स्वामीजी का शिष्य को दीक्षादान – विवेकानंद जी के संग में
विषय – स्वामीजी का शिष्य को दीक्षादान – दीक्षा से पूर्व प्रश्न – यज्ञसूत्रकी उत्पत्ति के विषय में वेदों का मत – जिससे अपना मोक्ष और जगत् केकल्याणचिन्तन में मन को सर्वदा मग्न रख सके वही दीक्षा – अहंभाव से पापपुण्य उत्पत्ति – आत्मा का प्रकाश, छोटे ‘अहं’ के त्याग ही में – मन के नाशमेंही यथार्थ अहंभाव का प्रकाश, और वास्तव में यही अहं का स्वरूप – “कालेनात्मनि विन्दति।”
स्थान – आलमबाजार मठ
वर्ष – १८९७ (मई)
आज वैशाख १३०३ (बंगला सन) का उन्नीसवाँ दिन है। स्वामी विवेकानंद ने शिष्य को आज दीक्षा देना स्वीकार किया है। आज शिष्य के जीवन में सभी दिनों की अपेक्षा एक विशेष दिन है। शिष्य प्रातःकाल ही गंगा नदी में स्नान कर कुछ लीची तथा अन्यान्य सामग्री मोल लेकर लगभग आठ बजे आलमबाजार मठ में उपस्थित हुआ। शिष्य को देखकर स्वामीजी ने हँसकर कहा, “आज तुम्हें बलिदान देना होगा, क्यों?”
स्वामीजी शिष्य से यह कहकर फिर औरों के साथ अमरीका के सम्बन्ध में वार्तालाप करने लगे। धर्मजीवन के गठन करने में किस प्रकार एकनिष्ठ होना पड़ता है, गुरु पर किस प्रकार अटल विश्वास एवं दृढ़ भक्तिभाव होना चाहिए, गुरुवाक्यों पर किस प्रकार निर्भर रहना चाहिए और गुरु के निमित्त अपने प्राण तक देने को भी किस प्रकार प्रस्तुत रहना चाहिए – आदि आदि बातों की भी चर्चा होने लगी। तत्पश्चात् शिष्य के हृदय की परीक्षा करने के निमित्त कुछ प्रश्न करने लगे, “मैं जब भी जिस काम की आज्ञा दूँगा क्या तू तुरन्त उस आज्ञा का पालन करने की यथाशक्ति चेष्टा करेगा? तेरा मंगल समझकर यदि मैं तुझे गंगा में डूबकर मर जाने की या छत से कूद पड़ने की आज्ञा दूँ, तो क्या तू बिना विचारे इसका पालन करेगा? अब भी तू विचार कर ले। बिना विचारे गुरु करने को तैयार न हो।” शिष्य के मन में कैसा विश्वास है यही जानने के लिए वे कुछ ऐसे प्रश्न करने लगे। शिष्य भी सिर झुकाये “पालन करूँगा” कहकर प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देने लगा।
स्वामीजी कहने लगे – “वही सच्चा गुरु है, जो इस मायारूपी संसार के पार ले जाता है, जो कृपा करके सब मानसिक आधिव्याधि विनष्ट करता है। पूर्वकाल में शिष्यगण समित्पाणि होकर गुरु के आश्रम में जाया करते थे। गुरु उनको अधिकारी समझने पर दीक्षादान करके वेद पढ़ाते थे और तन-मन-वाक्य-दण्डरूप व्रत के चिह्नस्वरूप त्रिरावृत्त मूँज-मेखला उसकी कमर में बाँध देते थे। शिष्य अपनी कौपीनों को उससे तानकर बाँधते थे। उस मूँज-मेखला के स्थान पर अब यज्ञसूत्र या जनेऊ पहिनने की रीति निकली है।”
शिष्य – हम सूत के जो उपवीत धारण करते हैं, क्या यह वैदिक प्रथा नहीं है?”
