रामकृष्ण मिशन समिति का संगठन – विवेकानंद जी के संग में
विषय – श्रीरामकृष्ण के भक्तों को बुलाकर स्वामीजी के द्वारा कलकत्ते में रामकृष्ण मिशन समिति का संगठन – श्रीरामकृष्ण के उदार भावों के प्रचारके विषय में सब की सम्मति पूछना – श्रीरामकृष्ण को स्वामीजी किस भावसे देखते थे – श्रीरामकृष्ण स्वामीजी को किस दृष्टि से देखते थे, तत्सम्बन्ध में श्री योगानन्द स्वामी की उक्ति – अपने ईश्वरावतारत्व के विषय में श्रीरामकृष्ण की उक्ति – अवतारत्व मे विश्वास करने की कठिनाई; देखने पर भी नहीं होता,इसका होना उनकी दया पर ही निर्भर है – कृपा का स्वरूप और कौन लोग उस कृपा को प्राप्त करते हैं – स्वामीजी और गिरीश बाबू का वार्तालाप।
स्थान – कलकत्ता
वर्ष – १८९७ ईसवी
स्वामीजी का अवस्थान कुछ दिनों से बागबाजार में स्व. बलराम बसुजी के भवन में हैं। स्वामीजी ने श्रीरामकृष्ण के सब गृहस्थ भक्तों को यहाँ एकत्रित होने के लिए समाचार भेजा था। इसी से दिन के तीन बजे श्रीरामकृष्ण के भक्तजन एकत्रित हुए हैं। स्वामी योगानन्द भी वहाँ उपस्थित हैं। स्वामीजी ने एक समिति संगठित करने के उद्देश्य से सब को निमन्त्रित किया है। सब महानुभावों के बैठ जाने पर स्वामीजी ने कहा, “अनेक देशों में भ्रमण करने पर मैंने यह सिद्धान्त स्थिर किया है कि बिना संघ के कोई भी बड़ा कार्य सिद्ध नहीं होता। परन्तु हमारे देश में इसका निर्माण यदि शुरू से ही सर्वसाधारण के मतानुसार (वोट द्वारा) किया जाय तो मुझे ऐसा अनुमान नहीं होता कि वह अधिक कार्य करेगा। पाश्चात्य देशों के लिए यह नियम अच्छा है, क्योंकि वहाँ सब नर-नारी अधिक शिक्षित हैं और हमारे समान द्वेषपरायण नहीं हैं। वे गुण का सम्मान करना जानते हैं। मैं स्वयं एक तुच्छ मनुष्य हूँ, परन्तु मेरा भी उन्होंने कितना सत्कार किया। इस देश में शिक्षा-विस्तार के साथ जब साधारण लोग और भी सहृदय बनेंगे और अपने हृदय को छोटे छोटे मतों की संकीर्ण सीमा से हटाकर उदारता से विचार करेंगे, तब साधारण लोगों के मतानुसार काम चल सकता है। इन सब बातों का विचार करके मैं देखता हूँ कि हमारे इस संघ के लिए एक प्रधान संचालक (Dictator) होना आवश्यक है, सब लोग उसीके आदेश को मानें। कुछ समय पश्चात् सब के मतानुसार ही कार्य करना पड़ेगा
यह संघ उन श्रीरामकृष्म के नाम पर स्थापित होगा जिनके नाम पर भरोसा कर हम संन्यासी हुए और आप सब महानुभाव जिनको अपना जीवन-आदर्श मान संसार-आश्रमरूप कार्यक्षेत्र में विराजित हैं और जिनके देहावसान से दस ही वर्ष में प्राच्य तथा पाश्चात्य जगत् में उनके पवित्र नाम और अद्भुत जीवनी का प्रसार ऐसा आश्चर्यजनक हुआ है। हम सब प्रभु के सेवक हैं, आप लोग इस कार्य में सहायता दीजिये।
श्रीयुत गिरीशचन्द्र तथा अन्यान्य गृहस्थों के इस प्रस्ताव पर सम्मत होने पर रामकृष्ण संघ की भावी कार्यप्रणाली की आलोचना होने लगी। संघ का नाम “रामकृष्ण संघ” अथवा “रामकृष्ण मिशन” रखा गया। उसके उद्देश्यादि नीचे उद्धृत किये जाते हैं।
