। उन्होंने फिरसे अपना अकण्टक राज्य प्राप्त कर लिया ।। २१५-२१६ ।।
कष्टं युद्धे दश शेषाः श्रुता मे
त्रयोऽस्माकं पाण्डवानां च सप्त ।
द्वयूना विंशतिराहताक्षौहिणीनां
तस्मिन् संग्रामे भैरवे क्षत्रियाणाम् ।। २१७ ।।
हाय-हाय! कितने कष्टकी बात है, मैंने सुना है कि इस भयंकर युद्धमें केवल दस व्यक्ति बचे हैं; मेरे पक्षके तीन—कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा तथा पाण्डवपक्षके सात—श्रीकृष्ण, सात्यकि और पाँचों पाण्डव। क्षत्रियोंके इस भीषण संग्राममें अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ नष्ट हो गयीं ।। २१७ ।।
तमस्त्वतीव विस्तीर्णं मोह आविशतीव माम् ।
संज्ञां नोपलभे सूत मनो विह्वलतीव मे ।। २१८ ।।
सारथे! यह सब सुनकर मेरी आँखोंके सामने घना अन्धकार छाया हुआ है। मेरे हृदयमें मोहका आवेश-सा होता जा रहा है। मैं चेतना-शून्य हो रहा हूँ। मेरा मन विह्वल-सा हो रहा है ।। २१८ ।।
सौतिरुवाच
इत्युक्त्वा धृतराष्ट्रोऽथ विलप्य बहुदुःखितः ।
मूर्च्छितः पुनराश्वस्तः संजयं वाक्यमब्रवीत् ।। २१९ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं—धृतराष्ट्रने ऐसा कहकर बहुत विलाप किया और अत्यन्त दुःखके कारण वे मूर्च्छित हो गये। फिर होशमें आकर कहने लगे ।। २१९ ।।
धृतराष्ट्र उवाच
संजयैवं गते प्राणांस्त्यक्तुमिच्छामि मा चिरम् ।
स्तोकं ह्यपि न पश्यामि फलं जीवितधारणे ।। २२० ।।
धृतराष्ट्रने कहा—संजय! युद्धका यह परिणाम निकलनेपर अब मैं अविलम्ब अपने प्राण छोड़ना चाहता हूँ। अब जीवन-धारण करनेका कुछ भी फल मुझे दिखलायी नहीं देता ।। २२० ।।
सौतिरुवाच
तं तथावादिनं दीनं विलपन्तं महीपतिम् ।
निःश्वसन्तं यथा नागं मुह्यमानं पुनः पुनः ।। २२१ ।।
गावल्गणिरिदं धीमान् महार्थं वाक्यमब्रवीत् ।
उग्रश्रवाजी कहते हैं—जब राजा धृतराष्ट्र दीनतापूर्वक विलाप करते हुए ऐसा कह रहे थे और नागके समान लम्बी साँस ले रहे थे तथा बार-बार मूर्च्छित होते जा रहे थे, तब बुद्धिमान् संजयने यह सारगर्भित प्रवचन किया ।। २२१ ।।
संजय उवाच
श्रुतवानसि वै राजन् महोत्साहान् महाबलान् ।। २२२ ।।
द्वैपायनस्य वदतो नारदस्य च धीमतः ।
संजयने कहा—महाराज! आपने परम ज्ञानी देवर्षि नारद एवं महर्षि व्यासके मुखसे महान् उत्साहसे युक्त एवं परम पराक्रमी नृपतियोंका चरित्र श्रवण किया है ।। २२२ ।।
महत्सु राजवंशेषु गुणैः समुदितेषु च ।। २२३ ।।
जातान् दिव्यास्त्रविदुषः शक्रप्रतिमतेजसः ।
धर्मेण पृथिवीं जित्वा यज्ञैरिष्ट्वाप्तदक्षिणैः ।। २२४ ।।
अस्मिँल्लोके यशः प्राप्य ततः कालवशं गतान् ।
शैब्यं महारथं वीरं सृञ्जयं जयतां वरम् ।। २२५ ।।
सुहोत्रं रन्तिदेवं च काक्षीवन्तमथौशिजम् ।
बाह्लीकं दमनं चैद्यं शर्यातिमजितं नलम् ।। २२६ ।।
विश्वामित्रममित्रघ्नमम्बरीषं महाबलम् ।
मरुत्तं मनुमिक्ष्वाकुं गयं भरतमेव च ।। २२७ ।।
रामं दाशरथिं चैव शशबिन्दुं भगीरथम् ।|
कृतवीर्यं महाभागं तथैव जनमेजयम् ।। २२८ ।।
ययातिं शुभकर्माणं देवैर्यो याजितः स्वयम् ।
चैत्ययूपाङ्किता भूमिर्यस्येयं सवनाकरा ।। २२९ ।।|
इति राज्ञां चतुर्विंशन्नारदेन सुरर्षिणा ।
