चेतना का लक्षण – विवेकानंद जी के संग में
विषय – चेतना का लक्षण – जीवन संग्राम में पटुता – मनष्यजाति की जीवनीशक्ति-परीक्षा के निमित्त भी वही नियम – स्वयं को शक्तिहीन समझनाही भारत के जड़त्व का कारण – प्रत्येक में अनन्त शक्तिस्वरूप आत्मा विद्यमान – इसीको दिखलाने और समझाने के लिए महापुरुषों का आगमन – धर्म अनुभूति का विषय – तीव्र व्याकुलता ही धर्मलाभ करने का उपाय – वर्तमानकाल में गीतोक्त कर्म की आवश्यकता – गीताकार श्रीकृष्णजी के पूजन कीआवश्यकता – देश में रजोगुण का उद्दीपन कराने का प्रयोजन।
स्थान – कलकत्ते से काशीपुर जाने का रास्ता और गोपाललाल शील का बाग।
वर्ष – १८९७ ईसवी।
आज मध्याह्न को स्वामीजी श्रीयुत गिरीशचन्द्र घोष1 के मकान पर आराम कर रहे थे। शिष्य ने वहाँ आकर स्वामीजी को प्रणाम किया और उनको गोपाललाल शील के महल को जाने के लिए प्रस्तुत पाया। गाड़ी भी उपस्थित थी। स्वामीजी ने शिष्य से कहा, “मेरे साथ तू चल।” शिष्य के सम्मत होने पर स्वामीजी उसको लेकर गाड़ी में सवार हुए और गाड़ी चल दी। चितपुर के रास्ते पर पहुँचकर गंगा दर्शन होते ही स्वामीजी अपने आपसे “गंगातरंग-रमणीय-जटाकलापम्” इत्यादि स्वर से कहने लगे। शिष्य मुग्ध होकर इस अद्भुत स्वर-लहरी को चुपचाप सुनने लगा। इस प्रकार कुछ समय व्यतीत होने पर एक रेलगाड़ी के इंजन को चितपुर-पुल की ओर जाते देख स्वामीजी ने शिष्य से कहा, “देखो कैसा सिंह की भाँति जा रहा है।” शिष्य ने कहा, “यह तो जड़ है, उसके पीछे मनुष्य की चेतना शक्ति काम करती है और इसीसे वह चलता है। इस प्रकार चलने से क्या उसका अपना बल प्रकट होता है?”
स्वामीजी – अच्छा, बतलाओ तो चेतना का लक्षण क्या है?
शिष्य – महाराज, चेतना वही है जिसमें बुद्धि की क्रिया पायी जाती है।
स्वामीजी – जो कुछ प्रकृति के विरुद्ध लड़ाई करता है वह चेतना है। उसमें ही चैतन्य का विकास है। यदि एक चींटी को मारने लगो तो देखोगे कि वह भी अपनी जीवनरक्षा के लिए एक बार लड़ाई करेगी। जहाँ चेष्टा या पुरुषकार है, जहाँ संग्राम है, वहीं जीवन का चिन्ह और चैतन्य का प्रकाश है।
शिष्य – क्या यही नियम मनुष्य और मनुष्यजाति के सम्बन्ध में भी ठीक है?