उद्देश्य – मनुष्यों के हित के निमित्त श्रीरामकृष्ण ने जिन तत्त्वों का विवेचन किया है और उनके जीवन में कार्य द्वारा जिनकी पूर्ति हुई है, उन सब का प्रचार तथा मनुष्यों की दैहिक, मानसिक और पारमार्थिक उन्नति के निमित्त वे सब तत्त्व जिस प्रकार से प्रयुक्त हो सकें, उसमें सहायता करना ही इस संघ (मिशन) का उद्देश्य है।
व्रत – जगत् के सब धर्ममतों को एक अक्षय सनातन धर्म का रूपान्तर मात्र जानकर समस्त धर्मावलम्बियों में मित्रता स्थापित करने के लिए श्रीरामकृष्ण ने जिस कार्य की अवतारणा की थी उसी का परिचालन करना इस संघ का व्रत है।
कार्यप्रणाली – मनुष्यों की सांसारिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए विद्यादान करने के लिए उपयुक्त लोगों को शिक्षित करना। शिल्पकार्य करके अथवा परिश्रम से जो अपनी जीविका चलाते हैं, उनका उत्साह बढ़ाना और वेदान्त तथा अन्यान्य धर्मभावों का, जैसी कि उनकी रामकृष्णजीवन में व्याख्या हुई थी, मनुष्य-समाज में प्रचार करना।
भारतवर्षीय कार्य – भारतवर्ष के नगर नगर में आचार्य-व्रत ग्रहण करने के अभिलाषी गृहस्थ या संन्यासियों की शिक्षा के निमित्त आश्रम स्थापित करना और जिनसे वे दूर दूर जाकर साधारण जनों को शिक्षा दे सकें उन उपायों का अवलम्बन करना।
विदेशीय कार्यविभाग – भारतवर्ष से बाहर अन्यान्य विदेशों में व्रतधारियों को भेजना और उन देशों में स्थापित सब आश्रमों का भारतवर्ष के आश्रमों से मित्रभाव और सहानुभूति बढ़ाना तथा नये नये आश्रमों की स्थापना करना।
स्वामी विवेकानंद स्वयं ही उस समिति के साधारण सभापति बने। स्वामी ब्रह्मानन्द जी कलकत्ता केन्द्र के सभापति और स्वामी योगानन्दजी सहकारी बने। एटर्नी बाबू नरेन्द्रनाथ मित्र इसके सेक्रेटरी, डाक्टर शशिभूषण घोष और शरच्चन्द्र सरकार अण्डरसेक्रेटरी और शिष्य शास्त्रपाठक निर्वाचित हुए। स्व. बलराम बसुजी के मकान पर प्रत्येक रविवार को चार बजे के उपरान्त समिति का अधिवेशन होगा, यह नियम भी निश्चित किया गया। इस सभा के पश्चात् तीन वर्ष तक “रामकृष्ण मिशन” समिति का अधिवेशन प्रति रविवार को बलराम बसुजी के मकान पर हुआ। स्वामीजी जब तक फिर विलायत नहीं गये, तब तक सुविधानुसार समिति के अधिवेशन में उपस्थित होकर कभी उपदेश आदि देकर या कभी अपने सुन्दरकण्ठ से गान सुनाकर सब को मोहित करते थे।
सभा की समाप्ति पर सदस्य लोगों के चले जाने के पश्चात् योगानन्द स्वामी को लक्ष्य करके स्वामीजी कहने लगे, “इस प्रकार से कार्य तो आरम्भ किया गया, अब देखना चाहिए कि श्री गुरुदेव की इच्छा से कहाँ तक इसका निर्वाह होता है।”
स्वामी योगानन्द – तुम्हारा यह सब कार्य विदेशी ढंग पर हो रहा है। श्रीरामकृष्ण का उपदेश क्या ऐसा ही था?