पुत्रशोकाभितप्ताय पुरा श्वैत्याय कीर्तितम् ।। २३० ।।
आपने ऐसे-ऐसे राजाओंके चरित्र सुने हैं जो सर्वसद्गुणसम्पन्न महान् राजवंशोंमें उत्पन्न, दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंके पारदर्शी एवं देवराज इन्द्रके समान प्रभावशाली थे। जिन्होंने धर्मयुद्धसे पृथ्वीपर विजय प्राप्त की, बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञ किये, इस लोकमें उज्ज्वल यश प्राप्त किया और फिर कालके गालमें समा गये। इनमेंसे महारथी शैब्य, विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ सृंजय, सुहोत्र, रन्तिदेव, काक्षीवान्, औशिज, बाह्लीक, दमन, चैद्य, शर्याति, अपराजित नल, शत्रुघाती विश्वामित्र, महाबली अम्बरीष, मरुत्त, मनु, इक्ष्वाकु, गय, भरत दशरथनन्दन श्रीराम, शशबिन्दु, भगीरथ, महाभाग्यशाली कृतवीर्य, जनमेजय और वे शुभकर्मा ययाति, जिनका यज्ञ देवताओंने स्वयं करवाया था, जिन्होंने अपनी राष्ट्रभूमिको यज्ञोंकी खान बना दिया था और सारी पृथ्वी यज्ञ-सम्बन्धी यूपों (खंभों)-से अंकित कर दी थी—इन चौबीस राजाओंका वर्णन पूर्वकालमें देवर्षि नारदने पुत्रशोकसे अत्यन्त संतप्त महाराज श्वैत्यका दुःख दूर करनेके लिये किया था ।। २२३—२३० ।।
तेभ्यश्चान्ये गताः पूर्वं राजानो बलवत्तराः ।
महारथा महात्मानः सर्वैः समुदिता गुणैः ।। २३१ ।।
पूरुः कुरुर्यदुः शूरो विष्वगश्वो महाद्युतिः ।
अणुहो युवनाश्वश्च ककुत्स्थो विक्रमी रघुः ।। २३२ ।।
विजयो वीतिहोत्रोऽङ्गो भवः श्वेतो बृहद्गुरुः ।
उशीनरः शतरथः कङ्को दुलिदुहो द्रुमः ।। २३३ ।।दम्भोद्भवः परो वेनः सगरः संकृतिर्निमिः ।
अजेयः परशुः पुण्ड्रः शम्भुर्देवावृधोऽनघः ।। २३४ ।।
देवाह्वयः सुप्रतिमः सुप्रतीको बृहद्रथः ।
महोत्साहो विनीतात्मा सुक्रतुर्नैषधो नलः ।। २३५ ।।
सत्यव्रतः शान्तभयः सुमित्रः सुबलः प्रभुः ।
जानुजङ्घोऽनरण्योऽर्कः प्रियभृत्यः शुचिव्रतः ।। २३६ ।।
बलबन्धुर्निरामर्दः केतुशृङ्गो बृहद्बलः ।
धृष्टकेतुर्बृहत्केतुर्दीप्तकेतुर्निरामयः ।। २३७ ।।
अवीक्षिच्चपलो धूर्तः कृतबन्धुर्दृढेषुधिः ।
महापुराणसम्भाव्यः प्रत्यङ्गः परहा श्रुतिः ।। २३८ ।।
एते चान्ये च राजानः शतशोऽथ सहस्रशः ।
श्रूयन्ते शतशश्चान्ये संख्याताश्चैव पद्मशः ।। २३९ ।।
हित्वा सुविपुलान् भोगान् बुद्धिमन्तो महाबलाः ।
राजानो निधनं प्राप्तास्तव पुत्रा इव प्रभो ।। २४० ।।
महाराज! पिछले युगमें इन राजाओंके अतिरिक्त दूसरे और बहुत-से महारथी, महात्मा, शौर्य-वीर्य आदि सद्गुणोंसे सम्पन्न, परम पराक्रमी राजा हो गये हैं। जैसे—पूरु, कुरु, यदु, शूर, महातेजस्वी विष्वगश्व, अणुह, युवनाश्व, ककुत्स्थ, पराक्रमी रघु, विजय, वीतिहोत्र, अंग, भव, श्वेत, बृहद्गुरु, उशीनर, शतरथ, कंक, दुलिदुह, द्रुम, दम्भोद्भव, पर, वेन, सगर, संकृति, निमि, अजेय, परशु, पुण्ड्र, शम्भु, निष्पाप देवावृध, देवाह्वय, सुप्रतिम, सुप्रतीक, बृहद्रथ, महान् उत्साही और महाविनयी सुक्रतु, निषधराज