स्वामीजी – ठीक है या नहीं यह संसार का इतिहास पढ़कर देखो। यह नियम तुम्हारे अतिरिक्त सब जातियों के सम्बन्ध में ठीक है। आजकल संसार भर में केवल तुम्ही जड़ के समान पड़े हो। तुमको बिल्कुल मन्त्रमुग्ध (hypnotise) कर डाला है। बहुत प्राचीन समय से औरों ने तुमको बतलाया कि तुम हीन हो, तुममें कोई शक्ति नहीं है – और तुम भी यह सुनकर सहस्रों वर्षों से अपने को समझने लगे हो कि हम हीन हैं – निकम्मे हैं। ऐसा ध्यान करते-करते तुम वैसे ही बन गये हो। (अपना शरीर दिखलाकर) यह शरीर भी तो इसी देश की मिट्टी से बना है, परन्तु मैंने कभी ऐसी चिन्ता नहीं की। देखो इसी कारण उसकी (ईश्वर की) इच्छा से, जो हमको चिरकाल से हीन समझते हैं, उन्होंने ही मेरा देवता के समान सम्मान किया और करते हैं। यदि तुम भी सोच सको कि हमारे अन्दर अनन्त शक्ति, अपार ज्ञान, अदम्य उत्साह वर्तमान है, और अपने भीतर की शक्ति को जगा सको तो तुम भी मेरे समान हो जाओगे।
शिष्य – महाराज, ऐसा चिन्तन करने की शक्ति कहाँ से मिले? ऐसा शिक्षक या उपदेशक कहाँ मिले जो लड़कपन से ही इन बातों को सुनाता और समझता रहे। हमने तो सब से यही सुना और सीखा कि आजकल का पठनपाठन केवल नौकरी के निमित्त है।
स्वामीजी – इसीलिए दूसरे प्रकार से सिखलाने और दिखलाने को हम आये हैं। तुम इस तत्त्व को हमसे सीखो, समझो और अनुभव करो। फिर इस भाव को नगर नगर में, गाँव गाँव में पुरवे-पुरवे में फैला दो; सब के पास जा जाकर कहो, “उठो, जागो और सोओ मत; सम्पूर्ण अभाव और दुःख नष्ट करने की शक्ति तुम्हीं में है; इस बात पर विश्वास करने ही से वह शक्ति जाग उठेगी।” इस बात को सब से कहो और साथ साथ सरल भाषा में विज्ञान, दर्शन, भूगोल और इतिहास की मूल बातों को सर्वसाधारण में फैला दो। मेरा यह विचार है कि मैं अविवाहित नवयुवकों को लेकर एक शिक्षा-केन्द्र स्थापित करूँ। पहले उनको शिक्षा दूँ, तत्पश्चात् उनके द्वारा इस कार्य का प्रचार कराऊँ।
शिष्य – महाराज, इस कार्य के लिए तो बहुत धन की अपेक्षा है। और रुपया कहाँ से आयेगा?
स्वामीजी – अरे तू क्या कहता है? मनुष्य ही तो रुपया पैदा करता है। रुपये से मनुष्य पैदा होता है यह तो कभी नहीं सुना है? यदि तू अपने मन और मुख को एक कर सके तथा वचन और क्रिया को एक कर सके तो धन आप ही तेरे पास जलवत् बह आयेगा।
शिष्य – अच्छा महाराज, माना कि धन आ गया और आपने भी इस सत्कार्य का अनुष्ठान कर दिया। तब भी क्या हुआ? यदि तू अपने मन और मुख को एक कर सके तथा वचन और क्रिया को एक कर सके तो धन आप ही तेरे पास जलवत् बह आयेगा।
शिष्य – अच्छा महाराज, माना कि धन आ गया और आपने भी इस सत्कार्य का अनुष्ठान कर दिया। तब भी क्या हुआ? इसके पूर्व कितने ही महापुरुष कितने सत्कार्यों का अनुष्ठान कर गये, वे सब (सत्कार्य) अब कहाँ हैं! यह निश्चय है कि आपके भी प्रतिष्ठित कार्य की भविष्य में ऐसी ही दशा होगी। तो ऐसे उद्यम की आवश्यकता ही क्या है?
स्वामीजी – भविष्य में क्या होगा, इसी चिन्ता में जो सर्वदा रहता है उससे कोई कार्य नहीं हो सकता। इसलिए जिस बात को तू यह समझता है कि वह सत्य है उसे अभी कर डाल; भविष्य में क्या होगा, क्या नहीं होगा इसकी चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है? तनिकसा तो जीवन है; यदि इसमें भी किसी कार्य के लाभालाभ का विचार करते रहें तो क्या उस कार्य का होना सम्भव है? फलाफल देनेवाले तो एकमात्र वे ईश्वर हैं। जैसा उचित होगा वैसा ही वे करेंगे। इस विषय में पड़ने से तेरा क्या प्रयोजन है? तू उस विषय की चिन्ता न कर और अपना काम किये जा।
बातें करते करते गाड़ी कोठी पर जा पहुँची। कलकत्ते से बहुतसे लोग स्वामीजी के दर्शन के लिए वहाँ आये थे। स्वामीजी गाड़ी से उतरकर कमरे में जा बैठे और सब से बातचीत करने लगे। स्वामीजी के अंग्रेज शिष्य गुडविन साहब मूर्तिमान सेवा की भाँति पास ही खड़े थे। इनके साथ शिष्य का परिचय पहले ही हो चुका था, इसीलिए शिष्य भी उनके पास ही बैठ गया और दोनों मिलकर स्वामीजी के विषय में नाना प्रकार का वार्तालाप करने लगे।
सन्ध्या होने पर स्वामीजी ने शिष्य को बुलाकर पूछा, “क्या तूने कठोपनिषद् कण्ठस्थ कर लिया है?”