स्वामीजी – तुमने कैसे जाना कि यह सब श्रीरामकृष्ण के भावानुसार नहीं है? तुम क्या अनन्त भावमय गुरुदेव को अपनी सीमा में आबद्ध करना चाहते हो? मैं इस सीमा को तोड़कर उनके भाव जगत् भर में फैलाऊँगा। श्रीरामकृष्ण ने उनके पूजापाठ का प्रचार करने का उपदेश मुझे कभी नहीं दिया। वे साधन-भजन, ध्यान-धारणा तथा और और ऊँचे धर्मभावों के सम्बन्ध में जो सब उपदेश दे गये हैं, उनको पहले अपने में अनुभव करके फिर सर्वसाधारण को उन्हें सिखलाना होगा। मत अनन्त हैं; पथ भी अनन्त हैं। सम्प्रदायों से भरे हुए जगत् में और एक नवीन सम्प्रदाय के पैदा कर देने के लिए मेरा जन्म नहीं हुआ। प्रभु के चरणों में आश्रय पाकर हम कृतार्थ हो गये हैं। त्रिजगत् के लोगों को उनके सब भावों को देने के निमित ही हमारा जन्म हुआ है।
इन बातों का प्रतिवाद न करने पर स्वामी योगानन्द से स्वामीजी फिर कहने लगे, “प्रभु की कृपा का परिचय इस जीवन में बहुत पाया। वे ही तो पीछे खड़े होकर इन सब कार्यों को करा रहे हैं। जब भूख से कातर होकर वृक्ष के नीचे पड़ा हुआ था, जब कौपीन बाँधने को वस्त्र तक नहीं था, जब कौड़ीहीन होकर पृथ्वी का भ्रमण करने को कृतसंकल्प हुआ था, तब भी श्रीगुरुदेव की कृपा से सब बातों में मैंने सहायता पायी। फिर जब इसी विवेकानन्द के दर्शन करने के निमित्त शिकागो के रास्तों में लठ चले थे, जिस सम्मान के शतांश का एकांश भी प्राप्त करने पर साधारण मनुष्य उन्मत्त हो जाते हैं, श्रीगुरुदेव की कृपा से उस सम्मान को भी सहज में पचा गया। प्रभु की इच्छा से सर्वत्र विजय है। अब इस देश में कुछ कार्य कर जाऊँगा। तुम सन्देह छोड़कर मेरे कार्य में सहायता करो, देखोगे कि उनकी इच्छा से सब पूर्ण हो जायगा।”
स्वामी योगानन्द – तुम जैसा आदेश करोगे, हम वैसा ही करेंगे। हम तो सदा से तुम्हारे आज्ञाकारी हैं। मैं तो कभी कभी स्पष्ट ही देखता हूँ कि श्रीगुरुदेव स्वयं तुमसे यह सब कार्य करा रहे हैं। फिर बीच बीच में मन में न जाने क्यों ऐसा सन्देह आ जाता है। मैंने श्रीगुरुदेव के कार्य करने की रीति कुछ और ही प्रकार की देखी थी, इसीलिए सन्देह होता है कि कहीं हम उनकी शिक्षा छोड़कर दूसरे पथ पर तो नहीं चल रहे हैं? इसी कारण तुमसे ऐसा कहता हूँ और सावधान कर देता हूँ।
स्वामीजी – इसके उत्तर में मैं कहता हूँ कि साधारण भक्तों ने श्रीगुरुदेव को जहाँ तक समझा है, वास्तव में हमारे प्रभु उतने ही नहीं हैं; वरन् वे अनन्त भावमय हैं। ब्रह्मज्ञान की मर्यादा हो भी, किन्तु प्रभु के अगम्य भावों की कुछ मर्यादा नहीं है। उनके कृपाकटाक्ष से एक क्यों लाखों विवेकानन्द अभी उत्पन्न हो सकते हैं। पर ऐसा न करके वे अपनी ही इच्छा से मेरे द्वारा अर्थात् मुझे यन्त्रवत् बनाकर, यहाँ सब कार्य करा रहे हैं। इसमें मैं क्या करूँ?