नल, सत्यव्रत, शान्तभय, सुमित्र, सुबल, प्रभु, जानुजंघ, अनरण्य, अर्क, प्रियभृत्य, शुचिव्रत, बलबन्धु, निरामर्द, केतुशृंग, बृहद्बल, धृष्टकेतु, बृहत्केतु, दीप्तकेतु, निरामय, अवीक्षित्, चपल, धूर्त, कृतबन्धु, दृढेषुधि, महापुराणोंमें सम्मानित प्रत्यंग, परहा और श्रुति—ये और इनके अतिरिक्त दूसरे सैकड़ों तथा हजारों राजा सुने जाते हैं, जिनका सैकड़ों बार वर्णन किया गया है और इनके सिवा दूसरे भी, जिनकी संख्या पद्मोंमें कही गयी है, बड़े बुद्धिमान् और शक्तिशाली थे। महाराज! किंतु वे अपने विपुल भोग-वैभवको छोड़कर वैसे ही मर गये, जैसे आपके पुत्रोंकी मृत्यु हुई है ।। २३१—२४० ।।
येषां दिव्यानि कर्माणि विक्रमस्त्याग एव च ।
माहात्म्यमपि चास्तिक्यं सत्यं शौचं दयार्जवम् ।। २४१ ।।
विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः ।
सर्वर्द्धिगुणसम्पन्नास्ते चापि निधनं गताः ।। २४२ ।।
जिनके दिव्य कर्म, पराक्रम, त्याग, माहात्म्य, आस्तिकता, सत्य, पवित्रता, दया और सरलता आदि सद्गुणोंका वर्णन बड़े-बड़े विद्वान् एवं श्रेष्ठतम कवि प्राचीन ग्रन्थोंमें तथा लोकमें भी करते रहते हैं, वे समस्त सम्पत्ति और सद्गुणोंसे सम्पन्न महापुरुष भी मृत्युको प्राप्त हो गये ।। २४१-२४२ ।।
तव पुत्रा दुरात्मानः प्रतप्ताश्चैव मन्युना ।
लुब्धा दुर्वृत्तभूयिष्ठा न ताञ्छोचितुमर्हसि ।। २४३ ।।
आपके पुत्र दुर्योधन आदि तो दुरात्मा, क्रोधसे जले-भुने, लोभी एवं अत्यन्त दुराचारी थे। उनकी मृत्युपर आपको शोक नहीं करना चाहिये ।। २४३ ।।
श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान् प्राज्ञसम्मतः ।
येषां शास्त्रानुगा बुद्धिर्न ते मुह्यन्ति भारत ।। २४४ ।।
आपने गुरुजनोंसे सत्-शास्त्रोंका श्रवण किया है। आपकी धारणाशक्ति तीव्र है, आप बुद्धिमान् हैं और ज्ञानवान् पुरुष आपका आदर करते हैं। भरतवंशशिरोमणे! जिनकी बुद्धि शास्त्रके अनुसार सोचती है, वे कभी शोक-मोहसे मोहित नहीं होते ।। २४४ ।।
निग्रहानुग्रहौ चापि विदितौ ते नराधिप ।
नात्यन्तमेवानुवृत्तिः कार्या ते पुत्ररक्षणे ।। २४५ ।।
महाराज! आपने पाण्डवोंके साथ निर्दयता और अपने पुत्रोंके प्रति पक्षपातका जो बर्ताव किया है, वह आपको विदित ही है। इसलिये अब पुत्रोंके जीवनके लिये आपको अत्यन्त व्याकुल नहीं होना चाहिये ।। २४५ ।।
भवितव्यं तथा तच्च नानुशोचितुमर्हसि ।
दैवं प्रज्ञाविशेषेण को निवर्तितुमर्हति ।। २४६ ।।
होनहार ही ऐसी थी, इसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये। भला, इस सृष्टिमें ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो अपनी बुद्धिकी विशेषतासे होनहार मिटा सके ।। २४६ ।।
विधातृविहितं मार्गं न कश्चिदतिवर्तते ।
कालमूलमिदं सर्वं भावाभावौ सुखासुखे ।। २४७ ।।
अपने कर्मोंका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है—यह विधाताका विधान है। इसको कोई टाल नहीं सकता। जन्म-मृत्यु और सुख-दुःख सबका मूल कारण काल ही है ।। २४७ ।।
कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः ।
संहरन्तं प्रजाः कालं कालः शमयते पुनः ।। २४८ ।।