शिष्य – नहीं महाराज, मैंने शांकरभाष्य के सहित उसका पाठ मात्र किया है।
स्वामीजी – उपनिषदों में ऐसा सुन्दर ग्रन्थ और कोई नहीं है। मैं चाहता हूँ कि तू इसे कण्ठस्थ कर ले। नचिकेता के समान श्रद्धा, साहस, विचार और वैराग्य अपने जीवन में लाने की चेष्टा कर, केवल पढ़ने मात्र से क्या होगा?
शिष्य – ऐसी कृपा कीजिये कि दास को भी उस सब का अनुभव हो जाय।
स्वामीजी – तुमने तो श्रीरामकृष्ण का कथन सुना है? वे कहा करते थे कि “कृपारूपी वायु सर्वदा बहती रहती है, तू पाल उठा क्यों नहीं देता?” रे बच्चा, क्या कोई किसी को कुछ कर दे सकता है? गुरु तो केवल यही बता देते हैं कि अपना कर्म अपने ही हाथ में है। बीज ही की शक्ति से वृक्ष होता है। जल, वायु तो उसके सहायक मात्र होते हैं।
शिष्य – तो देखिये महाराज, बाहर की सहायता भी आवश्यक है?
स्वामीजी – हाँ, है। परन्तु बात यह है कि भीतर पदार्थ न रहने से सैकड़ों प्रकार की सहायता से भी कुछ फल नहीं होता। और आत्मानुभूति के लिए एक अवसर सभी को मिलता है, क्योंकि सभी ब्रह्म हैं। ऊँच नीच का भेद ब्रह्मविकास के तारतम्य मात्र से होता है। समय आने पर सभी का पूर्ण विकास होता है। इसीलिए शास्त्र में कहा है “कालेनात्मनि विन्दति।”
शिष्य – महाराज, ऐसा कब होगा? शास्त्र से जान पडता है कि हमने बहुत जन्म अज्ञान में बिताये हैं।
स्वामीजी – डर क्या है? अब जब तू यहाँ आ गया है तब इसी जन्म में तेरी इच्छा पूरी हो जायगी। मुक्ति, समाधि ये सब ब्रह्मप्रकाश के पथ पर के प्रतिबन्ध को केवल दूर करने के लिये होते हैं, क्योंकि आत्मा सूर्य के समान सर्वदा ही चमकती है। केवल अज्ञानरूपी बादल ने उसे ढक लिया है। यह भी हट जायगा और सूर्य का प्रकाश होगा। तभी “भिद्यते हृदयग्रन्थिः’ ऐसी अवस्था होगी। जितने पथ देखते हो वे सब इस प्रतिबन्धरूपी बादल को दूर करने का उपदेश देते हैं। जिसने जिस भाव से आत्मानुभव किया है वह उसी भाव से उपदेश कर गया है, परन्तु सब का उद्देश्य है आत्मज्ञान – आत्मदर्शन। इसमें सब जातियों को, सब प्राणियों को समान अधिकार है। यही सर्ववादि-सम्मत मत है।
शिष्य – महाराज, शास्त्र के इस वचन को जब मैं पढता हूँ या सुनता हूँ तब आत्मवस्तु अभी तक प्रत्यक्ष न होने के कारण मन बहुत ही चंचल हो जाता है।