यह कहकर स्वामीजी अन्य कार्य के निमित्त कहीं चले गये। स्वामी योगानन्द शिष्य से कहने लगे, “वाह! नरेन्द्र का कैसा विश्वास है! इस पर भी क्या तूने ध्यान दिया है? उन्होंने कहा कि श्रीगुरुदेव के कृपाकटाक्ष से लाखों विवेकानन्द बन सकते हैं! धन्य है उनकी गुरुभक्ति को! यदि ऐसी भक्ति का शतांश भी हम प्राप्त कर सकते तो कृतार्थ हो जाते।”
शिष्य – महाराज, श्रीरामकृष्ण स्वामीजी के विषय में क्या कहा करते थे?
योगानन्द – वे कहा करते थे, ‘इस युग में ऐसा आधार जगत् में और कभी नहीं आया।’ कभी कहते थे, ‘नरेन्द्र पुरुष है और मैं प्रकृति हूँ, नरेन्द्र मेरी ससुराल है।’ कभी कहा करते थे, ‘अखण्ड के राज्य के हैं’। कभी कहते थे, ‘अखण्ड श्रेणी के हैं – वहाँ देव-देवी सब अपना प्रकाश ब्रह्म से स्वतन्त्र रखने को समर्थ न होकर, उनमें लीन हो गये हैं, वहाँ केवल सात ऋषियों को अपना प्रकाश स्वतन्त्र रखकर ध्यान में निमग्न रहते देखा, नरेन्द्र उनमें से एक का अंशावतार है।’ कभी कहा करते थे, ‘जगत्पालक नारायण ने नर और नारायण नामक जिन दो ऋषियों की मूर्ति धारण करके जगत् के कल्याण के लिए तपस्या की थी, नरेन्द्र उसी नर ऋषि का अवतार है,’ कभी कहते थे, ‘शुकदेवजी के समान इसको भी माया ने स्पर्श नहीं किया है।’
शिष्य – क्या वे सब बातें सत्य हैं? या श्रीरामकृष्ण भावावस्था में समय समय पर एक एक प्रकार का उनको कहा करते थे।
योगानन्द – उनकी सब बातें सत्य हैं। उनके श्रीमुख से भूल से भी मिथ्या बात नहीं निकली।
शिष्य – तब फिर क्यों कभी कभी ऐसे भिन्न प्रकार से कहा करते थे।
योगानन्द – तेरी समझ में नहीं आया। नरेन्द्र को सब का समष्टि प्रकाश कहा करते थे। क्या तुझे नहीं दीख पड़ता कि नरेन्द्र में ऋषि का वेद-ज्ञान, शंकर का त्याग, बुद्ध का हृदय, शुकदेव का मायारहित भाव और ब्रह्मज्ञान का पूर्ण विकास एक साथ वर्तमान हैं? श्रीरामकृष्ण इसीसे बीच बीच में नरेन्द्र के विषय में ऐसी नाना प्रकार की बातें कहा करते थे। जो वे कहते थे वह सब सत्य है।
शिष्य सुनकर निर्वाक् हो गया। इतने में स्वामीजी लौटे और शिष्य से पूछा, “क्या तेरे देश में सब लोग श्रीरामकृष्ण के नाम से विशेष रूप से परिचित हैं?”
शिष्य – मेरे देश से तो केवल नागमहाशय ही श्रीरामकृष्ण के पास आये थे। उनसे समाचार पाने पर अनेक लोग श्रीरामकृष्ण के विषय में जानने को उत्सुक हुए हैं; परन्तु वहाँ के नागरिक श्रीरामकृष्ण को ईश्वर के अवतार अभी तक नहीं जान सके, और कोई कोई तो यह बात सुनकर भी इस पर विश्वास नहीं करते।
स्वामीजी – इस बात पर विश्वास करना क्या तूने ऐसा सुगम समझ रखा है? हमने उनको सब प्रकार से जाँचा, उनके मुँह से यह बात बारम्बार सुनी, चौबीस घण्टे उनके साथ रहे, तिस पर भी बीच बीच में हमको सन्देह होता है, तो फिर औरों को क्या कहें?