काल ही प्राणियोंकी सृष्टि करता है और काल ही समस्त प्रजाका संहार करता है। फिर प्रजाका संहार करनेवाले उस कालको महाकालस्वरूप परमात्मा ही शान्त करता है ।। २४८ ।।
कालो हि कुरुते भावान् सर्वलोके शुभाशुभान् ।
कालः संक्षिपते सर्वाः प्रजा विसृजते पुनः ।। २४९ ।।
सम्पूर्ण लोकोंमें यह काल ही शुभ-अशुभ सब पदार्थोंका कर्ता है। काल ही सम्पूर्ण प्रजाका संहार करता है और वही पुनः सबकी सृष्टि भी करता है ।। २४९ ।।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ।
कालः सर्वेषु भूतेषु चरत्यविधृतः समः ।। २५० ।।
अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति साम्प्रतम् ।
तान् कालनिर्मितान् बुद्ध्वा न संज्ञां हातुमर्हसि ।। २५१ ।।
जब सुषुप्ति-अवस्थामें सब इन्द्रियाँ और मनोवृतियाँ लीन हो जाती हैं, तब भी यह काल जागता रहता है। कालकी गतिका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें समानरूपसे बेरोक-टोक अपनी क्रिया करता रहता है। इस सृष्टिमें जितने पदार्थ हो चुके, भविष्यमें होंगे और इस समय वर्तमान हैं, वे सब कालकी रचना हैं; ऐसा समझकर आपको अपने विवेकका परित्याग नहीं करना चाहिये ।। २५०-२५१ ।।
सौतिरुवाच
इत्येवं पुत्रशोकर्तं धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् ।
आश्वास्य स्वस्थमकरोत् सूतो गावल्गणिस्तदा ।। २५२ ।।
अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ।
विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः ।। २५३ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं—सूतवंशी संजय ने यह सब कहकर पुत्रशोकसे व्याकुल नरपति धृतराष्ट्र को समझाया-बुझाया और उन्हें स्वस्थ किया। इसी इतिहासके आधारपर श्रीकृष्णद्वैपायनने इस परम पुण्यमयी उपनिषद्-रूप महाभारतका (शोकातुर प्राणियोंका शोक नाश करनेके लिये) निरूपण किया। विद्वज्जन लोकमें और श्रेष्ठतम कवि पुराणोंमें सदासे इसीका वर्णन करते आये हैं ।। २५२-२५३ ।।
भारताध्ययनं पुण्यमपि पादमधीयतः ।
श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः ।। २५४ ।।
महाभारतका अध्ययन अन्तःकरणको शुद्ध करनेवाला है। जो कोई श्रद्धाके साथ इसके किसी एक श्लोकके एक पादका भी अध्ययन करता है, उसके सब पाप सम्पूर्णरूपसे मिट जाते हैं ।। २५४ ।।
देवा देवर्षयो ह्यत्र तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः ।
कीर्त्यन्ते शुभकर्माणस्तथा यक्षा महोरगाः ।। २५५ ।।
इस ग्रन्थरत्नमें शुभ कर्म करनेवाले देवता, देवर्षि, निर्मल ब्रह्मर्षि, यक्ष और महानागोंका वर्णन किया गया है ।। २५५ ।।
भगवान् वासुदेवश्च कीर्त्यतेऽत्र सनातनः ।
स हि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च ।। २५६ ।।
इस ग्रन्थके मुख्य विषय हैं स्वयं सनातन परब्रह्मस्वरूप वासुदेव भगवान् श्रीकृष्णजी। उन्हींका इसमें संकीर्तन किया गया है। वे ही सत्य, ऋत, पवित्र एवं पुण्य हैं ।। २५६ ।।
शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योतिः सनातनम् ।
यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः ।। २५७ ।।