स्वामीजी – इसीको ‘व्याकुलता’ कहते हैं। यह जितनी बढ़ेगी प्रतिबन्धरूपी बादल उतना ही नष्ट होगा, उतना ही श्रद्धाजनित समाधान प्राप्त होगा। शनैः शनैः आत्मा ‘करतलामलकवत्’ प्रत्यक्ष होगी। अनुभूति ही धर्म का प्राण है। कुछ कुछ आचार तथा नियम सब मान सकते हैं। कुछ विधि और नियम पालन भी सब कर सकते हैं, परन्तु अनुभूति के लिए कितने लोग व्याकुल होते हैं? व्याकुलता, ईश्वरलाभ या आत्मज्ञान के निमित्त उन्मत्त होना ही यथार्थ धर्मप्रवणता है। भगवान् श्रीकृष्ण के लिए गोपियों की जैसी उद्दाम उन्मत्तता थी, वैसी ही आत्मदर्शन के लिये होनी चाहिये। गोपियों के मन में भी स्त्री-पुरुष का भेद कुछ कुछ था, परन्तु ठीक ठीक आत्मज्ञान में लिंगभेद किंचित् नहीं रहता।” बात करते हुए स्वामीजी ने जयदेव लिखित ‘गीत-गोविन्द’ के विषय में कहा, “श्री जयदेव संस्कृत भाषा के अन्तिम कवि थे। उन्होंने कई स्थानों में भाव की अपेक्षा श्रुति-मधुर पदविन्यास पर अधिक ध्यान दिया है। देखो, गीत-गेविन्द के ‘पतति पतत्रे’* इत्यादि श्लोकों में कवि ने अनुराग तथा व्याकुलता की पराकाष्ठा दिखलायी है।” आत्मदर्शन के लिए वैसा ही अनुराग होना चाहिए।
फिर वृन्दावन-लीला को छोड़कर यह भी देखो कि कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण कैसे हृदयग्राही हैं – ऐसे भयानक युद्ध-कोलाहल में भी श्रीकृष्णभगवान कैसे स्थिर, गम्भीर तथा शान्त हैं। युद्धक्षेत्र में ही अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे हैं। क्षत्रिय का स्वधर्म जो युद्ध है उसी में उनको उत्साहित कर रहे हैं।
इस भयंकर युद्ध के प्रवर्तक होकर भी कैसे कर्महीन रहे, अस्त्रधारण नहीं किया। जिधर से देखोगे श्रीकृष्णचरित्र को सर्वांगसम्पूर्ण पाओगे। ज्ञान, कर्म, भक्ति, योग इन सब के वे मानो प्रत्यक्ष स्वरूप ही हैं। श्रीकृष्ण के इसी भाव की आजकल विशेष आलोचना होनी चाहिए। अब वृन्दावन के बंशीधारी कृष्ण के ध्यान करने से कुछ नहीं बनेगा, इससे जीव का उद्धार नहीं होगा। अब प्रयोजन है गीता के सिंहनादकारी श्रीकृष्ण की, धनुषधारी श्रीरामचन्द्रजी की, महावीरजी की, कालीमाई की पूजा की। इसीसे लोग महा उद्यम से कर्म में लगेंगे और शक्तिशाली बनेंगे। मैंने बहुत अच्छी तरह विचार करके देखा है कि वर्तमान काल में जो धर्म की रट लगा रहे हैं, उनमें से बहुत लोग पाशवी दुर्बलता से भरे हुए हैं या विकृतमस्तिष्क अथवा उन्मादग्रस्त हैं। बिना रजोगुण के तेरा अब इहलोक भी नहीं – परलोक भी नहीं। घोर तमोगुण से देश भर गया है। फल भी उसका वही हो रहा है – इस जीवन में दासत्व और पर जीवन में नरक।
शिष्य – पाश्चात्यों में जो रजोभाव है उसे देखकर क्या आपको आशा है कि वे भी सात्त्विक बनेंगे?