शिष्य – महाराज, श्रीरामकृष्ण पूर्णब्रह्म भगवान थे, क्या यह बात उन्होंने कभी अपने मुँह से कही थी?
स्वामीजी – कितने ही बार कही थी। हम सब लोगों से कही थी। जब वे काशीपुर के बाग में थे और उनका शरीरत्याग होने को ही था, तब मैंने उनकी शय्या के निकट बैठकर एक दिन मन में सोचा कि यदि तुम अब कह सको “मैं भगवान हूँ” तब मेरा विश्वास होगा कि तुम सत्य ही भगवान हो। तब चोला के छूटने के दो दिन बाकी थे। उक्त बात को सोचते ही श्रीगुरुदेव ने एकाएक मेरी ओर देखकर कहा, “जो राम थे, जो कृष्ण थे, वे ही अब इस शरीर में रामकृष्ण हैं, – तेरे वेदान्त के मत से नहीं।” मैं तो सुनकर भौचक्का हो गया। प्रभु के श्रीमुख से बारम्बार सुनने पर भी हमें ही अभी तक पूर्ण विश्वास नहीं हुआ – सन्देह और निराशा में मन कभी कभी आन्दोलित हो जाता हैं – तो फिर औरों की बात क्या? हमारे ही समान देहधारी एक मनुष्य को ईश्वर कहकर निर्देश करना और उन पर विश्वास रखना बड़ा ही कठिन है। सिद्धपुरुष या ब्रह्मज्ञ एक अनुमान करना सम्भव है। उनको चाहे जो कुछ कहो, चाहे जो कुछ समझो, महापुरुष मानो या ब्रह्मज्ञ, इसमें क्या धरा है। परन्तु श्रीगुरुदेव जैसे पुरुषोत्तम ने इससे पहले जगत् में और कभी जन्म नहीं लिया। संसार के घोर अन्धकार में अब यही महापुरुष ज्योतिःस्तम्भस्वरूप हैं। इनकी ही ज्योति से मनुष्य संसार समुद्र के पार चले जायेंगे।
शिष्य – मेरा अनुमान है कि जब तक कुछ देख-सुन न लें, तब तक यथार्थ विश्वास नहीं होता। सुना है कि मथुरबाबू ने श्रीरामकृष्ण के विषय में कितनी ही अद्भुत घटनाएँ प्रत्यक्ष की थी और उन्ही से उनका विश्वास उन पर जमा था।
स्वामीजी – जिसे विश्वास नहीं है, उसे देखने पर भी कुछ नहीं होता। देखने पर सोचता है कि यह कहीं अपने मस्तिष्क का विकार या स्वप्नादि तो नहीं है? दुर्योधन ने भी विश्वरूप देखा था, अर्जुन ने भी विश्वरूप देखा था। महारथी अर्जुन को विश्वास हुआ किन्तु दुर्योधन ने उसे जादू समझा! यदि वे ही न समझायें तो और किसी प्रकार से समझने का उपाय नहीं है। किसी किसी को बिना कुछ देखे सुने ही पूर्ण विश्वास हो जाता है और किसी को बारह वर्ष तक प्रत्यक्ष सामने रहकर नाना प्रकार की विभूतियाँ देखकर भी सन्देह में पड़ा रहना होता है। सारांश यह है कि उनकी कृपा चाहिए, परन्तु लगे रहने से ही उनकी कृपा होगी।
शिष्य – महाराज, कृपा का क्या कोई नियम है?
स्वामीजी – है भी और नहीं भी।
शिष्य – यह कैसे?