वे ही शाश्वत परब्रह्म हैं और वे ही अविनाशी सनातन ज्योति हैं। मनीषी पुरुष उन्हींकी दिव्य लीलाओंका संकीर्तन किया करते हैं ।। २५७ ।।
असच्च सदसच्चैव यस्माद् विश्वं प्रवर्तते ।
संततिश्च प्रवृत्तिश्च जन्ममृत्युपुनर्भवाः ।। २५८ ।।
उन्हींसे असत्, सत् तथा सदसत्—उभयरूप सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न होता है। उन्हींसे संतति (प्रजा), प्रवृत्ति (कर्त्तव्य-कर्म), जन्म-मृत्यु तथा पुनर्जन्म होते हैं ।। २५८ ।।
अध्यात्मं श्रूयते यच्च पञ्चभूतगुणात्मकम् ।
अव्यक्तादि परं यच्च स एव परिगीयते ।। २५९ ।।
इस महाभारतमें जीवात्माका स्वरूप भी बतलाया गया है एवं जो सत्त्व-रज-तम—इन तीनों गुणोंके कार्यरूप पाँच महाभूत हैं, उनका तथा जो अव्यक्त प्रकृति आदिके मूल कारण परम ब्रह्म परमात्मा हैं, उनका भी भलीभाँति निरूपण किया गया है ।। २५९ ।।
यत्तद् यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विताः ।
प्रतिबिम्बमिवादर्शे पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।। २६० ।।
ध्यानयोगकी शक्तिसे सम्पन्न जीवन्मुक्त यतिवर, दर्पणमें प्रतिबिम्बके समान अपने हृदयमें अवस्थित उन्हीं परमात्माका अनुभव करते हैं ।। २६० ।।
श्रद्दधानः सदा युक्तः सदा धर्मपरायणः ।
आसेवन्निममध्यायं नरः पापात् प्रमुच्यते ।। २६१ ।।
जो धर्मपरायण पुरुष श्रद्धाके साथ सर्वदा सावधान रहकर प्रतिदिन इस अध्यायका सेवन करता है, वह पाप-तापसे मुक्त हो जाता है ।। २६१ ।।
अनुक्रमणिकाध्यायं भारतस्येममादितः ।
आस्तिकः सततं शृण्वन् न कृच्छ्रेष्ववसीदति ।। २६२ ।।
जो आस्तिक पुरुष महाभारतके इस अनुक्रमणिका-अध्यायको आदिसे अन्ततक प्रतिदिन श्रवण करता है, वह संकटकालमें भी दुःखसे अभिभूत नहीं होता ।। २६२ ।।
उभे संध्ये जपन् किंचित् सद्यो मुच्येत किल्बिषात् ।
अनुक्रमण्या यावत् स्यादह्ना रात्र्या च संचितम् ।। २६३ ।।
जो इस अनुक्रमणिका-अध्यायका कुछ अंश भी प्रातः-सायं अथवा मध्याह्नमें जपता है, वह दिन अथवा रात्रिके समय संचित सम्पूर्ण पापराशिसे तत्काल मुक्त हो जाता है ।। २६३ ।।
भारतस्य वपुर्ह्येतत् सत्यं चामृतमेव च ।
नवनीतं यथा दध्नो द्विपदां ब्राह्मणो यथा ।। २६४ ।।
आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्योऽमृतं यथा ।
ह्रदानामुदधिः श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम् ।। २६५ ।।
यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते ।
यश्चैनं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान् पादमन्ततः ।। २६६ ।।
अक्षय्यमन्नपानं वै पितॄंस्तस्योपतिष्ठते ।
यह अध्याय महाभारतका मूल शरीर है। यह सत्य एवं अमृत है। जैसे दहीमें नवनीत, मनुष्योंमें ब्राह्मण, वेदोंमें उपनिषद्, ओषधियोंमें अमृत, सरोवरोंमें समुद्र और चौपायोंमें गाय सबसे श्रेष्ठ है, वैसे ही उन्हींके समान इतिहासोंमें यह महाभारत भी है। जो श्राद्ध में भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंको अन्तमें इस अध्यायका एक चौथाई भाग अथवा श्लोकका एक चरण भी सुनाता है, उसके पितरोंको अक्षय अन्न-पानकी प्राप्ति होती है ।। २६४-२६६ ।।