स्वामीजी – वेद में कहीं सूत के उपवीत का प्रसंग नहीं है। स्मार्त पण्डित रघुनन्दन ने भी लिखा है – “अस्मिन्नेव समये यज्ञसूत्रं परिधापयेत।” ऐसे उपवीत का प्रसंग गोभिल के गृहसूत्र में भी नहीं है। गुरु के पास होनेवाले इस वैदिक संस्कार को ही शास्त्रों में उपनयन कहा गया है; परन्तु आजकल देश की कैसी दुरवस्था हो गयी है! शास्त्रपथ को छोड़कर केवल कुछ देशाचार, लोकाचार तथा स्त्री-आचार से सारा देश भरा हुआ है। इसी कारण मैं कहता हूँ कि जैसा प्राचीनकाल में था वैसा ही काम शास्त्र के अनुसार करते जाओ। स्वयं श्रद्धावान् होकर अपने देश में भी श्रद्धा लाओ। अपने हृदय में नचिकेता के समान श्रद्धा लाओ। नचिकेता के समान यमलोक में चले जाओ। आत्मतत्त्व जानने के लिए, आत्मा के उद्धार के लिए, इस जन्म-मृत्यु की समस्या की यथार्थ मीमांसा के लिए यदि यम के द्वार पर भी जाकर सत्य का लाभ कर सको, तो निर्भय हृदय से वहाँ जाना उचित है। भय ही मृत्यु है। भय से पार हो जाना चाहिए। आज से ही भयशून्य हो जाओ। अपने मोक्ष तथा परहित के निमित्त आत्मोत्सर्ग करने के लिए अग्रसर हो जाओ। थोड़ी-सी हड्डी तथा मांस का बोझ लिये फिरने से क्या होगा? ईश्वर के निमित्त सर्वस्व-त्यागरूप मन्त्र में दीक्षा ग्रहण करके दधीचि मुनि के समान औरों के निमित्त अपनी हड्डी और मांस दान कर दो। शास्त्र में लिखा है कि जो अधीतवेदवेदान्त हैं, जो ब्रह्मज्ञ हैं, जो अन्य को भय के पार ले जाने में समर्थ हैं, वे ही यथार्थ गुरु हैं। उनके दर्शन पाते ही उनसे दीक्षित होना उचित है; “नात्र कार्या विचारणा।” आजकल वह रीति कहाँ पहुँची है? देखो तो – “अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।”
अब नौ बजे का समय है। स्वामीजी आज गंगास्नान करने नहीं गये, मठ में ही स्नान किया। स्नान के बाद एक नया गेरुए रंग का वस्त्र पहनकर धीरे से पूजा-घर में प्रवेश करके आसन पर बैठ गये। शिष्य ने वहाँ प्रवेश नहीं किया, परन्तु बाहर ही प्रतीक्षा करने लगा – ‘स्वामीजी जब बुलायेंगे तभी भीतर जाऊँगा।’ अब स्वामीजी ध्यानस्थ हुए – मुक्त-पद्मासन, ईषन्मुद्रित नयन से ऐसा अनुमान होता था कि तन-मन-प्राण सब स्पन्दहीन हो गया है। ध्यान के अन्त में स्वामीजी ने “वत्स, इधर आओ” कहकर बुलाया। शिष्य स्वामीजी के स्नेहयुक्त आह्वान से मुग्ध होकर यन्त्रवत् पूजा-घर में प्रविष्ट हुआ। वहाँ प्रवेश करते ही स्वामीजी ने शिष्य को आदेश किया “द्वार बन्द करो।” द्वार के बन्द करने पर स्वामीजी ने कहा “मेरे वामपार्श्व में स्थिर होकर बैठो।” स्वामीजी के आदेश को शिरोधार्य करके शिष्य आसन पर बैठा। उस समय कैसे एक अनिर्वचनीय, पूर्व भाव से उसका हृदय थर थर काँप रहा था। इसके अनन्तर स्वामीजी ने अपने हस्तकमल को शिष्य के मस्तक पर रखकर उससे दो चार गुह्य बातें पूछीं। उनका यथासाध्य उत्तर देने पर स्वामीजी ने उसके कान में महाबीज मन्त्र तीन बार उच्चारण किया और शिष्य से तीन बार उच्चारण