स्वामीजी – निश्चय बनेंगे, निःसन्देह बनेंगे। महारजोगुण का आश्रय लेनेवाले वे अब भोगावस्था की चरण सीमा में पहुँच गये हैं। उनको योग प्राप्त नहीं होगा तो क्या तुम्हारे समान भूखे, उदर के निमित्त मारे मारे फिरनेवालों को होगा? उनके उत्कृष्ट भोगों को देख ‘मेघदूत’ के ‘विद्युद्वन्तं ललितवसनाः’ इत्यादि चित्र का स्मरण होता है। तुम्हारे भोग में क्या है? केवल गन्दे मकान में रहना, फटे पुराने चिथड़ों पर सोना और प्रतिवर्ष शूकर के समान अपना वंश बढ़ाना – भूखे, भिखमंगे तथा दासों को जन्म देना! इसी कारण मैं कहता हूँ कि अब मनुष्यों में रजोगुण उद्दीपन कराके उनको कर्मशील करना पड़ेगा। कर्म-कर्म-कर्म, अब ‘नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय’। इसको छोड़ उद्धार का अन्य कोई भी पथ नहीं है।
शिष्य – महाराज, क्या हमारे पूर्वज भी कभी रजोगुणसम्पन्न थे?
स्वामीजी – क्यों नहीं? इतिहास तो बतलाता है कि उन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की और वहाँ उपनिवेश भी स्थापित किये। तिब्बत, चीन, सुमात्रा, जापान तक धर्मप्रचारकों को भेजा था। बिना रजोगुण का आश्रय लिये उन्नति का कोई भी उपाय नहीं है।
कथाप्रसंग में रात्रि बढ़ गयी। इतने में कु. मूलर आ पहुँचीं। यह एक अंग्रेज महिला थीं। स्वामीजी पर विशेष श्रद्धा रखती थीं। कुछ बातचीत करके कुमारी मूलर ऊपर चली गयीं।
स्वामीजी – देखता है यह कैसी वीर जाति की है? बड़े धनवान की लड़की है, तब भी धर्मलाभ के लिए सब कुछ छोड़कर कहाँ आ पहुँची हैं!
शिष्य – हाँ महाराज, परन्तु आपका क्रियाकलाप और भी अद्भुत है। कितने ही अंग्रेज पुरुष और महिलाएँ आपकी सेवा के लिए सर्वदा उद्यत हैं। आजकल यह बड़ी आश्चर्यजनक बात प्रतीत होती है।
स्वामीजी – (अपने शरीर की ओर संकेत करके) यदि शरीर रहा तो कितने ही और आश्चर्य देखोगे। कुछ उत्साही और अनुरागी युवक मिलने से मैं देश को उलट-पलट कर दूँगा। मद्रास में ऐसे थोड़े युवक हैं, परन्तु बंगाल देश से मुझे विशेष आशा है। ऐसे स्वच्छ मस्तिष्कवाले और कहीं नहीं पैदा होते; किन्तु इनके शरीर में शक्ति नहीं है। मस्तिष्क और मांसपेशियों का बल साथ ही बढ़ना चाहिए। बलवान् शरीर के साथ तीव्र बुद्धि हो तो सारा जगत् पदावनत हो सकता है।
इतने में समाचार मिला कि स्वामीजी का भोजन तैयार है। स्वामीजी ने शिष्य से कहा, “मेरा भोजन देखने चल।” जब स्वामीजी भोजन पा रहे थे तब वे कहने लगे, “बहुत चर्बी और तेल से पका हुआ भोजन अच्छा नहीं होता है। पूरी से रोटी अच्छी होती है। पूरी रोगियों का खाना है। नया शाक अधिक प्रमाण में खाना चाहिए। मिठाई कम खानी चाहिए।” इन बातों को कहते कहते शिष्य से पूछा, “अरे, कई रोटियाँ मैंने खा लीं! क्या और भी खाना चाहिए?” कितनी रोटी खायीं यह स्मरण नहीं रहा, और यह भी अनुमान नहीं हो सका कि भूख है या नहीं। बातों में शरीर-ज्ञान ऐसा जाता रहा।
और कुछ पाकर स्वामीजी ने अपना भोजन समाप्त किया। शिष्य भी आज्ञा पाकर कलकत्ते को लौटा। गाड़ी न मिलने से पैदल ही चला। चलते चलते विचार करने लगा कि न जाने कल कब तक स्वामीजी के दर्शन पाऊँगा।
- बंगाल के एक सुविख्यात नाटककार तथा नट एवं श्रीरामकृष्ण के एक परम भक्त।