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् ।। २६७ ।।
बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति ।
कार्ष्णं वेदमिमं विद्वाञ्श्रावयित्वार्थमश्नुते ।। २६८ ।।
इतिहास और पुराणोंकी सहायतासे ही वेदोंके अर्थका विस्तार एवं समर्थन करना चाहिये। जो इतिहास एवं पुराणोंसे अनभिज्ञ है, उससे वेद डरते रहते हैं कि कहीं यह मुझपर प्रहार कर देगा। जो विद्वान् श्रीकृष्णद्वैपायनद्वारा कहे हुए इस वेदका दूसरोंको श्रवण कराते हैं, उन्हें मनोवांछित अर्थकी प्राप्ति होती है ।। २६७-२६८ ।।
भ्रूणहत्यादिकं चापि पापं जह्यादसंशयम् ।
य इमं शुचिरध्यायं पठेत् पर्वणि पर्वणि ।। २६९ ।।
अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्यादिति मे मतिः ।
यश्चैनं शृणुयान्नित्यमार्षं श्रद्धासमन्वितः ।। २७० ।।
स दीर्घमायुः कीर्तिं च स्वर्गतिं चाप्नुयान्नरः ।
एकतश्चतुरो वेदान् भारतं चैतदेकतः ।। २७१ ।।
पुरा किल सुरैः सर्वैः समेत्य तुलया धृतम् ।
चतुर्भ्यः सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो ह्यधिकं यदा ।। २७२ ।।
तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन् महाभारतमुच्यते ।
महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यतोऽधिकम् ।। २७३ ।।
और इससे भ्रूणहत्या आदि पापोंका भी नाश हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है। जो पवित्र होकर प्रत्येक पर्वपर इस अध्यायका पाठ करता है, उसे सम्पूर्ण महाभारतके अध्ययनका फल मिलता है, ऐसा मेरा निश्चय है। जो पुरुष श्रद्धाके साथ प्रतिदिन इस महर्षि व्यासप्रणीत ग्रन्थरत्नका श्रवण करता है, उसे दीर्घ आयु, कीर्ति और स्वर्गकी प्राप्ति होती है। प्राचीन कालमें सब देवताओंने इकट्ठे होकर तराजूके एक पलड़ेपर चारों वेदोंको और दूसरेपर महाभारतको रखा। परंतु जब यह रहस्यसहित चारों वेदोंकी अपेक्षा अधिक भारी निकला, तभीसे संसारमें यह महाभारतके नामसे कहा जाने लगा। सत्यके तराजूपर तौलनेसे यह ग्रन्थ महत्त्व, गौरव अथवा गम्भीरतामें वेदोंसे भी अधिक सिद्ध हुआ है ।। २६९—२७३ ।।
महत्त्वाद् भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते ।
निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। २७४ ।।
अतएव महत्ता, भार अथवा गम्भीरताकी विशेषतासे ही इसको महाभारत कहते हैं। जो इस ग्रन्थके निर्वचनको जान लेता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है ।। २७४ ।।
तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः
स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः ।
प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्क-
स्तान्येव भावोपहतानि कल्कः ।। २७५ ।।
तपस्या निर्मल है, शास्त्रोंका अध्ययन भी निर्मल है, वर्णाश्रमके अनुसार स्वाभाविक वेदोक्त विधि भी निर्मल है और कष्टपूर्वक उपार्जन किया हुआ धन भी निर्मल है, किंतु वे ही सब विपरीत भावसे किये जानेपर पापमय हैं अर्थात् दूसरेके अनिष्टके लिये किया हुआ तप, शास्त्राध्ययन और वेदोक्त स्वाभाविक कर्म तथा क्लेशपूर्वक उपार्जित धन भी पापयुक्त हो जाता है। (तात्पर्य यह कि इस ग्रन्थरत्नमें भावशुद्धिपर विशेष जोर दिया गया है; इसलिये महाभारत-ग्रन्थका अध्ययन करते समय भी भाव शुद्ध रखना चाहिये) ।। २७५ ।।
इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि अनुक्रमणिकापर्वणि प्रथमोऽध्यायः ।। १ ।।
इस प्रकार श्री महाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत अनुक्रमणिकापर्व में पहला अध्याय पूरा हुआ ।। १ ।।
[दाक्षिणात्य अधिक पाठ के ७ श्लोक मिलाकर कुल २८२ श्लोक हैं]
।। अनुक्रमणिकापर्व सम्पूर्ण ।।
- जय शब्दका अर्थ महाभारत नामक इतिहास ही है। आगे चलकर कहा है—‘जयो नामेतिहासोऽयम्’ इत्यादि। अथवा अठारहों पुराण, वाल्मीकिरामायण आदि सभी आर्ष-ग्रन्थोंकी संज्ञा ‘जय’ है।
- मंगलाचरणका श्लोक देखनेपर ऐसा जान पड़ता है कि यहाँ नारायण शब्दका अर्थ है भगवान् श्रीकृष्ण और नरोत्तम नरका अर्थ है नररत्न अर्जुन। महाभारतमें प्रायः सर्वत्र इन्हीं दोनोंका नर-नारायणके अवतारके रूपमें उल्लेख हुआ है। इससे मंगलाचरणमें ग्रन्थके इन दोनों प्रधान पात्र तथा भगवान्के मूर्ति-युगलको प्रणाम करना मंगलाचरणको नमस्कारात्मक होनेके साथ ही वस्तुनिर्देशात्मक भी बना देता है। इसलिये अनुवादमें श्रीकृष्ण और अर्जुनका ही उल्लेख किया गया है।
- नैमिषारण्य नामकी व्याख्या वाराहपुराणमें इस प्रकार मिलती है—
एवं कृत्वा ततो देवो मुनिं गौरमुखं तदा। उवाच निमिषेणेदं निहतं दानवं बलम् ।।
अरण्येऽस्मिंस्ततस्त्वेतन्नैमिषारण्यसंज्ञितम् ।
ऐसा करके भगवान्ने उस समय गौरमुख मुनिसे कहा—‘मैंने निमिषमात्रमें इस अरण्य (वन)-के भीतर इस दानव-सेनाका संहार किया है; अतः यह वन नैमिषारण्यके नामसे प्रसिद्ध होगा।’ - जो विद्वान् ब्राह्मण अकेला ही दस सहस्र जिज्ञासु व्यक्तियोंका अन्न-दानादिके द्वारा भरण-पोषण करता है, उसे कुलपति कहते हैं।
- जो कार्य अनेक व्यक्तियोंके सहयोगसे किया गया हो और जिसमें बहुतोंको ज्ञान, सदाचार आदिकी शिक्षा तथा अन्न-वस्त्रादि वस्तुएँ दी जाती हों, जो बहुतोंके लिये तृप्तिकारक एवं उपयोगी हो, उसे ‘सत्र’ कहते हैं।
- ‘तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्’ (तैत्तिरीय उपनिषद्)। ब्रह्मने अण्ड एवं पिण्डकी रचना करके मानो स्वयं ही उसमें प्रवेश किया है।
- ऋषयः सप्त पूर्वे ये मनवश्च चतुर्दश । एते प्रजानां पतय एभिः कल्पः समाप्यते ।। (नीलकण्ठीमें ब्रह्माण्डपुराणका वचन)
- यह और इसके बादका श्लोक महाभारतके तात्पर्यके सूचक हैं। दुर्योधन क्रोध है। यहाँ क्रोध शब्दसे द्वेष-असूया आदि दुर्गुण भी समझ लेने चाहिये। कर्ण, शकुनि, दुःशासन आदि उससे एकताको प्राप्त हैं, उसीके स्वरूप हैं। इन सबका मूल है राजा धृतराष्ट्र। यह अज्ञानी अपने मनको वशमें करनेमें असमर्थ है। इसीने पुत्रोंकी आसक्तिसे अंधे होकर दुर्योधनको अवसर दिया, जिससे उसकी जड़ मजबूत हो गयी। यदि यह दुर्योधनको वशमें कर लेता अथवा बचपनमें ही विदुर आदिकी बात मानकर इसका त्याग कर देता तो विष-दान, लाक्षागृहदाह, द्रौपदी-केशाकर्षण आदि दुष्कर्मोंका अवसर ही नहीं आता और कुलक्षय न होता। इस प्रसंगसे यह भाव सूचित किया गया है कि यह जो मन्यु (दुर्योधन)-रूप वृक्ष है, इसका दृढ़ अज्ञान ही मूल है, क्रोध-लोभादि स्कन्ध हैं, हिंसा-चोरी आदि शाखाएँ हैं और बन्धन-नरकादि इसके फल-पुष्प हैं। पुरुषार्थकामी पुरुषको मूलाज्ञानका उच्छेद करके पहले ही इस (क्रोधरूप) वृक्षको नष्ट कर देना चाहिये।