स्वामीजी – जो तन-मन-वचन से सर्वदा पवित्र रहते हैं, जिनका अनुराग प्रबल है, जो सत्-असत् का विचार करनेवाले हैं और ध्यान तथा धारणा में संलग्न रखते हैं उन्हीं पर भगवान की कृपा होती हैं। परन्तु भगवान प्रकृति के सब नियमों का (Natural laws) के परे हैं अर्थात् किसी नियम के वश में नहीं है। श्रीगुरुदेव जैसा कहा करते थे, ‘उनका स्वभाव बच्चों के समान है।’ इस कारण यह देखने में आता है कि किसी किसी ने करोड़ों जन्मों से उन्हें पुकारा, किन्तु उनसे कोई उत्तर न पा सका। फिर जिसको हम पापी, तापी और नास्तिक समझते हैं, उसमें एकाएक चैतन्य का प्रकाश हुआ। उसके न मांगने पर भी भगवान ने उस पर कृपा कर दी। तुम यह कह सकते हो कि उसके पूर्वजन्म का संस्कार था, परन्तु इस रहस्य को समझना बड़ा कठिन है। श्रीगुरुदेव ने ऐसा भी कहा है कि उन्हें ही सम्पूर्ण सहारा समझो। जैसे पत्तल तूफान के सामने रहती है उसी प्रकार तुम भी रहो। उन्होंने फिर कहा कि कृपारूपी हवा तो चल ही रही है, तुम अपना पाल उठा दो।
शिष्य – महाराज, यह तो बड़ी कठिन बात है। कोई युक्ति ही यहाँ नहीं ठहर सकती।
स्वामीजी – तर्क विचार की दौड़ तो माया से अधिकृत इसी जगत् में हैं, देश-काल-निमित्त की सीमा के अन्तर्गत है; परन्तु वे देश-कालातीत हैं। उनके नियम (laws) भी हैं, और वे नियम के बाहर भी हैं। प्रकृति के जो कुछ नियम हैं, उन्होंने ही उनको बनाया या वे ही स्वयं ये नियम बने और इन सब के परे भी रहे। जिन्होंने उनकी कृपा को प्राप्त किया, वे उसी…
शिष्य – महाराज यह बात ठीक समझ में नहीं आयी।
स्वामीजी – और अधिक समझने से क्या फल पाओगे? जहाँ तक सम्भव हो उनसे ही मन लगाये रखो। इसीसे इस जगत् की माया स्वयं छूट जायगी; परन्तु लगा रहना पड़ेगा। कामिनी और कांचन से मन को पृथक् रखना पड़ेगा। सर्वदा सत् और असत् का विचार करना होगा। मैं शरीर नहीं हूँ, ऐसे विदेह भाव से अवस्थान करना पड़ेगा। मैं सर्वव्यापी आत्मा ही हूँ इसी की अनुभूति होनी चाहिए। इसी प्रकार लगे रहने का ही नाम पुरुषकार है। इस पुरुषकार की सहायता से ही उन पर निर्भरता आती है, जिसको परम पुरुषार्थ कहते हैं।
स्वामीजी फिर कहने लगे, “यदि तुम पर उनकी कृपा नहीं होती तो तुम यहाँ क्यों आते? श्रीगुरुदेव कहा करते थे, ‘जिन पर भगवान की कृपा हुई हैं उनको यहाँ अवश्य ही आना होगा। वह कहीं भी क्यों न रहे, कुछ भी क्यों न करे, यहाँ की बातों से और यहाँ के भावों से उसे अवश्य अभिभूत होना होगा।’ तुम अपने ही सम्बन्ध में सोचकर देखो न, जो नागमहाशय भगवान की कृपा से सिद्ध हुए थे और उनकी कृपा को ठीक ठीक समझते थे, उनका सत्संग भी क्या बिना ईश्वर की कृपा के कभी हो सकता है? ‘अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।’ जन्म-जन्मान्तर की सुकृति से ही महापुरुषों के दर्शन होते हैं। शास्त्र में उत्तमा भक्ति के जो लक्षण दिये हैं, वे सभी नागमहाशय में प्रकट हुए थे। लोग जो ‘तृणादपि सुनीचेन’ कहते हैं वह एकमात्र नागमहाशय में ही मैंने देखा है। तुम्हारा पूर्व बंगाल देश धन्य है, क्योंकि नागमहाशय के चरणरेणु से वह पवित्र हो गया है।”