करवाया। उसके बाद साधना के विषय में कुछ उपदेश प्रदान करके निश्चल होकर अनिमेष नेत्रों से शिष्य के नेत्रों की ओर कुछ देर तक देखते रहे। अब शिष्य का मन स्तब्ध और एकाग्र हो जाने से वह एक अनिर्वचनीय भाव से निश्चल होकर बैठा रहा। कितनी देर तक इस अवस्था में रहा, इसका अब कुछ ध्यान ही नहीं रहा। इसके बाद स्वामीजी बोले, “गुरु-दक्षिणा लाओ।” शिष्य ने कहा, “क्या लाऊँ?” यह सुनकर स्वामीजी ने आज्ञा दी, “भण्डार से कुछ फल ले आओ।” शिष्य भागता हुआ भण्डार को गया और दस बारह लीची ले आया। स्वामीजी अपने हाथ में लीची लेकर एक एक करके सब खा गये और बोले – “अच्छा, तेरी गुरुदक्षिणा हो गयी।” जिस समय पूजागृह में स्वामीजी से शिष्य दीक्षित हो रहा था उसी समय मठ का एक और व्यक्ति दीक्षित होने के लिये कृतसंकल्प हो द्वार के बाहर खड़ा था। स्वामी शुद्धानन्दजी ने उस समय तक ब्रह्मचारी अवस्था में मठ में रहने पर भी यथाविधि दीक्षा ग्रहण नहीं की थी। आज शिष्य को इस प्रकार से दीक्षित होते देख उन्होंने बड़े उत्साह से दीक्षा लेना निश्चय किया और पूजा-घर से दीक्षित होकर शिष्य के निकलते ही वे वहाँ जा पहुँचे और स्वामीजी से अपना अभिप्राय प्रकट किया। स्वामीजी भी शुद्धानन्दजी के विशेष आग्रह से सम्मत हो गये और पुनः पूजा करने को आसन ग्रहण किया।
फिर, शुद्धानन्दजी को दीक्षादान के कुछ समय बाद स्वामीजी पूजा-घर से बाहर निकल आये। कुछ देर बाद उन्होंने भोजन किया और फिर विश्राम करने लगे। शिष्य ने भी शुद्धानन्दजी के साथ स्वामीजी के पात्रावशेष को बड़े प्रेम से ग्रहण किया और उनके पायँते बैठकर धीरे-धीरे उनकी चरणसेवा करने लगा। कुछ देर विश्राम के बाद स्वामीजी ऊपर की बैठक में जाकर बैठे। शिष्य ने भी उस समय सुअवसर पाकर उनसे प्रश्न किया – “महाराज, पाप और पुण्य का भाव कहाँ से उत्पन्न हुआ?”
स्वामीजी – बहुत्व के भाव से यह सब आ पहुँचा है। मनुष्य एकत्व की ओर जितना बढ़ता जाता है उतना ही “हम-तुम” का भाव कम होता जाता है, जिसमें से कि सारा धर्माधर्म इत्यादि द्वन्द्वभाव उत्पन्न हुआ है। हमसे यह पृथक् है ऐसा भाव मन में उत्पन्न होने से ही अन्यान्य द्वन्द्व भावों का विकास होता है, किन्तु सम्पूर्ण एकत्व अनुभव होने पर मनुष्य का शोक या मोह नहीं रह जाता – “तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः।” सब प्रकार की दुर्बलता को ही पाप कहते हैं (Weakness is sin)। इससे हिंसा तथा द्वेष आदि का जन्म होता है। इसलिए दुर्बलता का दूसरा नाम पाप है। हृदय में आत्मा सर्वदा प्रकाशमान है, परन्तु इधर कोई ध्यान नहीं देता। केवल इस जड़ शरीर, हड्डी तथा मांस के एक अद्भुत पिंजरे पर ही ध्यान रखकर “मैं, मैं” करते हैं। यही सब प्रकार की दुर्बलता का मूल है। इस अध्यास से ही जगत् में व्यावहारिक भाव निकले हैं, परन्तु परमार्थ भाव इस द्वन्द्वभाव के परे वर्तमान है।
शिष्य – तो क्या इस सब व्यावहारिक सत्ता में कुछ भी सत्य नहीं है?