- युधिष्ठिर धर्म हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वे शम, दम, सत्य, अहिंसा आदि रूप धर्मकी मूर्ति हैं। अर्जुन-भीम आदिको धर्मकी शाखा बतलानेका अभिप्राय यह है कि वे सब युधिष्ठिरके ही स्वरूप हैं, उनसे अभिन्न हैं। शुद्धसत्त्वमय ज्ञानविग्रह श्रीकृष्णरूप परमात्मा ही उसके मूल हैं। उनके दृढ़ ज्ञानसे ही धर्मकी नींव मजबूत होती है। श्रुति भगवतीने कहा है कि ‘हे गार्गी! इस अविनाशी परमात्माको जाने बिना इस लोकमें जो हजारों वर्षपर्यन्त यज्ञ करता है, दान देता है, तपस्या करता है, उन सबका फल नाशवान् ही होता है।’ ज्ञानका मूल है ब्रह्म अर्थात् वेद। वेदसे ही परमधर्म योग और अपरधर्म यज्ञ-यागादिका ज्ञान होता है। यह निश्चित सिद्धान्त है कि धर्मका मूल केवल शब्दप्रमाण ही है। वेदके भी मूल ब्राह्मण हैं; क्योंकि वे ही वेद-सम्प्रदायके प्रवर्तक हैं। इस प्रकार उपदेशकके रूपमें ब्राह्मण, प्रमाणके रूपमें वेद और अनुग्राहकके रूपमें परमात्मा धर्मका मूल है। इससे यह बात सिद्ध हुई है कि वेद और ब्राह्मणका भक्त अधिकारी पुरुष भगवदाराधनके बलसे योगादिरूप धर्ममय वृक्षका सम्पादन करे। उस वृक्षके अहिंसा-सत्य आदि तने हैं। धारण-ध्यान आदि शाखाएँ हैं और तत्त्व-साक्षात्कार ही उसका फल है। इस धर्ममय वृक्षके समाश्रयसे ही पुरुषार्थकी सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं।
- शास्त्रोक्त आचारका परित्याग न करना, सदाचारी सत्पुरुषोंका संग करना और सदाचारमें दृढ़तासे स्थित रहना—इसको ‘शौच’ कहते हैं। अपनी इच्छाके अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थोंकी प्राप्ति होनेपर चित्तमें विकार न होना ही ‘धृति’ है। सबसे बढ़कर सामर्थ्यका होना ही ‘विक्रम’ है। सद्वृत्तकी अनुवृत्ति ही ‘शुश्रूषा’ है। (सदाचारपरायण गुरुजनोंका अनुसरण गुरुशुश्रूषा है।) किसीके द्वारा अपराध बन जानेपर भी उसके प्रति अपने चित्तमें क्रोध आदि विकारोंका न होना ही ‘क्षमाशीलता’ है। जितेन्द्रियता अथवा अनुद्धत रहना ही ‘विनय’ है। बलवान् शत्रुको भी पराजित कर देनेका अध्यवसाय ‘शौर्य’ है। इनके संग्राहक श्लोक इस प्रकार हैं—
आचारापरिहारश्च संसर्गश्चाप्यनिन्दितैः । आचारे च व्यवस्थानं शौचमित्यभिधीयते ।।
इष्टानिष्टार्थसम्पत्तौ चित्तस्याविकृतिर्धृतिः । सर्वातिशयसामर्थ्यं विक्रमं परिचक्षते ।।
वृत्तानुवृत्तिः शुश्रूषा क्षान्तिरागस्यविक्रिया । जितेन्द्रियत्वं विनयोऽथवानुद्धतशीलता ।।
शौर्यमध्यवसायः स्याद् बलिनोऽपि पराभवे ।। - आचार्य, ब्रह्मा, ऋत्विक्, सदस्य, यजमान, यजमानपत्नी, धन-सम्पत्ति, श्रद्धा-उत्साह, विधि-विधानका सम्यक् पालन एवं सद्बुद्धि आदि यज्ञकी उत्तम गुणसामग्रीके अन्तर्गत हैं।