बातचीत करते हुए स्वामीजी महाकवि गिरिशचन्द्र घोष के भवन की ओर घूमते हुए निकले। स्वामी योगानन्द और शिष्य भी साथ चले। गिरीश बाबू के भवन में उपस्थित होकर स्रामीजी ने आसन ग्रहण किया और कहा, “जी. सी. ,1 आजकल मन में केवल यही उदय हो रहा कि यह करूँ, वह करूँ, उनके वचनों को संसार में फैला दूँ इत्यादि। फिर यह भी शंका होती है कि इससे भारत में कहीं एक नवीन सम्प्रदाय का सृजन न हो जाय। इसलिए बड़ी सावधानी से चलना पड़ता है। कभी ऐसा भी विचार हो आता है कि यदि कोई सम्प्रदाय बन जाय तो बन जाने दो। फिर सोचता हूँ कि, नहीं, उन्होंने तो किसी के भाव को कभी नष्ट नहीं किया। समदर्शन करना ही उनका भाव था। ऐसा विचार कर अपनी इच्छा को समय समय पर दबा देता हूँ। इस बारे में तुम्हारा क्या विचार है?”
गिरीशबाबू – मेरा विचार और क्या हो सकता है। तुम तो उनके हाथ में यन्त्र के समान हो। जो करायेंगे वह तुमको अवश्य करना होगा। इससे अधिक मैं कुछ नहीं जानता। मैं तो देखता हूँ कि प्रभु की शक्ति ही तुमसे कार्य करा रही है। मुझे स्पष्ट यह प्रत्यक्ष हो रहा है।
स्वामीजी – और मैं देखता हूँ कि हम अपनी इच्छानुसार कार्य कर रहे हैं। परन्तु अपने आपद तथा विपद में, अभाव और दारिद्र्य में भी वे प्रत्यक्ष होकर ठीक मार्ग पर मुझे चलाते हैं यह भी मैंने देखा है। परन्तु प्रभु की शक्ति का कुछ भी अनुमान नहीं कर सका।
गिरीश बाबू – उन्होंने तुम्हारे विषय में कहा था कि सब समझ जाने से ही सब शून्य हो जायगा; तो फिर कौन करेगा और किससे करायेगा?
ऐसे वार्तालाप के पश्चात् अमरीका के प्रसंग पर बातें होने लगीं। गिरीश बाबू ने स्वामीजी का ध्यान अन्य प्रसंग में ले जाने के लिए अपनी इच्छा से ही इस प्रसंग का आरम्भ किया, यही मेरा अनुमान है। ऐसा करने का कारण पूछने पर गिरीश बाबू ने दूसरे समय मुझसे कहा था, “श्रीगुरुदेव के श्रीमुख से सुना है कि इस प्रकार के विषय का वार्तालाप करते करते यदि स्वामीजी को संसार-वैराग्य या ईश्वरोद्दीपना होकर अपने स्वरूप का एक बार दर्शन हो जाय, (अर्थात् वे अपने स्वरूप को पहिचान जायँ) तो एक क्षण भी उनका शरीर नहीं रहेगा।” इसलिए मैंने देखा कि स्वामीजी के संन्यासी गुरुभाइयों ने जब जब उनको चौबीसों घण्टे श्रीगुरुदेव का प्रसंग करते हुए पाया, तब तब अन्यान्य प्रसंगों में उनका मन लगा दिया। अब अमरीका के प्रसंग में स्वामीजी तल्लीन हो गये। वहाँ की समृद्धि तथा स्त्रीपुरुषों का गुणावगुण और उनके भोग-विलास इत्यादि की नाना कथाओं का वर्णन करने लगे।
- गिरीशचन्द्र को स्वामी जी. सी. कहकर पुकारा करते थे।