स्वामीजी – जब तक “मैं शरीर हूँ” यह ज्ञान है, तब तक ये सत्य हैं। किन्तु “जब मैं आत्मा हूँ” यह अनुभव होता है, तब यह सब व्यावहारिक सत्ता मिथ्या प्रतीत होती है। लोक जिसे पाप कहते हैं, वह दुर्बलता का फल है। इस शरीर को “मैं” जानना – यह अहंभाव – दुर्बलता का रूपान्तर है। जब “मैं आत्मा हूँ” इसी भाव पर मन स्थिर होगा, तब तुम पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म के पार पहुँच जाओगे। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, “मैं” के नाश में ही दुःख का अन्त है।
शिष्य – यह “अहं” तो मरने पर भी नहीं मरता। इसको मारना बड़ा कठिन है।
स्वामीजी – हाँ। एक प्रकार से यह कठिन भी है, परन्तु दूसरे प्रकार से बड़ा सरल भी है। “मैं” यह पदार्थ कहाँ है क्या मुझे समझा सकता है? जो स्वयं है ही नहीं उसका मरना और जीना कैसा? अहंरूप जो एक मिथ्या भाव है उसी से मनुष्य मोहित (hypnotized) है, बस। इस पिशाच से मुक्ति प्राप्त होने पर यह स्वप्न दूर हो जाता है और दीख पड़ता है कि एक आत्मा आब्रह्मस्तम्ब तक सब में विराजित है। इसी को जानना होगा, प्रत्यक्ष करना पड़ेगा। जो भी साधन-भजन हैं, वे सब इस आवरण को दूर करने के निमित्त है। इसके हटने से ही विदित होगा कि चित् सूर्य अपनी प्रभा से स्वयं चमक रहा है, क्योंकि आत्मा ही एकमात्र स्वयंज्योति – स्वयंवेद्य है, वह क्या दूसरे की सहायता से जानी जा सकती है? इसी कारण श्रुति कहती है, “विज्ञातारमरे केन विजानीयात्।” तू जो कुछ जानता है, वह मन की सहायता से, किन्तु मन तो जड़ वस्तु है। उसके पीछे शुद्ध आत्मा रहने के कारण मन का कार्य होता है। इसी कारण से मन के द्वारा उस आत्मा को कैसे जानोगे? इससे तो यह जान पड़ता है कि मन या बुद्धि कोई भी शुद्धात्मा के पास नहीं पहुँच सकती है। ज्ञान की पहुँच यहीं तक है। परन्तु आगे जब मन विकल्परहित या वृत्तिहीन होता है, तभी मन का लोप होता है और तभी आत्मा प्रत्यक्ष होती है। इस अवस्था का वर्णन भाष्यकार श्रीशंकराचार्य ने “अपरोक्षानुभूति” कहकर किया है।
शिष्य – किन्तु महाराज, मन ही तो “अहं” है। मन का यदि लोप हुआ तो “मैं” कहाँ रहा?
स्वामीजी – वह जो अवस्था है, यथार्थ में वही “अहं” का स्वरूप है। उस समय का जो “अहं” रहेगा वह सर्वभूतस्थ, सर्वगत, सर्वान्तरात्मा होता है। घटाकाश टूटकर महाकाश का प्रकाश होता हैं – घट टूटने पर क्या उसके अन्दर के आकाश का विनाश हो जाता है? इसी प्रकार यह छोटा “अहं” जिसे तू शरीर में बन्द समझता था, फैलकर सर्वगत “अहं” या आत्मरूप से प्रत्यक्ष हो जाता है। अतएव मैं कहता हूँ कि मन मरा या रहा इससे यथार्थ अहं या आत्मा का क्या। यह बात समय आने पर तुझे प्रत्यक्ष होगी “कालेनात्मनि विन्दति।” श्रवण और मनन करते करते इस बात की अनुभूति होगी और तब तू मन के अतीत चला जायगा, तब ऐसे प्रश्न करने का अवसर भी न रहेगा।
शिष्य यह सुन स्थिर होकर बैठा रहा। स्वामीजी ने फिर कहा – “इसी सहज विषय को समझाने के लिए कितने ही शास्त्र लिखे गये हैं; तिस पर भी लोग इसको नहीं समझ सकते। आपातमधुर चाँदी के चमकते रुपये और स्त्रियों के क्षणभंगुर सौन्दर्य से मोहित होकर इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को कैसे खो रहे हैं! महामाया का आश्चर्यजनक प्रभाव है! माता माहामाया रक्षा करो! माता माहामाया रक्षा करो!”