कन्हैया की बाँसुरी
कन्हैया की बाँसुरी पर पूरा ब्रज थिरक उठता था। पढ़ें कृष्ण की उसी बांसुरी को समर्पित स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया “नवल” की ब्रज भाषा में लिखी यह कविता–
कोऊ कहै जमुना तट बाजति, कोऊ कहै कुअटा पै बजी है।
कोऊ कहै वनबीच बजी अरु नंद अटा कहै कोऊ बजी है।
कोऊ करील की कुंजनि में कहै गाँव गली कहै कोऊ बजी है।
यों कहि बोली लली वृषभानु की, प्राननि में दिन-रैन बजी है।
कासौं कहों मन की हों ब्यथा, जिय बाँसुरी हू मेरे बैर परी है।
कान्ह कों राखि के काँख में आपनी ताननि सों उर आगि धरी है।
जारति औरनि कों न जरै जिय देखी हों खूब अजौं जि हरी है।
औगुन सात की कौन कहै, सत औगुन सौति भरी बँसुरी है।
जा दिन तें मुरलीधर की मुरली-धुनि कान में आइ परी है।
ता दिन तें अँखियान की नींद गई नहिं आवत एक घरी है।
ऐसी बजाई कन्हाई ने बाँसुरी, पाँसुरी फोरि के गैल करी है।
बाबरी नारिं भईं ब्रज की नर बौरे भए सुनि के बँसुरी है।
सासु की बात कठोरहु कौं अति कोमल जानि बुरौ नहिं मानती।
बात दौरानी जिठानि हुँ की सुनि, हौ हिरदे में न और हू आनती।
नंद की व्यंग भरी बतियाँ सुनिकें छतियाँ नहिं रोष हों ठानती।
काहे को छाँड़ती जा ब्रज कों जो पै बैरिनि बाँसुरी नैकहु मानती।
कौन सो औक कहाँ विधि ने रच्यौ बाँसु, बनाई कन्हाई की बाँसरी।
बाँसुरी बाजत बाबरी होति न चैतु परे नहिं भावत हासु री।
हासुरी भूलि गई सुनि तान कों दौरि चलीं घर छाँड़ि के सासरी।
सासुरी बेगि कटाबहु बाँस, कहूँ बनि जाइ न दूसरी बाँसुरी।
एक ही बाँसुरी बारहबाह कियौ भईं बाबरी चैनु परै ना।
केतिक हू समुझाइ थकी हम लाख कह्यौ मन धीर धरै ना।
डारति है कछू टौना सौ बाँसुरी, हाथ हू पाँव हू काम करै ना।
ऐसौ भयौ है बिहाल हमारौ जियें न जियें न मरें न मरें ना।
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।
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कृष्ण की बाँसुरी पर इस से बेहतर कोई कविता नही हो सकती। भाषा का माधुर्य देखते ही बनता है।
संजीव जी, हिंदीपथ पर ब्रज भाषा का साहित्य पढ़ने और सराहने के लिए धन्यवाद। ऐसे ही पढ़ते रहें और हमारा मार्गदर्शन करते रहें।
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